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महाराजा जसवंत सिंह भरतपुर रियासत

महाराजा जसवंत सिंह भरतपुर का जीवन परिचय और इतिहास

महाराजा बलवन्त सिंह जी के बाद उनके पुत्र महाराजा जसवंत
सिंह जी भरतपुर राज्य के राज्य सिंहासन पर बिराजे। इस समय आप नाबालिग थे, अतएवं आगरा के कमिश्नर मि० टेलर ने राज्य के शासन-सूत्र को संचालित करने के लिए राज्य के सरदारों और माजी साहिबा की सलाह से धाऊ घासीराम जी को रिजेन्ट नियुक्त किया। अंग्रेजी सरकार ने इस नियुक्ति का समर्थन किया। हाँ, उसने राज्य कारोबार पर देख-रेख रखने के लिये पोलिटिकल ऐजेन्ट की नियुक्ति कर दी। उक्त घटना के चार वर्ष बाद महाराजा जसवन्त सिंह जी की माता का स्वर्गवास हो गया और इसी साल अर्थात्‌ सन्‌ 1853 की 8 जुलाई को आपका राज्याभिषेक हुआ। कहने की आवश्यकता नहीं कि धाऊ घासीराम जी ने उक्त महाराजा की परवरिश बहुत ही अच्छे ढंग से की। जसवन्त सिंह जी के पिता महाराजा बलवन्त सिंह जी के राज्यकाल में राज्य शासन का बहुत सा काम जबानी होता था। केवल राज्य-कोष का हिसाब और डिस्ट्रिक्ट ऑफिसरों को दिये जाने वाले हुक्म लिखे जाते थे। स्वर्गीय महाराजा खुले आम इजलास करते थे और मुकदमों के फैसले जबानी ही दे दिया करते थे। सन्‌ 1855 में एजेन्ट हु दी गवनर जनरल कर्नल सर हेनरी लारेन्स भरतपुर राज्य आये और उन्होंने राज्य शासन को नियम बद्ध किया। कई नये महकमे खोले गये और उन पर जुदे जुदे आफिसरों की नियुक्ति हुई। जमीन की बाकायदा पैमाइश की गई। अच्छी तनख्वाह पर तहसीलदारों की नियुक्ति की गई। सब महकमों का बाकायदा रिकार्ड रखने की पद्धति जारी की गई।

महाराजा जसवंत सिंह भरतपुर जीवन परिचय और इतिहास

सन् 1857 का गदर

सन् 1857 में सारे भारत में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह की प्रचंड अग्नि प्रज्जवलित हो गई थी। इस समय भारत में एक छोर से लगाकर दूसरे छोर तक अशांति की प्रबल लहर बह रही थी। ऐसे कठिन समय में जब कि ब्रिटिश राज्य की नींव हिल रही थी, भरतपुर राज्य दरबार ने ब्रिटिश सरकार की बड़ी सहायता की। यहां से बहुत सी फौजें ब्रिटिश सरकार की सहायता के लिए भेजी गई। कैप्टन निक्सन भरतपुर राज्य की फौजें और तोपखाना लेकर विद्रोह का झगड़ा उठाने वालों का दमन करने के लिए दिल्ली पहुंचने वाले थे, पर रास्ते में मथुरा मुकाम पर उन्होंने दिल्ली की अति गंभीर स्थिति का हाल सुना, इससे आप मथुरा ही ठहर गए। और वहां के डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट और कलेक्टर मि० थार्नहिल को नगर रक्षा के लिए बड़ी सहायता दी। जब उन्होंने सुना कि विद्रोही दल के मथुरा आने की संभावना नहीं है, तब आपने दिल्ली की ओर कूच किया। केवल एक पलटन इस आशय से मथुरा छोड़ते गए कि आवश्यकता पड़ने पर इसका उपयोग हो सके। मि० थार्नहिल कैप्टन निक्सन के साथ काशी तक गये।

