महाराजा रणजीत सिंह का इतिहास और जीवन परिचय

महाराजा रणजीत सिंह भरतपुर राज्य

महाराजा केहरी सिंह जी के बाद महाराजा रणजीत सिंह जीभरतपुर राज्य के राज्य सिंहासन पर अधिष्ठित हुए। इनके समय में राजनैतिक दृष्टि से कई महत्वपूर्ण घटनाएँ हुई, अतएवं उन पर थोड़ा सा प्रकाश डालना आवश्यक है। जिस समय महाराजा रणजीत सिंह जी राज्य-सिंहासन पर बैठे थे, उस समय अंग्रेज भारत में अपनी सत्ता मजबूत करने के काम में लगे हुए थे। कहने की आवश्यकता नहीं कि होलकर, सिन्धिया प्रभुति कुछ शक्तियों के द्वारा उनके इस कार्य में बड़ी-बड़ी बाधाएं उपस्थित की जा रहीं थीं। महाराजा रणजीत सिंह जी ने अंग्रेजों से सन्धि कर उनसे मैत्री का सम्बन्ध स्थापित कर लिया था। इतना ही नहीं वरन्‌ उन्होंने कुछ युद्धों में अंग्रेजों की अच्छी सहायता भी की थी। पर महाराजा रणजीत सिंह और अग्रेजों का यह मैत्री पूर्ण सम्बन्ध अधिक दिन तक स्थिर न रह सका। एक घटनाचक्र ने इसमें विच्छेद उत्पन्न कर दिया।

महाराजा रणजीत सिंह का इतिहास और जीवन परिचय

महाराजा रणजीत सिंह जी के समय में इन्दौर के महाराजा यशवन्त राव होलकर का उदय हो रहा था। कहने की आवश्यकता नहीं कि इन यशवन्तराव होलकर का आतंक उस समय सारे भारत में छा रहा था। सारे राजपूताने के राजा इन्हें खिराज देते थे। अंग्रेजों पर भी इनका बड़ा दबदबा था। मुकन्दरा की घाटी पर यशवन्तराव ने जनरल मानसून की फौजों को हराकर उनका जिस प्रकार सर्वनाश किया था, उससे तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड मार्किवस महोदय का दिल दहल उठा था। यह बात उनके एक प्राइवेट पत्र से प्रकट होती है । इसके बाद बनास नदी ओर सीकरी के पास ब्रिटिश और होल्कर की फौजों का मुकाबला हुआ, पर इसमें किसी की हार जीत प्रकट नहीं हुईं। इसके पश्चात्‌ यशवन्त राव ने मथुरा की ओर से कूच किया। वहाँ भी ब्रिटिश फौजी के साथ इनका युद्ध हुआ, पर कोई फल प्रकट नहीं हुआ। फिर यशवन्त राव ने बृन्दावन की ओर कूच किया। इसी समय अंग्रेज सेनापति लॉर्ड लेक मथुरा आ पहुँचे। दोनों सेनाओं में मुठभेड़ हो गई और यह कई दिन तक चलती रही। लॉर्ड लेक को हारकर दिल्‍ली की ओर पीछे हटना पड़ा। होलकर की फौजों ने उन्हें इतना तंग किया कि उनकी पीछे हटना भी मुश्किल हो गया। जनरल लेक बड़ी मुश्किल से दिल्‍ली पहुँच पाये। इसके बाद होलकर की फौजों ने दिल्ली पर आक्रमण किया यहाँ इन्हें सफलता न मिली। अंग्रेजों ने उनके आक्रमण को विफल कर दिया। वापस लौटते हुए यशवन्त राव ने भरतपुर राज्य के डीग के किले में आश्रय लिया। हिन्दुओं की उच्च संस्कृति और सभ्यता के अनुसार भरतपुर राज्य के तत्कालीन महाराजा रणजीत सिंह जी ने यशवन्तराव का बड़ा सत्कार कर उन्हें आदरपूर्वक अपने यहाँ ठहराया। यह बात जनरल लेक को बहुत बुरी लगी और डीग पर उन्होंने आक्रमण कर दिया। भरतपुर राज्य की सेना ने बड़े ही वीरत्व के साथ ब्रिटिश फौज का मुकाबला किया। 23 दिन के भीषण युद्ध के बाद डीग के किले पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया। इसमें अंग्रेजों के 227 आदमी मारे गये।

