मनुष्य का निवास भौगोलिक परिस्थितियों पर निर्भर करता है। वह उपलब्ध सामग्री से आवश्यकतानुसार घर बनाता है। मणिपुर को प्रकृति ने दो भागों में विभक्त कर रखा है, अतः मणिपुर के पर्वतीय क्षेत्र का रहन सहन घाटी में बसने वाले लोगो से भिन्न हैं। पर्वतीय लोग पर्वत शिखरों या ढ्रालो पर मकान बनाते हैं। इन क्षेत्रों में जनसंख्या छितरी हुई है। 100 से 200 जनसंख्या वाले गांवों की संख्या दो तिहाई से भी अधिक है। घर बनाने के लिए लकड़ी, घास, पते, सरकड़ें, कच्ची मिट्टी की ईंटे व बांस का प्रयोग किया जाता है। घर केवल एक मंजिल के होते हैं, अपवाद स्वरूप कहीं दो मंजिलें घर भी मिल सकते हैं। घरों पर 50° से 60° कोण के ढलान वाली छत बनाई जाती है। अक्सर छत घास-फूस की होती है, कुछ घरों पर टिन भी है, किन्तु वे भी ढालवा ही हैं। फर्श लकडी या बांस से बनाए जाते हैं और सामान्यत यह भूमि से ऊंचे होते हैं। घर से कुछ ही दूरी पर धान का भंडार गृह होता है। घरों में धान नहीं रखा जाता न किसी घर में दरवाजे पर ताला लगाया जाता है। गाँव के मुखिया को छोडकर एक ही कमरे के घर होते हैं। गांव बूढ़े के घर लकडी के बने होते हैं, जिन पर थोड़ी नक्काशी भी देखी जा सकती है। दीवारों पर कुछ चित्रकारी की जाती है। विभिन्न पशुओं के सिर आदि टांगे जाते हैं। कुछ वर्षो पूर्व नरमुंड भी देखे जा सकते थे। क्वारे लड़के लड़कियों के लिए हर गांव में अलग-अलग सामूहिक घर बनाए जाते थे, जो लम्बे ओर बडे़ कमरे होते थे। इन्हे मोरूड कहा जाता था।
मणिपुर का रहन सहन और जन जीवन
रहने के घरों में घर के बीचों-बीच आग जलाने का स्थान होता है, जिस पर एक तिपाई पर चावल का बर्तन रखा जाता हैं। आग के ऊपर रस्सी से बंधा मांस लटकता रहता है, जो अग्नि के ताप से सिकता रहता है। वहीं लाल मिर्च ओर नमक रखा रहता है। एक थाली होती है, जिसमे घर के लोग अवसर साथ बैठकर भोजन करते है। रात्रि के समय उसी आग के चारों ओर चटाई बिछाकर सोते हैं। बिस्तर में कम्बल होना वैभव की निशानी मानी जाती है। अग्नि ताप एवं शरीर की गर्मी ही बिस्तर का काम करते हैं। जमीन पर बिछाने के लिए संम्पन्न लोग बोरे में घास भरकर गददा बनाते हैं।
अवागमग वे साधनों के अभाव में अधिक चीजें वहां तक ले जाना दुष्कर है। अधिकतर गांवों मे सामान सिर पर रखकर ले जाना होता है। एक चावल लेने का लकड़ी का बडा चम्मच, लकड़ी के या एनेमल के एक दो कटोरे, पीठ पर ढोई जाने वालो बेंत की टोकरी, पानी लाने के लिए बांस मे टुकडें, दाव (कुल्हाडी के स्थान पर काम आने वाला औजार), भाला, कटार, एक ओखली-मूसल जिसमें धान कूटा जाता है और एक पानी पीने का मग और कपड़े बुनने की सामग्री, टोकरी ओर कृषि के औजारों वे अतिरिक्त घरों में कोई सामग्री नही होती हैं। पलंग या खाट भी कम ही देखी जाती है। इस प्रकार पर्वतीय घर वातावरण के अनुसार बने हैं,और उनमें अनिवार्य दैनिक आवश्यकता की वस्तुओं से अधिक कुछ नही मिलता है।
मणिपुर का रहन सहनमणिपुर घाटी में रहन सहन और जनसंख्या पर्वतीय प्रदेश के ठीक विपरीत पद्धति में पाई जाती हैं। गांवों में एक ही स्थान पर घनत्व अधिक मिलता है। घाटी के गांवों में 200 से 500 की जनसंख्या पाई जाती है। समतल मैदान में नदियों और झीलों के किनारे, तथा सड़क ने समानान्तर समतल मैदान में गांव बसे हैं, प्रत्येक गांव के आस-पास हरे-भरे खेत होते हैं और गांव का हर घर बांस के झुरमुट से घिरा रहता है। दूर से देखने पर ये गांव बसवारी लगते हैं। जिन गांवों के पास नदी नहीं होती है, वे अक्सर पोखरी को केन्द्र बनाकर बसते हैं। घर पूर्व से पश्चिम दिशा में या उत्तर से दक्षिण दिशा में फैले रहते हैं। प्रत्येक घर का मुख्य द्वार पूर्व को ओर होता है। धार्मिक एवं भौगोलिक कारणों से दक्षिण या पश्चिम दिशा की ओर कभी मुख्य द्वार नही रखा जाता है।
