महाराजा राजसिंह के दो पुत्र थे। महाराजा सूरत सिंह की माता की इच्छा राजसिंह के प्राण हरण कर अपने पुत्र कोबीकानेर राज्य के सिंहासन पर बैठाने की थी। किन्तु सूरत सिंह ने देखा कि वीर सामन्त तथा कार्य कुशल अमात्यगणों के सम्मुख इस शोचनीय हत्या काण्ड के पश्चात् सिंहासन पर बैठना महा विपत्ति-कारक है। अतएव प्रकट रूप में अपने सौतेले भाई की मृत्यु पर शोक प्रकट कर वे भविष्य में उससे भी अधिक रोमहर्षण कार्य करने के लिये प्रवृत्त हुए। इन्होने राज्य के सामन्तों की सलाह के अनुसार स्वर्गीय राजसिंह जी के बालपुत्र प्रताप सिंह को गद्दी पर बैठाया तथा आप स्वयं राज-प्रतिनिधि रूप से राज्य शासन करने लगे। आपने अठारह वर्ष तक विशेष चतुराई और सावधानी के साथ राज्य किया। आप इस अवधि में प्रधान-प्रधान साम्नन्तों तथा अमात्यगणों को खुश करने के लिये समय समय पर उन्हें कीमती उपहार देते रहे। जब आपने देखा कि अपनी बाह्य दया ओर नम्रता से सब सामंतगण संतुष्ट हैं तो पहले पहल आपने अपने विशेष अछुगत महाजन और भादरं के दोनों सामन्तों से अपने हृदय में अठारह वर्ष तक छिपाये हुए पापी अभिप्राय को कह सुनाया। आपके अभिप्राय को सुनकर उक्त दोनों सामन्त भयभीत और दुःखी हुए किन्तु आपने उन्हें अधिक अधिक जमीन देने का प्रलोधन देकर अपना सहायक बना लिया। इस समय बीकानेर के दीवान का कार्य बख्तावर सिंह जी करते थे। आप बड़े स्वामी-भक्त थे। जब आपको सूरतसिंह के अभिप्राय का भेद मालूम हुआ तो आपने अपने सुकुमार राजा के जीवन की रक्षा करना उचित समझा। परन्तु अत्यंत दुःख का विषय है कि सूरतसिंह जी को इनका अभिप्राय भाव होते ही उन्होंने इन्हें केद कर लिया। इसके बाद सूरत सिंह ने एक बड़ी सेना एकत्रित कर अपने राज्य के सभी सामन्तों को निमंत्रित किया। बहुत से सामन्तगण आपकी पापलिप्सी जानते हुए भी उसमें बाधा डालने में अग्रसर न हुए और चुपचाप अपने किलों में बेठे रहे।
जब महाराजा सुरत सिंह ने देखा कि अधिकांश सामन्तगण मेरा स्वत्व स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं तो उन्होंने अपनी एकत्रित की हुईं सेना की सहायता से उनका दमन करने का निश्वय किया। वे पहले पहल नौहर नामक स्थान में पहुँचे और भूकरका देश के सामन्तों को छल-कपट और बड़ी चतुराई सेअपने सम्मुख बुलाकर उनको नौहर के किले में बन्द कर दिया। इसके बाद इन्होंने अजितपुर नामक स्थान को लूट कर साँखू नामक स्थान पर आक्रमण किया। सांखू के सामंत दुर्जन सिंह ने असीम साहस ओर वीरता के साथ
