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मणिपुर जनजीवन और जनजाति

मणिपुर जनजाति और उनका जनजीवन

मणिपुर जनजाति के निवासी मंगोलियन या हिन्द-मंगोलियन जाति के माने जाते हैं। मणिपुर के मूल निवासियों की शारीरिक संरचना तथा चेहरे की बनावट मंगोल जाति जैसी है, परन्तु उनमें से बहुत से ऐसे लोग भी हैं जिनका शारीरिक गठन आर्य जाति से मिलता है। डा० ब्राउन ने भी आर्य एव मंगोल जाति की मिली-जुली बनावट का उल्लेख किया है। वास्तविकता यह है कि मणिपुर विभिन्‍न जातियों का आश्रय स्थल रहा है, इसलिए शारीरिक संगठन में विविधता आ जाना कोई आश्चर्य की बात नही हैं। इस समय इसके निवासियों को विद्वान निम्न प्रमुख चार विभागों में रखते हैं – (1) मैतेई (जिसमें अनुसूचित जाति लोइ भी सम्मिलित हैं।) (2) विष्णुप्रिया (3) पर्वतीय जन, तथा (4) मणिपुर मुस्लिम।

मणिपुर जनजाति और जनजीवन

मैतेई जाति, लोइ जाति और मुस्लिम लोग सामान्यत घाटी में रहते हैं। मैतेई लोग असम, पश्चिमी बंगाल, उत्तर प्रदेश , बंगला देश और बर्मा में भी रहते हैं। पर्वतीय जन जातियो में ताखुल, माली, मरम, बदुई, कुकी, आदि जाति के नागा व आधे नागा तथा गैर नागा जन-जातियो के लोग रहते हैं। विष्णुप्रिया लोग कछार, सिलहट व त्रिपुरा निवासी हैं। विभिन्‍न समय और स्थानों से प्रव्रजत हुआ होगा, अत यहां भाषा, वेशभूषा, खानपान, निवास एवं धर्म संस्कृति में कल्पनातीत विविधता दिखाई देती है। सामान्यत यहां के लोग स्वस्थ एवं हृष्ट-पृष्ट होते हैं। प्रकृति की उदारता के फलस्वरूप निश्चिन्तता का साम्राज्य है। घाटी में बसने वाले मैतेई समाज की सभ्यता एवं संस्कृति अत्यन्त प्राचीन है। उनके जीवन में कला का प्रमुख स्थान है तथा सुरूचि, सम्पन्नता उनके जीवन की विशिष्टता हैं।

मैतेई जनजाति

मैतेई मणिपुर जनजाति के लोग मणिपुर की घाटी बराक नदी व बैसिन मे रहते हैं। इनमें सभी वैष्णव धर्म को मानने वाले हिंदू हैं किंतु इधर कुछ वर्षों से कुछ लोग अपने को हिंदू मानने को तैयार नहीं है तथा उन्होंने अपने नामो के साथ सिंह एवं शर्मा शब्दों को छोड दिया है और मैते शब्द लगाते हैं तथा अपने धर्म को सनामही आदि नाम देते हैं। स्त्रियों के नाम से पूर्व कुमारी या श्रीमती लगाया जाता हैं किंतु अंत में बालिका से बूढ़ी तक के नाम के साथ देवी शब्द का प्रयोग किया जाता रहा है। अब मैतेई धर्म संस्कृति की पुनः प्रतिष्ठा के नाम पर देवी के स्थान पर चानू शब्द का प्रचलन हो रहा है।

मणिपुर जनजीवन और जनजाति
मणिपुर जनजीवन और जनजाति

“मैंते” शब्द सन्‌ 33 में निडथिजों वंश के लिए प्रयुक्त होता था, जो बाद में सातो वशों के लोगों के लिए प्रचलित हो गया, क्योकि अन्य वंशो को मैते वंश ने अपने अधीन कर लिया था। बाद में जब भारत के अन्य भागों से भी आव्रजन हुआ तो उन्हे भी मैते कहा गया। अब “मैते” शब्द में और भी अर्थ विस्तार हो गया है और मणिपुर के जब जातीय नागा, अर्ध नागा, कुकी-कबुई आदि भी मैतेई ही माने जा सकते हैं। वास्तव में ये कुकी-चीन समूह के लोग हैं। टी. सी. हडसन ने मैते शब्द की व्युत्पत्ति बताते हुए कहा है– मौन मनुष्य और तै-भिन्न। कुछ लोग चीन-चीना तथा श्यामी भाषा के ‘मोय’ शब्द से भी इसका सम्बन्ध जोडते हैं। जो मैते नही हैं, उनके लिए “मयाड” (विदेशी) शब्द प्रचलित है। मणिपुर मुस्लिम “पाडल्ल” कहे जाते हैं। बंगाल से आने के कारण बंगाल से पाडल्ल शब्द बन गया होगा, ऐसा लोगो का अनुमान है।

