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मणिपुर के त्योहार

मणिपुर के त्योहार – मणिपुर के प्रमुख फेस्टिवल

मणिपुर राज्य कई जीवंत त्योहारों की एक खुशहाल भूमि जो आपको बार-बार यहां घूमने के लिए मजबूर कर देगी। इस पहाड़ी राज्य में मुश्किल से कोई महीना ऐसा गुजरता है जब कोई आनंदमय उत्सव या त्योहार न मनाया जाता हो। कुट, लाई हरोबा, यशांग, कांग चिंगबा या चुम्फा, मणिपुर के ये सभी त्योहार मणिपुर के लोगों की भावना, समृद्ध संस्कृति और एकजुटता को दर्शाते हैं। मणिपुर की अनूठी संस्कृति और जीवन शैली का पता लगाने का सबसे अच्छा तरीका इन उत्सवों में शामिल होना है। यह संस्कृति प्रेमियों के लिए खुशी की बात होगी। यदि आप इस पहाड़ी प्रदेश की समृद्ध विरासत और संस्कृति का पता लगाने की इच्छा रखते हैं, तो आपको इन त्योहारों में से एक के दौरान मणिपुर की यात्रा अवश्य करनी चाहिए। कुछ मणिपुर के प्रमुख त्यौहारो के बारे में नीचे विस्तार से बताया गया है।

मणिपुर के प्रमुख त्योहार – मणिपुर फेमस फेस्टिवल

याओसांग फेस्टिवल मणिपुर

उत्तर पूर्वांचल में स्थित मणिपुर राज्य की होली सम्पूर्णभारत मे अपनी परम्पराओ के कारण महत्वपूर्ण है। फाल्गुन पूर्णिमा से चैत्र कृष्ण पंचमी तक मणिपुर में होली का त्यौहार बहुत धूमघाम से मनाया जाता है। मणिपुर की घाटी में रहने वाले मैतेई या मणिपुरी वैष्णवो का यह सबसे बडा त्यौहार है। फाल्गुन महीने के प्रारभ से ही इम्फाल, काकचि, मोयरा आदि स्थानों के बाजारों में जन समूह उमड़ पडता है। इसे ‘फ्गुआ’ की खरीदारी कहा जाता है। नए बर्तन, वस्त्र, जूते, आभूषण आदि विविध वस्तुएं खरीदने के लिए बाजारों में भी भीड के साथ कोलाहल छा जाता है । वर्ष भर में सबसे अधिक बिक्री तथा भीड का समय फाल्गुन मास होता है। होली के इस रगीन त्योहार पर मणिपुर में निम्नलिखित विशिष्ट परम्पराएँ प्रचलित हैं।

मणिपुर के त्योहार
मणिपुर के त्योहार

याओसांग जलाना

फाल्गुन पूर्णिमा के दिन मणिपुर वैष्णव गौंडीय वैष्णव सम्प्रदाय में विश्वास रखने ने कारण उपवाश रखते हैं। कृष्णावतार चैतन्य महाप्रभु ने 1479 ई० में बंगाल के नादिया नामक स्थान पर फाल्गुन पूर्णिमा को अवतार लिया था। कहते हैं उनका जन्म एक नीम के वृक्ष के नीचे याओ (पेड) सांग (झोपडी) में हुआ था। उस झोपडी को पवित्रता की दृष्टि से जला दिया गया था। अतः उसी परम्परा का पालन करते हुए मणिपुर वैष्णव प्रतिवर्ष फाल्गुन पूर्णिमा को एवं बांस व घास फूस की बनी झोपडी में नाचते गाते और कीर्तन करते हुए संध्या समय, चैतन्य महाप्रभु की मूर्ति को ले जाकररखते हैं। कीर्तन व पूजा अर्चना के बाद मूर्ति को झोपड़ी से निकाल लिया जाता है और तब झोपडी में आग लगाई जाती है। उस समय मुख्य पुजारी “होरि बोला” कहता है और उसके बाद उपस्थित जनसमूह “हे होरि’ बोलता है। जब तक याओसांग जलकर भस्मीभूत नहीं हो जाता है ये नारे आकाश मे गूँजते
रहते हैं। जब झौपड़ी जल जाती है तो उसकी राख को लोग अपने घरो मे ले जाकर रखते हैं जिससे घर पर दुरात्माओ का प्रभाव न पड़े।

याओसांग जलाने के साथ भगवान कृष्ण के जीवन की निम्न लिखित घटना का भी उल्लेख विया जाता है। जिसमें जटिला ओर कुटिला के द्वारा बाधा उपस्थित करने पर जब भगवान्‌ कृष्ण-राधा से मिल नही पाए तो उन्होंने राधा के घर के मेंढ रखने के स्थान मे आग लगा दी ओर जब ये दोनो अपनी मेडो की रक्षा करने गईं तो कृष्ण और राधा का मिलन सभव हुआ था। याओसांग जलाने के पीछे लोग भक्त प्रहलाद तथा होलिका के जल मरने की पौराणिक कथा को भी स्वीकार करते हैं। इस अवसर पर गाए जाने वाले गीतों में चैतन्य महाप्रभु की जीवन लीलाओ का वर्णन रहता है तथा राधा कृष्ण वियोग और मिलने की उक्त घटनाओ का भी उल्लेख होता है। ये पद्य मणिपुरी भाषा मे न होकर केवल बंगला, संस्कृत तथा मैथिली भाषा के धार्मिक पद्य होते हैं।

