“आइये, हम सब स्वदेश और स्वधर्म की रक्षा के लिए अपना
सर्वस्व बाजी पर लगा दें। हमें राजपूत रमरिणयों के दूध की परीक्षा देनी है। भगवान एकलिंग का आशीर्वाद हमारे साथ है।” महाराणा कुम्भा नेगुजरात व मालवे के सामूहिक आक्रमण का मुकाबला करने के लिये भेवाड़ के वीरों इन शब्दों से प्रोत्साहित किया था।
महाराणा कुम्भा की गणना मेवाड़ के महान शासकों में की जाती है। उन्होंने केवल मेवाड़ को सुरक्षित और सुदृढ़ ही नहीं किया, वरन् बहुत से प्रदेश भी उसमें मिलाये। स्थान स्थान पर किले बनवाये और मेवाड़ को अजेय बना दिया। उन्होंने अपने जीवन में 32 किले बनवाये और कई तालाबों और भवनों का निर्माण भी करवाया। पुराने किलों का जीर्णोद्वार भी उन्होंने करवाया। आबू पर्वत पर बना हुआ कुम्भलगढ़ का किला तो इतिहास में प्रसिद्ध है। कुम्भलगढ़ और कीर्तिस्तम्भ महाराणा कुम्भा की कीर्ति के अमिट स्मारक हैं।
महाराणा कुम्भा की वीरता और साहस की कहानी
मोकलजी के ज्येष्ठ पुत्र राणा कुम्भा के समय दिल्ली का शासन डांवाडोल स्थिति में था। कभी कोई शासक होता, कभी कोई।
खिलजी वंश अपनी अन्तिम सांसें भर रहा था। भिन्न भिन्न स्थानों
पर स्वतन्त्र उम्मीदवार सरदार अपनी स्वतन्त्रता में लगे हुये थे।
बीजापुर, गोलकुण्डा, मालवा, गुजरात, कालपी, जौनपुर इसी प्रकार के नये राज्य थे। इन स्थानों के सूबेदार ही वहां के राजा बन बैठे। इन नव-निर्मित राज्यों में नागौर, मालवा और गुजरात सबसे ज्यादा शक्तिशाली थे। मालवा और गुजरात की आंख मेवाड़ पर लगी हुई थी। वे उसे अपने राज्य में मिलाने के स्वप्न देख रहे थे।
महाराणा की बढ़ती हुई शक्ति से इस्लाम खतरे में है। महाराणा ने नागौर के सुल्तान शम्सखां को पराजित करके वहां अधिकार कर लिया है। वे मुसलमानों और उनके राज्यों को समाप्त कर देना चाहते हैं। इस प्रकार मालवा और गुजरात के मुसलमान शासकों ने सम्मिलित रूप से महाराणा कुम्भा के विरूद्ध प्रचार करना प्रारंभ कर दिया। उनके इस प्रचार से ओर भी छोटे छोटे राजा और सरदार उनके साथ हो गए। दोनों सुल्तानो यह तय किया कि महाराणा कुम्भा को पराजित करके मेवाड़ को आपस में आधा आधा बांट लिया जाएं।
महाराणा कुम्भा को यह खबर मिली तो वे भी इस तूफान का सामना करने की तैयारियां करने लगे। इस बार मेवाड़ के जीवन मरण का प्रश्न सम्मुख था। मेवाड़ के आसपास के राजाओं और जागीरदारों को युद्ध का निमंत्रण दिया गया। सभी ने सहर्ष इस निमंत्रण को स्वीकार किया, और वे सभी दलबल सहित चित्तौड़ की ओर कूच करने लगे। चित्तौड़ के आसपास दूर दूर तक सैनिक ही सैनिक नजर आने लगे। सारा वातावरण लड़ाई के उत्साह से भर गया। सभी आमंत्रित राजाओं और जागीरदारों को एकत्रित कर सारी स्थिति को स्पष्ट रूप से महाराणा कुम्भा ने समझाई। सब लोगों ने एक स्वर से कहा कि यवनो ने जबरदस्ती अपनी शक्ति में अंधे हो कर मेवाड़ पर आक्रमण करने की योजना बनाई है। अतः हमारा कर्तव्य डटकर उनसे मुकाबला करना है। हम उनसे जीजान से लड़ेंगे और बता देंगे कि मेवाडियों के विरुद्ध टक्कर लेने के कितने भीषण परिणाम होते हैं। सभी लोगों ने निश्चय अनुसार आक्रमण से पूर्व ही सेना को आगे बढ़ा दिया गया।

