भारत का छोटा सा राज्य मणिपुर धर्म और धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है जो अन्य राज्यों से कुछ अलग सा प्रतीत होता है। मणिपुर में मैते धर्म का प्राचीनकाल में प्रचलन था। उस धर्म का वास्तविक स्वरूप क्या था, यह आज विवाद का विषय बन गया है। पौराणिक और लोक कथाओं एवं प्रचलित प्रथाओ के आधार पर भी कुछ कहना कठिन हो गया है, क्योकि इसके वर्ग विशेष की भावना को ठेस पहुंचने और प्रतिक्रिया की सभावनाएं हैं। फिर भी इतना तो कहना ही होगा की सुष्टिकर्ता गुरू सिदवा और देवी लैमारैन को माना जाता है, जो शिव और पार्वती के अवतार हैं। नवजागरण में विश्वास करने वाले इनको शिव-पार्वती से भिन्न बताते हैं। जनजागरण वालों का कहना है कि गरीब निवाज के शासन काल में अर्थात् 18 वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में मणिपुर धर्म, संस्कृति तथा पुराणों को नष्ट कर दिया गया है। यह ऐतिहासिक सत्य भी है। इस आधार पर वे हिन्दू देवी-देवताओं के साथ मणिपुरी देवताओं का सबंध जोडना भी अस्वीकार करते हैं। किन्तु कुछ लोगों के विचार से नोडपोक निडथौ की तथा पाथौइदी कथा में (जिसको वे भी स्वीकार करते हैं) नोडपोक निडथौ की जो वेशभूषा चित्रित की गई है, उसके आधार पर वे शिवजी के अवतार माने जा सकते हैं। इसका अभिप्राय धार्मिक विवाद का हल प्रस्तुत करना या उसमें पड़ना उद्देश्य नहीं है। इतना ही पर्याप्त है कि मणिपुर के प्राचीन धर्म को शैव धर्म से संबंधित बताया गया है। बाद में यहां शाक्त धर्म भी प्रचलित हुआ होगा, इसका प्रमाण इस प्रदेश का मैखले नाम और देवी हियाड लाइरेम्दी की पूजा है।
मणिपुर धर्म – मणिपुर किस धर्म की क्या स्थिति है
शैव और शाक्त मत में मांस-मदिरा के सेवन की प्रथा थी, यह यहां भी प्रचलित थी। किन्तु वैष्णव धर्म के प्रभाव से मांस मदिरा ही नहीं किसी भी नशीली वस्तु के सेवन पर प्रतिबंध लगा दिया गया। मैते धर्म में वन देवी देवताओं की उमडलाई के नाम से पूजा का विधान था। पूर्वजों की पूजा का भी विधान था। पाखंगबा को सर्प देवता के रूप में पूजा जाता था, तो सनामही को गृहदेवता के रूप में। वास्तव में हिन्दू पौराणिक देवी-देवताओ तथा स्थानीय देवी- देवताओ से सबंधित धर्म, प्रथाओं परम्पराओं, पर्व-स्यौहारो आदि का शताब्दियों से जो सम्मिश्रण एवं सश्लेषण हुआ है, उसके परिणाम स्वरूप कुछ भी कहना असभव है। भविष्य में शोध होने पर ही बात स्पष्ट होगी। पूर्वाग्रह तथा अंग्रेज लेखकों के विचारों का अधानुकरण त्याग कर सत्यान्वेषण करने पर ही वास्तविकता प्रकट हो सकती है। प्राचीनकाल में निश्चय ही सारे संसार में आदिम धर्म का प्रचलन था और देश-काल और परिस्थितियों के संदर्भ में उस धर्म में आवश्यकतानुसार परिवर्तन हुए हैं।
