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मणिपुर के सुंदर दृश्य

मणिपुर का इतिहास हिंदी में – मणिपुर हिस्ट्री

मणिपुरभारत की उत्तरी पूर्वी सीमा पर स्थित छोटा-सा राज्य है जिसका क्षेत्रफल 22,347 वर्ग कि० मी० है। मणिपुर का लगभग 90%भाग पर्वतों से घिरा है जबकि घाटी का मैदानी भाग कुल क्षेत्रफल का 10% मात्र है। सन्‌ 2011 ई० की जनगणना के अनुसार मणिपुर की जनसंख्या 2855794 है। कुल जनसंख्या का दो-तिहाई भाग मणिपुर की घाटी में रहता है, जबकि पर्वतों में शेष भाग। प्रकृति ने मणिपुर को दो भागों में बांट दिया है। मणिपुर की घाटी को ऊंचाई 800 से 1000 मीटर है, जबकि सबसे ऊँची पर्वत श्रृंखला की समुद्रतल से ऊँचाई लगभग 2831 मीटर है। मणिपुर का मध्य भाग मणिपुर की घाटी है, जो समतल है किन्तु इसका कुल क्षेत्रफल 1800 वर्ग कि० मी० ही है। मणिपुर की पश्चिमी पर्वत श्रृंखला के पीछे 250 वर्ग कि० मी० का छोटा-सा मैदान है जिसको बराक नदी बेसिन कहां जाता है। यह सूरमा घाटी (कछार-असम) का ही विस्तार है।

मणिपुर के उत्तर में नागालैंड, पश्चिम में असम तथा दक्षिण में मिजोरम और पूर्व में बर्मा स्थित है। मणिपुर की पर्वत श्रृंखलाएँ उत्तर पूर्वी हिमालय की शाखाएँ हैं जो मणिपुर के उत्तर से होती हुई दक्षिण पूर्व की ओर बर्मा में अराकान योमा तक तथा मिजों पर्वतों से गुजरती हुई बंगाल की खाडी में जाकर मिलती हैं।

मणिपुर का इतिहास हिन्दी में – मणिपुर हिस्ट्री इन हिन्दी

मणिपुर का प्राचीन इतिहास

मणिपुर का प्राचीन इतिहास काल कवलित हो चुका है। मणिपुरी भाषा मे लिखे गए ग्रंथों में मणिपुर के विषय में अनेक सूदृष्टि से संबंधित मिथक उपलब्ध है। महाभारत ओर श्रीमद्भागवत में मणिपुर पर गन्धर्व वंशी राजा चित्रवाहन के शासन का उल्लेख मिलता है। जब पांडव अज्ञातवास काल में मणिपुर आए थे तो, उस समय चित्रवाहन की पुत्री चित्रांगदा का विवाह अर्जुन से हुआ और अर्जुन पुत्र वभ्रुवाहन मणिपुर का राजा बना था। महाभारत के आदि पर्व तथा अश्वमेधिक पर्व में मणिपुर के राजा सदा अपने वो अर्जुन का वंशज मानते आए हैं। सप्रति इस सिद्धांत का अवरोध किया जाता रहा है। श्रीमद्भागवत में वर्णित मणिपुर को भिन्‍न सिद्ध करने का प्रयत्न चलता रहा है। मणिपुर की घाटी में कभी सात वंशों का राज्य था, जो सम्भवतः विभिन्न स्थानों से आकर यहां बसे थे। खुमान, लुवाड, मोइराड, मैतेई, अडोम, डाडवास तथा खैडलेखाबा। इन सातों में आपस में युद्ध होते रहे और अंत में मैतेई वंश ने इन पर विजय प्राप्त कर ली थी। इनके राज्य ग्रीस के सिटी स्टेस या भारत के गणों जैसे थे। इन विभिन्‍न गणों को एक करने वाला मैतेई वंश था जिसने मणिपुर को एक राज्य बनाया था।