मि० थार्नहिल की अनुपस्थिति में तीन पलटनों ने जो मथुरा के खजाने की रक्षा के लिए तैनात थी, बगावत का झंडा उठाया और उन्होंने की हिंसामय कार्यों के सहित वहां के खजाने को भी लूट लिया। कहा जाता है कि इस समय इस खजाने में 11 लाख रुपये थे। यहाँ यह कहना आवश्यक है कि मथुरा में रही हुई भरतपुर राज्य की सेना ने इस नाजुक मौके पर भी जितना उससे हो सका अंग्रेजी सरकार की सहायता की। खुद केप्टन निक्सन ने इस फौज की “’सेनिक आज्ञकारिता” की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की।

इसके पश्चात्‌ केप्टन निक्‍सन भरतपुर राज्य की सेना को जयपुर राज्य के दौसा ग्राम में ले गये। इस समय तात्या टोपे, राव साहब और फिरोजशाह की सम्मिलित सनाओ के साथ सन् 1858 की 16 जनवरी को इसका मुकाबला हुआ। यहाँ तात्या टोपे आदि की पराजय हुई। उनके 300 आदमी मारे गये। उन्हें वैराट्‌ ओर शेखावाटी में भागना पड़ा। तत्कालीन एजेन्ट टु दी गवर्नर जनरल अपनी (Mutiny report) में लिखते हैं ““विद्रोह के समय में भरतपुर के जलों में कोई बखेड़ा नहीं हुआ। ब्रिटिश सरकार के खिलाफ विद्रोह का झगडा उठाने मे किसी जाट का नाम नहीं आया।”।

महाराजा जसवंत सिंह जी की शिक्षा

महाराजा जसवंत सिंह जी की शिक्षा के लिये भी सुप्रबन्ध किया
गया। सब असिस्टेंट सर्जन बाबू भोलानाथ आपके अंग्रेजी भाषा के शिक्षक नियक्त हुए। पंडित बिहारीलाल और मौलवी गुलजार अली क्रम से आप के हिंदी और फारसी के अध्यापक बनाये गये।

महाराजा जसवंत सिंह का विवाह

सन 1859 में महाराजा का तत्कालीन पटियाला-नरेश महाराजा
नरेन्द्र सिंह जी की राजकुमारी के साथ शुभ विवाह सम्पन्न हुआ। सन् 1868 की 26 जनवरी का उक्त महारानी साहिबा से आपको एक पुत्र हुआ। इनका नाम महाराज कुमार भगवंत सिंह रखा गया। दुर्भाग्य से सन्‌ 1869 की दिसम्बर को इन महाराज कुमार का देहावसान हो गया। सन 1870 की 7 फरवरी को महारानी साहिबा का भी पटियाला में स्वर्गवास हो गया।

महाराजा जसवंत सिंह भरतपुर रियासत
महाराजा जसवंत सिंह भरतपुर रियासत

शासन-सूत्र में परिवर्तन

अब तक भरतपुर राज्य के शासन-सूत्र के प्रधान संचालक पोलिटिकल एजेन्ट थे। कौंसिल को नाममात्र के अधिकार थे। वह केवल उन्हीं मामलों का निर्णय करती थी जो पोलिटिकल ऐजन्ट के द्वारा उसके पास भेज जाते थे। संचालक ऐजेन्ट टु दी गवर्नर जनरल की सलाह से अंग्रेज सरकार ने इतने अधिक हस्तक्षेप की नीति को पसंद नहीं किया। सन्‌ 1861 की 16 मार्च को कैप्टन सी० के० एम० बॉल्टर पोलिटिकल एजेन्ट के स्थान पर नियुक्त किये गये। इसी समय से कौन्सिल को शासन सम्बन्धी बहुत कुछ अधिकार दिये गये। सन्‌ 1862 की 11 मार्च को भारत के अन्य राजाओं की तरह श्रीमान भरतपुर नरेश को भी दत्तक लेने की सनद प्राप्त हुई। सन 1865 में भरतपुर दरबार ने रेलवे बनाने के लिए अंग्रेज सरकार को मुफ्त में ज़मीन दी। सन्‌ 1867 को 28 दिसम्बर को भरतपुर दरबार और ब्रिटिश सरकार के बीच (Extradition treaty) हुई । इसमें अपराधियों के लेनदेन की शर्त का खुलासा है।

