मदुरई का इतिहास – मदुरई के दर्शनीय स्थल Naeem Ahmad, February 28, 2023 मदुरई या मदुरै यह शहर भारत केतमिलनाडु राज्य में वैगान नदी के किनारे स्थित है। यह दो ओर से यन्नई मलाई (हाथी पहाड़ी) और नाग मलाई (नाग पहाड़ी) से घिरा हुआ है। यन्नई मलाई 8 किमी लंबी है और एक लेटे हुए हाथी जैसी लगती है। मदुरई मथुरा का ही तमिल रूप है। मदुरै से तात्पर्य है मधुर शहर, ऐसा माना जाता है कि यहाँ शिव की जटाओं से अमृत वर्षा हुई थी।Contents1 मदुरई का इतिहास – मदुरै का इतिहास1.1 धर्म, शिक्षा और कला1.2 व्यापार1.3 मदुरई के पर्यटन स्थल – मदुरै के दर्शनीय स्थल1.4 मदुरई में उपलब्ध सुविधाएं2 हमारे यह लेख भी जरूर पढ़े:—मदुरई का इतिहास – मदुरै का इतिहासपांड्य शासकों ने यहाँ प्रथम शताब्दी ई० से बारहवीं शताब्दी ई० तक समय-समय पर राज्य किया था। अपने अस्तित्व के लिए उन्हें पल्लवों से कई बार युद्ध करना पड़ा और उन्हें ज्यादातर बार हराया। उन्होंने अपनी राजधानी मनवर से मदुरई भी बदली। अशोक के काल में मदुरै में पांड्यों का स्वतंत्र राज्य था। इस वंश का एक प्रसिद्ध राजा नेडुंजेलियान था। उसकी राजधानी मदुरई पर चेर, चोल और पाँच अन्य छोटे-छोटे राज्यों ने आक्रमण किया। उसने उन्हें तलैयालंगनम् नामक स्थान पर हराया तथा कोंगु व कुछ अन्य क्षेत्रों को जीतकर अपने राज्य का विस्तार किया। उसने अनेक वैदिक यज्ञ किए।छठी शताब्दी के अंत में कुडुंगन (560-90) ने पांड्य शक्ति को दुबारा जुटाया। उसके बाद मारवर्मा अवनिसुलमाणी (590-620), सेलियान सेडल (620-50) तथा अरिकंसरी परांकुस मारवर्मा (650-700) राजा हुए। इस वंश के अगले राजा अरिकेसरी मारवर्मा 700-40) ने केरल तथा अन्य राज्यों को जीता। उसने पल्लवों के विरुद्ध चालुक्य राजा विक्रमादित्य प्रथम से संधि करके पल्लव राजा परमेश्वर वर्मा को हराया। उसके बाद कोच्चडयन (710-35) ने कोंगु जीत लिया और मांरवर्मा राजसिंह प्रथम (735-65) ने गंग तथा चालुक्य राजाओं की सम्मिलित सेना को 700 ई० के आस-पास वेण्बाई के स्थान पर पराजित किया।मदुरई मीनाक्षी मंदिर के सुंदर दृश्यबाद में जटिल प्रातंक उर्फ वरगुण प्रथम (765-815) ने पल्लव राजा नंदी वर्मा द्वारा बनाए गए संघ को पराजित किया और अपने राज्य को त्रिरुचिरापल्ली, सेलम तथा कोयंबटूर तक बढ़ाया।उसके उत्तराधिकारी श्रीवल्लभ (815-62) ने गंग, पल्लव, चोल, कलिंग और मगध राजाओं के संगठन को कुंभकोणम के स्थान पर हराया। उसने लंका पर आक्रमण करके वहाँ की राजधानी को लूटा। इसी दौरान उसके पुत्र वरगुण वर्मा ने विद्रोह कर दिया और लंका के राजा को पांड्य राज्य पर आक्रमण करने के लिए निमंत्रित किया। इसी समय पल्लव राजा नृपतुंग ने भी पांड्य राज्य पर आक्रमण कर दिया। श्रीमार की हार हुई और लंका के राजा ने उसकी राजधानी पर कब्जा कर लिया।