महाराजा जवाहर सिंह का इतिहास और जीवन परिचय

महाराजा जवाहर सिंह भरतपुर राज्य

स्वर्गीय राजा सूरजमल जी के पाँच पुत्र थे, यथा:- जवाहर सिंह,
ताहर सिंह, रतन सिंह, नवल सिंह, और रणजीत सिंह। इनमें सब
से बड़े पुत्र जवाहर सिंह भरतपुर राज्य के सिंहासन पर आसीन हुए। महाराजा जवाहर सिंह जी बड़े पराक्रमी वीर थे। पर साथ ही वे बड़े दुराग्रही और हठी स्वभाव के थे। आपने अपने पिता का राज्य उनकी जीवित अवस्था ही में खूब बढ़ाया पर भीषण दुराग्रही स्वभाव के कारण इनकी इनके पिता के साथ नहीं पटती थी। राजा सूरजमल जी ने गुस्सा होकर इनसे उन्हें अपना मुंह न दिखलाने के लिये कह दिया था। इसके बाद तनातनी बढ़ते-बढ़ते दोनों में युद्ध होने तक की नौबत आ गई। राजा जवाहर सिंह जी गोपालगढ़ और रामगढ़ के किलों से तोपें दागने लगे औरराजा सूरजमल जी डींग और शाहबुर्ज के किलों से तोपों ही के द्वारा उत्तर देने लगे। इस लड़ाई में जवाहर सिंह के पैर में चोट लगी, जिसने उन्हें सदा के लिये लंगड़ा कर दिया। जब ये घायल होकर बिस्तरे पर पड़े थे, तब पुत्र-प्रेम से प्रेरित होकर महाराजा सूरजमल जी इनके पास आये और दु:ख प्रकट करने लगे। पर इस समय महाराजा जवाहर सिंह जी ने कपड़े से अपना मुंह ढक लिया और कहा कि में आपकी आज्ञा ही का पालन कर ऐसा कर रहा हूं।

महाराजा जवाहर सिंह का इतिहास और जीवन परिचय

राज्य सिंहासन पर बैठते ही महाराजा जवाहर सिंह जी ने सब से पहले अपने पितृ-घातियों से सोलह आना बेर लेने की ठानी। उन्होंने सिक्खों की एक विशाल सेना, मल्हारराव होलकर की मराठी सेना ओर अपनी जाट सेना के साथ सन्‌ 1764 में कूच किया। कहने की आवश्यकता नहीं की दिल्‍ली पर एक जबरदस्त घेरा डाला गया। जवाहर सिंह जी की भारी विजय हुईं। अगर मल्हारराव होलकर इस समय इनका साथ न छोड़ते तो निश्चय ही इसी समय मुगल राजधानीhttps://portal.delhi.gov.in/ पर पूर्ण रूप से महाराजा जवाहर सिंह जी की ध्वजा फहराती।

महाराजा जवाहर सिंह भरतपुर राज्य
राजा जवाहर सिंह भरतपुर राज्य

सन्‌ 1768 में जवाहर सिंह जी पुष्कर की यात्रा के लिये रवाना हुए। इस समय जयपुर में महाराजा माधोसिंह जी राज्य करते थे। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि महाराजा माधो सिंह जी का भरतपुर के जाट घराने के साथ स्वभाविक बेर था। इसके कई कारण थे। प्रथम तो यह कि राजा सूरजमल जी ने माधोसिंह जी के खिलाफ ईश्वरीसिंह जी की सहायता की थी। दूसरी बात यह थी कि जवाहर सिंह जी ने माधो सिंह जी से कामा प्रान्त देने के लिये अनुरोध किया था, वह माधोसिंह जी ने स्वीकार नहीं किया। इस प्रकार और भी कई बातों से दोनों राज-घरानों में उस समय द्वेष की आग जल रही थी। थोड़े से बहाने से इसके और भी भभक उठने की पूरी संभावना थी। दुर्देव से इसके लिये अवसर मिल गया । जवाहर सिंह जी जयपुर राज्य की सीमा से होकर पुष्कर गये। यही बात जयपुर के तत्कालीन राजा माधो सिंह जी के लिये जवाहर सिंह जी से अपनी दुश्मनी निकालने के लिये काफी थी। बिना इज़ाजत के राजा जवाहर सिंह जी जयपुर की सीमा से होकर कैसे निकल गये इस पर महाराजा माधो सिंह ने बड़ी आपत्ती की। उन्होंने अपने सब विशाल सामन्तों को इकट्ठा कर एक विशाल सेना महाराजा जवाहर सिंह जी के खिलाफ़ भेजी। बड़ा भीषण युद्ध हुआ और इसमें जीत का पलड़ा कछवाओं की ओर रहा। पर इसमें जयपुर के राज्य को इतनी भारी हानि उठानी पड़ी कि उनकी विजय भी पराजय के समान हो गई। जयपुर के प्राय: सब नामी नामी सामंत काम आये। इस युद्ध के विषय में कर्नल टॉड साहब लिखते हैं;—

“A desaprate conflict unsued which though it terminated in favonr of the khchwahas and in flight of the leader of the jats. Proved destructive to amber. In the loss of almost every chieftain of not. अर्थात भयंकर युद्ध हुआ और इसका फल कछवाहों के पक्ष में तथा जाट नेता के प्यालों में हुआ। पर युद्ध आमेर के लिए विनाशकारी सिद्ध हुआ, क्यों कि इसमें वहां के सब प्रसिद्ध सामंत मारे गए”

महाराजा जवाहर सिंह जी पुष्कर से आगरा लौट गये और वहां वे सन्‌
1768 के जुलाई मास में शुज्जात मेवात के हाथों से मारे गये। स्थानाभाव के कारण हम राजा जवाहर सिंह जी के सब पराक्रमों पर यथोचित प्रकाश नहीं डाल सकते। वे एक सच्चे सिपाही थे। वीरत्व उनमें कूट-कूट कर भरा हुआ था। उनमें अपने पिता की तरह अद्भुत शासन क्षमता भी थी। प्रजा-कल्याण की ओर भी उनका समुचित ध्यान था। उनका दरबार बड़ा भव्य ओर आलीशान था। बहादुर सिपाही को अपने वीरत्व प्रकाश करने का कोई स्थान था तो वह भरतपुर ही था। महाराजा जवाहर सिंह जी ने देश की कला-कौशल को बड़ा उत्तेजन दिया। कवियों को बड़े पुरस्कार देकर उनकी काव्य प्रतिभा-को बढ़ाया। आपने आगरा में गो-हत्या बिलकुल रोक दी। कसाइयों की दुकानें बन्द कर दी गई। आपने और भरी बहुत से ऐसे काम किये जिनकी वजह से एक सच्चे हिन्दू को योग्य अभिमान हो सकता है।

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