महाराजा जसवंत सिंह जी की शिक्षा संबंधी प्रगति

महाराजा जसवन्तसिह जी ने शिक्षा सम्बन्धी प्रगति में बड़ी प्रतिभा
का परिचय दिया। सन 1868-69 मे कैप्टन बॉल्टर ने आपके
सम्बन्ध में निम्मलिखित विचार प्रकट किये थे:– “आपने अपने समकक्ष और सम्बंधिति वाले अन्‍य नवयुवको से अत्यधिक उदार शिक्षा प्राप्त की। आपने बहुत प्रयास किया। आपके विचार बहुत उन्नत थे। विदेशों के संबंध मे आपका ज्ञान उन सब राजाओं से,
जिन्हें मे पढ़ चुका हूं, अधिक व्यापक और विस्तृत है। आप शिष्टाचार के उन नियमों और बन्धनों के बड़े ही खिलाफ हैं जो उन जैसी उच्च-स्थिति के पुरुषों को जन-सधारण के संगर्स से अलग रखने में कारणीभूत होते हैं। आप घोड़े के बड़े बढ़िया सवार थे। कसरत का आपको बढ़ा शौक था। आप रियासत के हर हिस्स से भली प्रकार परिचित थे। आप उन लोगों की स्थिति और आवश्यकताओं को खूब जानते हैं जिन पर इश्वर ने शासन करने की जिम्मेदारी डाली हैं।

आगे चल कर इसी सिलसिले में कैप्टन वॉल्टर ने राजाओं की शिक्षा के लिये एक कॉलेज खोलने की आवश्यकता प्रदर्शित की। कर्नल कीटिंग्ज ने कर्नल वॉल्टर के उक्त विचारों की ओर भारत के तत्कालीन वॉयसराय लॉर्ड मेयो का ध्यान आकर्षित किया। तदनुसार लॉर्ड महोदय ने सन् 1870 की 22 अक्टूबर को अजमेर में एक दरबार किया। इस दरबार में राजपूताने के बहुत से नरेश सम्मिलित हुए थे। बस, मैयो कॉलेज की नीव इसी समय से गिरी। महाराजा जसवंत सिंह जी ने इस कॉलेज के लिये पचास हजार रुपया प्रदान किया। भरतपुर राज्य के विद्यार्थियों के लिये छात्रालय बनवाने के लिये भी आपने 7150 रुपये प्रदान किये।

सन्‌ 1869 की 10 जून को महाराजा जसवन्त सिंह जी को नियमित राज्याधिकार प्राप्त हुए। इन अधिकारों को महाराजा साहब ने इतना अच्छा उपयोग किया कि सन् 1871 में आपको पूर्ण राज्याधिकार प्राप्त हो गये। उक्त सन्‌ की 7 वीं मार्च को भरतपुर राज्य में एक आम दरबार हुआ। जिसमें कई प्रतिष्ठित युरोपियन और भारतीय सज्जन उपस्थित हुए थे। इसी में बड़े समारोह के साथ महाराजा पूर्ण राज्याधिकारों से विभूषित किये गये। इस अवसर पर तत्कालीन पोलिटिकल एजेण्ट कैप्टन पौलेट और एजेंट टु दी गवर्नर जनरल कर्नल ब्रूक्स ने महाराजा की योग्यता, बुद्धिमत्ता, कार्य-कुशलता और शासन-पटुता की प्रशंसा की, और कहा कि आपको नियमित अधिकार प्राप्त होने के कुछ ही समय बाद राज्य के कई महकमों की स्थिति आशातीत-रूप से सुधर गई।

