महाराजा मानसिंह का इतिहास और जीवन परिचय

महाराजा मानसिंह जोधपुर

महाराजा भीम सिंह जी के बाद सन् 1804 में महाराजा मान सिंह जी गद्दी पर बिराजे। आप महाराजा भीम सिंह जी के भतीजे थे। युवावस्था में आपको अनेक विपत्तियों का सामना करना पड़ा था । एक समय तो भीम सिंह जी के भय से मारवाड छोड़ने की नौबत आई थी। जिस समय आप गद्दी पर बिराजे उप समय महाराजा भीम सिंह जी की एक रानी गर्भवती थी। कुछ सरदारों ने मिलकर उसे तलेटी के मैदान में ला रखा, वहीं पर उसके गर्भ से एक बालक उत्पन्न हुआ, जिसका नाम धोकल सिंह रखा गया। इसके बाद उन सरदारों ने उसे पोकरण की तरफ भेज दिया। पर महाराजा मानसिंह जी ने इस बात को बनावटी मान उसका राज्याधिकार अस्वीकार कर दिया।

महाराजा मानसिंह जोधपुर का इतिहास और जीवन परिचय

महाराजा मानसिंह जी ने गद्दी पर बैठते ही अपने शत्रुओं से बदला
लेकर, उन लोगों को जागीरें दीं जिन्होंने विपत्ति के समय सहायता की थी। इसके बाद इन्होंने सिरोही पर फौज भेजी। क्योंकि वहाँ के राव ने संकट के समय में इनके कुटुम्ब को वहां रखने से इंकार किया था। कुछ ही समय में सिरोही पर इनका अधिकार हो गया। घाणेराव भी महाराज के अधिकार में आ गया। विक्रमी सन् 1861 में धोकल सिंह की तरफ से शेखावत राजपूतों ने डिडवाना पर आक्रमण किया, पर जोधपुर की फौज ने उन्हें हराकर भगा दिया। उदयपुर के राणा भीमसिंह जी की कन्या कृष्णाकुमारी का विवाह जोधपुर के महाराजा भीमसिंह जी के साथ होना निश्चय हुआ था। परन्तु उनके स्वर्गवासी हो जाने के पश्चात्‌ राणाजी ने उसका विवाह जयपुर के महाराज जगतसिंह जी के साथ करना चाहा। जब यह समाचार मानसिंह जी को मिला तब उन्होंने जयपुर महाराजा जगत सिंह जी को लिखा कि ये इस सम्बंध को अंगीकार न करें। क्योंकि उस कन्या का वरदान मारवाड़ के घराने से हो चुका है। अतः भीमसिंह जी विवाह के पू्र्व ही स्वर्ग को सिधार गये तो भी उनके उत्तराधिकारी की हैसियत से उक्त कन्या से विवाह करने का पहला हक उन्हीं ( महाराज मानसिंह जी ) का है।

बहुत कुछ समझाने पर भी जब जयपुर महाराज ने ध्यान नहीं दिया तब महाराजा मानसिंहजी ने वि० सं० 1862 के माघ में जयपुर पर चढ़ाई कर दी। जिस समय ये मेड़ते के पास पहुँचे उस समय इनको पता लगा कि उदयपुर से कृष्णाकुमारी के विवाह का टीका जयपुर जा रहा है। यह समाचार पाते ही महाराजा ने अपनी सेना का कुछ भाग उसे रोकने के लिये भेज दिया। इससे लाचार हो टीका वालों को वापस उदयपुर लौट जान पड़ा। इसी बीच जोधपुर महाराज ने जसवंत राव होलकर को भी अपनी सहायता के लिये बुला लिया था। जब राठौड़ों और मराठों की सेनाएँ अजमेर में इकट्ठा हो गई तब लाचार होकर जयपुर महाराज को पुष्कर नामक स्थान में सुलह करनी पड़ी। जोधपुर के इन्द्रराज सिंधी और जयपुर के रतनलाल ( रामचंद्र ) के उद्योग से होल्कर ने बीच में पड़कर जगत सिंह जी की बहिन का मानसिंह जी से और मानसिंह जी की कन्या का जगतसिंह जी से विवाह निश्चित करवा दिया।