मणिपुर के भिन्न-भिन्न नाम

बर्मी लोग मणिपुर को कथे और मोगली कहते थे। मिक्ली और कोसी नाम से भी यह प्रदेश जाना जाता था। ऐसे ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध हैं। मैत्रबाक स्थानीय लोकप्रिय नाम भी प्रचलित है, पौराणिक ग्रन्थों में इसको मणिपुर कहा गया है। कालिका पुराण में दक्ष यज्ञ के समय यहां देवी का कटि भाग गिरा था। तो एक मान्यता यह भी है कि देवी के कटि प्रदेश का वस्त्र गिरा था, अत यह मेखली या मैखले भी कहा गया। अर्जुन जब वभ्रुवाहन के हाथों मारा गया तो उलूषी, वभ्रुवाहन की विमाता ने नागराज से संजीवनी मणि लाकर दी थी, जिससे वह जीवित हो गया था, इसलिए मणिपुर नाम पडा। टी० सी० हडसन के अनुसार यह महेंद्रपुर था जो बाद में मणिपुर बन गया। मणिपुरी पुराणों के अनुसार मैत्रबाक, काइलेपुड, कंलैंपुं, मोइराड या पोंथोक्लम नामों से भी जाना जाता था। जो भी हो 18 वी शताब्दी से तो मणिपुर नाम प्रचलित है। हां इसकी सीमाओ में समय-समय में परिवर्तन हुए हैं।

मणिपुर का प्रारंभिक इतिहास

महाभारत व पौराणिक ग्रंथों में वर्णित घटनाएँ विवादास्पद बन गई हैं। यदि इन्हें सही माना जाए तो मणिपुर राज्य की प्राचीनता सिद्ध होती है। चैथारोल कुम्बाबा नामक राजवंश मे हस्तलिखित इतिहास ग्रन्थ के आधार पर ऐतिहासिक दृष्टिकोण से प्रथम शताब्दी से पूर्व की वंशावली के सबंध में कोई सूचना नही है। चैथारोल कुम्बाबा में प्रथम शताब्दी से आठवीं शताब्दी तक 48 राजाओं की सूची प्रस्तुत की गई है। वास्तव में इससे पूर्व सम्भवतः मणिपुर विभिन्‍न गणों में विभक्त था, जिनमें निथौजी (मैतेई) नामक वंश शक्तिशाली सिद्ध हुआ और इसी वंश के राजाओ ने इसको एक राजनीतिक इकाई का रूप दिया।

मणिपुर के सुंदर दृश्य
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सन्‌ 33 से 663 ई० का काल

सन्‌ 33 ई० में पाखंगबा नामक शक्तिशाली राजा हुआ जिसने मणिपुर में सुदृढ़ शासन की स्थापना की थी और निथौजी राजवंश का वही संस्थापक था। उसी के वंशज मणिपुर के राजसिंहासन को सुशोभित करते रहे। उसका पुत्र 267 ई० मे राजा बना जिसने मणिपुर मे जल निकास प्राणली का विकास किया। 364 ई. में खुई निडोडंबा राजा बना जिसने वर्तमान गृह निर्माण पद्धति का आविष्कार किया। 558 ई मे उराकोनथीबा की मृत्यु हुई और अडरोम वंश के लोगों ने आक्रमण कर दिया। उराकोनथीबा का भाई नाओ-थिमखोड़ उसके पश्चात पाँच वर्ष बाद राजगद्दी पर बैठा। पोइरैतोन द्वितीय द्वारा शासन प्राप्त करने के प्रयत्न हुए परन्तु उसको आलौकिक शक्ति ने शासन प्राप्त करने से रोका। पोइरेंतोन नामक कई व्यक्ति मणिपुर आए ऐसा मणिपुर के पुराणों से विदित होता है श। नाओथिमखोड़ के शासनकाल में पोड़ के राजा खुकाफा के भाई सामलूडफा के मणिपुर मैं आगमन और दस वर्ष मणिपुर मे रहकर इरिल के रास्ते से अपने देश लौटने का उल्लेख है। किस्तु एक मत यह भी है कि सामलूडफा 1220 ई मे आया था और उसने मणिपुर, कछार व त्रिपुरा पर विजय प्राप्त की थी।