महाराजा का राज्यकार्य

महाराजा जसवंत सिंह जी केवल शिकार तथा खेलकूद में अपना
समय बर्बाद नहीं किया करते थे, वरन्‌ राज्य-कार्य में भी वे बड़ी दिलचस्पी लिया करते थे। आप खुद मुकदमों की सुनवाई करते तथा उनका यथा समय निर्णय करते। कहा जाता है कि बड़ी गहरी जाँच और सूक्ष्म पथ्यवेक्षषण के बाद आप मुकदमों का फैसला दिया करते थे, जिससे किसी पर अन्याय न हो। इसी समय भारत के तत्कालीन वायसराय लॉर्ड मेयो का अंडमान टापू में किसी कैदी ने खून कर डाला। लॉर्ड महोदय महाराजा जसवंत सिंह जी के बड़े मित्र थे। आपकी मृत्यु का समाचार सुन कर महाराजा साहब को बड़ा दुःख हुआ। आपने आपके स्मृति-भवन के लिये 300 रुपये प्रदान किये।

सन्‌ 1873 में जयपुर और अलवर में भीषण रूप से मुसलधार वृष्टि हुई। बाख-गंगा और रूपारेल नामक नदियों में बड़े ज़ोर की बाढ़ आई। चारों ओर जल ही जल हो गया। भरतपुर के आस पास के तालाब फूट निकले, कई गाँव के गाँव बह गये। सड़के बंटाढार हो गयीं। कोई 600000 रुपयों का नुक़सान हुआ। नदी किनारे की सारी खरीफ फसल नष्ट हो गई। ऐसे कठिन समय में महाराजा जसवंत सिंह जी ने बड़ा प्रजा-प्रेम प्रदर्शित किया।आपने अपने पव्लिक वर्कस डिपार्टमेन्ट के सारे आदमियों को तथा फौज ओर पुलिस को अपनी प्रिय प्रजा की जान और माल की रक्षा करने के लिये लगा दिया। इतना ही नहीं, खुद महाराजा दिन और रात शहर और आस पास के गाँवों में घूम घूम कर अपनी प्रिय प्रजा की रक्षा का आयोजन करते और सरकारी अधिकारी इस कठिन समय में प्रजा की रक्षा के लिये कैसा काम कर रहे हैं, इसका निरीक्षण किया करते थे। इस प्रशंसनीय कार्य से भरतपुर राज्य की प्रजा के हृदय में महाराजा ने अपना विशेष स्थान प्राप्त कर लिया था।

रूपारेल का मामला

रूपारेल नदी का उद्गम-स्थान अलवर राज्य में है। पुराने समय से इस नदी का जल भरतपुर राज्य की भूमि को सींचने के काम में लाया जाता है। सन्‌ 1805 की 14 अक्टूबर को अलवर दरबार ने लॉर्ड लेक के साथ जो इकरारनामा किया था, उसमें उन्होंने स्पष्ट रूप से यह स्वीकार किया था कि आवश्यकतानुसार भरतपुर राज्य के लिये यह नदी खुली रहेगी। अलवर दरबार मे इस इकरारनामे का बराबर पालन नहीं किया। इससे कई बार अंग्रेजी सरकार को इस मामले में हस्तक्षेप करना पड़ा। सन्‌ 1837 की 15 फरवरी को अंग्रेज सरकार ने यह निर्णय किया कि उक्त नदी का आधा आधा जल दोनों रियासते बराबर बॉट लें। यह हुक्म अलवर और भरतपुर दोनों रियासतों ने स्वीकार कर लिया, तथापि इसके अमलदरामद में कुछ न कुछ बखेड़ा होता ही रहा। इस पर सन्‌ 1854 में कर्नल सर हेनरी ( एजेन्ट टु दी गवर्नर जनरल ) ने एक नई व्यवस्था की। वह यह कि प्रत्येक वर्ष की 10 अक्टूबर से 9 जून तक अर्थात्‌ 8 मास तक नदी अलवर राज्य के लिये और शेष 4 मास तक भरतपुर राज्य के लिये खुली रहे।

