महाराजा सूरत सिंह जी के परलोकवासी होने पर उनके पुत्र महाराजा रत्नसिंह जीबीकानेर राजसिंहासन पर विराजमान हुए। आपके सिंहासन पर बेठने के साथ ही बीकानेर राज्य के सामन्त और समस्त प्रजा के मन का भाव भी सहसा बदल गया। महाराज सूरत सिंह जी की मृत्यु के पहले राज्य में जिस प्रकार अशान्ति, उत्पीड़न और अत्याचारों की वृद्धि हो रही थी, चोर डाकुओं के उपद्रव से जो राज्य में अराजकता फैली हुई थी, वह सब इस नवीन शासन के प्रारम्भ में शान्त हो गई। आपके सिंहासन पर बैठते ही जैसलमेर की प्रजा ने तथा राज-कमचारियों ने बीकानेर राज्य की प्रज्ञा के ऊपर घोर अत्याचार करना शुरू कर दिया। उन्होंने बीकानेर राज्य की सारी धन सम्पत्ति लूट ली। जब यह समाचार आपको मालूम हुए तो आपने जैसलमेर महाराज के पास युद्ध करने का प्रस्ताव भेजा। आपके युद्ध के प्रस्ताव को सुन कर जैसलमेर के महाराज कुछ भी भयभीत न हुए। आपने जयपुर और मेवाड़ आदि के राजाओं से सहायता मांगी। युद्ध की तैयारियाँ हो जाने पर आपने जैसलमेर पर आक्रमण कर दिया। अंग्रेजों के साथ संधि करते समय महाराज सूरतसिंह ने स्वीकार किया था कि बीकानेर के अधीश्वर किसी देशी राज्य पर आक्रमण न करेंगे। अतएव ब्रिटिश गवर्नमेंट ने आपसे कहला भेजा कि आप उक्त संधि-पत्र के अनुसार आक्रमण नहीं कर सकते। आपने गवर्नमेंट की आज्ञा पाते ही युद्ध रोक दिया। इसके बाद ब्रिटिश सरकार की अनुमति से मेवाड़ के महाराणा ने इस झगड़े में मध्यस्थ होकर दोनों राजाओं का समझौता करा दिया। इसलिये विवादाग्नि कुछ काल के लिये शान्त हो गई।
महाराजा रत्नसिंह का इतिहास और परिचय
सन 1830 में आपके राज्य में भीतरी झगड़े हो गये। जिस प्रकार सूरत सिंह जी के शासन-काल में इस राज्य छे प्रमुख प्रमुख सामन्तों ने उपद्रव खड़ा किया था, उसी प्रकार इन्हीं सामन्तों ने फिर राज्यद्रोही होकर भयंकर कांड उपस्थित कर दिया। इन सामन्तों के उपद्रव से महाराजा रत्नसिंह अत्यंत भयभीत हो गये। इनका दमन करने के लिये आपने ब्रिटिश सरकार से सहायता मांगी, किन्तु उसने आपके राज्य के अन्दरूनी झगड़ों में हस्तक्षेप करने से इन्कार कर दिया। गवर्नमेंट ने सहायता देने से इन्कार कर देने पर आपने अपनी सेना की सहायता से विद्रोही सामन्तों को वशीभूत करने की चेष्टा की। परन्तु आपकी यह चेष्टा सफल ही न होने पाई थी कि जैसलमेर महाराज के साथ आपका किसी कारणवश फिर से झगड़ा उपस्थित हो गया। सन् 1845 में यह विवाद इतना प्रबल हो गया कि ब्रिटिश गवर्मेंट को शान्ति स्थापना करने के लिये एक अंग्रेज राज्य पुरुष को मध्यस्थ करके भेजना पड़ा। उस अंग्रेज राज-पुरुष ने आप तथा जैसेलमेर के राजा के मनोमालिन्य का सन्तोषदायक निपटारा कर दिया।
महाराजा रत्नसिंह बीकानेरकर्नल मारशिसन साहब लिखते हैं कि महाराजा रत्नसिंह इन उपद्रवों के बीच में ही हिसार की ओर तक अपने राज्य की सीसा का विस्तार करने के लिये दृढ़ प्रयत्न किया था, किन्तु ब्रिटिश सरकार ने इस कार्य में असन्तोष प्रकट कर कठोर नीति का अवलम्बन किया जिससे आपकी अभिलाषा पूरी न हो सकी। जो अफगानिस्तान तथा काबुल का वाणिज्य द्रव्य आपके राज्य से होकर सिरसा और भावलपुर में जाया करता था उन सभी द्रव्यों पर बीकानेर राज्य की ओर से अधिक महसूल लिया जाता था, अवएव महाराजा रत्नसिंह के शासन-काल में ब्रिटिश गवर्नमेंट में यह महसूल घटा देने का प्रस्ताव किया था। पच्चीस वर्ष तक राज्य करके सन् 1852 में महाराजा रत्नसिंह परलोकवासी हो गए।
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