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महाराजा अजीत सिंह राठौड़ मारवाड़

महाराजा अजीत सिंह का इतिहास और जीवन परिचय

महाराजा जसवंत सिंह जी की मृत्यु के समय उनकी जादमजी ओर नारुकीजी नामक दो रानियाँ गर्भवती थीं। अतएव कुछ समय बाद उक्त दोनों रानियों से क्रमशः अजीत सिंह जी और दलथम्भन सिंह जी नामक पुत्रों का जन्म हुआ। पर औरंगजेब ने यह कहकर कि उक्त राजपुत्र राज्य के वास्तविक अधिकारी नहीं हैं। मारवाड़ की रियासत को जब्त कर इसके प्रतिवाद-स्वरूप राठौड़ सरदारों ने काबुल से एक पत्र भेजा। पर औरंगजेब ने उनकी एक न सुनी। सिर्फ यह कहकर कि वह अभी तीन मास का है, राज्य देने से इन्कार कर दिया। इतना ही नहीं, उसने महाराजा अजित सिंह जी को बुलवा लिया जिससे कि राठौड़ सरदार उन्हें मारवाड़ न ले जा सकें। जब राठौड़ सरदारों ने जान लिया कि औरंगजेब जोधपुर राज्य को किसी भी प्रकार से लौटाने में सहमत नहीं है तब वे दिल्‍ली पहुँचे। वहाँ जाकर क्या देखते हैं कि निःसहाय राजकुमार कड़े पहरे में रखे जाते हैं। यह हालत देख उन्होंने किसी प्रकार राजकुमार को भगा ले जाने की युक्तियां ढूंढना शुरू किया। इस समय बोर वाड़ के सरदार की स्त्री गंगा स्नान करके लौटकर दिल्‍ली आई हुई थीं। अतएवं अपने विचारों को कार्यरूप में परिणित करने का यह अच्छा अवसर पाया। राठौड़ सरदार दुर्गादास के आदेशानुसार दोनों राजकुमार उक्त सरदारजी के साथ मारवाड़ रवाना कर दिये गये। राजकुमार दलथम्भन सिंह का रास्ते ही में स्वर्गवास हो गया। महाराजा अजीत सिंह जी को सुरक्षितता से बलंदा नामक स्थान पर पहुँचा दिया। यहाँ से ये सिरोही भेज दिये गये। मुकुन्दास नामक खीची सरदार भी साधु के वेष में आप के साथ आये थे। उक्त सरदार और जग्गू नामक एक ब्राह्मण पुरोहित की आधीनता में वे यहाँ रखे जाने लगे। जब सम्राट को महाराज कुमार के ले जाने की खबर मालूम हुई तो उसने उन्हें वापस लाने का हुक्म दिया। पर राठौड़ों ने इस बात को बिलकुल नामंजूर किया। इतना ही नहीं, उन्होंने अपने राजकुमार की रक्षा के लिये सम्राट के खिलाफ़ लड़ने तक के लिये कमर कस ली। जब सम्राट ने राठौड़ों को किसी भी प्रकार हाथ में आते नहीं देखा तो उसने उनके खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी। उसने स्वर्गीय महाराजा जसवंत सिंह जी की दोनों रानियों को मरवाकर उनकी लाशें जमुना में फिंकवा दीं।