इस व्यवस्था से 18 मास तक दोनों दरबारों के बीच शान्ति रही।
पर इसके बाद अलवर राज्य भरतपुर राज्य के इस अधिकार पर अनुचित आक्रमण करने लगा। वह भरतपुर सरकार के खिलाफ ब्रिटिश सरकार के पास शिकायतें भी करने लगा।सन्‌ 1873 में अलवर के पोलिटिकल एजेन्ट कैप्टन कैडेल ने इस सम्बन्ध में एक लम्बा मैमोरेन्डम बना कर एजेन्ट टु दी गवर्नर जनरल के पास भेजा। जब महाराजा जसवंत सिंह जी को इसकी खबर लगी तो उन्होंने इस मामले को फिर से उठाने के लिये जोर दिया। भरतपुर के तत्कालीन पोलिटिकल एजेन्ट कैप्टन शॉबट ने आपका समर्थन किया। तत्कालीन एजेन्ट टु दी गवर्नर जनरल सर ल्यूईंस पेली ने अलवर राज्य के पक्ष की कमजोरी को बतलाते हुए यह मामला अंग्रेज सरकार के पास भेज दिया। अंग्रेज सरकार ने इसका निर्णय भरतपुर दरबार के पक्ष में किया। भरतपुर दरबार की विजय हुईं। भारत सरकार के सेक्रेटरी ने राजपूताना के ए. जी. जी. को सन् 1874 की 7 अक्टूबर को पत्र नंबर 2200 पी. भेजा था उसका सारांश यह है:– “श्रीमान वायसराय का अपनी कौंसिल सहित यह मत है कि इस प्रकार के झगड़ों के निर्णय का जो कि इस सदी के आरम्भ से दो रियासतों के बीच चल रहे हैं, यही एक सुरक्षित मार्ग है कि मौजूदा व्यवस्था ही को अमल दरामद रखा जावे। अतएवं आपसे अनुरोध किया जाता है कि आप दोनों दरबारों को यह सूचित कर दें कि निश्चय रूप से मोजूदा व्यवस्था का ही अमलदरामद रहेगा।

सन्‌ 1805 में अलवर ने यह इकरार किया था कि लासबोरी
नदी का बाँध भरतपुर राज्य के प्रान्तों के लाभ के लिये आवश्यकतानुसार हमेशा खुला रहेगा। सन 1854 में सर हेनरी लारेन्स ने जो व्यवस्था की और जिसका अमलदरामद अभी तक है, उसके, आशय ही यह है कि भरतपुर की आवश्यकताओं की पूर्ति की जावे और गवर्नर जनरल इस व्यवस्था को नयी शुरू की हुई पैमाइश आदि के प्रश्नों की भित्ति पर मिटाने का कोई कारण नहीं देखते।

बाणगंगा का मामला

सन 1773 में जयपुर दरबार ने बाणगंगा नदी के जल को रोकने
के लिये जामबाई रामगढ़ के पास एक बाँध बनवाने की योजना की थी। भरतपुर दरबार ने इसका विरोध किया इस नदी से न केवल भरतपुर राज्य के सैकड़ों गाँवों की आबपाशी होती है, वरन खास भरतपुर शहर भी पीने के जल के लिये इसी पर निर्भर था। महाराज के विरोध करने पर राजपुताना डिस्ट्रिक्ट आगरा के सुपरिन्टेन्डिंग इंजिनियर की अध्यक्षता में इस मामले की जाँच करने के लिये एक कमेटी बनी और पूरी जाँच कर ने के बाद उसने पत्र नम्बर 124 सी० तारीख 21 नवम्बर सन 1873 को जो वक्तव्य लिख भेजा उसने बाँध न बाँधने देने का मत प्रदर्शित करते हुए जन हानियों को दर्शाया जो इस बाँध के द्वारा आसपास की रियासतों की हो सकती थीं। इस पर अंग्रेजी सरकार ने जयपुर दरबार को सूचित किया कि इस प्रकार के बांध से भरतपुर राज्य को जो हानि पहुँचेगी, उसकी क्षति का पूर्ति जयपुर दरबार को करनी होगी। जयपुर दरबार ने यह शर्त मंजूर करना ठीक न समझा। इससे बाँध बनवाने की योजना गर्भ ही में विलीन हो गई।

