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मणिपुर के नृत्य

मणिपुर के नृत्य – मणिपुर के कौन कौन से नृत्य प्रसिद्ध है

नृत्य एवं संगीत मणिपुरी जनजीवन एवं संस्कृति के अभिन्‍न अंग है। प्रत्येक धार्मिक उत्सव, पर्व, त्योहार के साथ नृत्य जुडा हुआ है। लोक नृत्य-संगीत के क्षेत्र मे मणिपुर की श्रेष्ठता का कारण मणिपुर की जनता की कला में गहरी अभिरूचि है। प्रत्येक कलाकार, खिलाडी आदि को दर्शक साधुवाद देते हैं, इसलिए कलाकार निरन्तर अपनी कला का परिष्कार करता है। समाज में सम्मान पाने के लिए कलाकार दत्त-चित्त होकर अभ्यास करते हैं। समाज और राज्य के द्वारा कलाकारो को संरक्षण एवं प्रोत्साहन देने की प्राचीन परम्परा रही है। इसलिए मणिपुर में नृत्य एवं अन्य अकलाएं निखरती गई हैं और आज भी निखरती जा रही हैं। ठकेमणिपुर के लोक नृत्य की प्राचीन परम्परा रही है जिनमे बालक से वृद्ध तक सम्मिलित होते हैं, चाहे वे स्त्री हो या पुरुष। इसलिए मणिपुर मे कहा जाता है कि कोई ऐसा व्यक्ति नहीं जो नाचना न जानता हो। प्रत्येक मैतेई समुदाय के घर में ‘शघोई” (बरामदा) होता है, और प्रत्येक गांव व बस्ती मे मंदिर होता है जिसमें एक बडा मंडप बना होता है। इस मंडप में नृत्य गान का आयोजन होता रहता है। इस प्रकार नृत्य-गान दैनिक जीवन का अजय बन गया है।

मणिपुर के प्रमुख नृत्य

नृत्य का आदिम रूप लोक नृत्य है। लोक नृत्य से शास्त्रीय नृत्य का विकास हुआ है। मणिपुर राज्य के नृत्यों को दो भागों मे विभाजित किया जा सकता हैं। मैतेई नृत्य तथा जनजातीय नृत्य। मैतेई नृत्य के भी तीन भाग किए जा सकते हैं :–.

  1. लोकनृत्य– लाइराओबा, थाबल चोंगबा, के-के-के चौंगबा, मायबी, चिग-खैरोल, खम्बा-थोइबी, थांगबा एवं थांग नृत्य।
  2. रास नृत्य–विभिन्‍न प्रकार की रास लीलाओ को इस श्रेणी में रखा जा सकता है। इनमें कुछ पूर्ण शास्त्रीय नृत्य हैं तो कुछ लोक तत्वों से युक्त। मणिपुरी में “जगोई” शब्द इन नृत्यों के लिए प्रयुक्त किया जाता हैं।
  3. चोलम– चोलम का अर्थ भी नृत्य होता है किन्तु इनमें नर्तक के हाथो मे ढोलक या करताल रहती है। इनमें पुर चोलम और करताल चोलम प्रमुख हैं।

मणिपुर अपने नृत्य के लिए भारत मे ही नही सम्पूर्ण विश्व में प्रसिद्ध है। शताब्दियो मे जाकर मणिपुरी नृत्य का विकास हुआ है जो आज भी अपनी अलग पहचान रखता है और भारत के नृत्यों में अपना विशिष्ट स्थान रखता है। आधुनिक मणिपुर प्राचीन काल में अनेक जनपदो एवं लघु राज्यो में विभाजित था, आज भी मणिपुरी नृत्य पर अपने प्राचीन जनपदो की छाप अंकित है।