खोमतेकवा के 763 ई में राजा बनने का उल्लेख है जिसने चिडरेस्बी नामक राजकुमारी से विवाह किया था तथा उस राजकुमारी के साथ आने वाले लोग, जो सम्भवतः पश्चिम से आए थे, यहीं बस गए। फयेड तामपत्र भी खोमतेकचा के द्वारा जारी किए गए थे। किन्तु इन ताम्रपत्रों की प्रामाणिकता पर संदेह व्यक्त किया जाता है। खोमतेकचा के बाद लोयम्बा, करेनका, यारबा, अयम्बा, इपान लानथाबा, कैफाबा तथा इरेम्वा (984-1074) राजा हुए, इनके शासनकाल मे विभिन्‍न वंशो के बीच कलह होते रहे। इरेम्वा के बाद लोयम्बा 1074 में राजा बना जिसने अडोम वंश को पराजित किया तथा पर्वतीय क्षेत्र को भी अपने अधिकार में किया। उसने प्रत्येक वंश के कार्य भी निश्चित किए। “लोयुम्बा सिलेल” नामक ग्रंथ मे आचरण संबंधी बातें लिखी हैं, जो उसके द्वारा निर्धारित की गई थी। उसने विधि-व्यवस्था मे पर्याप्त सुधार
किया। उससे राज्य को चार पाना (जिलो) में शासन की सुविधा हेतु विभाजित किया। लालुप” या राज्य के लिए श्रम करने की अनिवार्य व्यवस्था भी उसी ने चलाई। यह श्रम ही राज्य कर था। प्रत्येक पुरुष को इस प्रथा के अनुसार राज्य के लिए प्रत्येक 40 में से 10 दिन काम करना अनिवार्य था। “औगरी” नामक मंत्र पाठ की विशिष्ट प्रथा भी उसी समय आरंभ हुईं। 1122 ई० में लोइतोम्बा राजा बना जिसने काइका “इनडोर गेम” चलाया। अतोम यौरेडबा 1150 मे राजा बना जिसके छोटे भाई इवान थाबा ने उसके विरुद्ध विद्रोह किया तथा मणिपुर से बाहर निकाल दिया। उसने खुमान वंश के राजा को पराजित किया।

1250 ई से जब पुरानथाबा राजा था, चीन ने मणिपुर पर आक्रमण किया, किन्तु उन्हें पराजित करके बंदी बनाकर मणिपुर में रखा गया, चीन के आक्रमण की बात सत्य मानी जाती है, किंतु समय के विषय मे विवाद है। 1263 ई में खुमोम्बा राजा बना जिसने शान वंश के काबी लोगो को पराजित किया था। मोइराम्बा 1278 में राजा बना जिसने माकि नामक जनजातीय गाँव (दीमापुर मार्ग पर) को जोत लिया। कोमयाम्बा 1324 ई में राजा बना, उसके शासनकाल मे कछार व त्रिपुरा से आक्रमण हुआ, किस्तु उन्हें उसने खदेड दिया तथा पाँच व्यक्तियों को बंदी बनाकर रखा। 1335 से 1432 तक चार राजा और हुए। निमथौखोम्बा 1432 में राजा बना, जिसने 1443 में अखला नामक पर्वतीय गाँव जीता था। उसको अनुपस्थिति ने ताखुल जनजाति के लोगो ने राजधानी पर आक्रमण किया किन्तु महारानी लिथौडाम्बी ने उन्हें पराजित किया तथा ताखुल जाति को महारानी से संधि करनी पड़ी।

कियाम्बा से मुडयाम्बा (1467-1597)

1467 ई० में थामवाइ निडथौबा, कियाम्बा नाम से राजा बना। उसने क्याड को जीता था। पोड़ के राजा के साथ मिलकर उसने क्याड जीता था । पोड के राजा और कियाम्बा के बीच इस जीत के अवसर पर एक दूसरे को भेंट दी थी। पोड़ राजा ने ही कियाम्बा को विष्णु विग्रह, स्वर्ण-पानदान, रजत दाँव, पालकी तथा भाला आदि वस्तुएँ भेंट की थी। कियाम्बा ने समय ब्राह्मण आव्रजन के प्रमाण भी हैं। पोड के राजा से उसने अपनो पुत्री या विवाह भी किया। खामपाट के राजा ने राजकुमारी का पोड के मार्ग पर अपहरण का प्रयत्न किया किन्तु पोड व मणिपुर की सेनाओं ने उसको खामपाट के राज्य से भी खदेड बाहर किया। कूचविहार के राजा से युद्ध एवं मैत्री संबंधी विरोधी मत भी प्रचलित हैं। कियाम्बा ने बाद अनेक राजा हुए। चैथारोल कुम्बाबा में 1536- 37 में असम के राजा से मणिपुर की राजकुमारी के विवाह का तथा नए रास्ते से वह असम जाने का उल्लेख है। मुडयम्बा महत्त्वपूर्ण राजा हुआ जिसने 1563 ई० में मोयोन एवं काबी जाति को जीत लिया था। उसने शान वंश को भी पराजित किया था। शान एवं भारतीय लोगों का मैतेई समाज में मिश्रण हुआ था।