महाराजा अजीत सिंह का इतिहास और जीवन परिचय

सन् 1679 में दिल्‍ली में राठौड़ों और मुगलों के बीच युद्ध हुआ। इस युद्ध में राठौड़ों की तरफ से जोधा रणछोड़दास और भाटी रघुनाथदास नामक सरदार काम आये। प्रसिद्ध राठौड़ वीर दुर्गादास भी इस युद्ध में जख़्मी हुए। पर हाँ, किसी तरह उनके प्राण बच गये। इतना हो जाने पर जोधपुर की रियासत स्वर्गीय महाराज अमर सिंह जी के पौत्र इन्द्र सिंह जी को दे दी। इन्द्र सिंह जी ने सम्राट की सहायता मिल जाने के कारण मारवाड़ पर अधिकार कर लिया। दुर्गादास और सोनाग नामक चंपावत सरदारों ने महाराजा अजीत सिंह जी का पक्ष लेकर इन्द्र सिंह जी का विरोध किया। पर आखिर उनकी एक न चली। वे जोधपुर छोड़कर मेवाड़ चले गये जहाँ महाराजा राजसिंह जी ने उनको आश्रय दिया। इसी बीच औरंगजेब दक्षिण विजय करने को गया। इस सुअवसर का फायदा उठा राठौड़ सरदारों ने मारवाड़ से शाही अधिकारियों की भगा दिया और उस पर पुनः अपना अधिकार कर लिया। जब औरंगज़ेब के पास यह खबर पहुँची तो उसने अपने पुत्र अकबर कोजोधपुर पर भेजा। दुर्गादास जी ने देखा कि शाही-सेना का मुकाबला नहीं किया जा सकेगा। अतएव उन्होंने कूट-नीति का सहारा लिया। उन्होंने अकबर को दिल्ली का सम्राट बनाने का प्रलोभन दिया। राठौड़ वीर केशरी दुर्गादास ने जो सोचा था वही हुआ। अकबर प्रलोभन में आ गया ओर दुर्गादासजी की तरफ मिल गया। अब दुर्गादासजी और अकबर ने मिलकर एक लाख सेना के साथ औरंगजेब पर हमला कर दिया। इस समय औरंगजेब अजमेर में था। उसके पास केवल 10000 सेना थी। अतएव वह बड़ा असमंजस में पड़ गया। पर औरंगजेब भी ऐसा वैसा आदमी नहीं था। उसने तुरन्त अपने दूसरे लड़के मुअज्जम को–जोकि इस समय उदयपुर था–अपनी सहायतार्थ बुलवा लिया वह इतना ही करके नहीं रह गया। उसने अकबर की तरफ के कई सरदारों को प्रलोभन देकर अपनी तरफ़ मिला लिये। यहाँ तक कि अकबर का प्रधान सेनापति ताहिर खाँ तक सम्राट की तरफ आ मिला। पर औरंगजेब ने उसे मार डाला। अब शाहजादा अकबर के पास बहुत थोड़ी सेना रह गई। उसकी हिम्मत टूट गई। पर औरंगजेब इतना करके ही नहीं रह गया, उसने अकबर की सेना में निम्नलिखित अफ़वाह फैला दी।

“अकबर बड़ी बुद्धिमानी के साथ राजपूतों को फांस लाया है, अब उसे चाहिये कि वह युद्ध के समय राजपूतों को सामने रखे और खुद पीछे रहे। युद्ध शुरू होते ही दोनों ओर से राजपूतों पर गोले बरसाना शुरू हो जाँयगे और इस प्रकार बहुत शीघ्र ही शत्रुओं का नाश किया जा सकेगा। ”

यह बात विद्युत-वेग से राजपूत-सेना में फेल गई। औरंगजेब की कूटनीति काम कर गई। राजपू्तों को विश्वास हो गया कि शाहज़ादा अकबर अपने पिता औरंगजेब से मिला हुआ है। अतएव राजपूत सैनिक अकबर का साथ छोड़ चले गये। अब अकबर के लिये युद्ध क्षेत्र से भाग निकल ने के सिवा कोई उपाय नहीं रह गया। सम्राट ने शाहजादा मुअज्जम और अबुलकासिम को अकबर के पीछे भेजा। अकबर का तमाम सामान लूट लिया गया। उसके शरीर-रक्षक तक काम आये। इस भयंकर संकट के समय में अकबर को अपने बाल बच्चों की फिक्र पड़ी। वह बड़े असमंजस में पड़ा कि अब बालकों की रक्षा किस प्रकार की जाये । किस सुरक्षित स्थान पर पहुँचा देने से उनके प्राण बचेगें। ऐसे समय में दुर्गादास जी ने उनकी रक्षा का भार अपने ऊपर लिया। इन्होंने उन बालकों की अपने कुटुम्बीजनों की संरक्षता में रख दिया। अकबर को भी अपने साथ चलने के लिये कहा। अकबर को दुर्गादास जी में असीम विश्वास था अतएवं वह उनके साथ हो लिया। ये दोनों राजपीपला के मार्ग से दक्षिण पहुँचे। यहाँ दुर्गादास जी ने संभाजी के साथ अकबर की मित्रता करवा दी। अब औरंगजेब का ध्यान दक्षिण की तरफ झुका।