उसकी मृत्यु के पश्चात वरगुण वर्मा द्वितीय ने पल्लव नरेश नृपतुंग का आधिपत्य स्वीकार कर लिया। जब वरगुण ने कुछ समय बाद स्वतंत्र होने का प्रयास किया, तो पल्लवों ने उसे 880 ई० के आस-पास श्रीपुरमबियम के स्थान पर बुरी तरह हराया। उसके बाद प्रांतक उर्फ वीरनारायण षडयन (880-900) तथा मारवर्मा राजसिंह द्वितीय (900-20) राजा बने। 910 ई० के आस-पास चोल के पुत्र प्रांतक ने पांड्य राजाओं की राजधानी पर अधिकार कर लिया। पांड्य राजा ने लंका के राजा से मिलकर चोलों के विरुद्ध एक संगठन बनाया। चोलों ने उनकी सम्मिलित सेना को 920 ई० के आस-पास मदुरई के निकट हरा दिया।इसके बाद काफी समय तक चोलों ने पांडय राज्य पर शासन किया। चोल राजा प्रांतक ने इसे 907 और 953 ई० के मध्य पांड्य राजा राजसिंह से छीना था। 949 ई० में राष्ट्रकूट राजा कृष्ण तृतीय ने इसे अपने कब्जे में कर लिया । राजराजा ने इसे पुन: अपने कब्जे में कर लिया और यहाँ एक मठ बनवाया। बारहवीं’ शताब्दी में कुलोतुंग प्रथम के बाद तंजौर के चोल राजाओं की शक्ति क्षीण हो गई। इस स्थिति का लाभ उठाकर पांडय राजाओं ने अपनी शक्ति बढ़ा ली, परंतु ऐसे समय में कुलशेखर और वीर पांड्य राज्य के दो दावेदार खड़े हो गए। लंका के राजा ने वीर पांड्य राजा की सहायता की और चोल राजा ने कुलशेखर की।अंत में 1182 में कुलशेखर का पुत्र विक्रम मदुरई की राजगद्दी पर बैठा। परंतु विक्रम चोलों को अधिपति मानता था। फिर भी अगले शासक जय वर्मा कुलशेखर (1190-1216) चोलों से पूरी तरह स्वतंत्र हो गया। उसके उत्तराधिकारी के रूप में मारवर्मा सुंदर पांड्य (1216-28) राजा बना। उसने चोल राजा कुलोतुंग तृतीय को हराकर उससे उरैयूर और तंजौर छीन लिए तथा उसे कर देने के लिए विवश किया। बाद में कुलोतुंग ने होयसल राजाओं की सहायता से अपना राज्य वापस ले लिया, फिर भी उसे चोल राजा का आधिपत्य स्वीकर करना पड़ा। सुंदर पांड्य ने चोल राजा राजराजा तृतीय के विद्रोह को दबाकर उसे पराजित किया। परंतु उसे भी होयसल राजा की सहायता मिल गई।मारवर्मा सुंदर पांड्य के बाद मारवर्मा सुंदर पांड्य द्वितीय (1228- 51) और जटा वर्मा सुंदर पांड्य (1251 ई०) राजा बने। जटा वर्मा सुंदर पांड्य ने वारंगल के काकतीयों, सेंधमंडलम के पल्लव सामंतों और द्वारसमुद्र के होयसलों को हराकर अपना राज्य सुदूर दक्षिण तक बढ़ाया। चोल राजा राजेंद्र भी उसका आधिपत्य मानता था। उसने लंका के राजा को हराया और उससे बहुत से मोती प्राप्त किए। जटा वर्मा सुंदर पांड्य ने कांचीपुरम पर अधिकार करके अपना वीराभिषेक कराया। लंका के एक भाग के शासक मलय प्रदेश के राजा चंद्रभान ने भी उसका आधिपत्य स्वीकार किया।