अपनी रक्षा की, किन्तु उसकी अल्पसंख्यक सेना का नाश हो जाने पर उसने आत्महत्या कर ली। इसके बाद सूरत सिंह ने बीकानेर के प्रधान वाणिज्य स्थान चुरू को जा घेरा। छः महीने तक इस नगर को घेर कर भी वे अभिलाषा पूरी न कर सके। किन्तु इस समय एक दूसरी ओर से उनके सौभाग्य का द्वार खुल गया। भूकर के सामन्त जो कि नौहर स्थान में कैद थे बीकानेर राज्य में बड़े प्रबल और सामर्थ्यवान ठाकुर गिने जाते थे। उन्होंने देखा कि सब सामन्तगण केवल अपने अपने किलों की रक्षा में नियुक्त है और एकमत होकर सूरतसिंह के खिलाफ युद्ध नहीं करते हैं तो एक दिन अवश्य ही उसकी विजय हो जायगी। अपने प्राण और स्वाधीनता खो बैठने के भय से ये सामंत सूरत सिंह को राज्य सिंहासन पर बैठाने को राजी हो गये। सूरतसिंह ने इनकी प्रतिज्ञा पर विश्वास कर इन्हें बंधन मुक्त कर दिया ओर दो लाख रुपये लेकर चुरू नगर की लूट भी छोड़ दी।
इस प्रकार सूरत सिंह अपने बाह्य बल की सहायता से प्रत्येक प्रांत
के सामन्तों को अपने अधीन कर राजधानी बीकानेर लौट आये और बाल महाराज प्रतापसिंह को संसार से सदैव के लिये बिदा करने के लिये उपाय सोचने लगे। किन्तु उनकी इस घृणित आशा की पूर्ति में अनेक विध्न उपस्थित होने लगे। सूरतसिंह ओर उनकी माता यद्यपि घोर हिंसक पशु बुद्धि के थे, तथापि उनकी बहिन कोमल हृदय वाली, दया और ममता-रस से परिपूर्ण थीं। वह इस बात को भली भाँति जानती थी कि भाई सूरतसिंह एक दिन अवश्य ही बाल महाराज के प्राण ले निष्कंटक होकर राज्य करेंगे। इस कारण वह महाराजा प्रताप सिंह को सदैव अपने पास रखती थीं। आप अब तक अविवाहिता थीं। सूरतसिंह ने अपने उद्देश की पूर्ति में इनका हस्तक्षेप देख कर इनके विवाह का प्रस्ताव उपस्थित कर दिया। इन्होंने नरवर के राजा के यहाँ कहला भेजा कि हमारी बहन के साथ आप विवाह करने के लिये तैयार हो जाइये। नरवर के नृपति भारत के विख्यात महाराजा नल के वंशधरों में से थे। महाराजा सिंधिया ने नरवर के किले पर अपना अधिकार कर तथा इनकी धन सम्पत्ति लूट कर, इन्हें दरिद्रता की घोर अवस्था में पहुँचा दिया था। अतएव ये सूरतसिंह के प्रश्ताव से शीघ्र ही सहमत हो गये। सूरतसिंह की बहिन ने इस समाचार को सुनकर सूरतसिंह के सम्मुख अपने अविवाहित रहने की इच्छा प्रकट की। बह बहुत गिड़गिडाई, उसने बहुत कुछ प्रतिवाद किया, परन्तु उसकी किसी ने न सुनी। अंत में उसका विवाह सूरतसिंह ने उक्त नरवर नृपति के साथ कर ही दिया। उसके ससुराल चले जाने के कुछ ही दिन पश्चात् पाखंडी सूरतसिंह ने महाजन के सामन्तों को बीकानेर के बाल-नृपति की हत्या करने की आज्ञा दी, परंतु वे इस कार्य में हस्तक्षेप करने को सहमत न हुए। अन्त में उसने स्वयं अपने पापी हाथों से अपने भतीजे बीकानेर के बालक महाराजा प्रताप सिंह के गले पर तलवार चलाकरउनका जीवन नष्ठ कर दिया।
महाराजा सूरत सिंह का इतिहास और जीवन परिचय