खागेम्बा से पाइखोम्बा (1598-1698)

खागेम्बा 1598 से 1652 ई० तक मणिपुर के शासक रहे थे। उसके सनोडम्बा नामक सौतले भाई ने 1606 में कछार के राजा से मिलकर इन पर आक्रमण किया किन्तु खागेम्बा ने उसे पराजित किया तथा उसकी सेना के मुस्लिम सैनिकों, गायकों व कारीगरों को बंदी बना लिया। तथा बाद में उन्हें मणिपुर में बसा लिया। 1630 ई० में उसके द्वारा चीनी आक्रमण को विफल किया तथा चीनी सेनिको को बदी बनाकर रखा था। 1633-34 मे त्रिपुरा व बाद में बर्मा के क्षेत्री को जीतने का श्रेय भी खागेम्बा को दिया जाता है। खागेम्बा ने दस बाजार बनवाए, पगडी बाँधने का प्रचलन किया, पालकी तथा चाँदी की टोपियाँ बनवाई। वजन करने का तरीका, स्वर्ण बनाने की पद्धति, नदी और मंदिर बनवाना नमक ने कुए खुदवाना, धान के पौधे रोपना, तम्बाकू पीने, पोलों खेल में सुधार करने, नौका दौड़ का आयोजन जैसे अनेक कार्य किए। मैतेई लिपि का आविष्कार किया तथा चैथारोल कुम्बाबा में तिथि महीना लिखवाने की परम्परा भी उसने चलाई थी। 1631 मे अपने भाई को चीन की सद्भावना यात्रा पर भेजा। इसके शासन काल में अनेक ब्राह्मण दल मणिपुर में आएं। न्याय पालिका में भी उसने सुधार किया। 1652 में खागेम्बा के बाद खुनजाओबा राजा बना। खुनजाओबा ने दो बाँध बनवाए, खवाइरमबद बाजार को सुधारा और कम्बी घाटी तथा समजोरू की तरफ अपनी राज्य सीमा का विस्तार किया। 1666 में पाइखोम्बा राजा बना जिसने बर्मी राजा को एकाधिक बार पराजित किया। संधि के पश्वात उसने अपनी पुत्री का विवाह बर्मा के राजा के साध कर दिया।

चराइरोंबा से कुलचन्द्र (1698-1891)

1698 ई० मैं चराइरोबा राज्य सिंहासन पर बैठा। 1709 में पामहंबा उर्फ गरीबनिवाज राजा बना तथा 1748 तक शासन किया। महाराज गरीबनिवाज ने बर्मी सेना पर विजय प्राप्त की और आवा तक उन्हे खदेडने में सफल रहा। उसने वैष्णव धर्म को प्रशय दिया। न्यायपालिका एवं कार्यपालिका को उसने अलग किया। मणिपुर भाषा एवं लिपि की प्रतिबंधित किया। उसने प्राचीन मैतेई भाषा के पृथा(पुराण)नष्ट करवा दिये। उसने त्रिपुरा पर भी विजय प्राप्त की । गरीबनिवाज के समय मणिपुर में धर्म युद्ध हुआ था और उसके पुत्र अजित शाह ने अपने पिता की हत्या करवा दी थी। भारत शाह ने एक वर्ष राज्य किया और बाद मे गौरशाह राजा बना, किंतु उसके साथ ही भाग्यचंद्र उर्फ जय सिंह भी राजा बनाया गया। गरीबनिवाज की मृत्यु के बाद बर्मी सेना ने मणिपुर पर फिर आक्रमण किए तथा आबा वे राजा अलोडपाया ने मणिपुर को काफी हानि पहुँचाई तथा यहां से घुडसवार सेना आदि ले गया।