महाराजा रणजीत सिंह भरतपुर राज्य
महाराजा रणजीत सिंह भरतपुर राज्य

इसके बाद जनरल लेक ने इसवी सन्‌ 1805 की 3 जनवरी को
भरतपुर राज्य पर घेरा डाला। ब्रिटिश फौजों ने भीषण गोलाबारी की। पर इसमें उन्हें सफलता न हुई। इस असफलता की बात को स्वंयं जनरल लेक ने मार्किस वेलेस्ली के नाम लिखे हुए 10 जनवरी के अपने एक पत्र में स्वीकार की है। पर इस पर भी अंग्रेज सेनापति निराश नहीं हुए। भरतपुर राज्य के वीर नरेश भी अपना वीरत्व प्रकट करते रहे। उन्होंने फिर बड़े जोर से आक्रमण किया पर इस वक्त भी उन्हें वीर जाट राजा के सामने परास्त होना पड़ा। इसके बाद जनरल लेक की सहायता पर कर्नल मरे की आधीनता में गुजरात से एक जबरदस्त ब्रिटिश फौज आ पहुँची। 12 फरवरी को जनरल लेक तथा कर्नल मरे की फौजों ने सम्मिलित होकर भरतपुर राज्य पर बड़ा ही भीषण आक्रमण किया, पर इसमें भी इन्हें उल्टे मुँह की खानी पड़ी। जब यह खबर तत्कालीन गवर्नर जनरल को पहुँची तो वे बड़े निराश हुए। इसवी सन्‌ 1805 की 9 मार्च को मार्किस वेलेस्ली ने जनरल लेक को जो पत्र लिखा था उसमें उन्होंने लॉर्ड लेक से बड़े जोर से यह अनुरोध किया था कि वे भावी आक्रमण के विचार को बिलकुल त्याग कर राजा से सन्धि कर लें। इस पत्र में और भी कितनी ही ऐसी बातें लिखी थी जिससे यह प्रकट होता था मानों वे विजय से बिलकुल निराश हो गये हैं। वे किसी भी प्रकार को शर्तों पर सुलह करने के लिये उत्सुक हो रहे थे। इसके साथ ही यह प्रयत्न किया जा रहा था कि रणजीत सिंह जी को किसी न किसी प्रकार यशवन्तराव होलकर से अलग कर दिया जाये। मार्किस वेलेस्ली ने लिखा था,–‘ “जब कि प्रधान सेनापति भरतपुर राज्य के घेरे के लिये फिर तैयारी कर रहे है या घेरा डाल रहे हैं, क्या यह ठीक न होगा कि ऐसे समय में कुछ ऐसे प्रयत्न किये जाये जिससे कि रणजीत सिंह को होलकर से फोड़ लिया जाबे। यद्यपि अभी तक भरतपुर राज्य का पतन नहीं हुआ है तथापि रणजीत सिंह बहुत दुर्दशाग्रस्त हो गये हैं। और अगर रणजीत सिंह ने होलकर को त्याग दिया तो वह बिना आशा भरोसा का हो जायगा।

इसका उत्तर देते हुए लॉर्ड लेक ने लिखा था:– ““इस बात का प्रयत्न किया जा रहा है और आगे भी किया जायगा, जिससे रणजीत सिंह होलकर को परित्यक्त कर दें। दरअसल रणजीत सिंह बहुत आपत्ति ग्रस्त तथा भयभीत हो गये हैं और उन्होंने अगर होलकर को परित्यल कर दिया तो वे ( होलकर ) बिलकुल निस्सह्यय हो जावेंगे।”

कहने का मतलब यह है कि रणजीत सिंह को होलकर से अलग
करने के बहुत प्रयत्न किये गये पर इसमें कामयाबी न हुई। इस पर ब्रिटिश राजनीतिज्ञों ने एक दूसरी चाल चली, उन्होंने होलकर के प्रधान साथी अमीरखाँ तथा उसके साथियों को फोड़ लेने के प्रयत्न किये। तत्कालीन गवर्नर जनरल ने अपने एक नोट में लिखा हैः– “मि० सेटान और जनरल स्मिथ को यह अधिकार दिया जाता है कि वे अमीर खाँ के साथियों को जमीन का लालच दिखलाकर उससे फोड़ लें। अगर अमीर खाँ होलकर का पक्ष त्याग कर ब्रिटिश की ओर मिल जाने के लिये तैयार हो तो उसे एक अच्छी जागीर का प्रलोभन दिया जावे। उससे अनुरोध किया जावे कि वह एक निश्चित समय के अन्दर जनरल स्मिथ से उनके डेरे पर जाकर मिले।

उपरोक्त नोट के जवाब में लॉर्ड लेक ने लिखा थाः– “अमीर खाँ के आदमियों को अवश्य ही जमीन का प्रलोभन दिया जावे।” कहने का मतलब यह है कि राजा रणजीत सिंह और यशवंतराव होलकर में फूट डालने के असफल प्रयत्न किये गये। आखिर में यद्यपि अंग्रेजों की विजय हुई, पर उन्हें महाराजा रणजीत सिंह जी का लोहा मुक्तकण्ठ से स्वीकार करना पड़ा। कर्नल मेलेसन अपने ( Native State Of India )नामक ग्रंथ थ में लिखते हैं:–

“But thought the Raja of Bhartpur lost by the time he had taken both money and territory, he gained in prestige and credit, his capital was the only fortress in India from whose walls British troops had been repulsed and this fact alone exalted him in the opinion of princess and people of India”

कर्नल मेलेसन के उस अवतरण से महाराजा रणजीत सिंह जी की महत्ता स्पष्टतया प्रकट होती है। इन पराक्रमी महाराजा रणजीत सिंद जी का देहान्त ईसवी सन्‌ 1805 में हो गया।

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