मणिपुर का चीरोबा त्योहार

मणिपुर के सबसे प्रसिद्ध त्योहारों में से एक, चीराओबा या चीरोबा साजिबू महीने (मार्च-अप्रैल) के पहले दिन मनाया जाता है। यह फेस्टिवल चंद्र नव वर्ष के उपलक्ष्य में मनाया जाता है। इसे मणिपुर में बसंत महोत्सव के रूप में भी जाना जाता है। इस त्योहार के दौरान, लोग पारंपरिक पोशाक पहनते हैं, दोस्तों और रिश्तेदारों से मिलते हैं, बधाई और उपहारों का आदान-प्रदान करते हैं और स्थानीय व्यंजनों को पकाते हैं। मणिपुर के चीरोबा उत्सव के दौरान क्षेत्रीय देवी सनमही की भी पूजा की जाती है।लोग इस त्योहार के दौरान इम्फाल में स्थित चैराओचिंग पहाड़ी की चोटी पर चढ़ते हैं। स्थानीय लोगों का मानना ​​है कि इस पहाड़ी पर चढ़ना मानव सभ्यता के उदय का प्रतीक है।

कहते हैं सभी दिशाओ में देवी-देवताओं एवं प्रेतात्माओं के लिए भोजन रख देते हैं तथा उनसे राजा व प्रजा के मंगल का वरदान माँगते हैं। इसको खरोयखडबा कहते हैं। वर्ष के अतिम दिन की रात को राज्य वैद्य एवं उसके लोग हैवोक्चक पर्वत पर जाकर देवताओं को तृण अर्पित करतें हैं। ओर उनसे राजा-रानी व सामंतों आदि की भलाई की प्रार्थना करते हैं। मणिपुरी के प्राचीन देवता लाइनिड थौ पाखंगम्बा को भी नए वस्त्र भेंट करने की परम्परा भी है। लाइनिड थौ नौसबा युमजाओ लाइरेम्मा देवी, लाइनिह थौ सवामही देवता और सभी देवी देवताओ को नए वस्त्र एव छत्र चढाए जाते हैं। जल में डमु नामक मछली छोडकर महाराजा के मंगल की कामना भी की जाती है।

चीरोबा के छः दिन पूर्व से घरों की सफ़ाई की जाती है, नए वस्त्र बर्तन आदि भी क्रय किए जाते हैं। अपने-अपने मदिरों मे चीरोबा के दिन प्रातः काल पूजा पाठ होता है तथा उहें नई सब्जियाँ अर्पित की जाती है। नव वर्ष के लिए वर मांगे जाते हैं। परिवार के गुरूजनों को प्रणाम किया जाता है। स्वर्गीय देवी देवताओं को भी प्रणाम किया जाता है तथा नववर्ष हेतु मगल वरदान माँगे जाते हैं। लोहे से बने चूल्हे (योत्सवी) से कालिख लेकर उसको हल्दी व चावल के साथ मिलाकर घर के चारो ओर फेंक कर प्रेतात्माओं को भगाया जाता हैं। भोजन बनाकर लाइचाकथाबा अर्थात देवताओं को भोजन देने के लिए घर के मुख्य द्वार के दाहिनी ओर पका हुआ भोजन रख दिया जाता है। प्रार्थनाएं की जाती हैं तथा आशीर्वाद माँगा जाता है। तब सामूहिक भोज होता। भोज के उपरान्त गुरुजनो को प्रणाम् किया जाता है तथा उन्हे वस्त्र एवं नकद रुपये भेंट किए जाते हैं।

याओसांग फेस्टिवल मणिपुर
याओसांग फेस्टिवल मणिपुर

चीरोबा के एक दिन पूर्व बाजार से सब्जियां खरीदी जाती हैं अतः उस दिन के बाजार को चेराओ केयेल अर्थात्‌ चैराओबा का बाजार कहा जाता है। संध्या समय भोजन करने के बाद चैराओचींग नामक पहाड़ पर सभी लोग चढते हैं। चैराओचीग इम्फाल में है, अत दूसरी बस्तियों के लोग अपने अपने पास के पर्वतो पर चढते हैं और वहां शिवजी दुर्गा, गणेश आदि के साथ अपने आदिम स्थानीय देवताओं की पूजा करते हैं। पर्वत से उतर कर आने के पश्चात रात में थाबल चोडवा अर्थात्‌ चाँदनी रात का नृत्य किया जाता है। जिसमें प्रत्येक स्त्री-पुरुष भाग लेते हैं।

इस प्रकार नव वर्ष का बहुत ही घूमधाम से स्वागत किया जाता है। चीरोबा के बाद पाँच दिन तक विभिन खेल जैसे काड-सा नवा युवी लाकपी सगोल कांड जे आदि स्थानीय खेल खले जाते थे जिसे सिलहेनबा कहा जाता था किंतु अब सिल हेनबा केवल एक दिन के लिए होता है।

झूलन यात्रा

झूलन यात्रा का त्योहार मणिपुर में श्रावण शुक्ला एकादशी से पूर्णिमा (पांच दिन) तक मनाया जाता है। यह त्योहार श्री राधा कृष्ण मंदिर या उसके माडव या मंडप में मनाया जाता है। वृंदावन में श्रावण तृतीया से झूलन लीला आरंभ होती है। महाराजा नरसिंह(सन् 1844-50 ई०) ने झूलन यात्रा त्योहार मनाने की परम्परा आरम्भ को थी और इस अवसर पर भक्ति भाव में गीत गाने की परम्परा थी। दिलु कुछ लोग झूलत यात्रा त्यौहार का प्रारंभ महाराजा गरभीरसिह (825-34 ई०) से मानते हैं। उनके शासनकाल मे रचित “श्री कृष्ण रस संगीत” मे झूलन लीला का उल्लेख है, इसी आधार पर झूलन यात्रा का प्रारंभ उन्ही के शासन काल से माना जाता है। मणिपुर के मंदिरों में सर्वप्रथम श्री राधा कृष्ण की पूजा की जाती है और उसके बाद उनकी युगल मूर्ति को मंड़प में निकाल कर झूलन लीला की जाती है। उपस्थित भक्त इसको भक्ति भावना पूर्वक देखते हैं। युगल मूर्ति पर एक फव्वारे से जल प्रवाहित किया जाता है, जिससे ग्रीष्म ताप तप्त श्री राधा-कृष्ण को शीतलता प्राप्त हो। युगल मूर्ति को एक एक झूले में बेठा कर झुलाया जाता है। और विश्वास के अनुसार उस फव्वारे के जल की एक बूंद पीने पर वर्ष भर हार्दिक या मानसिक शांति रहती है। इस अवसर पर गोविंद अधिकारी वृत शुक शारदेन्दु के सकीर्तन पद्य गाए जाते हैं। झूलन यात्रा त्योहार भी श्री राधा-कृष्ण भक्ति की देन है।