इधर सोनाग और उसके अनुयायी अशरफ़र खाँ के पुत्र एतिकाद खाँ द्वारा रा मार डाले गये। दूसरे राठौड़ सरदारों ने पूर और मांडल नामक स्थानों को लूटना शुरू किया। यहां शाही-सेना का संचालन किशनगढ़ के राजा मानसिंह जी कर रहे थे। अंत में ये लोग सिरोही जा पहुँचे जहां पर कि अजित सिंह जी अज्ञातवास में थे। सन् 1685 में राठौडो ने सिबना के किले पर डेरा डाल दिया। किले का रक्षक पुरदिल खाँ मेवाती मार डाला गया। दो वर्ष बाद दुर्जन सिंह जी-जोकि बूंदी की गद्दी से उतार दिये गये थे- मार डाले गये। सन् 1688 में राठौड़ सरदारों के हृदयों में उनके बाल महाराजा के दर्शन करने की अभिलाषा उत्पन्न हुईं। जिस स्वामी के हित के लिये वे प्राणों पर बाजी खेलकर लड़ रहे थे उनके दर्शन के लिये वे उत्सुक हो उठे। चंपावत उदयसिंह और सुर्जन सिंह जी के पुत्र मुकुन्द दास जी इस कार्य के लिये नियुक्त किये गये। इन दोनों सरदारों ने खीची मुकुन्ददास से महाराज कुमार अजीत सिंह जी के विषय में बतलाने के लिये कहा। इतना ही नहीं इसने उसे बहुत कुछ डराया धमकाया पर उसने एक न सुनी। इससे कुछ राठौड़ सरदारों को अपने स्वामी के आस्तित्व में शक होने लग गया। उनका यह खयाल होने लग गया कि शायद जिनके लिये हम इतने लड़ रहे हैं वे अब इस दुनिया में नहीं हैं। इधर खीची मुकुन्ददास को दुर्गादास जी ने कह रखा था कि वह महाराज कुमार को बिलकुल अज्ञात स्थान में रखे और किसी को उनका पता न लगने दे। अतएव उसने उक्त राठौड़ सरदारों को दुर्गादास जी की अनुमति के लिये पूछा। पर चूंकि दुर्गादास जी सुदूर दक्षिण देश में थे और इधर सरदारगण महाराज कुमार को देखना चाहते थे अतएव खीची मुकुन्ददास को लाचार होकर राजकुमार को प्रगट में लाना पड़ा। उनके दर्शन करते ही सब राठौड़ सरदारों में स्फूर्ति आ गई। उनमें फिर से नव-जीवन का संचार हो उठा। इस प्रकार अपने स्वामी वो प्राप्त कर फिर से राठौड़ों ने मुगलों के विरुद्ध युद्ध शुरू किया। लगातार 18 वर्ष तक वे बराबर मुगलों
का मुकाबला करते रहे।

महाराजा अजीत सिंह राठौड़ मारवाड़
महाराजा अजीत सिंह राठौड़ मारवाड़

सन् 1694 में उदयपुर के राणाजी की पुत्री के साथ महाराजा
अजित सिंह जी का शुभ विवाह संपन्न हुआ। अब तक औरंगजेब को महाराजा अजित सिंह जी के अतित्व में सन्देह था। उसका खयाल था कि महाराजा अजित सिंह जी जीवित नहीं है। राठौर सरदार झूठमूठ उनके नाम से लड़ रहे हैं। पर अब उसका यह भ्रम जाता रहा। अब उसे विश्वास हो गया कि जब राणाजी ने अपनी पुत्री उसे दे दी है, वह पुरुष अवश्य ही असली महाराजा अजित सिंह होगा। पर अब औरंगजेब को अकबर के उन बाल बच्चों की फिक्र होने लगी जो कि दुर्गादास के कुटम्बीजनों की अधीनता में थे। उसे इस बात का डर मालूम होने लगा कि कहीं राठोड़ सरदार उनका विवाह-संबन्ध किसी साधारण मुसलमान घराने के साथ न कर दें। यदि ऐसा हो जायगा तो सचमुच मेरी शान किरकरी हो जायगी। अतएव उसने दुर्गादासजी से इन बच्चों को वापस लौटा ने के लिये कहा। दुर्गा दास जी ने भी इस सुअवसर को हाथ से नहीं जाने दिया। उन्होंने तुरंत गुजरात के सूबेदार सुजातखां के साथ उन्हें बादशाह के पास भिजवा दिया। दुर्गादास के इस व्यवहार से बादशाह बहुत खुश हुआ। उसने दुर्गादासजी को मेडला जागीर में दे दिया और उन्हें 2500 जाट और 2500 घुड़-सवारों का सेना-नायक बना दिया। दुर्गादासजी के कहने से उसने अजित सिंह जी को भी जालोर और सांचारे वापस लौटा दिये। इस समय जालोर मुजाहिद खां के अधिकार में था। अतएव इसके बदले में उसे पालनपुर दिया गया। पालनपुर के वर्तमान नवाब उक्त मुजाहिद खाँ ही के वंशज रहे।