पोलिटिकल एजेन्सी

महाराजा जसवंत सिंह जी ने कई कारण दिखला कर अंग्रेज सरकार से यह अनुरोध किया था कि वह भरतपुर राज्य से पोलिटिकल एजेन्जी उठाकर कहीं अन्यन्न उसकी स्थापता कर दे। अंग्रेज सरकार ने महाराजा की इस अभिलाषा के शुद्ध भाव से प्रेरित हुई समझ कर पोलिटिकल एजेन्सी को उस वक्त आगर में बदल दिया। आगरा में पोलिटिकल एजेन्सी के लिये महाराजा ने बड़े खर्च से सुन्दर और सुसज्जित मकान की व्यवस्था कर दी थी।

दिल्‍ली दरबार

श्रीमती सम्राज्ञी विक्टोरिया के सम्राज्ञी पद धारण करने के उपलक्ष्य में सन्‌ 1877 में दिल्ली में जो आलीशान दरबार हुआ था, उसमें महाराजा जसवंत सिंह जी भी पधारे थे। इस अवसर पर महाराजा के० सी० एस० आई० की उपाधि से विभूषित किये गये थे।

अकाल ओर महाराजा का प्रजा-प्रेम

सन 1877 में भयंकर अकाल पड़ा। यह अकाल “चौंतीस का
अकाल” नाम से मशहूर है। क्योंकि यह विक्रम संवत्‌ 1734 में पड़ा था। उस साल के सितम्बर मास में महाराज़ा जसवंत सिंह जी शिमला में थे। जब आपने अकाल के कारण अपनी प्रजा की दुर्दशा का हाल सुना तो आपने शिमला की अधिक सैर करने के बजाय अपनी प्रिय प्रजा की सुध लेना अधिक उचित समझा। आप श्रीमान्‌ बायसराय से मिलते ही तुरन्त भरतपुर राज्य के लिए रवाना हो गये। भरतपुर आते ही आपने अपनी प्रिय प्रजा के कष्ठ-निवारण के लिये प्रबन्ध करना शुरू किया। सब से पहले महाराजा साहब ने अपने राज्य के तहसीलदारों को आज्ञा दी कि वे तौजी वसूली ( भूमि कर की प्राप्ति ) का काम कतई बन्द कर दे और किसानों को परवरिश के लिये पेशगी रुपया (Advance) दें। साहूकारों को बुलाकर महाराजा ने उनसे अनुरोध किया कि वे ऐसे कठिन समय में किसानों को कर्ज दें। इतना ही नहीं, प्रजा प्रिय महाराजा ने इस कर्ज की सारी जिम्मेदारी अपने कन्धों पर ले ली। बाहर से आने बाले अनाज का सारा महसूल उठा दिया गया।व्यापारियों को खूब प्रोत्साहन दिया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि बाहर से बहुत सा अनाज आ गया। भरतपुर और डिग में गरीब-खाने खोले गये, जहाँ हजारों भूखों ओर अनाथों को मुफ्त भोजन मिलने का सुप्रबन्ध था , बीसो ऐसे काम शुरू किय गये जिनमें हजारों गरीब को मजदूरी कर अपना पेट भरने के साधन मिल गये। इसी समय राज्य के उच्चाधिकारियों ने महाराजा से निवेदन किया कि वे ( महाराज ) अपनी धनिक प्रजा एवं राज्याधिकारियों से चन्दा वसूल कर अकाल-निवारण के कार्य को सुसम्पन्न करें। पर उदार-चित्त महाराजा ने बड़ी घृणा के साथ इस प्रस्ताव को अस्वीकृत कर दिया और कहा कि जब अकाल के कारण सब तकलीफ पा रहे हैं और सब लोगों के खर्च बढ़ रहे हैं ऐसी हालत में लोगों पर नया कर बैठाना या उन पर नया आर्थिक बोझ डालना अन्याय है, में इसे कभी पसन्द नहीं करता। आपने किसी से चन्दा वसूल नहीं किया। सारा का सारा खर्चा राज्य पर डाल दिया। थोड़े दिनों के बाद वर्षा हो जाने से स्थिति सुधर गई, पर महाराज की दानशीलता, उनका अत्युच्च प्रजा-प्रेम, और अपने ऐशो-आराम से अधिक उनका प्रजा कल्याणकारी प्रवृत्ति का ज्वल्यमान चित्र प्रजा के दृदयों में मंडित हो गया। सन 1877 के दिसम्बर मास में अंग्रेज सरकार का निमन्त्रण पाकर महाराजा जसवंत सिह जी कलकत्ता पधारे। यहाँ आप वायसराय के महमान होकर ठहरे। आपके अनेक शुभ कृत्यों से प्रसन्न होकर अंग्रेज सरकार ने आपको जी० सी० एस० आई० की उपाधि से विभूषित किया। इसी समय आप जगन्नाथ जी की यात्रा को भी पधारे।

