महाराजा रायसिंह के स्वर्गवासी हो जाने घर उनके एक मात्र पुत्र महाराजा कर्ण सिंह जी पिता के सिंहासन पर विराजमान हुए। अपने पिता की जीवित अवस्था में ही सम्राट की अधीनता में महाराजा कर्ण सिंह दौलताबाद के शासन-कर्ता के पद पर नियक्त हुए थे। महाराजा कर्ण सिंह दाराशिकोह के विशेष अनुगत थे और आपने उसको बादशाह के दरबार में प्रवेश करने के लिये विशेष सहायता दी थी।
महाराजा कर्ण सिंह का जीवन परिचय
इस कारण दारा के प्रतिद्वंदी मुगल सम्राट के प्रधान-सेनापति, जिनकी अधीनता में आप काम करते थे, आपसे चिढ़ गये। उन्होंने महाराजा कर्ण सिंह का प्राण-नाश करने का गुप्त षड़यंत्र रचा। परन्तु बूँदी के तत्कालीन महाराज ने आपको पहले से ही सावधान कर दिया। इससे आपने सहज ही में शत्रुओं की उस पाप-कामना को निष्फल कर दिया। कई वर्षों तक प्रबल प्रताप के साथ राज्य शासन कर आपने इस नश्वर शरीर को त्याग दिया। आपके चार पुत्र थे- पद्मसिंह, केशरी सिंह, मोहन सिंह और अनूप सिंह। इनमें से दो पुत्र तो सम्राट की ओर से असीम साहस दिखा कर बिजापुर युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए थे। तीसरे पुत्र मोहन सिंह के जीवन के वियोगान्त अभिनय का वृत्तान्त सुप्रख्यात फारसी इतिहासकार फरिश्ता ने अपने दक्षिण के इतिहास में इस प्रकार किया–‘जिस समय बादशाह की सेना दक्षिण को विजय करने के लिये जा रही थी, उस समय महाराजा कर्ण सिंह जी के चारों कुमार भी राठौरों की सेना के साथ गये थे।
महाराजा कर्ण सिंह बीकानेरएक समय कुमार मोहन सिंह शाहज़ादे मोअज्जम के डेरों में उनके साले के साथ बातचीत कर रहे थे। उनका एक मृग के बच्चे के लिये आपस में झगड़ा हो उठा। यह झगड़ा इतना बढ़ गया कि दोनों क्रोध से उन्मत्त होकर कमर से तलवारें निकाल कर परस्पर युद्ध करने लगे। इस युद्ध में मोहन सिंह जी को मुअज्जम के साले ने मार दिया। जब यह समाचार उनके ज्येष्ठ भ्राता पद्म सिंह के कानों तक पहुँचे तो वे क्रोधित सिंह के समान कंपायमान होते हुए, नंगी तलवार हाथ में ले अपने कितने ही राठौर सेवकों के साथ उसके डेरे में पहुँचे। वहाँ पहुँच कर उन्होंने देखा कि भाई कर्णसिंह पृथ्वी पर अचेत पड़ हैं। उनका सारा शरीर रुघिर से सन रहा है ओर उनके प्राण पखरू प्रयाण कर गये हैं तथा ऐसी अवस्था में भी शत्रु उनकी छाती पर बैठा है, यह दृश्य देखकर उनकी आँखों स अग्नि की चिनगारियाँ निकलने लगीं। आपकी उस विकराल आकृति को देखकर यवन लोग अपने प्राणों के भय से कायर पुरुषों को तरह डेरों से भाग जाने को चेष्टा करने लगे।
शाहजादे मुअज्जम को घटना स्थल पर उपस्थित देखकर भी आप तनिक शंकित न हुए। सिंह के समान गर्जना कर अपने भ्राता के प्राणघातक को अपनी तलवार का जौहर दिखाने के लिये आप उसके पीछे चले। आपने क्रोध से उन्मत्त होकर अपनी तलवार का एक ऐसा प्रहार किया जिससे एक स्तंभ के दो टुकड़े हो गये और उसके साथ ही साथ कर्ण सिंह की हत्या करने वाले यवन की देह के भी दो खंड होकर एक ओर को जा पड़े। अपने भ्राता के प्राणघातक को उचित दण्ड देकर आप अपने डेरे में चल आये तथा जयपुर,जोधपुर और हाड़ौती आदि देशों के राजाओं को यवनों को किसी भी प्रकार से रण में सहायता न देन के लिये उकसाने लगे। आपकी सलाह के अनुसार इन सब राजाओं ने शाहजादे मुअज्ज़म की छावनी छोड़ कर अपने अपने राज्य को प्रस्थान किया। ये लोग शाहजादे की छावनी से 20 मील को दूरी तक निकल आये। इस अवधि में शाहजादे ने अपने होशियार वकीलों द्वारा आपको तथा इन राजाओंको बहुत कुछ समझाया घुमाया, किन्तु ये अपने ध्येय से न डिंगे। अन्त में एक महान विपत्ति को सम्मुख आई देख जब शाहजादे ने खुद जाकर आपको आश्वासन दिया तथा आपकी क्षति-पूर्ति करने की प्रतिज्ञा की, तब आप वापस युद्ध में सम्मिलित हुए।
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