प्रत्येक घर लगभग एक एकड़ या उससे भी अधिक भूमि पर बनाया जाता है। पूर्व दिशा में एक मंडप या बरामदा बना होता है, जिसके साथ कमरे नहीं होते। इसको ‘शघोई” कहा जाता है और दिन के समय घर के सदस्य इसी में बैठते हैं। स्त्रियों के करघे हेतु एक कार्यशाला प्रत्येक घर में होती है। शघोई में भजन-कीर्तन नृत्य होते हैं। रहने के कमरों और शघोई के बीच “शूमाड” (आँगन) होता है। शुमाड मे बीच तुलसी चौरा। घर के पृष्ठ भाग में या बगल में रसोई होती है और घर के चारों और सब्जी और फूलो और फलों के पौधे रहते हैं। घर के पीछे अंतिम भाग में शौचालय होता है। लगभग प्रत्येक घर में एक छोटी बडो पोखरी रहती है, जो जलन स्रोत्र होती है।
घर कच्चे ही होते हैं और इनके निर्माण में वही सामग्री काम में ली जाती है जो पर्वतीय घरों में, किन्तु गांवों, कस्बों या नगरो में दो मंजिल के मकान मिलना आश्चर्य की बात नहीं है। छत घास-फूस या टिन की हो सकती है किंतु ढालवां अवश्य होगी। फर्श अक्सर धार्मिक कारणों से कच्चे होते हैं। जिनको प्रतिदिन मिट्टी व गोबर से लीपा जाता है। शुमाड, शघोई या घर के आंगन तथा पीतल के बर्तन शीशे की तरह चमकते हैं। स्वच्छता एवं सुरुचि का संयोग अनुकरणीय है। बगीचे के पौधों फूलों के चयन और चमचमाते आंगन और बर्तन घर को आलौकिक स्वरूप प्रदान करते हैं। घाटी में बसने वाले लोग अधिकतर वैष्णव हैं, अतः प्रत्येक घर में मंदिर और मंडप आवश्यक है। हर घर के चारों ओर बाँसो की या झाडियों की बाड होती है। मध्यकाल मे वैष्णव कवियों ने जिन कुंजगलियों का वर्णन किया है, ठोक वैसी ही कुंज गलियाँ हैं ये, जिनमें कोयल-पपीहे का स्वर गूंजता रहता है। सूर्य की किरणें बांसो के घने झुरमुट से छनकर घरों के आँगन में तोता-पंखी रंग बिखेरती हैं। साफ-स्वच्छ, फूलों-हरियाली से घिरा शांत घर रहन सहन को किसी स्वर्ग से कम नहीं बनाता है।
इधर कुछ वर्षों में आर० सी० सी० के पक्के बहुमजिलें घर भी बन गए हैं। प्रत्येक घर में अलमारी, मेज, कुर्सी पलंग आदि सामग्री की कलात्मक बनावट दर्शनीय है। बिस्तरों की साफ-सफाई व सज्जा तथा पलंग की कारीगरी देखकर मन प्रसन्न हो जाता है। प्रात काल बिस्तर छोडने के बाद रजाई- कम्बल अलमारी या भंडार गृह मे रख दिए जाते हैं। केवल गद्दो पर स्वच्छ चादर बिछी मिलती है और तकिये। सैनिक अनुशासन से भी मणिपुरी घरों में स्वच्छता संबंधी अनुशासन कठोर है।
मणिपुर के रहन सहन में स्वच्छता का महत्व
मणिपुर के मैतेई समाज की स्वच्छता एवं शालीनता अपूर्व है। घरो-बर्तनों के विषय में पीछे बता दिया गया है। मणिपुर के रहन सहन में व्यक्तिगत स्वच्छता की चर्चा की जाए तो मैतेई लोग अबाल-वृद्ध प्रात-काल सूर्योदय से पूर्व बिस्तर छोड देते हैं। चारपाई से उतरने से पूर्व राम-कृष्ण-हरि, समामही, पाखंगम्बा आदि का नाम जाप कर और नमन कर तथा पृथ्वी को छूकर प्रणाम करके उस पर पांव रखते हैं। देनेदिन कार्यों से निवृत होकर मिट्टी से हाथ धोते है, दातून करते हैं तब स्नान करके चंदन-तिलक व छापे लगाकर पूजा-पाठ किया जाता है। स्त्री-पुरुष पूजा-पाठ के समय रेशमी या मूंगे के वस्त्र धारण करते हैं। स्त्रियां पूरे घर को साफ करके