नमक का मामला

भरतपुर राज्य के भरतपुर, कुम्हेर ओर डिंग आदि स्थानों में प्रति-
साल लगभग 1500000 मन नमक निकलता था। इस पर 50000 आदमियों की रोटी चलती थी। भरतपुर रियासत को इससे प्रति साल 300000 रुपयों की और साम्राज्य सरकार को 5000000 रुपयों की आमदनी थी। सन्‌ 1879 में जब अंग्रेज सरकार ने जयपुर और जोधपुर राज्य से कुछ निश्चित रकम प्रतिसाल देकर साँभर नमक की झील पर अधिकार कर लिया, उसी समय भरतपुर दरबार और ब्रिटिश सरकार के बीच एक समझौता हुआ जिसके अनुसार भरतपुर राज्य से नमक निकालने का काम बिलकुल बन्द कर दिया गया। राज्य की इसमें बड़ी भारी क्षति हुई। हज़ारों आदमियों के पेट की रोजी गई। यह सब कारवाई क्‍यों और किस प्रकार हुई, इस पर यहाँ अधिक लिखने का अवसर नहीं है। अंग्रेजी सरकार ने यह चाहा था कि महाराजा को कुछ क्षतिपूर्ति की रकम दी जावे। पर महाराजा साहब ने इसे लेना उचित नहीं समझा। तब भी अंग्रेज सरकार ने अपनी खुशी से 15000 नकद और 1000 मन सांभरी नमक देने का निश्चय किया। यह रकम अंग्रेज सरकार की ओर से भरतपुर रियासत को बराबर दी जाती रही।

अपराधियों का लेन-देन

अंग्रेज सरकार की मंजूरी से भरतपुर राज्य दरबार ओर अलवर, करोली, धौलपुर तथा जयपुर रियासतों के बीच अपराधियों की गिरफ्तारी ओर उनके लेन-देन के सम्बन्ध में सन्धि हुई। सन्‌ 1884 में भरतपुर राज्य ने शराब, अफ्रीम और अन्य विषेली चीज़ों को छोड़ कर सब चीज़ों पर लगने वाला जावक महसूल उठा दिया। सन्‌ 1885 कीअगस्त को अंग्रेज सरकार की मंजूरी से अलवर औरभरतपुर राज्य के बीच कुछ गाँवों का परिवर्तन हुआ।