सन् 1702 में महाराजा अजित सिंह जी के दो पुत्र हुए। इसके चार साल बाद औरंगजेब की मृत्यु हो गई। अतएव महाराजा अजित सिंह जी ने जोधपुर राज्य के मुगल सूबेदार नाजिमकुली को हराकर फिर से अपना अधिकार लिया। अजित सिंह जी इतना करके ही नहीं रह गये। उन्होंने सोजत, सिवाना और पालीलाम स्थानों पर भी पुनः अधिकार कर लिया। औरंगजेब के बाद बहादुरशाह दिल्‍ली के तख्त पर बैठा। उसने अजित सिंह जी के अपनी पैत्रिक सम्पत्ति पर अधिकार कर लेने के कार्य को गैर कानूनी समझकर उन पर चढ़ाई कर दी। उसे आंबेर के राजा जयसिंहजी को भी वश में करना था कारण कि उन्होंने भी औरंगजेब की मृत्यु हो जाने पर बहादुरशाह के खिलाफ उसके भाई को मदद दी थी। बहादुरशाह अजमेर आया। उसने आंबेर और जोधपुर की रियासतें जप्त कर ली। और वहाँ के शासक जयसिंहजी और अजित सिंह जी को अपने साथ दिल्ली ले गया। वहाँ से उसने दोनों महाराजाओं को अपनी दक्षिण विजय वाली फौज के साथ जाने की आज्ञा दी। उक्त दोनों ही राजा यहाँ से तो मुगल सेना के साथ हो लिये पर नर्मदा नदी के पास से वे वापस लौट आये। अब उक्त दोनों राजा उदयपुर पहुँचे। राणाजी की सहायता से पहले तो इन्होंने जोधपुर के मुगल सूबेदार को भगा कर उस पर अपना अधिकार करलिया, फिर अवसर पाते हीं आंमेर को भी हस्तगत कर लिया। इस प्रकार अजित सिंह जी ओर जयसिंह जी फ़िर से अपने अपने राज्य के स्वामी बन गये। इतना ही होकर रह गया हो सो बात नहीं थी। उक्त दोनों महाराजाओं और दुर्गादास जी ने मिलकर सांभर झील भी मुगलों से छीन ली। लूट का यह प्रदेश अजित सिंह जी और जयसिंह जी ने आपस में बाँट लिया। यद्यपि इसमें दुर्गादासजी का भी हिस्सा था तथापि जयसिंह जी ने यह कहकर कि “सांभर झील में हिस्सा लेने के लिये जसवंत सिंह जी के कुल में पैदा होने की आवश्यकता है।” उन्हें टाल दिया। सचमुच दुर्गादास जी को जिन्होंने कि महाराजा अजित सिंह जी को बचाने के लिये अपनी जान तक जोखिम में डाल दी थी–उक्त अपमान-जनक वाक्य सुनकर बड़ा ही दुःख हुआ होगा।