1759 में गौरशाह और जयसिंह जब संयुक्त राजा हुए तो उन्होने हरिदास गौसाई को अंग्रेजों से सहायता एवं मित्रता पूर्ण संधि के लिए भेजा सितंबर 1762 में संधि हो जाने पर अंग्रेज सेना की छः कम्पनियां मणिपुर आ पहुँची। अक्टूबर 1763 में अग्रेजो से दूसरी बार चिटगोंग में संधि सम्पन्न हुई। 1763 से 1793 तक भाग्यचन्द्र ने कम से कम तीन बार सिंहासन से हाथ धोए और पुनः प्राप्त भी किया। 1763 ई० में उन्हे मणिपुर छोडकर कछार जाना पडा। अन्त में उन्होने असम के राजा राजेश्वर उर्फ स्वर्ग॒देव से संधि की। उनके साथ अपनी पुत्री कुरगनयनी का विवाह किया। राजेश्वर सिंह के यहां वे सात वर्ष तक अतिथि बनकर रहे ओर अन्त में उनकी सेना की सहायता से उन्होंने मणिपुर पर अधिकार किया। वे बहुत बडे़ भक्त थे। उन्होने श्रीराधा-गोविन्द के मंदिर बनवाएं, गौंडीय, वैष्णव भक्ति का मणिपुर एवं बंगाल में प्रचार किया।

1798 ई० में भाग्यचद्र की मृत्यु हो गई। तब उनके आठ पुत्रो में सत्ता के लिए संघर्ष आरम्म हुआ। यह संघर्ष युद्धो ओर हत्याओ की कहानी है। मारजीत (चौथापुत्र) जब दो बार सत्ता प्राप्त करने में सफल न हो सका तो 1812 ई,० में उसने बर्मी राजा से संधि की और मणिपुर पर आक्रमण किया। चौरजीत व गम्भीर सिंह को कछार भागना पडा।

मणिपुर सात बर्ष की विनाशलीला (1819-1826)

मारजीत ने मणिपुर का राजा बनने के बाद बर्मी राजा के आदेश मानने से इंकार कर दिया। बर्मी सेनापति महा वन्दुला ने मणिपुर पर आक्रमण किया मारजीत भी कछार भाग गया तथा अपने भाइयो से सुलह कर ली। 1819 से 1826 तक के सात वर्ष मणिपुर के इतिहास में यही वर्ष चाही तरेत खंटकपा (सात साल की तबाही) विनाश के नाम से जाने जाते है। बर्मी सेना ने मणिपुर जनता पर भांति-भांति के अत्याचार किए। अकाल एवं महामारी फैली। लोग मणिपुर से पडौसी राज्यों में भाग गए। ये सात वर्ष मणिपुर के इतिहास के विनाश के वर्ष थे। मणिपुर इन सात वर्षों में राजनेतिक, सामाजिक एवं आर्थिक दृष्टि से बर्बाद हो गया।

गंम्भीर सिंह, चोरजीत व मारजीत ने इन वर्षों में कछार के राजा गोविन्द चन्द्र को पराजित करके कछार पर अधिकार कर लिया और अन्त में गंम्भीर सिंह ने ब्रिटिश सेना की सहायता से बर्मी सेना को मणिपुर से निकाल बाहर किया तथा काबौ घाटी तक पुनः अपना राज्य स्थापित कर लिया। 24 फरवरी 1826 को बर्मा के साथ यादाबो की संधि हुई, जिसमें गंम्भीर सिंह को ब्रिटिश एव बर्मा मणिपुर का राजा मान लिया। 1833 ई० में गंम्भीर सिंह व ब्रिटिश के बीच व्यापारिक संधि भी की गई। गंम्भीर सिंह ने मणिपुर पर छ वर्ष शासन किया तथा मणिपुर में शांति एव समृद्धि लाने का प्रयत्न किया और कोहिमा तक विजय प्राप्त की। 1834 ई० गंम्भीर सिंह को मृत्यु हो गई और उनका पुत्र बालक चन्द्रकीर्ति सिंह सिंहासनारूढ हुआ। सेनापति नरसिंह के सरक्षण में बालक चन्द्रकीर्ति का शासन चलने लगा। 1835 में मणिपुर में पहला
पॉलिटिकिल एजेंट नियुक्त किया गया।

नरसिंह सेनापति के संरक्षण में राज्य शासन चल रहा था, किन्तु चन्द्रकीर्ति महाराज की माता कुमुदिनी देवी ने नरसिंह के विरुद्ध पड्यंत्र किया और उसमें असफल होने पर वह बालक चंद्रकीर्ति को लेकर कछार चली गई। 1844 में नरसिंह प्रजा एव ब्रिटिश सरकार द्वारा मणिपुर के सिंहासन पर बैठाए गए। 1850 में नरसिंह के मरने पर देवेन्द्र सिंह राजा बना। उसको पराजित करके 1851 में चन्द्रकीर्ति सिंह द्वितीय राजा बन गए। उन्होने अंग्रेजों की सहायता की, जिससे उनको के सी एस आई की उपाधि प्रदान की गई। 1886 ई० में उनकी मृत्यु हो गई। सूरचन्द्र महाराजा बने। किन्तु भाईयों की आपसी कलह के कारण 1890 में उन्होने स्वेच्छा से राज्य सत्ता कुलचन्द्र सिंह को सौंप दी ओर वृंदावन यात्रा पर चल गए।