महाराजा मानसिंह जोधपुर
महाराजा मानसिंह जोधपुर

वि० सं० 1873 के आश्वीन मास में महाराजा जोधपुर लौट आये। पर कुछ ही दिनों के बाद लोगों की सिखावट से यह मित्रता भंग हो गई। इस पर जयपुर महाराज ने धोंकल सिंह जी की सहायता के बहाने से मारवाड़ पर हमला करने की तैयारी की। जब सब प्रबंध ठीक हो गया तब जगत सिंह जी ने एक बडी सेना लेकर मारवाड़ पर चढ़ाई कर दी। मार्ग में खंडेले नामक ग्राम में बीकानेर महाराज सूरत सिंह जी, धोंकल सिंह जी और मारवाड के अनेक सरदार भी इनसे आ मिले। पिंडारी वीर अमीरखां भी अपनी सेना के जयपुर की सेना में आ मिला। जैसे ही यह समाचार महाराजा मानसिंह जी को मिला वैसे ही वे भी अपनी सेना सहित मेड़ता नामक स्थान में पहुँचे और वहाँ मोर्चा बाँधकर बैठ गये। साथ ही इन्होंने मराठा सरदार जसवंत राव होल्कर को भी अपनी सहायतार्थ बुला भेजा । जिस समय होल्कर ओर अंग्रेजों के बीच युद्ध छिड़ा था उस समय महाराज ने होल्कर के कुटुम्ब की रक्षा की थी। इस पूर्वकृत उपकार का स्मरण कर होल्कर भी तत्काल इनकी सहायता के लिये रवाना हुए। परन्तु उनकेअजमेर के पास पहुँचने पर जयपुर महाराज ने एक बड़ी रकम रिश्वत देकर वापस लौटा दिया। इसके बाद गाँगोली की घाटी पर जयपुर और जोधपुर की सेना का मुकाबला हुआ। युद्ध के समय बहुत से सरदार महाराजा की ओर से निकल कर धोंकलसिंहजी की तरफ जयपुर सेना में जा शामिल हुए, इससे जोधपुर की सेना कमजोर हो गई। अन्त में विजय के लक्षण न देख बहुत से सरदार महाराजा को वापस जोधपुर लौटा लाये। जयपुर वालों ने विजयी होकर मारोठ, मेड़ता, पर्वतसर, नागोर, पाली, और सोजत आदि स्थानों पर अधिकार कर जोधपुर घेर लिया। वि सं० 1883 की चैत्र बदी 7 को जोधपुर शहर भी शत्रुओं के हाथ चला गया। केवल किले ही में महाराजा का अधिकार रह गया।

यह घटना सिंघी इन्द्रराज और भंडारी गंगाराम से न देखी गई।
उन्होंने महाराजा से प्रार्थना की कि अगर उन्हें किले से बाहर निकलने की आज्ञा दी जायगी तो वे शत्रु के दाँत खट्टे करने का प्रयत्न करेंगे। महाराजा ने इनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली और इन्हें गुप्तरूप से किले के बाहर करवा दिया। इसके बाद वे मेडते की ओर गये और वहाँ सेना संगठित करने का प्रयत्न करने लगे। उन्होंने एक लाख रुपये की रिश्वत देकर सुप्रख्यात पिंडारी नेता अमीर खाँ को भी अपनी तरफ मिला लिया। इसी बीच बापूजी सिंधिया को भी निमंत्रित किया था और वे इसके लिये रवाना भी हो गये थे पर बीच ही में जयपुर वालों ने रिश्वत देकर उन्हें वापस लौटा दिया। सिंधी इन्द्रराज और कूचामन के ठाकुर शिवनाथ सिंह जी ने अमीर खां की सहायता से जयपुर पर कूच बोल दिया। जब इसकी खबर जयपुर महाराजा को लगी तब उन्होंने राय शिवलाल के सेनापतित्व में एक विशाल सेना उनके मुकाबले को भेजी। मार्ग में जयपुर, जोधपुर की सेनाओं में कई छोटी मोटी लड़ाईयाँ हुई। पर कोई अन्तिम फल प्रकट न हुआ। आखिर में टोंक के पास फागी नामक स्थान पर अमीर खाँ और सिंघी इन्द्रराज ने जयपुर की फौज को परास्त किया और उसका सब सामान छूट लिया। इसके बाद जोधपुरी सेना जयपुर पहुँची और उसे खूब लूटा। जब यह खबर जयपुर के महाराज जगतसिंह जी को मिली तब वे जोधपुर का घेरा छोड़कर जयपुर की तरफ लौट चले।