महाराजा सूरत सिंह सिंह बाल महाराज प्रतापसिंह की हत्या कर दी थी । यह दुखद समाचार राज्य में चारों ओर फेल गया, किन्तु कोई भी सामन्त महाराजा सूरत सिंह को इस अत्याचार का समुचित दण्ड देने के लिये अग्रसर न हो सका। जब यह बात स्वर्गीय महाराजा राजसिंह के दोनों भाई सुरतान सिंह और अजब सिंह को ( जो अपने प्राणों के भय से पहले ही जयपुर राज्य में चले गये थे ) मिली तो वे शीघ्र ही भटनेर नामक स्थान में आ उपस्थित हुए और भटनेर के तथा बीकानेर के समस्त असन्तुष्ट सामन्तों को बुलाकर युद्ध की तैयारी करने लगे। यद्यपि भटनेर के सभी भाटीगण इनकी आज्ञा का पालन करने को तैयार हो गये, तथापि बहुतेरे राठौर सामन्त गण महाराजा सूरतसिंह के खिलाफ युद्ध करने में हिचकिचाने लगे। इधर सूरतसिंह ने भी घूस देकर अनेक सामन्तों को अपने अधीन कर लिया। उसने विचार किया कि शत्रु पर काफी सेना एकत्रित करने से पहले ही आक्रमण करना ठीक होगा। अतएव जोश में भर कर तुरन्त ही उसने एक विशाल सेना सहित उपरोक्त दोनों कुमारों पर आक्रमण कर दिया। बागौर नामफ स्थान में भयंकर संग्राम हुआ, जिसमें तीन हजार भाटियों की सेना के नाश हो जाने पर महाराजा सूरत सिंह ने विजय प्राप्त की। अपनी इस विजय की स्मृति में उसने इस रणभूमि में जयदुर्ग (फतहगढ़़) नाम का एक किला बनयाया था।
महाराजा सूरत सिंह बीकानेर राज्यइसके पश्चात् इन्होंने भावलपुर राज्य के कई सुप्रसिद्ध किले जीत
कर अपने राज्य में मिला लिये। उस समय भावलपुर-राज्य में नवाब भावलखां राज्य करते थे। इनके बहुत से बलशाली सामन्त जिनमें किरणी जाति का खुदाबख्श नामक सामान्त मुख्य था महाराजा सूरतसिंह से जा मिले थे। नवाब भावलखां ने खुदाबख्श पर आक्रमण किया था और इसी से चिढ़ कर वह सूरतसिंह से मिल गया था। नवाब भावलखां ने बड़ी चतुराई से अपने असन्तुष्ट सामन्तों को धन तथा जमीन का प्रलोभन देकर सूरतसिंह की सेना से फोड़ लिया। इस कारण राठौरी सेना का बल धीरे धीरे घटने लगा। तब सूरतसिंह के सेनापति ने भावलपुर के नवाब को धमका कर तथा उससे बहुत सा धन लेकर उस राज्य पर आक्रमण करता छोड़ दिया।
भावलपुर राज्य पर आक्रमण करने के पश्चात् भी राजा सूरतसिंह
जी निर्विध्नता से अधिक समय तक शान्ति न भोग सके। बागोर के युद्ध में पराजित भाटिया लोगों ने युद्ध के लिये सर उठाया। समराग्नि भड़क उठी, फिर से रणक्षेत्र वीर भाटियों के रूधिर से भीग गया। सूरतसिंह ने इस बार उनकी आाशालता को बिलकुल छिन्न भिन्न कर दिया। महामति टॉड साहब लिखते है कि यद्यपि भाटिया लोग इस द्वितीय युद्ध में भी पराजित हो गये थे, तथापि वे संवत् 1761 तक मौका पाकर राजा सूरतसिंह से संग्राम करते लिखते हे थे । उक्त संवंत में महाराजा सूरत सिंह ने उनकी राजधानी भटनेर पर आक्रमण कर उसे अपने राज्य में मिला लिया।