राजपूत वीरों में नवीन उत्साह की लहर दौड़ाने के लिए, उनकी बाहों में प्रबल रक्त का संचार करने के लिए महाराणा कुम्भा ने सबको संबोधित करते हुए कहा “मेवाड़ के वीर नौजवानों ! यवनों ने आज मेवाड़ की पावन भूमि को चुनौती दी हैं। आज परीक्षा का समय है, मां की पुकार है। लेकिन हमारे हाथों में कांच की चूडियां नहीं हैं। हम उनसे डटकर लोहा लेंगे। मेवाड़ के वीरों ने परम्परा से मातृभूमि के लिये बड़ा से बड़ा बलिदान किया है। उनका प्राचीन इतिहास वीरता और बलिदान का गौरवमय इतिहास हैं। इस परम्परा को हमें पूर्ण रूप से सुरक्षित व गौरवमय बनाये रखना है। मुझे आपकी वीरता और बलिदान पर अटूट विश्वास है। हम निश्चित रूप से शत्रु के दांत खट्टे करेंगे।” जय एकलिंगी के भीषण घोष के साथ सभा विसर्जित हुई।
महाराणा कुम्भा के इन जोशीले शब्दों ने सेना में आग पैदा कर दी। महाराणा का जयघोष हुआ और वह विशाल-वीर-वाहिनी तूफान की भांति आगे बढ़ी। इस सेना में डेढ़ हजार हाथी और एक लाख से अधिक पैदल एवं सवार थे। समरभूमि में शत्रु से दो, दो हाथ करने के लिये वो उत्सुक थे। उनकी व्याकुल आंखें अपने शत्रु को तलाश कर रही थीं और भुजायें फड़क रही थीं, यवनों को यमलोकपुरी पहुंचाने के लिये तड़फ रही थीं। सेना ने मेवाड़ की सीमा पार की और मालवे की सीमा पर पैर रखा। अब जमीन ढालू थी। ढालू जमीन को भी पार किया गया। इसके बाद विस्तृत मैदान सामने था। मैदान में दूर दूर तक घनी झाड़ियां थीं। झाड़ियां भी इतनी सघन थी कि इनमें छिपे व्यक्तियों को देखना तक कठिन था। ये झाड़ियां, घाटियां और विस्तृत मैदान मेवाड़ के लिये वरदान स्वरूप सिद्ध हुआ। महाराणा ने अपनी सेना को तीन भागों में विभकत किया। प्रथम भाग को झाड़ियों में छिपकर सावधानी के साथ आक्रमण करने का आदेश दिया गया। द्वितीय भाग को पहाड़ों की घाटियों में जो कि बहुत संकुचित थी, मोर्चाबन्दी का आदेश दिया। तृतीय भाग को मैदान में डटकर शत्रु सेना का सामना करने का आदेश दिया गया।
राजा ने निर्देश दिया जैसे ही मैं रणभेरी बजाऊं लड़ाई प्रारंभ कर दी जाएं। आकाश में धूल उड़ती हुई दिखाई देने लगी। मुसलमानों की विशाल सेना बढ़ती हुई आ रही थी। यवन सेना की प्रथम पंक्ति लिखाई देने लगी। घाटी को पार करके वह मैदान में आ रही थी। सेनापति ने अपनी सेना को मैदान में फैलाकर और सारी सेना को व्यूह में खड़ा कर दिया। यवन सेना लड़ाई के लिए तैयार हो गई। इधर राजपूत वीर भी महाराज के आदेश की प्रतीक्षा कर रहे थे।
महाराणा कुम्भा ने रणभेरी बजाई और अपने सैनिकों के साथ यवन सैनिकों पर टूट पड़े। राजपूत वीरों ने जय एकलिंग जी के भीषण उच्च घोष के साथ भूखे सिंह की भांति दुश्मनों पर टूट पड़े। यवन सेना ने भी अल्लाह हु अकबर का नारा लगाया और राजपूतों से लोहा लेने को तैयार हो गए। घमासान युद्ध प्रारम्भ हो गया। चारों ओर मारो काटो की आवाज आने लगी और लाशों के ढेर लगने लगें। लेकिन जब चारों ओर झाड़ियों से गोलियां मैदान में स्थित यवन सेना पर बरसने लगी तो दुश्मनों के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। उनके हौसले पस्त होने लगे, वे घबराने लगे। मालवा और गुजरात के शासकों ने अपनी सेना को हर प्रकार से प्रोत्साहित किया और स्वयं भी युद्ध में कूद पड़े। यवन सेना में जोश की लहर दौड़ पड़ी लेकिन क्षणिक ही रही। झाड़ियों से आने वाली गोलियों ने यवनो का काम तमाम कर दिया। उनकी शक्ति प्रतिक्षण कम होने लगी। युद्ध में महाराणा कुम्भा ने भी काफी भयंकर मारकाट मचाई रखी थी। महाराणा कुम्भा ने लपककर मालवा के सुल्तान पर आक्रमण किया, बेचारा घबरा उठा। धीरे धीरे यवनो की स्थिति बिगड़ती गई। अंत में गुजरात का सुल्तान युद्ध स्थल से भाग उठा। सुल्तान के भागने से यवन सेना में खलबली मच गई, वे भी भागने लगी। परन्तु महाराष्ट्र कुम्भा की सेना का तीसरा भाग घाटियों में था। और वही से यवनो के भागने का रास्ता था। भागने वालों को वीर, राजपूतों ने घेरा, कईयों को मौत के घाट उतार दिया गया। बहुत से मुसलमानों ने हथियार रख दिए और जान बचाने के लिये राजपूतों की दासता स्वीकार करली । बेचारे मालवे के सुलतान ने अपनी सेना को संगठित करने का खूब प्रयत्न किया लेकिन असफल रहा। महाराणा कुम्भा की भी बहुत क्षति हुई लेकिन जयमाला उनके ही गले में पड़ी। इस प्रकार मालवा और गुजरात की सम्मिलित सेना बुरी तरह से हार गई और मुसलमानों के सपने हमेशा के लिये चकनाचूर हो गये।
विजयोल्लास में आनन्दित राजपूत वीर अपने घर लौटे। बड़ी
धूमधाम के साथ सेना ने चित्तौड़ में प्रवेश किया। जनता ने बड़े
उत्साह से विजेताओं का स्वागत किया। राजपूत रमणियों ने वीरों
पर पुष्प वर्षा की और रात को दिवाली मनाई गई। महाराणा कुम्भा की इस विजय ने उन्हें भारतवर्ष के अत्यन्त शक्तिशाली राजाओं की श्रेणी में ला दिया।
महाराणा कुम्भा केवल सेना संचालन और शासन में ही चतुर नहीं थे, वे ललित कलाओं के प्रेमी भी थे। वे योद्धा तो थे ही, काव्य प्रेमी भी थे। साहित्य और संगीत के जबरदस्त ज्ञाता और विद्वान थे। वे कवि थे, नाटककार थे और संगीताचार्य भी थे। आपने उक्त विषयों से सम्बन्धित अनेक ग्रन्थों की भी रचना की है। वे वेद, शास्त्र, उपनिषद स्मृति मीमांसा, राजनीति, व्याकरण, गणित और तर्क शास्त्र के प्रसिद्ध ज्ञाता और विद्वान थे। स्वयं विद्वान होने के कारण विद्वानों का आदर भी करते थे। राजसभा में भी अनेक विद्वानों और गुणी लोगों को आश्रय दिया गया था।
इस प्रकार महाराणा कुम्भा एक अद्वितीय व्यक्ति थे। वे सैनिक
साधक साहित्यिक और एक सफल शासक थे। उनके समय में मेवाड़ की सबसे अधिक प्रगति हुई। उन्होंने अपनी वीरता से दुश्मनों को बार- बार बुरी तरह पराजित किया, उनकी शक्ति को बिल्कुल क्षीण कर दिया। एक सफल शासक के रूप में अपनी सेना को पूर्ण रूप से संगठित व सशक्त बनायें रखा। सभी आस पड़ोस के राजा, जागीरदार व अन्य सरदार उनके न्यायपूर्ण व्यवहार से प्रसन्न थे तथा महाराणा के प्रत्येक आदेश का तत्परता के साथ पालन करते थे। अपनी कलाप्रियता व विद्वता से विद्वानों व कलाकारों का स्वागत किया और सुन्दर शासन व्यवस्था से प्रजा को सुखी ओर सम्पन्न बनाया। हमारा सौभाग्य है कि राजस्थान में ऐसी सर्वंगुण-सम्पन्न आत्मा का पदार्पण हुआ, जिन्होंने अपने पराक्रम और विवेक से दुश्मनों को अच्छा सबक सिखाया तथा भारत में चित्तौड़ को प्रतिष्ठापूर्ण स्थान दिलाया। जहां के बच्चे और जवान दुश्मन की आवाज सुनते ही उसका मुकाबला करने के लिए सधे रहते थे।
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