मणिपुर के शास्त्रीय नृत्य की नींव मणिपुर में वैष्णव धर्म के प्रवेश से पूर्व ही रखी गई थी, जबकि मणिपुरी नृत्य का उत्तर काल में केवल उसी नींव पर विकास हुआ है। मूल धारणाओं की स्थापना इसी काल मे हुई थी। मणिपुर के इतिहास के प्रारम्भ से ही नृत्य, संगीत एवं धर्म तीनों परस्पर घनिष्ठ रूप से सबंधित थे। चाहे मणिपुर की घाटी के लोग हो या पर्वतों के दोनों के लिए ही यह तथ्य समान रूप से लागू होता है। प्रत्येक धार्मिक अनुष्ठान के साथ नृत्य एवं संगीत जुडा हुआ है। नृत्य केवल नृत्य के लिए न होकर धार्मिक कृत्यों से सुसम्बद्ध रहा है। विभिन्‍न देवताओ को प्रसन्न करने के लिए अत्यन्त विनम्रता समर्पण भाव के साथ नृत्यों का आयोजन किया जाता रहा है। परिणाम स्वरूप मणिपुरी नृत्य की कुछ सामान्य विशेषताओं ने जन्म लिया है।
जिसमे प्रमुख हैं:—

  • नृत्यशाला की पवित्रता,
  • नर्तकों एवं दर्शकों के मध्य वार्तालाप, संकेत आदि का निषेध
  • नृत्य देवता के प्रति अति विनम्रता एवं समर्पण
  • नृत्य अनुष्ठान हैं, न कि दर्शकों के मनोरंजन का साधन
  • नृत्य व्यवसायिक नही बन सका
  • शास्त्रीय तत्व के ताल, गति के नियमो के उपरान्त भी मणिपुरी नृत्य आज भी लोक नृत्य है और कोई भी मणिपुरी चाहे उसको नृत्य की शिक्षा मिली हो या नही नृत्य में भाग ले सकता है। नृत्यो की इस सामान्य विशेषताओं के उपरान्त मणिपुर के कुछ प्रमुख नृत्यों का वर्णन नीचे प्रस्तुत है।

मणिपुर के नृत्य
मणिपुर के नृत्य

के के के चोंगबा

लाइहराओबा के पश्चात दूसरा मैतेई लोक नृत्य है के-के-के चौंगबा। इस नृत्य की उत्पति के संदर्भ में भी एक स्थानीय पौराणिक कथा का प्रचलित है। गुरु सिदवा दया देवी लेमारेन एक दिन कांगबा नामक स्थान पर आए। गुरु सिदवा अपने सिंहासन पर विराजमान थे। उन्होने अपने पुत्र सनामही और पाखंगम्बा को बुलाया तथा पृथ्वी की परिक्रमा करने को कहा तथा पहले आने वाले को सिंहासन देने का वचन दिया। पाखंगबा छोटा भाई था तथा सनामही बडा।पाखंगबा पृथ्वी का चक्कर लगाने के बजाय पिता के सिंहासन के सात चक्कर लगाकर पिता के सिंहासन पर बैठ गया। जब सनामही पृथ्वी का चक्कर लगाकर लौटा तो उसने पाखंगबा को क्रोधित होकर ललकारा। दोनों भाइयों में युद्ध की सभावना देखकर गुरु सिदवा ने नो देवताओं ओर सात देवियों को
स्वर्ग से सनामही को शान्त करने के लिए भेजा। इन्होने एक दूसरे का हाथ थामकर पाखंगबा को वृत के केन्द्र में ले लिया तथा बाएं से दाहिनी ओर गाना गाते हुए उछलना-कूदना आरंभ कर दिया। यह नृत्य कैयेन या के-के के चौडबा (चौडबी) के नाम से प्रचलित हुआ।