राजा खोंतेकचा जिसका समय आठवी नवमी शताब्दी माना जाता है, के द्वारा जारी ताम्रपत्रो को (जिनकी प्रामाणिकता संदिग्ध है) सत्य मान लिया जाए तो उस समय से ही आर्य संस्कृति एवं धर्म का प्रभाव स्वीकार करना होगा। नही तो पंद्रहवीं शताब्दी में कयाम्बा वे शासनकाल से विष्णु पूजा के ऐतिहासिक प्रमाण हैं, अतः उस समय से मणिपुर में वेष्णव धर्म का प्रादुर्भाव मानना ही होगा। उसी समय असम राज्य के साथ सबंध स्थापित हो चुके थे, यह असम के इतिहास से भी प्रमाणित है। असम में उस समय शंकरदेव द्वारा स्थापित वेष्णव धर्म प्रचलित था। अतः निश्चय ही उस समय से वैष्णव धर्म मणिपुर के जनजीवन का अंग बना होगा। यह अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। महाराजा गरीब निवाज (1709-48) के शासनकाल में रामानदी, निम्बार्क, माध्वाचार्य, गौंडीय आदि वैष्णव सम्प्रदायों के प्रचलन के भी ऐतिहासिक प्रमाण हैं। जो हो गरीब निवाज़ के शासनकाल से गौंडीय वैष्णव धर्म का प्रचार-प्रसार हुआ जो परवर्ती शासकों के काल में पल्लवित पुष्पित एवं विकसित हुआ।
मणिपुर धर्मश्री राधा कृष्ण की पूजा अर्चना यहां के जन-जीवन का अभिन्न अंग बन गई। श्री श्रीगोविन्द जी मणिपुर के जन-जीवन के केन्द्र बन गए तथा कला, संस्कृति, घर का विकास उनको सर्वोच्च सत्ता मानकर ही हुआ। आज तक इसी कारण से मणिपुर के मैतेई समुदाय में गौंडीय वैष्णव भक्ति का वर्चस्व बना हुआ है। किन्तु “मैते” धर्म के आदिम देवता, मायबी आदि प्रथाएं भी वैष्णव धर्म के समानान्तर चलती रही हैं। इनमें कभी विरोध नही था। इधर कुछ वर्षों मैं इस सश्लिष्ट धर्म को विघटित करने ओर परस्पर विरोधी बताने के लिए कोई गुप्त कार्य किया गया है, जिसके कारण विरोध के लिए विरोध किया जा रहा है। अनुमान है कि विदेशों शक्तियों का इसमें हाथ है।
मणिपुर में जनजातीय धर्म और ईसाई धर्म
मणिपुर जनजातियों का अपना आदिम धर्म था जिसमें देवी-देवताओ, पूर्वजों, मृतात्माओं पेड-पौधो से पशु-पक्षियों तक की पूजा तथा बलि का विधान भी था। नरबलि की प्रथा भी थी। किन्तु ईसाई मिशन कार्यकर्ताओं ने प्रशासकों के सहयोग सूझबूझ तथा निष्ठा के साथ इन्हे ईसाई बनाने में सफलता प्राप्त की। यद्यपि उनको आरंभ में विरोध का सामना करना पड़ा। कई लोग मारे भी गए, तथापि अंत में उन्हें सफलता प्राप्त हुई। इसका मुख्य कारण तो हिन्दू धर्म की कठोरता थी।
कहा जाता है कि जनजातीय लोगो का प्रतिनिधि मंडल (नागालैंड व मणिपुर का सम्मिलित) मणिपुर के महाराजा के पास इस प्रार्थना के साथ आया कि हमें हिन्दू बना लो। वास्तव में धर्म के मामले में महाराजा विवश थे। क्योंकि धर्म वे संबंध में निर्णय का अधिकार ब्रह्म सभा के पास भेज दिया और यहां यह निर्णय दिया गया कि हिन्दू जन्म लेता है बन नहीं सकता और न बनाया जा सकता है। धर्म परिवर्तन की कोई संभावना नहीं। कहते हैं, इस घटना के पश्चात ही जनजातियों में ईसाई धर्म का प्रचार-प्रसार हुआ और विघटनकारी भावना का जन्म हुआ, जिससे मणिपुर ही नहीं सम्पूर्ण पूर्वांचल में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद विद्रोह की आग भड़क उठी