चुम्फा फेस्टिवल

चुम्फा मणिपुर में 7 दिनों तक चलने वाला फसल उत्सव है जो दिसंबर में होता है। तांगखुल नागा जनजाति समुदाय इसे बड़े उत्साह और जोश के साथ मनाता है। वे ज्यादातर मणिपुर के उखरुल जिले में रहते हैं। आधुनिक प्रभाव के बावजूद, जनजाति के अधिकांश लोग अभी भी तांगखुल बोली बोलते हैं। त्योहार के दौरान, लोग दोस्तों और परिवार से मिलते हैं और बधाई देते हैं, अपने प्रियजनों को उपहार देते हुए खुशी फैलाते हैं। दोस्तों और प्रियजनों से मुलाकात के दौरान पहला दिन प्यार और स्नेह के साथ व्यतीत होता है। नृत्य उत्सव का एक अभिन्न अंग है, और उसके लिए, महिलाएं “कशान” नामक पारंपरिक पोशाक पहनती हैं और पुरुष “माचुंग” पहनते हैं। पारंपरिक खाद्य पदार्थ जैसे कि नगारी, चावल, सूअर का मांस और किण्वित सब्जियां मेहमानों को परोसी जाती हैं। त्योहार के अंतिम दिन, लोग एक विशाल जुलूस निकालते हैं, जिसमें वे बहुत उत्साह से भाग लेते हैं।

गंग नंगाई

मणिपुर का असली आकर्षण इसके लोगों, रीति-रिवाजों और उत्सवों की विविधता में निहित है; पांच दिनों तक चलने वाला गंग नागई महोत्सव इसका एक प्रमुख उदाहरण है। राज्य में प्रतिवर्ष आयोजित होने वाले कई सांस्कृतिक समारोहों में से, यह अपने भीतर विभिन्न स्वदेशी समुदायों को एकजुट करने के लिए विशेष रूप से उल्लेखनीय है। लगभग 29 अलग-अलग जातीय समूह इस क्षेत्र को घर कहते हैं, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि उन सभी से जुड़े कई त्योहारों और रीति-रिवाजों के अपने अनूठे मोड़ हैं। इस विविधता के कारण, विभिन्न पृष्ठभूमि के लोगों के लिए मिलना और संबंध बनाना संभव है। गंग नागाई उत्सव मुख्य रूप से काबुई नागाओं का है। त्योहार के पहले दिन, एक शगुन समारोह आयोजित किया जाता है, और शेष दिन एक सांप्रदायिक दावत, बुजुर्गों और बच्चों द्वारा नृत्य, विदाई उपहारों के वितरण और अन्य संबंधित कार्यक्रमों के लिए समर्पित होते हैं।

लुई-नगाई-नी

15 फरवरी को भारतीय राज्य मणिपुर में लुई-नगाई-नी के सार्वजनिक अवकाश के रूप में प्रतिवर्ष मनाया जाता है। रोपण के मौसम की शुरुआत को चिह्नित करने के लिए नागा लोग इस त्योहार को प्रतिवर्ष आयोजित करते हैं। यह आयोजन मणिपुर में विभिन्न नागा समुदायों के लिए अपने साझा इतिहास और संस्कृति को मनाने और साझा करने के साथ-साथ एक दूसरे के साथ समुदाय की अपनी भावना को नवीनीकृत और मजबूत करने का एक अवसर है। त्योहार का नाम ही तीन अलग-अलग नागा भाषाओं के तीन शब्दों का योग है, लेकिन उन सभी का एक ही अर्थ है: “बीज बोने का त्योहार।” इस उत्सव में फसलों के देवता का आह्वान करने का मतलब नए लगाए गए बीजों से भरपूर फसल सुनिश्चित करना है। पारंपरिक पोशाक, ढोल बजाना और पारंपरिक नृत्य और गीतों का प्रदर्शन कुछ ऐसे सांस्कृतिक प्रस्तुत किया जाता है।

चीरोबा त्योहार
चीरोबा त्योहार

योशांग

योशांग, मणिपुर का सबसे महत्वपूर्ण त्योहार, फाल्गुन (फरवरी/मार्च) की पूर्णिमा के दिन से पांच दिनों तक चलता है। थबल चोंगबा, मणिपुरी लोक नृत्य का एक प्रकार है जिसमें पुरुष और महिलाएं हाथ मिलाते हैं और नृत्य करते हैं और एक केंद्रीय आकृति के चारों ओर गाते हैं, अक्सर इस उत्सव में किया जाता है। युवा लोग और बुजुर्ग समान रूप से समारोहों के लिए वित्तीय सहायता के लिए घर-घर जाते हैं और फिर पार्टियों को आयोजित करने और भव्य भोजन खाने के लिए धन का उपयोग करते हैं। योशांग मणिपुर के लिए वही है जो बंगाल के लिए दुर्गा पूजा है, उत्तर के लिए दीवाली है, और असम के लिए बिहू है।