सन् 1709 में बहादुरशाह फिर से अजमेर आया। इस समय उसकी इच्छा युद्ध करने की नहीं थी। चूंकि पंजाब में जाकर सिक्खों के उपद्रव को शांत करता अनिवार्य था इसलिये वह इस समय राजपूताने में शांति रखना चाहता था। अतएवं उसने अजित सिंह जी ओर जयसिंह जी के उक्त काये का विरोध नहीं किया। उसने बिना किसी प्रकार की चूचपड़ के उन्हें अपने अपने राज्य का राजा कबूल कर लिया। इस समय उदयपुर के महाराजकुमार अमर सिंह जी अपने पिता राणा जयसिंह जी के विरुद्ध षडयंत्र रच रहे थे। वे चाहते थे कि उदयपुर की राजगद्दी पर से उन्हें हटा कर में बैठ जाऊँ। राणाजी ने इस कार्य में महाराजा अजित सिंह जी की सहायता माँगी। अजित सिंह जी ने दुर्गादास जी से स्वतंत्र होने का यह अच्छा सुअवसर देख उन्हें उदयपुर के झगड़े को शांत करने के लिये भेज दिया। दुर्गादासजी ने बड़ी योग्यता के साथ वहाँ जाकर झगड़े का निपटारा कर दिया। उन्होंने पालीताना तीन लाख रुपये की आमदनी का राजनगर नामक जिला अमर सिंहजी को दिलवाकर झगड़ा शांत कर दिया। दुर्गादास जी के इस कार्य से महाराणा बहुत खुश हुए। उन्होंने दुर्गादासजी को फिर अपने पास से नहीं जाने दिया। अपनी मृत्यु के कुछ ही समय पहले से आप उज्जैन चले गये थे। वही पर सिप्रा नदी के किनारे आपका स्वर्गवास हुआ। आपकी स्मृति में वहाँ एक छत्री बनी हुई है। यह छत्री ‘राठौड़ छत्री’ के नाम से प्रसिद्ध है। दुःख के साथ कहना पड़ता है कि महाराजा अजित सिंह जी ने दुर्गादासजी के समान
स्वामिभक्त सरदार के मूल्य को नहीं पहिचाना। अजीत सिंह जी के बाद महाराजा मानसिंह जी ने भी अपने सरदारों के प्रति ऐसा ही व्यवहार किया था। अतएव यह उक्ति उस समय की है। इसका आशय यह कि जोधपुर के राजघराने में यही रीति है। इसका प्रमाण यह है कि दुर्गादासजी का स्वर्गवास भी क्षिप्रा के किनारे हुआ था।”

सन् 1716 में बहादुर शाह इस संसार से चल बसा। उसके बाद क्रमशः जहांदार शाह, और फरुखसियार दिल्ली के तख्त पर बेठे । फरुखसियार के तख्त पर बैठते समय जो दरबार हुआ था उसमें महाराजा अजीत सिंह जी सम्मिलित नहीं हुए। इस अपमान का बदला लेने के लिये सम्राट ने अपने प्रधान सेनापति सेय्यद् हुसेन को जोधपुर भेजा। पर महाराजा ने उससे सुलह कर ली। वे उसके साथ दिल्ली भी गये। यहाँ पर सम्राट ने खुश होकर महाराजा को 6000 जाटों एवम 6000 घुडसवारों का सेना-नायक नियुक्त कर दिया। इतना ही नहीं वे गुजरात के सूबेदार भी नियुक्त किये गये। छः साल तक महाराजा अजीत सिंह जी गुजरात में रहे। इस अर्से में आपका सय्यद भाईयों ( सय्यद अब्दुल्ला खाँ ओर सय्यद हुसेन खाँ जो कि क्रमशः सम्राट के वजीर और प्रधान सेना-नायक थे ) से खूब परिचय हो गया। उक्त सैय्यद भ्राता इस समय बड़े शक्तिशाली व्यक्ति थे। इतिहास में इनका नाम राजा को बनाने वाले के नाम से प्रसिद्ध है। महाराजा अजीत सिंह जी इनके षड़यंत्र में शामिल हो गये ओर इस प्रकार तीनों ने मिलकर फरुखसियार को गद्दी से उतार दिया। इसके बाद रफ़िउ्द्राजात दिल्‍ली के सिंहासन पर बैठाया गया। चार मास बाद ही यह भी गद्दी से उतार दिया गया।