जयपुर की सेना पर विजय प्राप्त कर जब अमीर खाँ आदि जोधपुर पहुँचे तब महाराजा मानसिंह जी ने उसका बड़ा आदर सत्कार किया। उसे तीन लाख रुपये नगद दिये और भी बहुत कुछ देने का वायदा कर महाराज ने उसे नागोर पर भेजा। कहने की आवश्यकता नहीं कि इस समय बीकानेर के महाराज सूरतसिह जी, घोकल सिंह जी तथा पोकरण ठाकुर सवाई सिंहजी आदि ससेन्य वहाँ पड़े हुए थे। अमीर खाँ की इनसे खुलकर मोर्चा लेने की हिम्मत नहीं हुईं। उसने कुरान की कसम खाकर पोकरण ठाकुर साहब से मित्रता कर ली और उन्हें अपने स्थान पर बुला धोखे से मार डाला। यह देख महाराज सूरत सिंह जी, धोकल सिंह जी और सवाइ सिंह जी के पुत्र को लेकर बीकानेर चले गये। इस प्रकार अमीर खाँ ने नागोर पर अधिकार कर लिया। महाराजा मानसिंह जी ने उसे इस कारगुजारी के लिये दस लाख रुपये नगद, तीख हज़ार रुपये सालाना आमदनी की जागीर और 100 रू० रोज का परवाना कर दिया। इसी वर्ष अमीर खां की सहायता से जोधपुर की सेना ने बीकानेर पर धावा बोला। युद्ध हुआ और विजय माला जोधपुर की सेना के गले में पडी।

सिंधी इन्द्रराज की सेवाओं से प्रसन्न होकर महाराजा मानसिंह जी
ने उसे राज्य के सम्पूर्ण अधिकार सोंप दिये थे। इन्द्रराज की इस उन्नति से उनके शत्रु जल भुन कर खाक हो गये थे। वे सिंधीजी की इस उन्नति को न देख सके। उन्होंने इनके खिलाफ षड्यंत्र रचना शुरु किया। इसके लिये उन्हें अच्छा मौका भी हाथ लग गया। नवाब अमीर खां ने मुंडवा, कुचेरा, आदि अपने जागीर के गाँव के अलाजा मेड़ता और नागोर पर भी अधिकार करने का विचार किया था। यह बात सिंधी इन्द्रराज को बुरी लगी। उन्होंने इस पर बड़ी आपत्ति प्रगट की। जैसा हम उपर कह चुके हैं कि मेहता अखेचन्द आदि इन्द्रराज् के शत्रुओं ने नबाब को भड़का दिया। वि० सं 1893 की चैत सुदी 8 वी को नवाब ने अपनी फौज के कुछ अफ़सरों को किले पर भेजा। उन्होंने वहां पहुँच सिंधी इन्द्रराज को महाराज के गुरु देवनाथ से अपनी चढ़ी हुई तनख्वाह तुरन्त देने को कहा। बात ही बात में झगड़ा हो गया। अफगान सरदारों ने इन्द्रराज और देवनाथ को मार डाला। महाराजा मान सिंह जी को इस बात से वज्रपात का सा दुःख हुआ। वे विव्हल हो गये। उनके हृदय में घोर विषाद छा गया और संसार से उन्हें विरक्ति सी हो गई। उन्होंने राज्य करना छोड़ दिया और मोती महल में एकान्तवास करने लगे। इस पर सरदारों ने महाराज कुमार छत्रसिंह जी को गद्दी पर बिठा दिया। उन्होंने महाराजा को बहुत दुःख दिया। छत्रसिंह जी बुरी संगत में पढ़ गये ओर उपदेश आदि रोगों से अस्त होकर एक ही वर्ष में वे इस संसार को छोड़े चल बसे। इन्हीं छत्रसिंह जी के समय में ईस्ट इंडिया कंपनी ओर जोधपुर दरबार के बीच एक अहदनामा हुआ। इस अहदनामे के अनुसार कंपनी ने मारवाड़ राज्य की रक्षा का भार अपने ऊपर लिया। इसके बदले में दरबार ने वह कर देता मंजूर किया जो सिंधिया को दिया जाता था। इस कर की रकम 108000 थी। जोधपुर दरबार ने कंपनी के काम के लिये 1500 सवार रखना भी स्वीकार किया। इस प्रकार महाराज कुमार छत्रसिंह जी के शासनकाल में जोधपुर और अंग्रेज सरकार के बीच इस प्रकार का तहनामा हो गया।

राजपूताने में तत्कालीन रेसीडेन्ट कर्नल अक्टरलोनी ने जोधपुर के
राज्य बिगड़ने और महाराजा मानसिंह जी के धावले हो जाने की अफवाह सुनकर दिल्‍ली से अपने मुन्शी बकतअली को ठीक से खबर लेने के लिये भेजा। महाराजा ने उसे एकान्त में बातचीत करते हुए कहा कि “हम हराम- खोरों के दुःख से बावले बन रहे हैं । ऐसी दशा में अंग्रेज सरकार से अहदनामा हो गया है। अब हम यह चाहते हैं कि जिस प्रकार हम स्वतंत्रता पूर्वक राज्य करते थे उसी प्रकार अब भी करें और अंग्रेज सरकार को कुछ परवाना न दें। यदि तुम इस बात का प्रबन्ध कर सकोगे तो हम तुम्हें बहुत खुश करेंगें। कुछ दिनों के बाद उक्त मुंशी गवर्नर जनरल का खलीता लेकर आया ओर वह महाराजा से एकान्त में मिला। इस खलीते में महाराजा को विश्वास दिलाया गया था कि यदि आप फिर अपने राज्य का प्रबन्ध अपने हाथ में ले लेगें तो गवर्नमेंट आप के भीतरी मामलों में किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप न करेगी।

