मणिपुर का मुख्य भोजन चावल है। गेहूं भौर मक्की का उत्पादन होता है, परन्तु खाते नहीं है। पर्वतीय जन मांसाहारी हैं जबकि घाटी के लोग केवल मछली खाते हैं और अपने को निरामिष या शाकाहारी मानते हैं। भोजन में गोभी, आलू, बंदगोभी, आदि सब्जियों के साथ सरसों और राई के पत्तों की साग बहुत प्रचलित है। मैतेई समुदाय एक चटनी बनाते हैं जिसको “एराम्बा” कहा जाता है। सूखी मछली, आलू योंकचाक (एक लम्बी फली), बांस की कोपल का भीतरी भाग आदि विभिन्न वस्तुओ को उबालकर एरोम्बा चटनी बनाई जाती है। इसमें मिर्च की मात्रा बहुत अधिक होती है।
मणिपुर का भोजन
मणिपुर के खानपान में विभिन्न प्रकार की दालों और सब्जियों का प्रयोग करना तथा तली हुई मछली व रसदार मछली भी भोजन में अवश्य रहती है। तेल-घी का बहुत कम प्रयोग किया जाता है। दूध और दूध उत्पादन का भी अधिक प्रचलन नही है। मणिपुर में मोटे या तोंद वाले व्यक्ति बहुत ही कम हैं। भोजन भूमि पर बैठकर दिया जाता है। मैतेई भोजन में व्यजनों की विविधता रहती है और उत्सवों आदि पर आयोजित भोज या दावत में व्यंजन संख्या 100 से 150 तक भी हो सकती है। दावतों या प्रसाद में खीर बनाई जाती है। कई प्रकार की मछली और उसकी विभिन्न प्रकार की तरकारी विशेष उल्लेखनीय है। विभिन्न धार्मिक पर्व-उत्सवों में बनाए जाने वाले भोजन में मछली नहीं बनाई जाती है। भोजन के अंत में नमक अंतिम वस्तु के रूप में दिया जाता है जिससे लोग हाथ धोते हैं तथा दांतो को भी रगडते है। सामूहिक भोज ब्राह्मण बनाते हैं। परोसते समय एक विशिष्टता का उल्लेख करना आवश्यक है। परोसने वाले के मूंह और नाक को ढकते
हुए एक वस्त्र बाँधा जाता है, जिससे छीकने या खासने पर भोजन में कुछ गिर न जाए। सामूहिक भोजन केले के पते, पत्तल एवं दोनों में किया जाता है जबकि घरों में पीतल, कांसे और अब स्टील की थाली, कटोरी आदि में।
मणिपुर की पर्वतीय जनजाति का खाना बहुत ही सादा होता है। सेके गए मांस का टुकडा नमक और मिर्च आमतौर से यही भोजन होता है। कभी कभी दाल, सब्जियां, साग भी बनाई जाती हैं और माँस भु, किन्तु इनमें नमक, मिर्च, हल्दी के अतिरिक्त मसालों का प्रयोग नही किया जाता है और सब्जी तरकारी उबलीहुई होती है जिसमें अक्सर तेल-घी नहीं मिलाया जाता है। भोज या दावत के अवसर पर मछलियों की भिन्न-भिन्न तरह की डिश, कई तरह के तले भूने या रसदार माँस आदि बनाए जाते हैं।
मणिपुर का भोजनयहां यह उल्लेख करना आवश्यक है कि पर्वतीय जनजाति जो मिर्च खाते हैं, उसकों नागा मिर्च कहा जाता है, यहमैतेई लोगों की मिर्च से कई गुना तेज होती है। एक बड़े सब्जी के कढ़ाह में यदि एक मिर्च डाल दी जाए, तो अन्य प्रांत के लोग उस सब्जी को मिर्च की अधिकता के कारण खा नहीं सकेंगे, किंतु नागा जनजाति के लोग एक भोजन में 1-2 मिर्च या उससे भी अधिक खा जाते हैं। पर्वतीय जनजाति भी भोजन भूमि पर बैठकर करते हैं और एक अंडाकार टोकरीनुमा भोजन रखने की वस्तु होती है, उस पर भोजन रखा जाता है। पूरा परिवार एक साथ एक थाली में भोजन करता है।
मणिपुर के पेय पदार्थ
मणिपुर में मैतेई समुदाय के लोगों के संबंध में अन्यंत्र कहा जा चुका है कि वे नशीली वस्तुओं का सेवन नही करते। “लोई” या निम्न जाति के लोग, जिनके विषय में अनुमान है कि ये मोइराड के मूल निवासी हैं, जिनको कभी निडथौंजा वंश के लोगो ने दास बना लिया था ओर बाद में इनकी बस्तियों में राज्य द्वारा दण्डित तथा समाज द्वारा बहिष्कृत लोगो को भी भेजा जाता था। वे सब लोई कहलाते हैं। इनकी बस्तियां “मैतेई” बस्तियों से अलग होती हैं। लोइ जाति के लोग न केवल चावल की बीयर जैसी शराब और तेज अलकोहल युक्त शराब भी बनाते हैं बल्कि उसका सेवन ही करते हैं। जनजातीय लोगों में भी चावल की भांति-भांति की नशीली शराब बनाई जाती हैं और पी जाती है। बिना दूध की चाय जिसमें शक्कर भी नहीं डाली जाती है, बहुत प्रचलित चाय है। खेतो मे काम करते समय इस प्रकार की चाय पीने का रिवाज है। चावल की बीयर जो नशा और भोजन का काम देती है, भी पी जाती है। मैतेई भाषा में “यू”, अतिबा आदि शब्द शराब व बीयर के लिए प्रयुक्त होते हैं। जू, जाम आदि अनेक शब्द अन्य जन जातीय भाषाओं में शराब के लिए प्रयुक्त होते हैं।
खानपान के सबंध मे मैतेई जाति के लोगो में भी परिवर्तन आया है और शराब के प्रचलन का पता इम्फाल बाजार व कस्बा में शराब (विशेष रूप से विलायती शराब भारत मे बनी) को दुकानों की बढती सख्या से लगता है। प्राचीनकाल से मणिपुर एवं जन जातियों में तम्बाकू पीने का रिवाज रहा है। आजकल लोग बीडी सिगरेट पीते हैं। अस्सी के दशक में यहां गांजा, स्मैंक, नम्बर फोर आदि देशी-विदेशी नशीले पदार्थों का सेवन बहुत बढ गया है, विशेष रूप से किशोर अवस्था के लडके-लडकियो में। इससे अपराध दर मे वृद्वि हुई है और हत्या जैसे जघन्य अपराध भी हुए हैं। सरकार इस सामाजिक बुराई से संघर्षरत है।
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