अब सनामही नृत्य वृत की परिधि पर नाचने वाले नर्तक दल के बाहर बाघ और केन्द्र में पाखंगबा एक मुर्गे के रूप में रहते हैं। बाघ ओर मुर्गा प्रतीक हैं। बाघ (सनामही) जब मुर्गे (पाखंगबा) पर झपटना चाहता है, नर्तक-दल अपने घेरे से उसको रोकते हैं। यदि कभी वह घेरा तोडकर भीतर चला जाए तो वे पाखंगबा को घेरे से बाहर कर देते हैं और सनामही को घेरे में रोकते हैं। यह नृत्य 8वी शताब्दी तक प्रचलित था, बाद में इसको थाबल चोडबा नुत्य में ही मिला दिया गया तथा होली और रथ यात्रा त्यौहार पर इसका आयोजन होने लगा। याओसांग एवं हलकार शीर्षक में इस नृत्य का विवरण दिया गया है। के-क्रे-के चौंगबा एव चावल चोंगबा में केवल एक अन्तर है। प्रथम में सनामही तथा पाखंगबा नृत्य दल के घेरे के बाहर भीतर नृत्य करते हैं तथा नर्तकों की गति को प्रभावित करते हैं, किन्तु दूसरे में ऐसा नही है।

मायबी नृत्य

वास्तव में के के के चौंगबा, थाबल चोंगबा की भाँति ही मायबी नृत्य भी लाइपराओबा लोक-नृत्य का अंग है। यही भाला नृत्य, तलवार नृत्य आदि भी है। मायबी नृत्य में पुजारी (सन्यासी)मायबी के जल में से देवात्मा को जागृत करने से इस नृत्य का आरंभ होता है और पृथ्वी को समतल करने, सृष्टि के विकास एवं पोषण की प्रतीकात्मक रूप में इस नृत्य में प्रस्तुत किया जाता है। इस नृत्य मे मंत्र-तंत्र विद्या का प्रयोग किया जाता है। और रिहंगल तथा चेंगकौ नामक नृत्य मायबी नृत्य के भेद है और इनका आयोजन गोपनीय होता है। इन नृत्यो द्वारा समृद्धि या विनाश संभव है। ऐसा विश्वास प्रचलित है। इस नृत्य को कोई देख नहीं सकता।

चिंगखैरोल नृत्य

यह साधकों के द्वारा सिद्धियां प्राप्त करने के लिए किया जाने वाला नग्न नृत्य है जिसमें कोई दर्शक नही होता है।

खंबा थोईबी नृत्य

यह दो नर्तको का नृत्य है, जिसमें एक पुरुष एवं एक स्त्री भाग लेती है। खंबा थोईबी के अमर प्रेम की कथा इस नृत्य का आधार है। इसमें गति कभी बहुत तीव्र एव बलवती होती है तो कभी अत्यत मंद। मोइरांग नगर के प्राचीन मोइरांग वंश से इस नृत्य का सबंध है। थोईबी मोइरांग के राजा की पुत्री थी जो खंबा नामक सामंत कुमार से प्रेम करती थी। इन्हे शिव एवं पार्वती का अवतार माना जाता है। मोइराँग में थाडजिड देवता का ऐतिहासिक मंदिर है, जहाँ समय समय पर इस नृत्य का आयोजन होता है। खंबा की भूमिका में युवक एवं थोइबी की भूमिका में कोई युवती भाग लेती है जबकि पैनाखोगवा (एक तारा बजाने वाला) एक तारे पर संगीत प्रस्तुत करता है। ये दानों पुरुष नृत्य हैं और तांडव श्रेणी में रखे जा सकते हैं। इनमें नर्तकों की स्वरा एवं कौशल देखते ही बनता है।

