जिस प्रकार मातृभूमि के सपूत स्वतन्त्रता के महान पुजारी आजादी के दीवाने महाराणा प्रताप ने जीवन पर्यन्त अकबर बादशाह से लोहा लिया और मेवाड़ को स्वतन्त्र कराने दृढ़ प्रतिज्ञा की उसी प्रकार अपने पिता की भांति दृढ़ प्रतिज्ञ महाराणा अमरसिंह ने जहांगीर से डटकर मुकाबला किया। ऐसी राजपूत वीरों की कहानियां जब पढ़ने या सुनने को मिलती है तो बलिदान, त्याग और वीरता से हम रोमांचित हो उठते हैं तथा स्वतः ही श्रृद्धावश उन वीरों के प्रति सिर झूक जाता है, उसी घड़ी हम धन्य हो उठते हैं।
अकवर बादशाह ने अपनी कूटनीति व चातुर्य से बड़े बड़े राजाओं को अपने अधीन व निस्तेज कर दिया था और चारों ओर अपना प्रभुत्व जमा लिया था। यद्यपि अपनी स्वतन्त्रता को कायम रखने के लिए डटकर विपत्तियों का मुकाबला करने के लिये महाराणा प्रताप को कांटों पर चलना पड़ा, परन्तु यवन बादशाह के सामने कभी नतमस्तक नहीं हुये। पिता की भांति वीर पुत्र महाराणा अमरसिंह ने भीदिल्ली सम्राट जहांगीर से हमेशा टक्कर ली। वे अपने पिता की अन्तिम इच्छा पूरी करना चाहते थे। उधर जहांगीर भी अमरसिंह का गौरव नष्ट करने पर तुला था।
महाराणा अमरसिंह की वीरता और साहस की कहानी
महाराणा अमरसिंह बचपन से ही विपत्तियों में पले थे। आंधियों ने ही लोरियां सुनाई थीं। और जंगल के बीहड़ पथ ही उनके सोने के लिये सेज बनी थी। इन्हीं कठिनाइयों ने इनके जीवन को सशक्त और परम वीर बना दिया था। इनकी माता के त्यागपूर्ण संस्कार व पिताजी का पावन रक्त इनकी नस-नस में व्याप्त था।
दिल्ली सम्राट जहांगीर ने कई बार महाराणा अमरसिंह को कुचलने के लिये, अपने अधीन करने के लिये विशाल सेनायें आक्रमण करने हेतु भेजी किन्तु स्वाधीनता के अनुयायी, वीर राजपूतों के सामने हर बार बुरी तरह मुंह की खानी पड़ी। अन्त में एक बार जहांगीर ने भारी सेना के साथ महाराणा अमरसिंह पर हमला कर दिया। जब इस आक्रमण का पता मेवाड़ नरेश को चला तो उन्होंने पूरी तैयारी के साथ मुसलनानों से मोर्चा लेनें के लिये एक सशक्त सेना का संगठन किया। चारों ओर सीमान्त प्रान्तों पर सेना को व्यवस्थित रूप से जमा दिया।

महाराणा अमरसिंह में बड़ा जोश था उनमें अपने पिता के कष्टों का बदला लेनें की बड़ी उमंग थी। वे युद्ध की तैयारी के सम्बन्ध में, यवनों के दांत खट्टे करने के लिये बडी बड़ी योजनायें बना रहे थे। उस समय इनकी सेना में दो सशक्त वीरों के दल थे। प्रथम चंद्रावत और द्वितीय शक्तावत। दोनों ही वीर दलों में बड़ा जोश और उमंग थी। दोनों दलों में हिरावल का पद प्राप्त करने के लिये विवाद पैदा हो गया। हिरावल” का अभिप्राय हैं कि युद्ध में सबसे आगे रहने वाली सेना तथा सबसे पहले शत्रु पर आक्रमण करने वाले वीर। दोनों दलों में से प्रत्येक यह चाहता था कि प्रथम आक्रमण करने का अवसर उसे मिले। दोनों ही दल के सरदार राणा के पास आये और घटना का वर्णन करने लगे।
“मेवाड़ रक्षक ! आपसे छिपा हुआ नहीं कि हमारे पूर्वज कितने
बलशाली थे और वीरवर चंड की देश सेवाओं से प्रत्येक राजस्थानी पूर्ण रूप से परिचित है। हम उन्हीं के वंशज (चन्द्रावत) अपनी गौरवमय परम्परा के आधार पर “हिरावल” का पद प्राप्त करना चाहते हैं। मेवाड़ भूमि की तन, मन, धन से रक्षा करना भी हमारा कर्तव्य है। किन्तु शक्तावत सरदार श्रीमान के सेवा में बहुत थोड़े समय से है किस प्रकार उक्त पद प्राप्त करने की इच्छा रखते हैं ? चन्द्रावत सरदार ने महाराणा से कहा। राजपुतों में कितना जोश उमंग व देशभक्ति कूट कूट कर भरी थी ! उनमें मातृभूमि के लिए बलिदान होने की कितनी मधुर स्पर्धा थी।