मणिपुर की जनजाति

मुख्य रूप से पर्वतीय जातियों को दो भागो में विभक्त किया जा सकता है “नागा तथा अनागा जातियाँ”। अनागा जातियों को कूकी-चिन भी कहां जाता है। नागा जनजातियो मे–ताखुल, कबुई, माओ, मरम तथा मरिग जातियाँ सम्मिलित की जाती हैं। राज्य के उत्तरी, उत्तर पश्चिमी तथा पूर्वी भागों पे इन जातियों का निवास है। कुकी-चीन वंश की बनाया जन-जातियो में थोडो,पाइते, मार, अनाल, डाडते सिमते, होकिप, पाओमि, कोम तथा जो प्रमुख जन जातियाँ हैं, जो मणिपुर की दक्षिणी पर्वतमालाओं में निवास करती हैं। इन मणिपुर जनजाति यो की यहां तीन परम्पराएं हैं गाँव-बूढा, नरमुड आखेद एवं मोझड। इन तीनों का नीचे विवेचन किया जा रहा है।

मणिपुर जनजाति में गाँव का बूढा या गाँव का राजा

प्रत्येक पर्वतीय गाँव का एक प्रधान होता है जिसको गाँव-बूढा कहा ज्ञाता है। प्रत्येक जाति की भाषा में अलग-अलग शब्द का प्रयोग किया जाता है, जिसका अर्थ गाँव का राजा होता है। अग्रेजी शब्द ‘हेडमैन (Head Man) भी प्रयुक्त होता है। गाँव का राजा वंश परम्परा से होता है। कभी-कभी गाँव के सभी परिवारों के मुखिया मिलकर किसी व्यक्ति को राजा नियुक्त करते हैं, ओर वह अपने जीवनकाल में इस पद पर बना रहता है। गाँव के प्रत्येक सामाजिक एवं धार्मिक कृत्यों मे वह प्रमुख स्थान रखता है। गाँव के लोगों के द्वारा शिकार करने पर या उत्सवो के अवसर पर पशु काटने पर राजा को पशु का विशेष अंग भेंट क्या जाता है। गाँव के युवक राजा का मकान बनाने या मरम्मत करने तथा उसके खेतों में काम करने मे सहायता करते हैं। चावल से बनाई गई “बीयर” सर्वप्रथम गाँव के राजा को भेंट की जाती है। सम्पूर्ण गाँव के निवासी राजा के प्रति श्रद्वा-भक्ति रखते हैं।

गाँव के धार्मिक कार्यों का संचालन पुरोहित करता है, किन्तु राजा की उपस्थिति अनिवार्य होती है। वह गांव का सर्वोच्च नागरिक होता है। वही उत्सव, पर्व, त्योहार, बीज बोने, काटने आदि को श्रीगणेण करता है। गाँव की सुरक्षा का उत्तरदायित्व भी राजा पर ही होता है। कभी-कभी जब गांव के लोग आपस में लडते थे, नरमुंड आखेट भी करते थे। राजा का महत्व सुरक्षा की दृष्टि से आज से कही अधिक था। राजा को सलाह देने के लिए एवं समिति होती है। इस सलाहवार समिति के सदस्य राजा को सभी महत्वपूर्ण विषयों में सलाह देते हैं। वह समय-समय पर सलाहकार समित्ति की बैठक अपने निवास स्थान पर आयोजित करता है। वह प्रत्येक सभा की अध्यक्षता करता हैं। कृषि के लिए भूमि आवटन, जंगल काटना, जलाना आदि मे निर्णय भी वही लेता है। किन्तु वह जो भी निर्णय लेता है वे सलाहकारों की सलाह से लिए जाते हैं। यह अपनी इच्छा से निर्णय नही ले सकता है। उसकी शक्ति पर सलाहरार सदा अंकुश रखते हैं। वास्तव में यह सलाहकार समिति ही गाँव की सर्वोच्च सत्ता है। सलाहकार समिति के सदस्य कबीले या परिवारों ने मुखिया होते हैं।