महाराजा जसवंत सिंह की उदारता

सन 1883-84 में वर्षा की कमी के कारण खरीफ फसल को
बड़ी हानि पहुंची। उदार-चित्त और सह्रदय महाराजा ने इस समय भूमि कर के 1395350 रुपये माफ़ कर अपने प्रजा-प्रेम का परिचय दिया। इतना ही नहीं, श्रीमान ने किसानो को बैल आदि खेतों के जानवर खरीदने के लिये तथा कच्चे कुएं खुदवाने के लिये तकावी दी। सन 1884 में महाराजा जसवंत सिंह जी श्रीमान ड्यूक ऑफ केनाट तथा वायसराय आदि महोदय से मुलाक़ात की। इस के कुछ दिन पश्चात श्रीमान ड्यूक आफ केनाट डिग और भरतपुर मे पधारे और महाराजा जसवंत सिंह जी के अतिथि रहे। सन्‌ 1887 मे भारत के तत्कालीन प्रधान सेनापति सर डोनल्ड स्टूअट भरतपुर पधारे। महाराजा साहब ने आपका योग्य स्वागत किया। सन्‌ 1889 मे भारत के तत्कालीन बायसराय लार्ड डफरिन महोदय भरतपुर पधारे। यहाँ आपने राज्य के अनेक ऐतिहासिक स्थानों का निरीक्षण किया। महाराजा जसवंत सिंह जी ने आपका बढ़ा आदर अतिथ्य किया। सन 1890 में अंग्रेज सरकार ने महाराजा के अनेक कार्यो से प्रसन्न होकर आपकी तोपों की सलामी 7 स बढ़ा कर 15 कर दी। सन्‌ 1892 की 18 अप्रैल को श्रीमान के द्वितीय पुत्र महाराज कुमार नारायण सिंह जा का देहावसान हो गया। आप पर महाराजा का बड़ा ही स्नेह था। अतएवं आपकी मृत्यु से महाराजा के चित्त को बड़ा ही धक्का पहुँचा। सन् 1893 मे महाराजा लॉर्ड लैन्सडाऊन से मिलने के लिए आगरा जाने की तैयारी कर रहे थे। अकस्मात्‌ आप पर प्राण घातकव्याधि का आक्रमण हो गया और इसी से 12 दिसम्बर को आपका स्वर्गवास हो गया। प्रजा-प्रिय महाराजा जसवंत सिंह जी के स्वर्गवास का समाचार विद्युत वेग की तरह सारे राज्य में फेल गया। चारों ओर शोक का साम्राज्य छा गया। प्रजा को हार्दिक दुःख हुआ।

महाराजा जसवंत सिंह जी के जीवन पर एक दृष्ठि

भरतपुर के एक इतिहास-लेखक ने लिखा है–“ अगर महाराजा सूरजमल जी के यशस्वी और प्रकाशमान कार्यो ने उन्हें भारत के इतिहास में प्रसिद्ध कर दिया और भरतपुर राज्य को जन्म दिया तथा उसका विस्तार सुदूर प्रदेशों तक कर दिया; अगर महाराजा रणजीत सिंह ने अभूतपूर्व वीरत्व का प्रकाशन कर बड़ी चतुराई के साथ आत्म-रक्षा करने का यत्न किया ओर इतिहास में अपने नाम को गौरवान्वित किया तथा समय आने पर ब्रिटिश सरकार के साथ फिर से स्नेह-सम्बन्ध स्थापित कर लिया, वैसे ही महाराजा जसवंत सिंह जी ने भरतपुर को समय की आवश्यकतानुसार उच्च श्रेणी का राज्य बनाने का यत्न किया।

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Naeem Ahmad

CEO & founder alvi travels agency tour organiser planners and consultant and Indian Hindi blogger

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