मणिपुर के सुंदर दृश्य
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1891 की क्रांति

सूरचन्द्र सिह ने सिलचर पहुंचकर ब्रिटिश सरकार से प्रार्थना की कि उन्हें पुनः राज्य सत्ता सौंपी जाए तथा कुलचन्द्र को हटाया जाए तथा युवराज टिकेन्द्रजीत को बंदी बनाया जाएं। असम के कमिश्नर ने मणिपुर पर 1891 में टिकेन्द्रजीत को गिरफ्तार करने के लिए आक्रमण कर दिया। स्वतंत्रता प्रेमी मणिपुर जनता व शासन अंग्रेजो के इस दखल को सहन न कर सकी। क्रांति की आग भड़क उठी। ब्रजवासी पावना ने खोमजोम नामक स्थान पर मुठठी भर सैनिकों के साथ मातृभूमि की स्वतंत्रता की रक्षार्थ अंतिम क्षण तक युद्ध किया, किंतु अंत में मणिपुर को अंग्रेजों की सेना ने तीन ओर से घेर लिया और मणिपुर की पराजय हुई। वीर टिकेन्द्रजीत सिंह व थंगल जनरल को 13 अगस्त 1891 को फांसी दी गई थी अन्यों को बंदी बनाया गया। मणिपुर के राज सिंहासन पर अवयस्क महाराजा चूराचांद सिंह को पांच वर्ष की अवस्था में बैठाया गया। 15 मई 1907 तक वास्तविक सत्ता उनके वयस्क होने तक पॉलिटिक्ल एजेंट के हाथो में रही।

महाराजा चूराचांद सिंह के शासन काल में प्रथम विश्वयुद्ध के लिए जब कुकी जनजाति के लोगो को जबरदस्ती लेबर कोर में भर्ती करना आरंभ किया तो उन्होंने विद्रोह किया। जिसको 1919 ई० में कूचल दिया गया। इसके तुरन्त बाद कबुई विद्रोह हुआ। 1927 में कबुई और कच्चा नागा लोगो ने जादोनाग के नेतृत्व में कबुई राज्य थी स्थापना का स्वप्न देखा तथा नागालैंड व तमिलनाड के कबुई व कच्चा नागाओ ने उसका समर्थन किया। 1931 में जादोनाग को फांसी दी गई। उसके बाद इस विद्रोह ने क्रांति का रूप धारण किया और रानी गाइदिनल्यू ने नेतृत्व संभाला। वास्तव में यह क्रांति धार्मिक एवं सैनिक क्रांति थी। अंग्रेजो ने कबुई जाति और कच्चा नागा जाति के लोगो पर कई अत्याचार किए। अंत में रानी बंदी बना ली गई। उसको आजन्म करावास की सजा दी गई। 1933 से 1946 तक वह जेल में रही बाद में उसको रिहा किया गया। उसको राजनीतिक नेता एवं उसके आन्दोलन को राष्ट्रीय आदोलन के अंग के रूप में स्वीकार कर लिया गया। रानी 1960 ई० में ईसाई धर्म विरोधी होने के कारण फिजोदल के भूमिगत नागाओं के लिए आँख की किरकिरी बन गई, अतः उन्होंने रानी को समाप्त करना चाहा। विवश होकर वे 1960 में भूमिगत हो गई और 1966 तक ज़ेलियांगरोंग दल बनाकर फिजोदल से लडती रही। अंत मे 1966 में वे अपने दल के साथ कोहिमा मे आकर रहने लगी है।