चवांग कुट

कुट त्यौहार, जिसे चवांग कुट के नाम से भी जाना जाता है, मणिपुर में एक प्रमुख त्यौहार है। मणिपुर के कुकी, चिन और मिज़ो लोग चवांग कुट उत्सव को बड़े उत्साह और उल्लास के साथ मनाते हैं। लेकिन त्योहार के दौरान, मणिपुर में सभी क्षेत्रों के लोग इस शानदार महोत्सव को मनाने के लिए एक साथ आते हैं। यह उत्सव फसल का मौसम समाप्त होने के बाद होता है और इसका मतलब सफल फसल के लिए देवताओं के प्रति आभार व्यक्त करना है। इसलिए, शब्द “शरद ऋतु,” “चवांग,” और “कुट”, जिसका अर्थ है “फसल”, त्योहार का नाम बनाने के लिए गठबंधन करते हैं। कुट त्यौहार वर्षों से विकसित हुआ है, लेकिन इसकी उत्पत्ति बहुत प्राचीन उत्सवों में देखी जा सकती है जिसमें कई अनुष्ठान शामिल हैं। मुख्य संस्कार समाप्त होने के बाद गांव के पुजारी स्थानीय लोगों को जू (चावल की बीयर) सौंपेंगे। खेल और दावतों के अलावा, उत्सव में नृत्य और गायन भी होता है।

क्वाकू तनवा

आश्विन शुक्ला दशमी को मणिपुर मे क्वाकू तनवा त्यौहार मनाया जाता है। इसी दिन भारत के अन्य भागो में दशहरा, विजयादशमी आदि त्यौहार मनाएं जाते हैं। क्वाकू अर्थात कौआ और तानवा का अर्थ भगाता है । श्री निथौ खोजम खेलचद्र जी ने इस त्यौहार के संबंध मे लिखा है, ‘जिस स्थान पर कौएं प्रतिदिन भोजन करने आते हैं, वहां पर उन्हें भगाने के लिए गोलियां चलाई जाती हैं। जिससे कौए भाग जाएं। कौएं डर कर जिस दिशा में उडते हैं, उससे भावी मंगल-अमंगल, युद्ध शांति आदि के सकुन देखे जाते हैं। इसलिए इस दिन को कौएं भगाने का दिन कहते हैं। इस त्योहार के आयोजन का उल्लेख चैथरोल कुम्बाबा में हुआ है, और 14 वी शताब्दी से इसकी परम्परा बताई गई है। निश्चय ही समय समय पर इसमें परिवर्तन भी हुए होगे। पहले तीर मारकर कौएं को भगाया जाता था किन्तु परिवर्तीकाल में बन्दूक का प्रयोग आरम्भ हो गया। वास्तव में यह त्योहार राजाओं द्वारा राजमहल में मनाया जाता था। “चैराप” नामक शाकीय विभाग इस त्यौहार के अवसर पर एक झोपडी का निर्माण करता था, तो “गारद” विभाग राजा और सांमतो के आगे सेनापति के नेतृत्व मे सुसज्जित वेशभूषा में जाते थे। राजा अलंकृत सुसज्जित हाथी या घोड़े पर सवार होकर चलता था। राजा के हाथी के पीछे भी शस्त्रधारी सैनिक चलते थे और उनके पीछे जनसमूह होता था। वाद्य यत्रों पर गायक गीत गाते चलते थे। यह शौभा यात्रा क्वाकू या कौओं की झोपड़ी तक जाती थी। राजा और सेनापति को जनता भेट अर्पित करती थी। भाला तलवार आदि के साथ नृत्य किए जात थे। बन्दूक चलाकर कौएं भगाए जाते थे और बाद में रावण के विग्रह को बन्दूक से गोली मारी जाती थी। फिर राजा पूजा पाठ करता था और राजा जब महल में लौटता था तो द्वार पर उसका फिर स्वागत किया जाता था। युद्ध वे लिए प्रस्थान एवं विजय करके लौटने से संबंधित गीत इस अवसर पर गाए जाते थे। रात्रि में फिर पूजा पाठ किया जाता था। तथा एक विशेष घास पूरे महल मे जलाकर प्रेतात्माओं को भगाया जाता था। इस प्रकार विजयादशमी के रूप में यह शानदार त्योहार मनाया जाता था।

लाई हरोबा

लाइ हराओबा या लाई हरोबा मणिपुर का प्रमुख जातीय और स्थानीय त्योहार है। मणिपुर की घाटी में बसने वाले मैतेई लोग इस त्यौहार को बहुत धूमधाम से मनाते हैं। लाई हरोबा त्यौहार का प्रारम्भ चैत्र मास से होता है और फाल्गुन मास तक चलता है। किन्तु आषाढ़ सावन अगहन और पौष महीनों में नहीं मनाया जाता। आठ महीने तक मनाया जाने वाला यह संसार का सबसे लम्बा त्योहार है। इसके अनेक भेद भी किए जाते हैं। इस त्यौहार मे स्थान देवता वंश और मनाने के ढंग में और समय में अंतर होने के कारण ही इसके विभिन्न भेद किए जाते हैं। लाइ हराओबा त्यौहार का प्रचलन मणिपुर मे ईसा पूर्व चतुर्थ शताब्दी से माना जाता है। वास्तव में यह अत्यन्त प्राचीन त्यौहार है जो अनंतकाल से मनाया जा रहा है। इसके शाब्दिक अर्थ का तात्पर्य है- लाइ का अर्थ है देवता और हराओबा एक त्यौहार होने के साथ लोकनृत्य लोक नाटय अनुष्ठान और उत्सव भी है। इसमें अनेक तत्वों का समावेश हो गया है।

