मलिका किश्वर साहिबा अवध के चौथे बादशाह सुरैयाजाहुनवाब अमजद अली शाह की खास महल नवाब ताजआरा बेगम कालपी के नवाब हसीमुद्दीन खाँ की बेटी थीं और मलिका किश्वर उनका खिताब था। नवाबी दौर में मलिका किश्वर जैसी शर्मदार और सलीक़ामन्द बेगम का जवाब नहीं मिलता है। मिर्जा कैसर जमांनवाब वाजिद अली शाह उन्हीं की सन्तान थे।
मलिका किश्वर का इतिहास और कहानी
मलिका किश्वर के बारे में मशहूर है कि सुबह सोकर उठने पर जब वो ठण्डे’ और गुनगुने पानी के हौज़ पर उतरती थी तो वहाँ उन्हें वही बूढ़ी ख़ादिमाएँ नहलाती थीं जो उन्हें कुवारेपन से नहलाती आई थीं। उन ख़ादिमाओं के अलावा किसी भी औरत ने उन्हें चेहरे और हाथों के अलावा नही देखा था। अवध के इतिहास में सिर्फ़ मलिका किश्वर ही थी जिन्होंने ख्वाजासराओं (नपुंसकों) की खिदमत को कभी पसन्द नहीं किया इसलिए उनके महल में कनीज़ों के अलावा और किसी का गुजर नहीं था। उनकी ड्योढ़ी के बरामदों में पिस्तौल बाँधकर कुछ तातारी औरतें टहलती रहती थी और सदर दरवाजे पर करौलीबन्द पहरेदार तुकिनें तैनात रहती थीं।

मलिका किश्वर की शानो-शौकत का ये आलम था कि वोलखनऊ में ही अलग-अलग मौसम में अलग-अलग स्थानों पर रहती थीं। जाड़े में छतर मंजिल, गर्मियों में चौलक्खी कोठी और बरसात मे हवेली बाग़ द्वारकादास उनके निवास स्थान हुआ करते थे। अगर कभी चमन में घूमने निकलती थीं तो सौ-दो सौ खादिमाएँ उनके पीछे चलती थीं।
सवेरे उनके दस्तरख्वान पर पच्चीस तरह की बेहतरीन जायकेदार तश्तरियाँ नाश्ते के लिए चुनी जाती थीं मगर मलिका किश्वर उनमें से पाँच लुक्मे खाकर, चाँदी के गिलास में मोतियों का शरबत पीकर उठ जाती थीं। उसके बाद वो तोशहख़ाने (ड्राइंगरूम) में तशरीफ़ लाती थीं जहाँ दरपर्दा बैठकर चिलमन के उस पार बैठे मौलवी साहब से कलामे पाक सुनती थीं।
दोपहर के खाने पर जब वो बादशाह के साथ बैठती थीं तो महल के सदर फ़ाटक पर सारे शहर को इस बात की इत्तिला देने के लिए एक तोप दागी जाती थी और बराबर शहनाई बजती रहती थी और एक बार जो पोशाक जिस्म छू लेती थी उसे दुबारा पहनने का तो कोई सवाल ही नहीं था। वह कपड़े बाँदियों और ख़वासों में बाँट दिए जाते थे। मगर उससे पहले उन पर बना हुआ सच्चा गंगा जमुनी काम उधेड़ दिया जाता था। इसके साथ ही सिलाई की बखिया भी उधेड़ दी जाती थी ताकि उनके जिस्म की रूपरेखा कभी आँकी न जा सके।
बेगम चढ़ती रात जब अपनी खुवाबगाह में जातीं तो अक्सर किस्सागो औरतों का एक झुण्ड कोर्निश बजाकर फ़र्श पर बैठ जाता था। वो किस्सा कहने वालियाँ औरते मलिका के मूड के मुताबिक कहानियाँ सुनाती थी। मलिका किश्वर को जेवरात में जवाहराती गहने ज़्यादा पसन्द थे। बेवा हो जाने के बाद भी उन्होंने सिर्फ़ सुहाग की नथ से ही परहेज़ किया वरना बाक़ी जेवर अक्सर उनके जिस्म की जीनत बन जाया करते थे।
मलिका किश्वर के बारे में यह बात भी मशहूर है कि उन्होंने बिना सख्त जरूरत के कभी’ अपने दरे-दौलत से बाहर क़दम नहीं रखा था। लेकिन उन्हें क्या मालूम था कि अपने बेटे वाजिद अली शाह का तख्त-ओ-ताज वापस माँगने के लिए उन्हें एक दिन महारानी विक्टोरिया के पास लन्दन तक जाना पड़ेगा। उसी असफल यात्रा की वापसी के दौरान मलिका किश्वर का देहान्त 21 फरवरी 1857 को हो गया। पेरिस में मरने वाली अवध की इस मलिकए किश्वर को पेरिस की ही मिट्टी नसीब हुई।