और यह शांत-हरा भरा क्षेत्र उस अग्नि की लपटों से जल उठा। अभी भी कुछ जनजातियां हैं जिन्होनें ईसाई धर्म ग्रहण नही किया है और कुछ जनजातियों में ईसाई नहीं बनने वाले लोग भी हैं। किन्तु ईधाई धर्म के प्रचारक निष्ठापूर्वक आज भी इस क्षेत्र में सक्रिय हैं तथा वे न केवल मणिपुर की जनजातियों को बल्कि मैतेई धर्म के मानने वालों तथा हिन्दुओं को भी ईसाई बना रहे हैं। हिन्दू धर्म की कट्टरता के कारण और ईसाई धर्म के पास धन, निष्ठा और साधनों की बहुलता के कारण इस क्षेत्र में लगातार ईसाईकरण हो रहा है। अंग्रेजी स्कूलों के माध्यम से भी जो इस क्षेत्र में बहुत बड़ी संख्या में हैं और लोकप्रिय हैं, के माध्यम से भी धर्म का प्रचार किया जा रहा है।
अंग्रेजी शिक्षा की प्राथमिक,शिक्षण संस्थाएं सर्व प्रथम माओ 1893 ई० में तथा बाद में उखरूल नामक स्थान में पेटिग्रियु मद्दोदय के प्रयत्नों से प्रचलित हुई। पेटिग्रयु महोदय एक स्कॉटलैण्ड के ईसाई मिशनरी थे। दा अमेरिकन बॉपरिस्ट मिशन, दी नॉर्थ ईस्ट इंडिया जनरल मिशन, दी प्रेस बेटिरियन चर्च, दी रोमन कैथोलिक मिशन, दी सेवन डेएडवेनटिस्ट, इडिपंडेंट चर्च ऑफ इण्डिया आदि विभिन्न ईसाई मिशनों के द्वारा इन जनजातियों का ईसाईकरण किया गया और किया जा रहा है।
यूरोपीय एवं अमेरिकन मिशनों के द्वारा ईसाई धर्म का प्रचार किया गया है। अत: इन जनजातियों का तेजी से आधुनिकीकरण और पश्चात्याकरण भी हुआ है। निश्चय ही इन आदिम एवं पिछडे वर्ग की जातियो को ईसाई मिशन मैं आधुनिकता का प्रकाश दिखलाया है। शिक्षा का प्रचार प्रसार दिया, सामाजिक बुराइयो को दूर किया, रोगो के उपचार किए हैं और आर्थिक दृष्टि से भी सहायता दी है। इन्हें समाज में वह सम्माननीय स्थान भी दिलवाया है, जो पहले कभी प्राप्त नहीं था। किन्तु अच्छाई के साथ बुराई भी जन्म लेती है। विघटनकारी भावना इन अच्छाइयों के साथ पनपी है, जिसने वेमनस्थ, फूट, कलह और हिंसा के बीज बोए हैं। आधुनिक इतिहास इसी कारण रक्त-रंजित हो गया है।
मणिपुर में मुसलमान धर्म
महाराजा खंगेडम्बा के शासन काल में सत्रहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में 1606 ई० में उसके भाई सनातन ने कछार ने राजा के साथ मणिपुर पर आश्रमण कर दिया था। सनातन पराजित हुआ। खंगेडम्बा ने कछार के राजा के सैनिकों को बंदी बनाने में सफलता प्राप्त की। उन सैनिकों में निम्न वर्ग के हिन्दू तथा मुसलमान भी थे, जिन्हे उसने मणिपुर मे बसने की आज्ञा दी। मुमलमान तभी से मणिपुर के स्थायी निवासी बन गए। इन्हें मैतेई भाषा में “पाडल ‘ कहा जाता है। ये मणिपुर की दक्षिण मध्य घाटी में बसे हुए हैं। लिलोड, मयाड इम्फाल क्षेत्र मे इनकी जनसंख्या अधिक है। जिरिबाम व बराक बेसिन में भी मुस्लिम जनसंख्या है। ये लोग सुन्नी हैं। मुस्लिम धर्म के नियमों एवं प्रथाओं तथा परम्पराओं का ये कट्टरता के साथ पालन करते हैं। इसमें से अधिकतर कृषि करते हैं और मुर्गी पालन कृषि के साथ साथ इनका मुख्य व्यवसाय है।