रास नृत्य

रास नृत्य मणिपुर को वैष्णव संस्कृति को देन है। साथ ही यह मणिपुर संस्कृति को भारतीय संस्कृति की अनुपम देन भी है। क्योंकि मणिपर के नर्तकों ने रास नृत्य को शास्त्रीय सिद्धांतों का आधार दिया तथा इसको अपनी प्रतिभा से सजा कर मणिपुरी शास्त्रीय नृत्य का रूप दे दिया है, जो आज विश्व प्रसिद्ध मणिपुरी नृत्य के नाम से जाना जाता है। रास नृत्य का मणिपुर में प्रचलन करने का श्रेय महाराजा राजऋषि भाग्यचंद्र (शासनकाल सन्‌ (1763 से 98 ई० तक) को जाता है। उनको भगवान कृष्ण ने स्वप्न में अपनी मूर्ति स्थापित करने की आज्ञा दी थी और मूर्ति स्थापता के पश्चात उन्हें रास लीला के आयोजन की आज्ञा दी थी। अतः उन्होंने अपनी पुत्री को राज कुमारी विम्वावती को राधा का अभिनय करने की प्रेरणा दी। लॉगथबाल जिसे अब काँचीपुर कहा जाता है वहां महाराजा भाग्यचन्द्र ने एक जलाशय, बनवाया तथा एक कृतिम नदी बनवाई गई(उस स्थान को महाराज वृंदावन का रूप देना चाहते थे) और जलाशय के किनारे रास मंडल बनवाया गया जिसमे राज कुमारी बिम्बावती मंजुरी ने राधा का अभिनय किया तथा प्रथम रास लीला की गई। बिम्बावती आजन्म कुमारी रहीं और अपने जीवन के अंतिम काल में वे नवद्वीप (पश्चिम बंगाल) में जा कर रही थी, वही उनकी मृत्यु भी हुई। मणिपुर में आज उन्हें सिजा लेइरोबी के नाम से जाना जाता है। जिसका अर्थ होता है राजकुमारी जो देवी बन गई या वह राजकुमारी जो भगवान की सेवा मे समर्पित हो गई। वे मणिपुर की मीरा थी।

सिजालैइरोबी ने मणिपुर में रास नृत्य का आरंभ किया जो निरन्तर विकसित होता गया और मणिपुरी नृत्य-गरुओं ने अपनी प्रतिभा से उनको आज महान मणिपुरी नृत्य बना दिया है। रास लीला नृत्य में भगवान्‌ कृष्ण के राधा एवं गोपियो के आलौकिक प्रेम की कथा रहती है जिसका आधार श्री मद्भागवद का दशम अध्याय है। मणिपुरी मैतेई राधा कृष्ण के उपासक हैं। अत मणिपुर की धरती पर यह नृत्य फला और फूला। इसे राजाओं का संरक्षण भी मिलता रहा। नृत्य-प्रिय मणिपुरी लोगों ने अपने लोक नृत्यों एवं रास-नृत्य का ऐसा सम्मिश्रण किया कि आज उनमें भेद कर पाना कठिन हो गया है। नृत्य की वेशभूषा भी मणिपुरी प्रतिभा की अपनी देन है।

रास नृत्य को दो प्रमुख भागों में विभाजित किया जा सकता है। एक गोप रास जिसमें कृष्ण अपने गोप सखाओ के साथ गायें चराते हैं और वे ईश्वर अवतार के रूप में चित्रित किए जाते है। गोष्टाप्टमी के दिन गोप रास या सनसेनवा रास का आयोजन होता है। गोपाल गोष्ठ लीला, उलूखल लीला, गोड लीला भी इसके अन्य रूप हैं।

दूसरा भेद है–श्री कृष्ण रास लीला। जिसमे थी कृष्ण के राधा एवं गोपियो के साथ दिव्य प्रेम की झांकी प्रस्तुत की जाती है। इसके चार भाग हैं—महारास, कूंजरास, बसंतरास एवं नित्यरास।कार्तिक पूर्णिमा के दिन महारास का आयोजन किया जाता है, आश्विन पूर्णिमा को कूंजरास, तो बेशाख पूर्णिमा को बसंत रास और नित्यरास किसी भी दिन। नित्यरास को दिवारास और निशी-रास–इन दो भागो में और विभाजित किया जाता है। नर्तन रास, अष्ट गोपी- अष्ट श्याम रास भी परवर्ती काल के रास नृत्य हैं।