महाराज चूराचांद के राज्य काल में अखिल मणिपुरी महासभा का 1934 ई० हुआ में अधिवेशन एक प्रमुख घटना है जिसमें बर्मा- मलाया और भारत के अन्य भागों से मैतई लोगो ने भाग लिया था। उन्होने शिक्षा, संस्कृति और मणिपुरी भाषा के विकास में महत्वपूर्ण योग दिया। द्वितीय विश्वयुद्ध में उन्होंने अग्रेजों की सहायता की। सितम्बर 1941 में दे अपना राज्य भार बडे पुत्र बोध चन्द्र सिंह को सौंपकर नव द्वीप चले गए। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान प्रथम “नूपीलान ‘ (महिला युद्ध), जिसका अन्यत्र उल्लेख है भी उनके शासन काल की एक महत्वपूर्ण घटना है। मई 1942 में जापानी बम वर्षकों ने इम्फाल पर बम गिराए। पुलिस ने अपना काम बंद कर दिया। पूरी घाटी में कानून और व्यवस्था भंग हो गई और लोग इम्फाल छोड़कर पडोसी गाँवों में जाकर रहने लगे। बर्मा से आजाद हिंद फौज ने जापानी सेना के साथ भारत में 8 मार्च 1944 को मणिपुर पर आक्रमण किया। 14 अप्रैल 1944 को वे मोइराड कस्बे पर अपना अधिकार कर सके। मोइराड के डाक बंगले में आजाद हिंद फौज के मुख्यालय की स्थापना की गई और तिरंगा झंडा लहराने लगा। लगभग 1500 वर्ग मील क्षेत्र जून तक आजाद हिंन्द फौज के नियंत्रण में रहा। मानसून के सक्रिय होने से तथा ब्रिटिश विजय के कारण स्वतंत्रता संग्राम का एक अध्याय यहां समाप्त हुआ।

महाराजा बोधचन्द्र के समय ही विश्वयुद्ध के पूर्व ही मणिपुर में स्वतंत्रता आदोलन की लहर पहुंची थी। राजनैतिक दलों ने स्वायत शासन की माँग की। 15 अक्टूबर 1949 को महाराजा बोधचन्द्र ने मणिपुर का भारत में विलय स्वीकार किया और शिलॉग में विलय पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए। इस प्रकार मणिपुर भारत गण राज्य का एक अंग बन गया।

राज्य प्रशासन

सन्‌ 1891 ई० से पूर्व मणिपुर राज्य में एकतंत्र था। राजा सर्वोच्च सत्ताधारी था। राजा की सहायता के लिए एक दरबार होता था, जो कार्यों में सहयोग देता था। ब्रह्म सभा धार्मिक कार्यों के लिए सर्वोच्च संस्था थी, धर्म के अतिरिक्त नृत्य गान, साहित्य कला के लिए भिन्न भिन्न संस्थाएं थी, जिनका निर्णय अपने-अपने क्षेत्र में अंतिम होता था। महाराजा भाग्यचद्र के शांसनकाल (1759-98) से मणिपुर की सार्वभोम सत्ता श्री गोविन्द जी को समर्पित कर दी गई और राजा उनका प्रतिनिधि मात्र माना जाने लगा। परम्परा के अनुसार राजा का छोटा भाई युवराज और उससे छोटा सेनापति होता था। ये तीन पद सर्वोच्च थे। इनके अतिरिक्त राज परिवार से ही पुलिस का सर्वोच्च अधिकारी कोतवाल, मंत्री, सगोल हजावा (घोड़ो का अधिकारी), शाकू हजावा (हाथियों का अधिकारी) नियुक्त किए जाते थें। अवा पौरेस (विदेश मंत्री) का पद महाराजा चंद्रकिर्ति (1855-86) के समय बनाया गया था।

1891 ई. से 1907 ई० तक राज्य शासन की बागडोर ब्रिटिश प्रशासक के हाथ में रही, क्योकि उस समय महाराजा चूराचांद सिंह वयस्क नहीं थे। जब वे वयस्क हुए तो वे 6 स्थानीय दरबार के सदस्यो और एक आई सी एस ऑफिसर की सहायता से प्रशासन चलाते थे। 1947 तक महाराजा ही प्रशासन के लिए उत्तरदायी थे, किंतु पर्वतीय क्षेत्र का प्रशासन दरबार के अध्यक्ष एवं एक आई सी. एस, अधिकारी के जिम्मे था। राज्य दरबार ही दीवानी एवं फौजदारी के मुकदमो के संबंध में अंतिम निर्णय देता था। राज्य का बजट प्रतिवर्ष असम के गवर्नर द्वारा स्वीकृत किया जाता था। किन्तु 1947 में महाराजा को जनता की माँग के कारण एक विधान सभा का निर्माण करना पड़ा जिसने राज्य का संविधान बनाया ओर महाराज कुमार प्रियव्रत सिंह के मुख्यमंत्रित्व में जनता की प्रतिनिधि सरकार का गठन किया गया। मणिपुर स्टेट कोर्ट एक्ट, 1947 तथा मणिपुर स्टेट हिल्स प्यूपल रेगुलेशन, 1947 भी उसी समय पारित किए गए।