उसके बाद मारवर्मा कुलशेखर राजा बना। 1311 ई० में मलिक काफूर ने यहाँ के पांड्य राजा वीर पांड्य पर आक्रमण कर दिया। यह आक्रमण उसने सुदर पांड्य के निमंत्रण पर किया था। उन दिनों सुंदर पांड्य का अपने भाई वीर पांड्य से झगड़ा चल रहा था। हालाँकि मलिक काफूर उसे हरा न सका, परंतु ऐसा कहा जाता है कि उसे यहां से इतना धन मिला कि उसका इतिहास में कोई पूर्व उदाहरण नहीं था। 1333 में मदुरई के तुगलक गवर्नर जलालुद्दीन अहसान ने अपने आपको स्वतंत्र कर लिया। 1356 में विजयनगर साम्राज्य के संस्थापक हरिहर ने मदुरई पर आक्रमण कर दिया। उसके उत्तराधिकारी बुक्का राय (1356-77) ने मदुरई को जीतकर उसे अपने साम्राज्य में मिला लिया। 1490 से 1506 के बीच इम्माड़ि नरसिंह के काल में नरसा नायक ने भी मदुरई को जीता।धर्म, शिक्षा और कलामदुरई एक किलेबंद शहर था। नायक राजाओं ने यहां सोलहवीं शताब्दी ई० में मीनाक्षी मंदिर बनवाया था, जिसके कारण यह आज भी प्रसिद्ध है। पांड्यों के शासन के दौरान यहां तीसरे संगम का आयोजन हुआ था। इस संगम में पचास विद्वानों ने भाग लिया था। तीसरे संगम के तीन संग्रह उपलब्ध हैं – पुत्थुप्पातु, एतुत्थोकई और पदिनेन कीलकनक्कु। पुत्थुप्पातु में दस काव्य हैं।इनमें नक्किरर, रुद्रवन कन्नार, मरुथनार, कन्नियार, नत्यथनार, नप्पुथनार, कपिलार और कैसिकनार के काव्य हैं। एतुत्थोकई में कविताओं के आठ संग्रह हैं। पदिनेन कीलकनककु में 28 संग्रह हैं। इनमें सबसे प्रसिद्ध रचना तिरुवल्लुवर की है। तीसरे संगम में उपर्युक्त तीन संग्रहों के अतिरिक्त तीन महाकाव्यों की रचना भी हुईं। सबसे प्रसिद्ध महाकाव्य इलंगो का शिलप्पदिकारम् है, जिसमें कोवलन और कनन्नकी की कथा है। दूसरा महाकाव्य मणिमेखलय और तीसरा जीवककृत जीवक चिंतामणि है। संगम साहित्य का रचना काल 100 ई० से 250 ई० के बीच का है। मदुरै की प्राकृतिक गुफाओं में दूसरी और पहली शताब्दी ई०पू० के संगम युग के ब्राह्मी लिपि में कुछ छोटे- छोटे लेख भी पाए गए हैं। ब्राह्मण धर्म युग का प्रमुख धर्म था।व्यापारव्यापार के क्षेत्र में मदुरई एक समृद्ध शहर था। यहां से हीरों का व्यापार किया जाता था। अधिकांश व्यापार रोम के साथ किया जाता था। रोम सम्राट के दरबार में एक पांडय राजदूत भी रहा करता था।मदुरई के पर्यटन स्थल – मदुरै के दर्शनीय स्थलनायक वंश के शासकों ने यहां प्रसिद्ध मीनाक्षी मंदिर और इसके दस ऊँचे-ऊँचे गोपुरमों का निर्माण कराया। मीनाक्षी शिव की अर्धांगिनी का नाम है। मंदिर में शिव और मीनाक्षी की पूजा की जाती है। मंदिर में शिव की मूर्ति सुंदरेश्वरार के रूप में है। मंदिर में ही सुनहरी तिल्ली तालाब है, जहां श्रद्धालु स्नान करते हैं। मंदिर में 1000 स्तंभों वाला एक हाल है, जिसका निर्माण 1560 ई० के आस-पास किया गया था। यह हाल इंजीनियरी और कला दोनों दृष्टियों से बेजोड़ है। इसके स्तंभों पर जीवन के विभिन्न रंगों की तस्वीरें बनी हुई हैं। इस हाल के बाहर कुछ अन्य स्तंभ हैं, जिन्हें टनकाने से सुरों की-सी आवाज निकलती है।