मणिपुरी रासलीला में एकाकी नृत्य, द्वैत नृत्य, कृष्ण-राधा, या राधा-वृन्दा, या चन्द्रावल्ली के साथ होते हैं तो समूह नृत्य मे कृष्ण अनेक गोपियों के साथ नृत्य करते हैं। नित्य रास में मगो, परेंग, वृन्दावन परेंग, खुरुम्वा परेंग शास्त्रीय नृत्य हैं जो प्रस्तुत किए जाते है। बासक तथा खुबाक ईश नामक दो अन्य नृत्य राधा और उसकी सखियों द्वारा किए जाते हैं तथा इनमें लड़कियाँ ही भाग ले सकती हैं। इनमें राधा तथा गोपियों के विरह भाव भाव को अयानता रहती है। बासक ईशे किसी भी समय किया जा सकता है जबकि खुबाव ईशे केवल रथ यात्रा के अवसर पर ही आयोजित किया जाता है इसमे करतल घ्वनि द्वारा मृंदग की ताल के साथ संगीत की धुने उत्पन्न की जाती हैं।

नट संकीर्तन के साथ नृत्य

नट संकीर्तन के साथ पूड चौलम [मृंदग नृत्य) तथा करताल चोलम नृत्य किए जाते है। विभिन्न प्रकार के इन नृत्यों में दो से सौ वादक तक भाग लेते हैं। मृंदग वादक कलाकार मृंदग पर गरूड के उड़ने, बादलों के गरजन, चिडियां तथा पशुओ की ध्वनि उत्पन्न करते हैं तो दर्शक मंत्रमुग्ध हो जाते हैं। प्रारंभ में नर्तक मंद गति में नृत्य आरम्भ करते है और यह गति धीरे धीरे तीव्र होती है। एक पाँव पर नृत्याभिनय, हवा मे उछलता आदि के करतब, अंग सचालन द्वारा दिखाए जाते हैं। मृदंग पर चाप देकर उसकी शून्य में उछाल दिया जाता है और वह शून्य में भी घ्वनित होती है, यह मृदंगवादन एवं नृत्य कला का अद्भुत कौशल है। करताल नृत्य में भी इसी प्रकार की भाँति-भांति की कलाबाजी दिखाई जाती है। मोर, हंस, हाथी तथा सरस की चाल का प्रदर्शन भी किया जाता है।

जन-जातियों के नृत्य

मणिपुर के पर्वतीय भाग में 29 प्रमुख जन-जातियां रहती हैं। इनके भी अपने नृत्य हैं। नागा लोगो के युद्ध नृत्य एवं भाला नृत्य तीव्र गति के साथ रंग बिरंगे आदिम जाति की पोशाकों में सुसज्जित हो कर स्त्री-पुरुष साथ-साथ करते हैं। ये भी मनमोहक तथा उत्साहवर्धक होते हैं। नृत्य के साथ तेज ढोल बजाए जाते हैं, श्रृंगी बजती है और नर्तको के गान की स्वर लहरी भी उभरती है। नृत्य के साथ उत्सव-गीत, प्रेम के गीत, क्रिया गीत, युद्ध गीत या बलि गीत गाए जाते हैं।

नागा, कबुई तथा कुकी नृत्य मणिपुर के प्रसिद्ध नृत्य हैं। बाँस नृत्य कूकी-चिन नृत्यों की श्रृंखला में महत्वपूर्ण नृत्य है। इनके नृत्य लोक नृत्य हैं। इन नृत्यों में भावों की अभिव्यक्ति, आँखो की भगरिमाओ तथा कमर की गति का सर्वथा अभाव होता है। नृत्य में हाथ हथेलियाँ, पाँवों की गति मात्र होती है। प्रत्येक जाति के अपने नृत्य हैं। ताखुल और माओ नागाओ का युद्ध नृत्य बहुत ही आकर्षक होता है। अंत में इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि मणिपुर के मैतेई लोग विशेष कला प्रेमी है और नृत्य-संगीत एवं उत्सव प्रियता उनके जीवन का अभिन्‍न अंग है। मणिपुर के पर्वतीय लोग भी नृत्य-गान में गहरी रुचि रखते हैं।

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Naeem Ahmad

CEO & founder alvi travels agency tour organiser planners and consultant and Indian Hindi blogger

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