लाई हरोबा को लाइ हराओबा जगोई (नृत्य) भी कहा जाता है। इसके उद्गभव से जुडी एक लोक कथा प्रचलित है। नी देवता जिन्हें लाइपुड थौ कहा जाता है को स्वर्ग से पृथ्वी पर भेजा गया था। सात लाइनुरा (देविया) जो पानी पर नृत्य कर रही थी ने पृथ्वी को पकड़ा और उसको पानी में फेंक दिया। इस प्रकार सृष्टि हुई। पृथ्वी के निर्माण के बाद अतिया गुरु सिदवा (शिवजी) और देवी लैमरेन (पार्वती) एक घाटी को खोज करते हुए एक पर्वतों से घिरे स्थान पर पहुँचे किंतु उन्होने देखा कि घाटी जल से परिपूर्ण है अतः गुरु सिदबा ने अपने त्रिशूल से पहाडो में तीन छेद किए जिससे घाटी में भरा हुआ जल बह निकला और भूमि निकल आई। इस भूमि पर गुरु सिदबा और देवी लैमारेन ने सात लाइनुरा अर्थात देवियों और उनके सात लाइपुंडथौ अर्थात देवताओं के साथ नृत्य किया था। यह देवताओ की प्रसन्नता का नृत्य था। प्रथम बार देवताओ ने हर्षोंमाद में यह नृत्य किया किंतु उसके बाद लाइ हराओबा जगोइ प्रतिवर्ष एक उत्सव या त्यौहार के रूप में मनाया जाता है और इसका अर्थ देवताओं को प्रसन्न करने हेतु किया जाने वाला नृत्य हो गया है इस प्रकार इसके मूल अर्थ में परिवर्तन हुआ है। यह मणिपुर की सांस्कृतिक धरोहर और प्रतिनिधि नृत्य है।

वास्तव में लाई हरोबा एक मिश्रित नृत्य है, जिसमें विभिन्‍न घटनाओं का सम्मिश्रण हो गया है। इसको पूर्वजों से सम्बन्धित अनुष्ठान भी कहा जा सकता है, क्योंकि पुर्वजो को सम्मान देने के लिए इसका आयोजन किया जाता है। उदाहरणार्थ पाखंगम्बा, थांडर्जि आदि देवताओ की पूजा एवं प्रसन्‍तता के लिए यह उत्सव मनाया जाता है। उम लाइ या वन-देवी देवताओ की प्रसन्नता या येक (वंश), सागे लाइ (वंश-देवी देवता) के लिए भी इसका आयोजन होता है। तात्पर्य यह है कि इसमें पौराणिक देवताओं के साथ वंशों के आदि पुरुषों को भी देवता मानकर यह अनुष्ठान उत्सव मनाया जाता है।

“लाइ-हराओबा” नृत्य अनुष्ठान में मुख्य भूमिका मैतेई पुजारी (माइबा), और पुजारिन (माइबी) की होती है, इन्हें स्त्री-पुरुष के भेद को भुलाकर केवल माइबी भी कहा जाता है। अनुष्ठान का प्रारंभ एक जलूस से होता है जिसके आगे माइबी नृत्य होता है और उनके पीछे बस्ती के लोग चलते हैं और किसी तालाब या नदी के किनारे जाकर रुकते हैं। माइबी जल में सोने या चांदी का चूर्ण डालते हैं और फूल भी। इसके पीछे मान्यता यह है कि वे देवी या देवता की आत्मा को बुलाते हैं। इसके बाद माइबी पर वह आत्मा आती है और माइबी के मुख से स्पष्ट-अस्पष्ट शब्द निकलते हैं, इन शब्दों का अर्थ निकलना जरूरी नहीं है।

जिस समय माइबी इस अचेतन अवस्था में होती है, भविष्य बाणी भी करती है। इस नृत्याभिनय में ब्रह्माण्ड रचना का भाव रहता है। अंगुलियो में विशेष घास (जिसे लाड थ्रै कहते हैं) लेकर माइबी सृष्टि प्रक्रिया को प्रकट करती है। उस समय आँखो और पाँवो की गति भी प्रतीकात्मक होती है। नौडपोक निडथौ और पान्थोइबी (शिव-पार्वती) का अभिनय भी किया जाता है, जिसमें प्रतीकात्मक ढंग से नारी पुरुष मिलन, गर्भ धारण, जन्म आदि की अभिव्यक्ति होती है। कपास बोने चूनने से लेकर वस्त्र बनाने तक की क्रिया प्रकट की जाती है। उसके पश्चात मछली पकडने, कृषि तथा घर बनाने आदि का भी प्रतीकात्मक अभिनव-नृत्य किया जाता है। नृत्य के समय पाँवों की गति मंद होती है और इसमे लय-ताल आदि की ओर उतना ध्यान नहीं दिया जाता है। नृत्य में भाग लेन वाले नर्तक बच्चे से लेकर बूढें तक होते हैं, जो एक वृत्त या अर्ध वृत्त बना लेते हैं।