मंदिर में कंबट्टी मंडपम भी है, जिसके स्तंभों पर शिव के विभिन्न अवतारों के भित्तिचित्र बनाए गए हैं। मंदिर के अन्य मंडपों में मीनाक्षी नायकम मंडप, अंधेरा मंडप, किलिकुंड मंडप, उत्सव मंडप, पुरुषमृग मंडप, सभा मंडप, पदु मंडप तथा मीनाक्षी कल्याण मंडप शामिल हैं। मंदिर में अप्रैल महीने के दौरान महा शिवरात्रि के दिन भारी भीड़ जुटती है। इस अवसर पर मंदिर में शिव पार्वती के विवाह का मंचन किया जाता है और दोनों की मूर्तियों के शहर में तीन दिन तक दर्शन कराए जाते हैं।मीनाक्षी मंदिर के अलावा नायकों की स्थापत्य कला का एक और अजूबा तिरुमल नायक का राजमहल है, जो हिंदू-सारसेनी शैली में बना हुआ है। मदुरई से पाँच किमी दूर टेप्पकूलम सरोवर और 21 किमी दूर. अझगरकोविल में विष्णु मंदिर में श्रेष्ठ शिल्पकला के नमूने देखने को मिलते हैं हिंदू शास्त्रों में अझगर मीनाक्षी के भाई का नाम है। इनके अतिरिक्त में भगवान सुब्रमण्य का मंदिर, तिरुपारंकुडरम, वैगाई बाँध, पालनी मंदिर और केरल राज्य में पेरियार वन्य जीव विहार भी अनुकुल स्थान हैं।मदुरई में उपलब्ध सुविधाएंमदुरा देश के अन्य नगरों से रेल, सड़कतथा वायु मार्ग से जुड़ा हुआ है। ठहरने के लिए यहाँ आईटीडीसी तथाटीटीडीसी के होटल और अनेक प्राइवेट होटल हैं। पर्यटन सूचना केंद्र होटल तमिलनाडु और रेलवे स्टेशन पर है।हमारे यह लेख भी जरूर पढ़े:— तिरुचिरापल्ली का इतिहास और दर्शनीय स्थल महाबलीपुरम का इतिहास - महाबलीपुरम दर्शनीय स्थल श्रीरंगम का इतिहास - श्री रंगनाथ स्वामी मंदिर वेल्लोर का इतिहास - महालक्ष्मी गोल्डन टेंपल वेल्लोर के दर्शनीय स्थल तंजौर का इतिहास - तंजौर का वृहदेश्वर मंदिर उरैयूर का इतिहास और पंचवर्णस्वामी मंदिर करूर का इतिहास और दर्शनीय स्थल कांचीपुरम का इतिहास और दर्शनीय स्थल अर्काट का इतिहास - अर्कोट कहा है कन्याकुमारी मंदिर का इतिहास - कन्याकुमारी टेम्पल हिस्ट्री इन हिन्दी कुंभकोणम मंदिर - कुंभकोणम तमिलनाडु का प्रसिद्ध तीर्थ स्थल सलेम पर्यटन स्थल - सलेम के टॉप 10 दर्शनीय स्थल मीनाक्षी मंदिर मदुरै - मीनाक्षी मंदिर का इतिहास, दर्शन, व दर्शनीय स्थल कन्याकुमारी के दर्शनीय स्थल - कन्याकुमारी के टॉप 10 पर्यटन स्थल चेन्नई का इतिहास - चेन्नई के टॉप 15 दर्शनीय स्थल 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