जालौनजिले के कालपी नगर को फकीरों और पीरों का शहर माना जाता है। यहाँ पर पीरों के पीर मदार साहब थे। जिन्हें बदरूद्दीन शाह अली के नाम से जाना जाता है । कालपी के विख्यात मुहल्ला मदारपुरा में इनकी मदार साहब की दरगाह है। जिसे मदार साहब का चिल्ला के नाम से भी जाना जाता है। यह मुहल्ला कालपी के प्राचीन बावन मुहल्ले में से एक था।
मदार साहब का इतिहास
कालपी की पुरानी आबादी के पास शेखपुर बुल्दा नाम का एक स्थान है जहाँ पर मदार साहब का चिल्ला (कब्र) बना हुआ है। यहीं पर चालीस दिनों तक बैठकर मदार साहब ने (इबादत) पूजा की थी। यही कब्र पर मदार साहब की दरगाह है। शाह बद्रीउद्दीन मदार चौदह वर्ष चार माह तक कालपी में रहे। मदार साहब के विषय में यह कहा जाता है कि जब मदार साहब कालपी आये तब वे कालपी के शेख से भेंट करने गये। शेख ने एक प्याला शरबत का पेश किया। शाह मदार ने उसमें एक गुलाब का फूल डाल दिया। इस पूरे कृत्य का अर्थ यह बतलाते है कि शेख ने शरबत प्रस्तुत कर दो संदेश दिये। एक यह कि शरबत की मिठास की तरह कालपी के लोग उसे मानते हैं तथा दूसरा यह जिस तरह से यह प्याला शरबत से भरा है उसी तरह से यह जमीन भी औलिया अल्ला से भरी है।
वहीं मदार साहब ने भी उसमें गुलाब का फूल डालकर अपनी ओर से दो संदेश शेख कालपी को दिये। एक तो यह शेख की बुजुर्गी की और ताजीम की तथा दूसरा यह कि जिस तरह से यह फूल तैरता है। मैं ऐसे ही यहाँ पर रहूँगा। शाह मदार के विषय में यह भी लिखा मिलता है कि उनकी जगह मकनपुर दरम्यान जमीन गंगा व जमन के हैं। जिसका इशारा उन्हें हजरत काशिम चिश्ती शाह विलायत से हुआ था। यह मकनपुर कादर शाह बिन शेख महमूद शाह का था। जब मदार साहब का शहरा कमालियत पूरे हिन्दुस्तान में मशहूर हुआ तब एक दिन कादर शाह मदार साहब की खिदमत में आये और मदार साहब के शिष्यों को मदार साहब तक अपने आने की खबर भिजवाने बावत हुक्म दिया। मदार साहब के शिष्यों ने उससे कहा कि ऐसे समय में मदार साहब के पास जाकर खबर करने की उन्हें अनुमति नहीं है। इस पर कादिर शाह ने उन शिष्यों से कहा कि अपने मखदूम से कह देना वह हमारे शहर में न रहे। शिष्यों ने कादिर शाह की बात मदार शाह से ज्योंकि त्यों कह दी। उस पर मदार साहब ने फरमाया कि अपनी फिक्र करें और कालपी से रवाना हो गये। उसी वक्त कादिर शाह के शरीर पर आबले पड़ गये और निहायत जलन होने लगी। यह घटना 703 हिजरी की बताई जाती है। यह मदार साहब की करामात थी।
मदार साहब का चिल्लामदार साहब की दरगाह या चिल्ला
मदार साहब की मजार काफी बड़े क्षेत्र में फैला है। चारों ओर ऊँची दीवार से घिरा यह भवन कई भागों में बंटा है। दो प्रमुख गुंबदों के अलावा कुछ आलीशान रिहायशी मकान के अवशेष भी यहां है। दरगाह के अन्दर एक शेर पत्थर में तराशकर बनाया हुआ है। यह शेर प्राचीन शिल्पकारी का एक नमूना है। कहते हैं कि कादिर साहब इसी शेर की सवारी करते थे। इस दरगाह में इबादत की जगह पर एक कलात्मक चिराग दान बना है।
शाह मदार साहब की दरगाह वर्गकार आकृति की बनी है जिसकी प्रत्येक भुजा 30 फुट की है तथा शेष भुजा में तीन सलामी लेते हुए मेहराबों से युक्त दरवाजे भी बने हैं। वर्गाकार आकृति के आन्तरिक चारों कानों पर मेहराब युक्त हैं। दरवाजों के ऊपर दोनों सिरों पर अन्दर तथा बाहर की ओर द्विदलीय पद्मपद युक्त चक्र अंकित हैं तथा दरवाजे के दोनों ओर ऊपर की ओर दो दो मेहराब युक्त आले बने हुए हैं। इस वर्गाकार आकृति के ऊपर अष्ट्कोणीय बेल युक्त रंगीन आकृति बनी हैं जिसके ऊपर गोल गुम्बद बना है। गोल गुम्बद में अन्दर की ओर केन्द्र में एक हुक लगा है जो कि किसी वस्तु को टांगने का संकेत देता है। ऊपरी गोल गुम्बद पतली पकी ईटों को चक्राकार स्थित में संयोजित कर बनाया गया है। इस दरगाह में चूने का प्लास्टर है तथा दीवार दस फुट चौड़ी है इसके अन्दर छत के निकट दस आले भी बने हैं जिनको देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि इन आलों में कोई पत्थर आदि जड़े होंगे जो कि बाद में निकाले गये हैं। इन आलों के धरातल पर पीठिका होने के चिन्ह भी दिखलाई पढ़ते हैं।
मदार साहब का शेर बैठी हुई मुद्रा में हैं जिसके अगले दोनों पैर आगे की ओर निकले है पीठ के चेहरे के पीछे बालों के झुरभुट का अंकन बबर शेर को प्रमाणित करता है। इस दरगाह को देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि यह दरगाह पहले किसी अन्य प्रयोजन हेतु बनाया गई होगी। बाद में उसे दरगाह का स्वरूप प्रदान कर दिया गया। अंदर की ओर पीठिका युक्त दस आलों से यह सम्भावना की जा सकती है कि प्रत्येक आले में एक एक अवतारों दशा-अवतार कुन्दे से जंजीर लटका कर शंकरजी की पिण्डी पर जल का घटक रखने की व्यवस्था की गई हो। इस दरगाह के दक्षिणी सिरे पर श्री दरवाजे की ही भाँति दरवाजा बना है जो मदार साहब दरगाह के निर्माण को श्री दरवाजों के निर्माण काल में ले जाता है। वसन्त पंचमी के दिन यहाँ पर मानव भीड़ का सैलाब इकट्ठा होता है। इस दिन मदार साहब का उर्स भरता है। हिन्दु और मुसलमान सभी यहाँ पर अपनी अपनी मन्नत मांगते हैं। डोरा बांधते हैं। अपना मुण्डन कराते हैं और कलश पर अपनी इच्छाओं की पूर्ति हेतु रेवड़ी फेकते हैं।
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