लाई हरोबा सृष्टि काल से प्रचलित नृत्य है जिसमें सृष्टि की सम्पूर्ण प्रक्रिया प्रतिकात्मक ढंग से दिखाई जाती हैं। यह नृत्य मणिपुरी संस्कृति का सच्चा प्रतिनिधि है। प्रोफेतर एलाडबम नीलकांत सिंह ने इसको मैतेई जाति का वेद और पुराण कहा है। वास्तव में है भी। विशेष उल्लेखनीय बात यह है कि प्रत्येक नर्तक के अंग विशेष वस्त्रों से ढके रहते हैं, जिससे किसी दर्शक या नर्तक के मन में वासनात्मक भावना जागृत न हो। पुरुष धोती और साफा बांधे तथा कुर्ता पहने हुए होते हैं जबकि स्त्रियां “इनफि” नामक पारदर्शक चादर ओढती है तथा कमर में फनेक बाँधती है। विवाहित स्त्रियां सिर ढकती है किन्तु अविवाहित लड़कियां/महिलाएं एक प्रकार का मुकुट धारण करती हैं। इस नृत्य में लास्य मुद्रा में स्त्रियां नाचती हैं जबकि पुरुष ताण्डव में। इस नृत्य अनुष्ठान के अन्त में विभिन्‍न स्थानीय खेल खेलने की परम्परा भी है। लाई हरोबा के अन्तिम दिन ‘ सरोय-खाडबा” नामक पूजा की जाती है। अर्धरात्रि के पश्चात गाँव की स्त्रियां सिर पर टोकरी में चावल फल, फूल और सब्जियां आदि लेकर माइबी के साथ चौराहे पर जाते है, जो गाँव से दूर होता है। माइबी वहां पूजा करती है और यह सारी खाद्य सामग्री भूत प्रेतों को अर्पित करके ये लोग लौट आते हैं। यह विश्वास किया जाता है कि इस पूजा
के परिणाम स्वरूप भूत-प्रेत नही सतायेंगे।

निंगोल चकौबा

मणिपुरियों का एक सामाजिक त्योहार राज्य में सबसे प्रसिद्ध त्योहारों में से एक, निंगोल चकौबा, मणिपुरी कैलेंडर के हियांगी महीने के दूसरे दिन होता है। चकौबा का अर्थ है “दावत के लिए निमंत्रण,” और निंगोल “विवाहित महिला” को संदर्भित करता है, इसलिए यह वह त्योहार है जहां विवाहित महिलाओं को भोजन के लिए अपने माता-पिता के घर आमंत्रित किया जाता है। कार्तिक शुक्ल द्वितीया को प्रत्येक बहन भातृ द्वितीया (भैया दूज) मनाने अपने भाई के घर जाती है। निंगोल चकौबा का अर्थ भगिनी भोज है। मणिपुर में यह त्यौहार विशेष उत्सव के रूप में मनाया जाता है। प्रत्येक बहन वस्त्र भूषण से सजकर अपने मायके जाती है। बहन का उस दिन मायके में विशेष सम्मान किया जाता है। परिवार के साथ सामूहिक भोज होता है। बहन को भाई तथा भाभी, माता आदि की ओर से वस्त्राभूषण भी दिए जाते हैं। बहन को ही नहीं उसके बच्चो के लिए भी कुछ न कुछ सामग्री अवश्य दी जाती है। बहन दक्षिणा प्राप्त करके मायके के लोगो कै लिए मगल कामना करती है। लोक विश्वास है कि उसकी इसी दिन की मंगल-कामना अवश्य फलवती होती है। बहन भोजन के बाद परिवार की स्त्रियों तथा कन्याओ के साथ बैठकर अपने ससुराल के दु ख-सुख की बातें कहती है। शाम को वह अपने घर लौट जाती हैं। निंगोन चकौबा से पूर्व बाजार से खूब खरीददारी की जाती है और प्रत्येक भाई अपनी बहन को उत्तम भोजन कराता है तथा सामर्थ्यानुसार अधिकतम भेंट भी देता है।

कांग चिंगबा रथयात्रा
कांग चिंगबा रथयात्रा

मणिपुर में श्री राधा-कृष्ण भक्ति का सन्‌ 1697 ई० से प्रचार- प्रसार हुआ। तब से श्री राधा-कृष्ण से संबंधित विभिन्‍न पर्व त्योहारों एवं उत्सव मणिपुर मे मनाएं जाने लगे। किन्तु कुछ त्यौहारों और पर्वो की परम्परा बहुत बाद में मणिपुर में आई। कांग चिंगबा रथ यात्रा का त्यौहार भी मणिपुर में बाद के वर्षो से मनाया जाने लगा। मणिपुर के महाराज गंम्भीर सिंह ने अपने शासनकाल सन्‌ 1825-34 ई० में रथयात्रा बोर पुर्नयात्रा त्यौहार का मणिपुर में श्री गणेश किया था।

मणिपुर भाषा में इसको कांग चिंगबा या कांगचिडवा (रथ खीचना) कहते हैं। आाषाढ़ शुक्ला प्रतिपदा को महाराज गरभीर सिंह ने प्रथम कांग चिंगबा रथ यात्रा का आयोजन किया था, आज भी यह इसी दिन मनाया जाता है। “चैथरोल कुम्बाबा” नामक मणिपुर के राजवंश के इतिहास में प्रथम रथ यात्रा का वर्णन उपलब्ध है। वास्तव मे रथयात्रा पुरी (उडीसा) में श्री जगन्नाथ स्वामी के मंदिर का प्रमुख त्यौहार है। चैतन्य महाप्रभु के कारण रथयात्रा का प्रचलन बंगाल में हुआ और वहाँ से यह मणिपुर में आ पहुचा। महाराज गंभीर सिंह को अपने जीवन के प्रारंभिक वर्ष कछार या सिलहट प्रवास में व्यतीत करने पड़े़ थे। वहां रथयात्रा का त्यौहार बहुत धूमधाम से मनाया जाता था। उन्ही दिनो की बात है कि रथयात्रा ओर मुहर्रम त्योहार एक दिन पड़ गए। अतः गोनार खान जो कछार के नवाब थे, वे हिन्दू प्रजा से कहा कि रथ यात्रा एक दिन बाद में मनाया जाए। बात बढ़़ गई और हिन्दू-मुस्लिम प्रजा में विवाद उठ खड़ा हुआ। किंतु महाराजा गंभीर सिंह ने अपने सैनिकों की सहायता से संभावित साम्प्रदायिक दंगे को टाल दिया और दोनो सम्प्रदाय के लोगो ने त्योहार शांति से मनाएं।