अब शाही खानदान का रफिउद्दौला नामक पुरुष दिल्‍ली के तख्त पर बैठाया गया। सन् 1718 में जब रफिउ्द्राजात दिल्ली के तख्त पर बैठा था तो उसने अजीत सिंह जी के कहने से हिन्दुओं पर का जिजिया कर माफ करवा दिया था। सैय्यद बंधुओं से मित्रता हो जाने के कारण महाराजा अजीत सिंह जी की ताकत बहुत बढ़ गई थी। उस समय दिल्‍ली की बादशाहत इन तीनों के हाथ का खिलौना था। इन्होंने रफिउद्दौला को भी गद्दी से उतारना चाहा क्योंकि उसके स्थान में ये ओरंगजेब के पौत्र रौशनअख्तर को बैठाना चाहते थे। इनको तो इच्छा करने मात्र की देर थी। कट रोशनअख्तर गद्दी पर बैठा दिया गया। इस नवीन सम्राट ने तख्त पर बैठकर अपना नास महमद शाह रखा। इसने निजामउल्मुलक की सहायता से सैय्यद अब्दुल्ला को केद कर लिया ओर सैय्यद हुसेन को मरवा डाला। महाराजा अजीत सिंह जी बड़े बुद्धिमान थे। वे इन झगड़ों में फंसे रहते हुए भी उनसे अलग रहते थे।

इस समय आप मारवाड़ में थे। मुगल शासन की कमजोरी देखकर आपने अजमेर पर अपना अधिकार कर लिया और तत्कालीन निम्बाज के ठाकुर साहब अमर सिंह जी को वहाँ के शासक नियुक्त कर दिया। पर सम्राट ने सेना भेजकर फिर से अजमेर पर अपना अधिकार कर लिया। जोधपुर की रियासत इस समय बड़ी शक्तिशालिनी होती जा रही थी। उसकी यह शक्ति आंमेर-नरेश
जयसिंह जी ओर सम्राट से देखी न गईं। अतएवं जयसिंह जी ने महमद शाह को एक युक्ति बतलाई। उन्होंने सम्राट से महाराजा अजीत सिंह जी को उनके पुत्र अभय सिंह जी द्वारा मरवा डालने के लिये कहा। उक्त विचार को कार्य रूप में परिणत करने के विचार से एक समय महमद शाह अभय सिंह जी को जमुना नदी पर ले गया । वहाँ एक नाव में बेबकर ये दोनों जब जल के अर्ध्य में पहुँचे तब बादशाह ने उक्त बात उठाई। उसने अभय सिंह जी को हत्या करने के लिये समझाया। उसने यह भी कहा कि यदि तुम यह बात स्वीकार नहीं करोगे तो इसी समय जमुना में डुबो दिये जाओगे।प्राण भय के कारण अभय सिंह जी को उक्त बात स्वीकार करनी पड़ी। उन्होंने अपने छोटे भाई बखत सिंह जी पर इस बात का भार डाल दिया । बखतसिंहजी ने वैसा ही किया। उन्होंने सन् 1724 में महाराजा अजित सिंह जी को इहलोक से बिदा कर दिया।

अपने जन्म दिन से लगाकर मृत्यु पर्यन्त तक महाराजा अजित सिंह जी के जीवन में कई उत्थान और पतन हुए। इस बीच उन्हें कई मुसीबतों का सामना करना पड़ा। आपका बाल्यकाल दुर्गादास व दूसरे राठौड़ सरदारों की संरक्षितता में बीता। युवावस्था, आपको अपनी पेत्रिक सम्पत्ति के वापस लेने में, एवम घोर युद्ध करने में बितानी पड़ी। जब आप गद्दी पर बेठे तो इतने शक्तिशाली हो गये थे कि फरुखसियार तक को आपने कैद कर लिया था। दिल्‍ली के चार बादशाहों को आपने अपने हाथ से तख्त पर बिठाया। एक अर्से तक आपकी वह ताकत थी कि आप जिसको चाहते उसे तख्त से
उतार देते थे। लेखकों ने महाराजा अजित सिंह जी को बादशाह बनाने वाले ( King makar ) के नाम से संबोधित किया है। महाराजा अजित सिंह जी के 13 पुत्र थे। इनमें से अभय सिंह जी राजगद्दी पर बेठे। आनंद सिंह जी नामक दूसरे पुत्र ईडर के शासक नियुक्त हुए।

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Naeem Ahmad

CEO & founder alvi travels agency tour organiser planners and consultant and Indian Hindi blogger

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