इस घटना के बाद महाराजा सूरत सिंह ने अपने बल विक्रम को प्रकाश कर राज्य की सीमा बढ़ाने की इच्छा से फिर से रणभूमि में पर्दापण किया। इस समय पोकरन के ठाकुर सवाईसिंह जी ने जयपुर के महाराज की सहायता से धौकल सिंह को मारवाड के सिंहासन पर बैठाने के लिये समस्त राठौर सांमन्तों के साथ मानसिंह से युद्ध करने का विचार किया। सूरतसिंह जी भी सवाईसिंह जी की प्रार्थनानुसार इस युद्ध में सम्मिलित हुए। प्रथम तो आपने अपना पल विक्रम प्रकाश कर मारवाड़ के अन्तर्गत फलोदी देश पर अपना अधिकार कर लिया। परन्तु जब अन्त में आपने देखा कि धौकल सिंह के पक्ष में रह कर विजय प्राप्त करना कोई साधारण बात नहीं है, तब आप शीघ्र ही उनका पक्ष छोड़कर अपनी राजधानी में चले आये। जब राजा मानसिंह अपनी शासन-शक्ति को प्रबल कर तथा फलोदी पर अपना अधिकार कर बीकानेर पर आक्रमण करने के लिये तैयार हुए तब उन्होंने अत्यन्त भयभीत होकर उनसे सन्धि कर ली और क्षतिपूर्ति के बहुत से रुपये देकर अपनी रक्षा की। इन्होंने धौकल सिंह की रक्षा के लिये अपने राज्य की प्राय: पाँच वर्ष की आमदनी खर्च कर दी थी। इस असफलता से महाराजा सूरत सिंह जी को अत्यतं मानसिक वेदना हुई। इस से ये कठिन रोग से पीड़ित हो गये। अपमान, आत्मघृणा और धन के नशे से आप मृतप्राय हो गये थे किन्तु थोड़े दिनों के बाद आपने फिर आरोग्यता प्राप्त कर ली।
आरोग्यता प्राप्त कर ये अपने राज्य में फिर से कठोर शासन करने
के लिये अग्रसर हुए। उन्होंने अपने सामान्तों के प्रति कठोर व्यवहार तथा प्रजा पर अत्याचार करना प्रारंभ कर दिया। राज्य के प्रत्येक भाग में फिर असंतोष की भयंकर अग्नि प्रज्जवलित हो गई। खाली खजाने को परिपूर्ण करने के लिये अधिकता से कर की वृद्धि की जाने लगी। इस से समस्त सामन्तों में असन्तोष फैल गया। इन सामन्तों का दमन करने के लिये सूरतसिंह जी ने उस समय भारत में एक मात्र ब्रिटिश गवर्नमेन्ट को प्रबल बलशाली जान कर सन् 1800 में उनसे सन्धि करने का प्रस्ताव कर दिया। अंग्रेजी सरकार उस समय अपनी शक्ति का विस्तार कर रही थी। अस्तु उसने तत्कालीन राजनीति के अनुसार इनका प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया। इधर समस्त सामन्त यदि चाहते तो एकमत होकर सूरतसिंह जी को सहज ही में पदच्युत कर सकते थे, किन्तु वे उनके असंख्य तथा भयंकर अत्याचारों का स्मरण कर डर जाते थे। इसी कारण महाराजा सूरत सिंह के सभी अत्याचारों को सहन करते थे।
महाराजा सूरत सिंह ने अपने जीवन को अनेक प्रकार के पापों से कलंकित कर लिया था। ये पाप उनके चित्त को हमेशा कोसते रहते थे। इन पापों को नाश करने की इच्छा से वे प्रायः ब्राह्मणों को बहुत सा धन देते थे तथा गरीब ब्राह्मणों को अपने यहाँ आश्रय देकर उनका विशेष सम्मान करते थे। देश सेवा तथा धर्म कार्य में भी वे अधिक लिप्त रहते थे। यह सुअवसर पाकर उनके बचपन के साथियों तथा प्रेम पात्रों ने राज्य कार्य भार अपने हाथों में ग्रहण कर मनमाने उपद्रव मचाने शुरू कर दिए थे। इसी से राज्य में अराजकता फैल गई। चोरों और डाकुओं का उपद्रव इतना फैल गया कि प्रजा अपने धन और प्राण बचाने के लिए व्याकुल हो गई। अंत में सब सामन्तगण भी अधिक अत्याचार सहन न कर सके तो वे प्रकट रूप से महाराजा सूरतसिंह के विरोधी हो