जगन्नाथ क्षेत्र से महाराजा गंभीर सिंह ने एक पंडा बुलवाया और मणिपुर में प्रथम बार श्री जगन्नाथ, बलराम व सुभद्रा की मूर्तियां बनवाई। उसी को देखरेख में त्रिमूर्ति एवं 40 फीट ऊँचे बारह पहियो वाले रथ का निर्माण किया गया । महाराजा ने स्वयं अपने सामंतों के साथ इस रथ को खींचा। रथ के आगे-आगे संकीर्तन दल संस्कृत कवि जयदेव के गीत, गोविन्द के पद्य गाते हुए तथा नृत्याभिनय करते हुए चले । महाराजा गंभीर सिंह के द्वारा चलाई गई इस परम्परा का आज भी मणिपुर में कांग चिंगबा रथ यात्रा के रूप में पालन किया जाता है।

मध्यकाल में कांग चिंगबा त्यौहार राजमहल में आयोजित किया जाता था और इसके अनुकरण पर प्रत्येक गाँव गली में भी इसका आयोजन किया जाने लगा। रथ पर बनाई जाने वाली अम्बाडी का आकार बर्मा के बौद्ध पयोडा के आकार का होता था। सप्रति रथ चार पहियों का होता है। रथ के निर्माण के लिए पहले राजकोष से धन दिया जाता था अब रथ प्रजा द्वारा दी गईं दक्षिणा से बनाया जाता है या बस्ती का कोई धनी व्यक्ति रथ का निर्माण कराता है।

रथ को चारो ओर से थी जगन्नाथ प्रभु के बडे-बडे चित्रो से सजाया जाता है। रथ पर त्रिमूर्ति अम्बाडी के नीचे प्रतिष्ठित की जाती है। जिसके दोनो ओर दो कन्याएं चेंवर डुलाती खड़ी रहती हैं। दो ब्राह्मण पुजारी मूर्तियों के सामने पूजा आरती के लिए खडे रहते हैं। रथ को रस्सियो से भक्त जन खींचते हैं। प्रत्येक घर के सम्मुख रथ को रोका जाता है, जहां गृह स्वामी वर्तिका, फल एवं पुष्प अर्पित करता है। पुजारी वर्तिका को प्रज्वलित करके भक्‍तों को लौटाते हैं। भक्त इसकी राख को अपने मस्तक पर लगाते हैं और बाद मे अपने द्वार पर ले जाकर रखते हैं। लोक विश्वास है कि इस वर्तिका के द्वार पर रखने से उस से उस घर पर दुरात्माओ का प्रभाव नही हो सकेगा। सामूहिक दक्षिणा से तेयार किया गया खिचडी का प्रसाद भी उपस्थित जनसमूह में पुजारी बांटते चलते हैं।

रथ के आगे सकीर्तन दल मृदंग, झाल, करताल,घंटे व शंख बजात नाचते-गाते चलते हैं। संकीर्तन दल जो नृत्य संगीत प्रस्तुत करते हैं, विशिष्ट शास्त्रीय संगीत पर आधारित होता है। प्रत्येक भक्त एव संकीर्तन दल का सदस्य नंगे पाँव होता है। सभी पुरुष सफेद धोती और कुर्त्ता व सफेद चादर ओढ़े हुए होते हैं। जबकी महिलाएं भगवे रंग का फनेक (लूंगी-तहमद) और सफेंद रंग की चादर ओढकर रथयात्रा मे भाग लेती हैं। नर्तक पुरुष दल सफेद धोती पर कमर पर सफ़ेद कपड़े की मेखला (कमरबंद) बांधते हैं। सिर पर ये लोग सफेद रंग के साफे बांधे होते हैं।

कांग चिंगबा रथ यात्रा का रथ श्री गोविन्द जी मंदिर से सर्व प्रथम दिन के अंतिम भाग में निकाला जाता हैं और संध्या समय पुन मंदिर में लौट आता है। पुरी में रथ एवं त्रिमूर्ति उसी दिन मंदिर मे नहीं लौटाई जाती है। पुरी की रथयात्रा से मणिपुर की रथयात्रा इस दृष्टि से भिन्‍न है। पुरी में रथयात्रा केवल श्री जगन्नाथ स्वामी के मंदिर से निकाली जाती है, जबकि मणिपुर में अनेक मदिरों से और प्रत्येक गाँव-गली से। रथयात्रा की रात्रि से नौ रातों तक, प्रत्येक मंदिर में, भक्त जन मंडप में एकत्र होते हैं। (प्रत्येक मंदिर में मंडप अवश्य होता है। ) इस अवसर पर “खुबाक ईशे” नामक भजन-कीर्तन किया जाता है। “नट चौलम” नामक ताली बजाकर एक विशेष नृत्य किया जाता है। यह उल्लेखनीय तथ्य है कि मणिपुर के नृत्य राग-रागनियां विशेष पद्य त्योहारों की देन है। ‘खुबाक इशे” रथयात्रा त्यौहारों का आकर्षक एवं महत्वपूर्ण
अंश है। यह स्त्रियों के द्वारा प्रस्तुत किया जाता है जो उनकी कोमलता के अनुकूल है। “पूड चौलम” विशिष्ट मृदंग नृत्य है, जो कुशल कलाकारों द्वारा प्रस्तुत किया जाता हैं। ये नृत्य एव गायन विशेष शास्त्रीय पद्धति प्रस्तुत किए जाते है और इनमे भाग लेने वाले कलाकार महीनों तक पूर्वाभ्यास करते है। इस अवसर पर जयदेव रचित दशावतार के पद्य भी गाए जाते हैं। इस अवसर के गीतो में श्री कृष्ण के अवतरण वे साथ गोकुल से मथुरा जाने का। वर्णन तथा राधा ओर गोपियों की विरह व्यथा का चित्रण रहता है।