मुस्लिम स्त्रियों की वेशभूषा मणिपुरी महिला से कुछ भिन्न है। ये ‘फनैक, (तहमद) तो पहनती हैं, परंतु उसके ऊपर कुर्त्ता पहनती हैं तथा इनाकि (चद्दर) से सिर भी ठकती हैं, किन्तु मणिपुर महिलाएं सिर नहीं ढकती हैं। महाराज कुमारी लोगों के अतिरिक्त मैतेई मणिपुर महिलाओ को सिर ढेकते हुए नही देखा है। मुस्लिम पुरूषों की वेशभूषा भी हिन्दू पुरुषों से भिन्न है। ये लोग कुर्ता पाजामा पहनते है, सिर पर टोपी भी लगाते हैं तथा दाढी रखते हैं। स्त्रियों में चांदी के आभूषणों का प्रचलन है, जबकि मणिपुरी मैतेई महिलाएं केवल स्वर्ण आभूषण पहनती हैं। इनकी बस्तियां घाटी में हैं और ये घाटी वे लोगो जैसे ही घर बनाकर रहते हैं। इनकी बस्तियों में मैतेई या जनजातिय लोगो के घर भी मिलते हैं। मणिपुर में हिन्दू-मुस्लिम-ईसाई प्रेम एवं सदभाव के साथ रहते हैं। सब्जियां उगाने व बेचने का धंधा प्रमुख रूप से मणिपुरी मुसलमानों के हाथ में है। समय-समय पर ये सिलहट -कछार आदि स्थानों से आकर मणिपुर में बस गए हैं। इन्होने स्थानीय महिलाओ से विवाह किए और मणिपुरी भाषा को मातृभाषा के रूप में अपना लिया है, किन्तु धार्मिक नियम, ये बराबर ‘ कुरान” के मानते हैं।
अन्य धर्म
जैन धर्मावलम्बी प्रमुख रूप से राजस्थान के हैं किन्तु भारत के अन्य भागों से भी आकर बसे हैं। इम्फाल शहर में पावना बाजार में दिगम्बर जैन मग्दिर बना है। राज्य के प्रमुख व्यापारी जैन ही हैं। इम्फाल में इनके स्थायी निवास हैं। ये लगभग एक सौ वर्ष से यहां रहते हैं। सिख धर्मावलम्बी भी मणिपुर में काफी संख्या में है। इनमें से अधिकतर लोग बर्मा से आकर बसे हैं। वाणिज्य एवं व्यापार में सिखो का वर्चस्व है। इम्फाल एवं मौरे आदि स्थानों पर इनके गुरुद्वारे भी बने है। मणिपुर में कुछ संख्या बौद्ध धर्म के मानने वाले लोगों को भी है।
नेपाली आव्रजक
नेपाल के थापा, गुरुंग, लिम्बू, राय तमाँग, राणा क्षत्रिय और ब्राह्मण जातियों के हिन्दू इम्फाल-दीमापुर मार्ग के आस-पास बसे हुए हैं। इस्फाल-तमिडलोंग मार्ग पर भी नेपाली जनसंख्या है। मणिपुर की घाटी एवं पर्वतीय क्षेत्र में ये सभी जगह फैले हुए हैं। उनमें से अधिकतर कृषि कार्य करते हैं, परन्तु कृषि के साथ गाय-भेंस पालते हैं तथा दूध और दूध उत्पादकों का व्यवसाय भी करते हैं। इनकी मातृभाषा नेपाली होते हुए भी उन्होंने मणिपुरी भाषा और स्थानीय भाषाओं को अपना लिया है। नेपाली के साथ ये हिन्दी भाषा भी बोल सकते हैं। दो गाँवों में नेपालियों ने हिन्दी हाई स्कूल स्थापित किए हैं, जहां शिक्षा का माध्यम हिन्दी है। स्थानीय अर्द्ध सैनिक बलों में नेपालियो की संख्या काफी हैं। मणिपुर घाटी के शहरों व बराक नदी के बेसिन में बंगला देश से आए हुए शरणार्थी बसे हैं। कुछ बंगाली परिवार कई वर्षो से मणिपुर में नौकरी एवं व्यवसाय के लिए आकर बस गए हैं।
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