लीपती हैं ओर सारे बर्तन राख व मिट्टी से मलकर साफ करती हैं। तब ये अन्य कार्य करती हैं। तुलसी चौरे पर तथा देवी-देवताओ को पुष्पांजलि दी जाती है। इन सब कार्यों से पूर्व खाना-पीना वर्जित है। सूर्यास्त के बाद पुनः संध्या-आरती के बाद ही रात का भोजन किया जाता है। तुलसी चौरे पर दीप जलाना भी नित्य-नियम है। सोने से पूर्व भी ईश्वर का नाम लेते है। स्नान के पश्चात प्रतिदिन स्वच्छ धूले वस्त्र पहनना भी अनिवार्य है। स्त्रियां नहा-धोकर ही रसोई मे प्रवेश करती हैं. तथा रजस्वला होने पर रसोई में नही जाती। शौच जाने के बाद में स्नान करना व वस्त्र बदलना भी अनिवार्य है।
स्त्री-पुरुष व बालकों के दांत मोती से चमकदार होते हैं। शरीर व वस्त्रों की सफाई देखते ही बनती है। स्त्रियों के बाल विशेष पत्तियों तथा चावल के पानी से धोने के कारण रेशम से मुलायम व चमकदार होते हैं। मणिपुरी महिलाओ के बाल घुटने के नीचे तक लम्बे होना आम बात है। कुछ स्त्रियों के बाल एडी तक लम्बे होते हैं। सडक पर खडे हो जाइये आप एक भी व्यक्त ऐसा नही पाएगें जो मेला हो या मैले वस्त्र पहने हो। जूते तक पालिश से चमकते हैं। सवारी चाहे साईकिल हो या कार चमकती हुई मिलेगी। यहां विशेष उल्लेखनीय बात यह है कि यहां प्रत्येक व्यक्ति अपनी सामर्थ्य अनुसार सवारी अवश्य रखता है और प्रत्येक घर में जितने सदस्य स्त्री-पुरूष बच्चे-बच्ची सभी की अलग-अलग सवारी होती है। वाहन प्रियता के साथ चलाने में दक्षता इनकी विशेषता है।
मणिपुर के रहन सहन में विनम्रता
मणिपुर के रहन सहन में यूं तो वैष्णव विनम्रता विख्यात हैं ही किंतु मणिपुर के जन-जीवन में उसका अनूठा रूप देखा जाता है। यहां किसी को ऊंची आवाज में बोलते या चीखते-चिल्लाते नही सुन सकते। धीमी आवाज में प्रेम से बोलना, बोलते समय मुंह पर हाथ रखना, गुरुजनो की खुरमजरी” (दण्डवत प्रणाम) करना, सभा या व्यक्तियों के बीच से गुजरना हो, थोडा झुककर दाहिने हाथ को भूमि की तरह फैलाकर रास्ता मांगते हुए गुजरना, गाली या अपशब्द का प्रयोग न करना, यहां तक कि विवाद हो जाने, कुश्ती मारपीट होने पर लहु-लुहान होने पर भी न चिल्लाते हैं, न अपशब्द बोलते हैं। विनम्रता और शिष्टाचार के इन नियमों का अत्यन्त कठोरता से पालन क्या जाता है। निन्दा करना, अपवाद फैलाना और अभिमान का भी मैतेई जीवन में सर्वधा अभाव है। सभी बंधुत्व के भाव में आबद्ध हैं। अनुशासन, समता, विनम्रता, शिष्टाचार और स्वच्छता संभवतः मणिपुर को वैष्णव-धर्म की अनुपम देन है।
मणिपुर का समाजवादी समाज
मणिपुरी समाज पूर्ण समाजवादी सिद्धांतों द्वारा नियंत्रित है। कोई ऊंच-नीच की भावना यहां के रहन सहन नहीं पाई जाती और न ही कोई वर्ग भेद है। युगों से यह वर्ग-विहीन समाज रहा है। आयु के आधार पर सम्मान दिया जाता है और पद या आर्थिक अवस्था के कारण न सम्मान किया जाता है और न अनादर। राजा और गुरु सदैव वंदनीय और पूजनीय रहे, किन्तु राजकुमारियां महलों में कपड़ा बुनती थीं और झीलों में मछलियां पकडा करती थी। स्वावलम्बन को भावना के कारण कोई किसी के श्रम का शोषण नहीं करता था और न आज करता है। राजाओं को छोडकर सेवक प्रथा का इस समाज में आज भी अभाव है। यदि आवश्यकता के कारण अनिवार्य हो तो किसी को भी घर में सहायक के रूप में रखा जा सकता है किंतु नौकर की भांति नही, परिवार के सदस्य के रूप में ही। वार्तालाप या व्यवहार में उसके साथ समानता का व्यवहार किया जाता है।
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