15 अक्टूबर 1949 की मणिपुर राज्य का भारत गणतंत्र में विलय हुआ। 26 जनवरी 1950 में जब भारत का संविधान लागू हुआ तो मणिपुर को सी स्टेट सूची मे रखा गया। इसका प्रशासन राष्ट्रपति के अधीन रखा गया। एक चीफ कमिश्नर को राष्ट्रपति के प्रतिनिधि के रूप में मणिपुर में नियुक्ति की गई। सलाहवार समिति की नियुक्ति का प्रावधान किया गया। दो संसद सदस्य (एक घाटी मे व एक पहाड़ों से) चुने गए। त्रिपुरा और मणिपुर से एक राज्य सभा का सदस्य भी चुना गया। जनवरी 1952 में प्रथम चुनाव सम्पन्न हुआ, 30 सदस्यों की इलेक्टरोल कॉलेज का चुनाव किया गया, जिसने (चीफ कमिश्नर के लिए) पाँच सदस्यों की सलाहकार समिति का निर्वाचन किया। 1965 में सविधान में 7 वें संशोधन के द्वारा मणिपुर को यूनियन टेरेटरी का दर्जा दिया गया जिसका प्रशासन राष्ट्रपति के द्वारा मनोनीत प्रशासन को सौंपा गया। 30 सदस्यों की टेरिटोरियल कौंसिल बनाई गई जिसके अध्यक्ष को कार्यपालिका के अधिकार दिए गए। इसका प्रथम चुनाव 1957 में हुआ।

1962 में तृतीय आम चुनाव सम्पन्न हुए। इस बीच मणिपुर की प्रजा लगातार प्रतिनिधि सरकार की मांग कर रही थी। 1963 में संविधान में 14 वाँ संशोधन करके 30 निर्वाचित सदस्यों की विधान सभा के तथा तीन मंत्रियों के मंत्रिमंडल के निर्माण का निर्णय लिया गया। मुख्यमंत्री बनाने का प्रावधान भी रखा गया। 1967 के चुनाव वे बाद पूर्ण राज्य की मांग तेज हो गई। अंतिम टेरिटोरियल विधान सभा अक्टूबर 1969 में भंग की गई। सभी राजनैतिक दलो ने एक संयुक्त मोर्चा बनाया जिसका नाम था स्टेटहुड डिमांड कमेटी। 1969 से 1971 के बीच हडताले, जलूस, असहयोग आंदोलन आदि के कारण मणिपुर अशांत रहा। अन्त में 2! जनवरी 1971 को मणिपुर को पूर्ण राज्य का दर्जा प्राप्त हो गया और राज्य विधान सभा की सदस्य संख्या 60 कर दी गई। संसद के लिए दो और राज्य सभा के लिए एवं सदस्य चुने जाने की वैधानिक व्यवस्था है। न्याय पालिका में मणिपुर के लिए पृथक उच्च न्यायालय नहीं है, गुवाहाटी हाईकोर्ट की ही एक बेंच यहां है, तथा सुप्रीमकोर्ट अपील का क्षेत्र है।

प्रशासनिक ईकाइयाँ

मणिपुर को जिलो ओर उपखडों में बांटा गया है। जिले में डिप्टी कमिश्नर तथा उपखंड खंड में सब डिविजनल ऑफिसर प्रशासक होते हैं। अभी मणिपुर में आठ जिले हैं जिनके नाम उनके मुख्यालयों के नाम पर रखे गए हैं– इम्फाल, थोवाल, विष्णुपुर नामक तीन जिलों में घाटी को विभक्त किया गया है जबकि सेनापति तमिडलाग चूराचांदपुर, चंदेल और उखरूल पर्वतीय जिले हैं। इन जिलों में हिल डिस्ट्रिक्ट कौंसिल के निर्वाचित प्रतिनिधि हैं जो इनका प्रशासन चलाते हैं। इस व्यवस्था से प्रशासन जन सुलभ बनाया गया है।

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Naeem Ahmad

CEO & founder alvi travels agency tour organiser planners and consultant and Indian Hindi blogger

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