गाँव का राजा और सलाहकार समिति कार्यकारिणी, प्रशासकीय एंव न्यायपालिका के कार्य करती है। समिति अपने निर्णय लागू करती है। व्यक्तिगत या सामूहिक विवादों का निर्णय करती है। जो भी परम्परागत विधि-निषेध हैं, उनका पालन करने के लिए गाँव के लोगो को बाध्य करती है। दोषी व्यक्ति को दंडित करती है। बडे से बडे अपराध का फैसला इन्ही के द्वारा किया जाता है और लोग अदालतों में शायद ही कभी जाते हैं। यह समिति गाँव में सड़कें, घर या पुलो के निर्माण के निर्णय लेती है। पर्व, उत्सव या त्यौहारों के विषय मे, जोतने बोने तथा फसल काटने, झूम के लिए जंगल जलाने आदि के निर्णय लेती है। गाँव मे मेलों या बाजार का आयोजन भी इसी समिति का कार्य होता है। गाँव के चावल को एक जगह एकत्र करके भंडार बनाना उसको बांटना गाँव के लिए सामूहिक धन धान्य रखता तथा आवश्यकतानुसार उसका उपयोग करना। ये सारे कार्य भी गाँव का राजा तथा सलाहकार करते हैं। पर्वतीय क्षेत्रों में भी भीख माँगने की प्रथा का सर्वेधा अभाव है, क्योंकि व्यक्तिगत रूप से आर्थिक संकट में होने पर सम्पूर्ण गांव वाले उसकी काठनाई का निवारण करते हैं। अकाल की स्थिति में सामूहिक अन्न भंडार से सभी को वितरित किया जाता है। चोरी की कोई घटना नही होती है। किसी भी घर में ताला नही लगाया जाता है।

नरमुंड आखेट

मणिपुर जन जातीय परम्पराओ में नरमुंड आखेट की विचित परम्परा प्रचलित थी। आज यह प्रथा केवल इतिहास का एक अध्याय है। एक जाति के कबीले भी आपस में लडते थे। आपसी युद्ध अक्सर होते रहते थे जिनमें एक कबीले या गाँव के लोग दूसरे गाँव या कबीले के लोगो के सिर काटकर विजय चिह्न के रूप में ले जाते थे और गाँव के बूढ़े के घर या मोरूड को उन सिरो से सजाते थे।

नरमुंड आखेट के कई कारण थे। प्रमुख कारण तो आपसी शुत्रता ही थी, किन्तु अंधविश्वासों के कारण भी यह प्रथा प्रचलित थी। अच्छी फसली, सुख-शाति एवं समृद्धि के लिए, पूर्वजों की आत्मा को प्रसन्‍न करने, परलोक को सफल बनाने आदि के लिए, नरमुंड आखेट की परम्परा प्रचलित थी। गाँव प्रधान के घर मोरूड की नींव लगाते समय (नागाओ में) तथा गैर नागाओ में ग्राम प्रधान को दफनाते समय नरमुंड धार्मिक आवश्यकता थी।

नरमुंड का आखेट करके लाने वाले व्यक्ति को वीर-योद्धा माना जाता था, वह विशेष वेश-भूषा पहनने का अधिकारी हो जाता था तथा गले में कौडियों की तथा काँच के मतको की विशेष माला पहनने का अधिकारी हो जाता था। इस पोशाक को पहनने की लालसा प्रत्येश नागा नवयुवक को रहती थी। नरमुंड आखेट करके युवक विशेष सम्मान का अधिकारी हो जाता था। ऐसे व्यक्ति से कुमारी कन्याएँ विवाह के लिए उत्सुक रहती थी और उसको श्रेष्ठ सुन्दरी की चुनने का अधिकार प्राप्त हो जाता था। इन कारणों से वर्षो तक यह प्रथा मणिपुर के नागा तथा गैरनागा जातियो मे प्रचलित रही थी।

कुमार शयन शालाएं : मोरुड

मणिपुर की जनजातियो में लडके या लडकी को किशोर होते ही घर छोडकर कुमार शयन शाला मे जाकर सोना अनिवार्य था। लडको और लडकियों के लिए ये अलग-अलग लम्बे घर बने हुए थे। लडको की शयनशाला मे किसी स्त्री का जाना तथा लडकियों को शयन शाला में पुरुष का जाना निषिद्ध था। इन शयन शालाओ को “मोरुड” कहते थे किन्तु वास्तव में भिन्‍न-भिन्‍न जातियों में इनके लिए भिन्न-भिन्न शब्द प्रचलित ये। आओ-भरिचू लोधा-चम्पो, अडामो-किचुकी तो सेमा-डेका चाड कहते थे। जबकि ताखुल लोड शिम। कभी-कभी गाँव के मुखिया का घर ही मोरुडः के रूप में काम आता था। रात्रि का भोजन करने के पश्चात लडके एवं लडकियाँ अपने घरो से इन शयन गृहो में सोने चले जाते थे, जहाँ से वे प्रातः काल अपने घर लौटते थे। इन घरो में ही बालक-बालिकाओं को अपनी प्रथाएं-परम्पराएं, लोकगीत-कथाएँ आदि सीखने का अवसर मिलता था। विवाह होने तक ये लोग इन्ही शयन घरो के सदस्य रहते थे और विवाह के बाद ये अपने नए घरो में जाकर रहते थे। सामूहिक जीवन पद्धति की शिक्षा-दीक्षा यही दी जाती थी।

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Naeem Ahmad

CEO & founder alvi travels agency tour organiser planners and consultant and Indian Hindi blogger

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