इस पर वि० सं० 1895 की कार्तिक शुक्ल 5 को फिर से महाराज ने राजसूत्र अपने हाथ में लिया। दो वर्ष तक महाराजा ने बड़ी शांति के साथ राजकार्य किया। वि० सं० 1896 की वेशाख सुदी 14 को महाराजा ने मेहता अखेचंद ओर उस्रके 84 अनुयायियों को कैद कर लिया। इनमें से अखेचन्द आदि 8 मुखियाओं को जबरदस्ती विषपान करवा कर मरवा डाला। इसके अतिरिक्त कई बागी सरदारों की जागीरें जप्त कर लीं। इससे राज्य में घोर अराजकता ओर अशान्ति छा गई। चारों ओर उपद्रव होने लगे। जिन लोगों की जागीर जप्त कर ली गई थीं उन्होंने अंग्रेज सरकार के पास शिकायतें कीं। गवर्नर जनरल के एजेट ने महाराजा को सब बखेड़ा शांत करने की सलाह दी। इस पर महाराजा ने कुछ जप्त की हुई जागीरें वापस कर दी। हम ऊपर कह चुके हैं कि महाराजा मानसिंह जी की नाथों के प्रति अप्रतिदत्त भक्ति थी। जब इन्हें दुबारा राज्य अधिकार प्राप्त हुआ तब फिर से नाथों ने प्रजा पर भीषण अत्याचार करना शुरू किया। चारों ओर अनीति का साम्राज्य छा गया। बहुत से सरदार बागी हो गये। अंग्रेजी सरकार के पास बहुत सी फर्यादें पहुँचीं। अंग्रेज सरकार से जो खलीते आये उनके जवाब भी नहीं दिये गये। इस पर राजपूताने के रेसीडेन्ट कर्नल सद्रलेंड को महाराजा के खिलाफ़ फौजकशी
करने का हुक्म देना पडा। जोधपुर पर चढ़ाई की। बहुत से बागी सरदार भी इनके साथ थे। जब यह खबर महाराजा के पास पहुँची तो उन्होंने अपनी राजधानी से आगे बढ़ कर कर्नल सद्रलेंड से भेंट की। दोनों में समझौता हो गया। उसी समय से जोधपुर में एजेसी कायम कर दी गई। फिर कुछ दिनों के बाद महाराजा ने जोग ले लिया। वे अपनी पुरानी राजधानी मंडोवर में जा रहे। वहाँ ही वि० सं० 1900 के भादों सुदी 19 को आप परलोकवासी हुए। रानी देवड़ाजी उनके पीछे मंडोवर में सती हुई। महाराजा मानसिंह जी बड़े विद्या-प्रेमी थे और संगीत विद्या के तो बडे ही प्रेमी थे। दूर दूर से पंडितगण उनकी सेवा में उपस्थित होते थे। उनसे उदार आश्रय पाते थे। महाराजा मानसिंह जी के समय में बडे बडे संगीत विद्या विशारद् शास्त्रवेत्ता पंडित और कवीवरों की इतनी इज्जत होती थी कि वे पालकियों में बेठे बैठे फिरते थे। सोमवार के दिन उन्हें बड़े बड़े पारितोषिक मिला करते थे। इसी दिन पंडितों की सभा हुआ करती थी और महाराजा उनमें बैठकर शास्त्रार्थ किया करते थे। महाराजा की बुद्धि अति तीक्ष्ण थी । वे बड़े गहन विषयों को सहज ही समझ लेते थे। साथ ही अपने पक्ष का प्रतिपादन बड़ी ही विद्वत्ता के साथ करते थे। महाराजा जसवन्त सिंह जी के बाद इन्हीं के समय में भाषा कविता का जोरणःद्धार हुआ । डिंगल काव्य का पुर्नजन्म इन्हीं की कद्रदानी का फल है। महाराजा स्वयं भी बहुत अच्छे कवि थे और उन्होंने कई सुभधुर वाक्यों को सृष्टि की थी। आपने भागवत के दशम स्कंध का पद्यमय अनुवाद भी किया था।

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