गये। राज्य में चारों ओर असंतोष की प्रबल अग्नि प्रज्जवलित होती हुई देखकर, तथा समस्त सामंतों को अपने खिलाफ देखकर महाराजा सूरत सिंह अपने प्राण और शासन की रक्षा के लिए व्याकुल हो गए। वे चारों ओर आश्रय पाने की चेष्टा करने लगे। इसी समय पिंडारियो से युद्ध करने के लिए ब्रिटिश सरकार राजपूतानें के सभी राजाओं के साथ संधि बंधन करने के लिए अग्रसर हुई। सूरतसिंह जी भलीभांति जानते थे कि अंग्रेजों की सहायता से अवश्य ही हम अपनी प्रजा को तथा अपने विद्रोही सामंतों को वश में कर लेंगे। अतएव ब्रिटिश सरकार से उन्होंने शीघ्र ही बड़े आग्रह के साथ सन्धि कर ली। इस संधि पत्र के अनुसार ब्रिटिश सरकार ने आपके राज्य में शान्ति स्थापित करने का भार अपने ऊपर ले लिया। आपने भी अफगानिस्तान काबुल आदि देशों से आने वाली वाणिज्य द्रव्य की अपने राज्य के मार्ग में भलीभांति रक्षा करने का अभिवचन दिया। तथा ब्रिटिश सरकार को आवश्यकता पड़ने पर योग्य सहायता देना भी स्वीकार किया। इस संधि में आपने ओर भी दूसरी शर्तें स्वीकार की।
राजा रायसिंह जी ने अपनी इच्छानुसार मुग़ल बादशाह की अधीनता स्वीकार करके अपनी राज्यश्री की वृद्धि की थी, किन्तु आपने अपनी प्रजा और सामन्तों से अप्रिय होकर बल शालिनी ईस्ट इंडिया कंपनी से सन्धि कर ली। यहाँ यह उल्लेख करना अनुपयुक्त न होगा, कि मारवाड़, मेवाड़ तथा आमेर आदि के प्रबल राजाओं को उक्त कंपनी के साथ सन्धि बन्धन कर जो वार्षिक कर देना पड़ता था, वह आपको न देना पडा। आपके कर देने से छुटकारा पाने का एकमात्र कारण यह था कि मराठों के दल से व्याकुल हो उपरोक्त राजाओं ने उनको चौथ स्वरूप में कर दिया था, अतएव ईस्ट इंडिया कंपनी ने भी इन राजाओं से सन्धि करते समय उनसे वही कर लेने का निर्णय किया। किन्तु बीकानेर राज्य पर न तो कभी मराठों ने आक्रमण किया और न सूरतसिंह जी ने उन्हें किसी प्रकार का कर दिया। इसी कारण उक्त कम्पनी भी सूरतसिंह जी से कर न ले सकी। यद्यपि उक्त संधि-पत्र के अनुसार बीकानेर महाराज ब्रिटिश गवर्नमेंट के अधीन गिने जाते हैं, तथापि आज तक उनसे किसी प्रकार का कर नहीं लिया जाता।
ब्रिटिश गवर्मेंट के साथ महाराजा सूरत सिंह जी की सन्धि होते ही
जो सामंत इनके विरुद्ध खड़े हुए थे, वे इस समय बड़े भयभीत हुए। शीघ्र ही अंग्रेजी सेना ने बीकानेर में जाकर महाराजा सूरत सिंह जी की आज्ञानुसार शान्ति स्थापना की ओर चोर डाकुओं के उपद्रवों को निवारण करके वह वापस चली गई। यद्यपि राज्य में बाहरी शान्ति हो गई थी, तथापि समस्त सामन्तों और प्रजा के हृदय में भीतर ही भीतर पहले के समान असन्तोष की प्रबल अग्नि प्रज्वलित होती रही। अंग्रेजी सेना के वापस लौट जाने पर इन असन्तुष्ट सामन्तों में फिर से अराजकता का साम्राज्य हो गया। सन् 1824 में
महाराजा सूरत सिंह जी की मृत्यु हो गई।
हमारे यह लेख भी जरूर पढ़े:—