काडलेन

आषाढ़ शुक्ल दशमी को पुन: यात्रा का आयोजन किया जाता है। कांग चिंगबा रथ यात्रा के दिन की भाँति ही पुन रथ निकाले जाते है और संध्या-समय जब रथ लौट कर मंदिर आता है। तब तीनो मूर्तियों को वापिस मंदिर में यथास्थान रखा जाता है। कांग चिंगबा रथयात्रा के दिन रथ के लौटकर आने पर मू्र्तियों को मंदिर में नहीं रखा जाता है, वल्कि मंडप में रखा जाता है। पुनः यात्रा के दिन कहा जाता है कि कुछ वर्ष पूर्व तक एक दूसरे पर कीचड या पानी आदि फेंकने को परम्परा थी किन्तु अब ऐसा नही किया जाता है।

कांग ऊ रथयात्रा और पून: यात्रा के दिन दोपहर बाद नगर व गाँवों में बस आदि सवारियों का चलाया जाना बन्द कर दिया जाता है, ताकि रथयात्रा के जुलूस निकाल सके। मणिपुर की संपूर्ण घाटी में उत्सव का वातावरण छा जाता है। नो दिन तक मध्यरात्रि तक मंदिर प्रागणों में नृत्य, गान एवं संगीत चलता है। तथा घरों में संध्या का भोजन नहीं बनाया जाता है, मंदिर में ही सामूहिक भोज होते हैं। इस भोजन में कमल के पत्ते पर खिचड़ी का प्रसाद दिया जाता है। समान वेषभूषा में सजे लोगों का बिना किसी भेदभाव के एक ही पंगत में बैठकर खाना श्लाघनीय है। दर्शक के चर्म चक्षुओ को यह त्योहार अपूर्व आनन्द प्रदान करता है तो प्रक्ष चक्षुओ के द्वारा वह भक्ति भाव में निमग्न होता हैं और वह मणिपुर घाटी के लोगो के धार्मिक’ एवं सांस्कृतिक वैभव का अनुभव कर सकता है। नृत्य, गान, संगीत एवं अभिनय की कलात्मक- शेष्ठता एव शास्त्रीय नियम बद्धता से वह अभिभूत हो जाता है। रथयात्रा एवं पुनयात्रा त्योहार की परम्परा श्री कृष्ण भक्ति की देन है।

मणिपुरी त्योहारों के अलावा यहां दिपावली, होली, जन्माष्टमी, दुर्गा पूजा, रामनवमी, विश्वकर्मा पूजा, गोवर्धन पूजा, सरस्वती पूजा, वामन जन्म, राधाष्टमी आदि त्यौहार की बड़ी धूमधाम के साथ मनाएं जाते हैं।

मणिपुर के ईसाई त्योहार

मणिपुर के पर्वतीय क्षेत्र मे रहने वाले जन जातीय लोग ईसाई धर्म मानने लगे है और उनमें बहुत कम लोग हैं, जिन्होने अभी तक ईसाई धर्म ग्रहण नहीं किया है। ईसाई धर्म का विशेष त्यौहार क्रिसमस है। 20 दिसम्बर से एक जनवरी तक मणिपुर मे उत्सव का वातावरण छा जाता है। इन दिनो बाजार में पर्वतीय जन की भीड देखने योग्य होती है। स्थान-स्थान पर गिरजे और चर्च हैं, जिनमे प्राथंनाएं और सामूहिक भोज होते हैं। परस्पर क्रिसमस एवं नववर्ष की शुभकामनाओं का आदान प्रदान किया जाता है। गुड फ्राइडे भी ईसाई धर्मानुपायियों का प्रमुख त्यौहार है। अन्य धर्म के लोग भी अपने ईसाई मित्रों को बधाई देते हैं।

मणिपुर के मुस्लिम त्योहार

ईद उल फितर तथा ईद उल जुहा त्यौहारों के दिन मुसलमान भाई ईदगाह में नमाज पढते हैं तथा एक-दूसरे को दधाई देते है। अन्य धर्मावलम्बी भी इन्हें बधाई देते हैं।

मणिपुर के जैन त्योहार

मणिपुर मे रहने वाले लोग इस्फाल में पावना बाजार स्थित जैन मंदिर से महावीर जयन्ती के दिन घूमघाम से शोभा-यात्रा निकालते हैं और इस अवसर पर अन्य धर्मो के लोग भी इस शोमा-यात्रा में सम्मिलित होते हैं।

मणिपुर के सिख त्योहार

इम्फाल स्थित गुरुद्वारे से गुरु नानक जन्म दिन, गुरु तेग बहादुर आदि गुरूओं के दिन तथा बैशाखी के दिन शोभा-यात्राएं निकाली जाती हैं। इन विशेष अवसरों पर गुरुद्वारे में लंगर का आयोजन होता है, जिसमें विभिन्न धर्मो के लोग एक पंगत में बैठकर भोजन करते हैं।

मणिपुर में साम्प्रदायिकता या धार्मिक कट्टरता का नितान्त अभाव हैं। प्रत्येक धार्मिक उत्सव, पर्व एवं त्योहार पर मणिपुर में जो भाईचारे की भावना देखी जाती है, वह अनुक्रणीय है। मणिपुर में विभिन्न धर्मों के लोग प्रेम से रहते है। यहां कभी साम्प्रदायिक उत्पात नही होते है। हनुमान जयंती के दिन प्रतिवर्ष महाबली के मंदिर से शोभा यात्रा निकाली जाती है, जिसमें सभी सम्प्रदाय के लोग सम्मिलित होते हैं।

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Naeem Ahmad

CEO & founder alvi travels agency tour organiser planners and consultant and Indian Hindi blogger

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