प्रत्यत्तर में शक्तावत सरदार कहने लगे, “मेवाड़. नरेश ! चंद्रावत सरदार ने जो कुछ कहा है प्राचीन परम्परा की बात है। प्राचीन समय में चन्द्रावत सरदार अधिक शक्तिशाली थे अत: इस पद के अधिकारी भी थे। किन्तु अब आप भी जानते हैं कि इस युद्ध में शक्ति किसकी प्रबल है ? अत: “हिरावल” के सच्चे अधिकारी शक्तिशाली हैं न कि परम्परा के पुजारी।
महाराणा दोनों की वीरता व स्पर्धा ने हृदय में बहुत प्रसन्न थे परन्तु अनावश्यक विवाद होने की स्थिति में वो धर्म संकट में भी थे। इस गृह कलह से बचने के लिए तथा यवनों पर भीषण आक्रमण करने के लिए आदेश दिया–
“आप लोग मुगलों के अंतला दुर्ग पर आक्रमण कर दीजिए ओर दोनों सरदारों में जो पहिले दुर्ग पर अपना विंजय का झंडा फहरा देगा वही इस “हिरावल’ का रक्षक समझा जायेगा। इस बात पर दोनों ने अपनी अपनी स्वीकृति दे दी। अंतला दुर्ग मगल सेना की सीमा का एक बड़ा प्रभावशाली व पूर्ण सुरक्षित सैन्य दुर्ग था। दोनों सरदारों की सेंनाओं ने एक साथ अन्तला दुर्ग पर भीषण आक्रमण किया। शक्तावत सरदार व चन्द्रवत सरदार ने अपने अपने यद्ध कौशल के तरीके अपनाये तथा यवन सेना पर भीषण प्रहार करना शुरू किया।
महाराणा अमरसिंह स्वयं घूम घूम कर युद्ध व्यवस्था का निरीक्षण
कर रहे थे तथा राजपूत वीरों को प्रोत्साहित भी कर रहे थे। शक्तावत सरदार ने सकड़ों यवन सैनिकों को, जो दुर्ग की रक्षा पर तेनात थे, यमलोकपुरी पहुंचा दिया। इसके साथ ही साथ किले के अन्दर प्रवेश पाने के लिए अपने भीमकाय हाथी को विशाल फाटक पर ठेल दिया किन्तु किवाड़ पर लगे हुए शूलों से चोट खाकर वापिस लौट आया।
इधर चन्दावत सरदार सीढ़ी द्वारा दुर्ग पर चढ़ने लगा ताकि विजय प्राप्त कर किले पर विजय पताका फहरा सके। परन्तु इसी क्षण दुश्मन की तोप के गोले ने सरदार को नीचे गिरा दिया और आशाओं पर पानी फेर दिया। दूसरे क्षण वे ही उत्साही वीर फिर सीढ़ी की ओर अग्रसर हुये और शीघ्रता से किले पर चढ़ने लगे। चन्दावत सरदार की मृत्यु से शक्तावत सरदारों का साहस अधिक बढ़ गया और उन्होंने किले के फाटक को तोड़ने का प्रयास जारी रखा। हाथी के बार बार फाटक से व्यथित होकर लौटने से शक्तावत सरदार चिन्तित थे। अन्त में शक्तावत सरदार को एक उपाय सूुझा, वह स्वयं किले की फाटक पर चढ़ गया और महावत को हाथी अपने ऊपर ठेलने की आज्ञा दी। हाथी की जोरदार टक्कर से शक्तावत सरदार के टुकड़े टुकड़े हो गये और साथ ही फाटक भी टूट कर गिर पड़ा। शक्तावत सरदार मारे खुशी के किले पर चढ़कर विजय पताका फहराने हेतु शीघ्रता से बढ़ने लगे,परन्तु आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब कि उन्होंने इसके पूर्व ही चन्द्रावत सरदार की पताका फहरती हुई देखी।
बादशाह जहांगीर राजपूतों के स्पर्धायुक्त युद्ध कौशल को देखकर दंग रह गया। उसके सारे स्वप्नों पर पानी फिरने-सा लगा। राजपूतों की वीरता ने सम्राट के हृदय पर एक अमिट छाप छोड़ दी। इस वीरता पूर्ण कार्य से प्रसन्न होकर महाराणा अमरसिंह ने दोनों सरदारों की सेनाओं को बधाई दी तथा चन्द्रावत सरदार को सेना में “हिरावल” का स्थान देकर सम्मानित किया।
महाराणा अमरसिंह ने अपने वीरतापूर्ण कार्यो से अपने पूज्य पिता का सफलता के साथ प्रतिनिधित्व किया। उदारता, वीरता, दया तथा न्यायपरायणता आदि महान गुण महाराणा अमरसिंह में विद्यमान थे। इन समस्त गुणों के होने से ही सेना, सामंत, ईष्ट मित्र और प्रजाजन देखभाल से अमरसिंह की पूजा करती थी। धन्य है उन वीर वीर पुरुष को जिन्होंने अपने आत्म गौरव व मातृभूमि की रक्षा हेतु प्राणों की बली हंसते हंसते थे दी।
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