सभी भारतीय त्यौहार धर्म और जीवनदर्शन पर आधारित है। जीवन मनुष्य का हो अथवा किसी अन्य प्राणी का, उसके लिए प्रकृति की शक्तियां कार्यरत हैं। हमारे ऋषियों-मुनियों ने जीवन को सुखी बनाने के लिए अपने अनुभवों के आधार पर कुछ नियम बनाये हैं, जिनके अनुपालन के लिए त्यौहारों, कर्मकाण्डो की कल्पना की गयी है। कर्मकाण्ड, जिन्हें हम अब अन्धविश्वास कहने लगे है। जीवन को सुखी, व्यवस्थित और क्रमबद्ध करने के लिए ही बनाये गये थे। अब प्रश्न उठता है कि जीवन का निमित्त भी क्या है। यह कैसे, किस शक्ति से संचालित होता है। शास्त्रों मे जो उल्लिखित है, उसके अनुसार जगत का कारण सूर्य है। सूर्य पर आधारित अनेक पर्वो, त्यौहारों की कल्पना की गयी जिनमे एक मकर संक्रांति भी है।
मकर संक्रांति का महत्व
मकर संक्रांति क्रान्ति से मकर शशिस्थ सूर्य उत्तर की ओर यात्रा प्रारंभ करता है जिसे सूर्य का उत्तरायण होना कहते है। इस यात्रा की अवधि छः माह होती है। इस समय इससे उष्णता (अग्नि) की उत्पत्ति होती है जो पृथ्वी पर विकीर्ण होती रहती है। सूर्य की इस अग्नि को “ऋतु” कहते है। ऋतुओ मे परिवर्तन का कारण भी सूर्य ही है। उसी की शक्ति की गृहीत इकाई सम्वत्सर है। इस पूरे एक सम्वत्सर में सूर्य अपनी यात्रा पूरी करके पुन उसी स्थान पर आ जाता है। सूर्य कर्क राशि से धनु राशि तक उत्तरायण रहता है। पूरा कालचक्र का कारण सूर्य है। इसी से ऋतु परिवर्तन, सम्वत्सर का आगमन, युग कल्प का प्रत्यावर्तन होता रहता है। जीवन, यौवन, जन्म, मरण और पुनर्जन्म का कारण भी यही है।

विष्णु सूर्य के अन्यतम रूप तथा वैदिक देवता है। ये द्वादश आदित्यो मे से एक है। ये विश्व भर मे सूर्य की किरणों की तरह व्याप्त हैं-
अथ यत विषितों भव॒ति तद्विष्णुर्भवति।
विष्णुविर्शेतेवव्यिश्नोतेर्वा यास्के निरुक्त ।।
सूर्य प्रकाश तत्व है और असूर्या अन्धकार है। वह वेदों मे सविता देवतत्व है। डॉ. जनार्दन उपाध्याय के शब्दों मे “ज्योतिस्वरूप सूर्य-मण्डल मे देवतागण स्थित है। वही से सूर्य रश्मियो द्वारा अपनी शक्तियों को व्याप्त करते है। वस्तुत सूर्य ही इस विराट जगत मे सवितादेव हैं। सौर मण्डलीय अग्नि, जल, दिक्, पदार्थ के मध्य यही देवता प्रधान है।
तात्पर्य यह कि सृष्टि का नियता सूर्य ही है। यही जगत का कारण है। इसी की प्रेरणा से व्यक्ति अथवा जीव जगत के कार्यों के लिए क्रियाशील होता है। सूर्य-वृत्त या परिधि से सारी गृहस्थी भी संचालित होती है।
मकर संक्रांति का सूर्य से घनिष्ठ सम्बन्ध है। 14 जनवरी के दिन सूर्य धनु राशि से मकर राशि तक होने के लिए संक्रमणशील होता है। मेष से लेकर धनु तक की सूर्य-यात्रा सूर्य की दक्षिण पथ की यात्रा है जो काल अग्नि की न्यूनता के कारण अन्धकारमय अज्ञानमय माना जाता है। इस छः माह की अवधि मे कोई भी शुभ कार्य शास्त्रसम्मत नही माना जाता। सूर्य का उत्तरायण होना शुभ है। यह भी मान्यता है कि दक्षिणायन मे सूर्य के होने पर जब मृत्यु होती है तो जीव को मोक्ष नही मिलता। भीष्म पितामह ने सूर्य के उत्तरायण होने पर ही मृत्यु का वरण किया था। सतकर्मों में लीन व्यक्ति ही उत्तरायण में मृत होता है। इस तरह सूर्य सत्कर्मों का भी प्रेरक हुआ।
मकर संक्रांति के अवसर पर तीर्थाटन, मकर स्नान, गंगा या प्रयाग मे त्रिवेणी स्नान का विधान है। प्रयाग हरिद्वार मे समुद्रवत भीड एकत्र होती है। इस दिन तिल, उडद चावल का दान उत्तम माना जाता है। प्रत्येक घर मे खिचडी बनायी-खायी जाती है। इसलिए लोक में इसे खिचडी पर्व भी कहा जाता है। इसी दिन से नया अन्न, गुड खाया जाता है। इस दिन ब्राह्मणों को दान दिया जाता है। तिल और चावल का लड्डू बनाकर ब्याहिता बेटी के घर भेजने की परिपाटी है। सबसे बडा मकर संक्रांति का त्यौहार 2 वर्षो पर आता है जिसे पूर्ण कुम्भ कहते है। छः वर्षो पर अर्द्धकुम्भ स्नान में आस्था और विश्वास है। तिल, गुड का उपयोग जाडे की रूक्षता को समाप्त करने के लिए किया जाता है। इस प्रकार यह त्यौहार स्वास्थ्य के लायक भी सिद्ध होता है। मकर संक्रांति पर एक कहावत भी है-
तिल चटके, जाडे सटके, तिल चटके दिन बढके
“ऋग्वेद” का एक मंत्र है जिससे तिल के सेवन का महत्व स्पष्ट होता है-
“ब्र्मितृत यवमत्तमथो माषमथों तिलम्।
एप वा भागो निहिते रत्नथेयाय दन्ती ।।
मा हिसिष्ट पितर मातर च।।’
मकर संक्रांति पर पतंग उडाने की परपरा भी स्वास्थ्य और मनोरजन के लिए ही चली होगी। इस दिन मुक्त आकाश मे पतंग विविध रगो के प्रतियोगितात्मक तरीके से उडाये जाते है। चरक
के अनुसार मकर संक्रांति विसर्ग काल का अंत और आपात काल का प्रारंभ है। इसमे मनुष्य और वनस्पतियों का बल चरम सीमा पर होता है-
“आदावन्ते च दौर्वल्य विसर्गो नयोर्नृणाम् ।
मध्ये मध्य बल वृन्ते श्रेष्ठमग्रे विनिर्दिशेत ।।
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