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भोपाल रियासत

भोपाल रियासत का इतिहास – Bhopal state history in hindi

मध्यभारत में भोपाल रियासत प्रथम श्रेणी की एक महत्वपूर्ण रियासत है। यहाँ के राज्यकर्ता मुसलमान हैं। भोपाल रियासत का इतिहास कई दृष्टि से बड़ा दिलचस्प है। हिन्दुस्थान में भोपाल रियासत एक ऐसी रियासत है, जहाँ गत सौ वर्षों से विदुषी और राजनीतिज्ञ महिला शासिकाएँ बड़ी सफलता के साथ राज्य शासन सुत्र का संचालन करती आ रही हैं। यहाँ का तालाब भारत-प्रसिद्ध है। अब हम भोपाल राज्य की उत्पत्ति से लगाकर आजादी तक के इतिहास पर कुछ प्रकाश डालना चाहते हैं।

भोपाल रियासत का इतिहास – Bhopal state history in hindi

नवाब दोस्त मोहम्मद खां

भोपाल रियासत के मूल संस्थापक का नामनवाब दोस्त मोहम्मद खान है। आपने सन् 1708 में अफगानिस्तान के खैबर प्रान्त के तराई नामक ग्राम से भारत में प्रवेश किया। नवाब दोस्त मोहम्मद खान के पिता का नाम नूर मोहम्मद खाँ था। ये नूर महम्मद खाँ सुप्रसिद्ध खान मोहम्मद खाँ मिर्जा खेल’ के पौत्र थे। जिस समय दोस्त मोहम्मद खाँ ने हिन्दुस्तान में प्रवेश किया उस समय मुगल सम्राट औरंगजेब इस दुनिया से कूच कर चुके थे, उनके पुत्र
बहादुरशाह दिल्ली के तख्त पर आसीन थे।

नवाब दोस्त मोहम्मद खान पहले पहल भारत से मुज़फ्फरनगर जिले के लीहारी जलालाबाद नामक ग्रास में आकर बसे। यह जिला उस समय जलाल खाँ नामक पुरुष के आधीन था। कुछ दिनों के पश्चात्‌ नवाब दोस्त मोहम्मद खान का लोहारी जलालाबाद वासी एक पठान से झगड़ा हो गया। क्रोध में आकर उन्होंने पठान को कत्ल कर डाला। राज्य के अधिकारियों द्वारा इस अभियोग में दंड मिलने के भय से वे जलालाबाद छोड़कर शाहजहाँबाद अथवा देहली जा बसे । देहली से वे शाहँशाह की सेना के साथ मालवा प्रान्त में आये। यहाँ उन्होंने सीतामऊ नरेश के यहाँ नौकरी की। कुछ दिन नौकरी करके वे यहाँ से भीलसा के अधिकारी मोहम्मद फारुख से जा मिले। इसके बाद मोहम्मद फारुख को अपनी जायदाद सौंपकर उन्होंने मालवा प्रान्त के तत्कालीन एक सरदार के यहाँ नौकरी की। अपने मालिक की आज्ञा पाकर उन्होंने बाँस बरैली के जमीदार से युद्ध किया, जिसमें उन्हें गहरी चोट आई। किसी ने उसके इस युद्ध में मारे जाने की झूठी खबर फैला दी। मोहम्मद फारुख को यह खबर लगते ही उसने उसका भीलसा में रखा हुआ सब असबवाब हडप कर लिया। यह ख़बर जब नवाब दोस्त मोहम्मद खां के कानों तक पहुँची तो वे भीलसा पहुँचे। उनके हाज़िर होने पर मोहम्मद फारुख ने उनका कुछ असवाब वापिस दे दिया किन्तु बाकी असबाब देने से उसने इन्कार किया। मोहम्मद फारुख के इस बर्ताव से अप्रसन्न होकर दोस्त मोहम्मद खाँ ने बेरसिया परगने के मंगलगढ़ संस्थान की रानी–ठाकुर आनन्द सिंह की माता के पास नौकरी कर ली। यह सोलंकी राजपूत थीं। रानी दोस्त मोहम्मद खाँ के उत्साह एवं स्वामीभक्ति से इतनी संतुष्ठ थीं कि वे कभी कभी उन्हें अपना पुत्र कह कर सम्बोधित किया करती थीं। वह उन्हें इतना विश्वास पात्र समझती थीं कि उसने अपने कुछ बहुमूल्य जवाहिरात उन्हें सौंप दिये। रानी की मृत्यु केपश्चात्‌ नवाब दोस्त मोहम्मद खान कुल जवाहिरात लेकर बेरसिया चले गये। उस समय बेरसिया बहादुरशाह की राज्य मजलिस के सरदार ताज मोहम्मद खाँ की जागीर में था।

भोपाल रियासत
भोपाल रियासत

बहादुरशाह के शासन-काल के समय भारत में मुगलों की सत्ता का सार्वभौमत्व उठ गया था। तैमूर लंग के वंशज इस समय बहुत कमज़ोर हो गये थे। वे इतने बड़े प्रदेश का राज्य प्रबंध करने में बिलकुल असमर्थ हो रहे थे। भारत में उस समय जान व माल की कुशल नहीं थी। लुटेरे प्राय: राहगिरों को लूट लिया करते थे। वे गाँवों में भी डाका डालते थे। वे मालवा प्रान्त के पारासून आदि संस्थानों के ठाकुरों के आश्रय में रह कर खानदेश तथा बरार प्रान्त तक धावा करते थे। सारांश यह है कि, चारों ओर अव्यवस्था और गड़बड़ फैली हुई थी। मालवा प्रान्त के चान्दखेड़ी तालुके के अधिकारी यार खाँ भी लुटेरों के कष्ट से बचे नहीं थे। इतना ही नहीं, वे डाकुओं को पराजित करने में बिलकुल असमर्थ थे। अतएव चॉंदखेड़ी के जागीरदार ने काज़ी मोहम्मद साले ओर अमोलक चंद आदि पुरुषों की अनुमति से चाँदखेड़ी तालुका दोस्त मोहम्मद खाँ को प्रति वर्ष 30000 रुपये के इजारे पर दे दिया। आसपास का मुल्क जीतने की इच्छा से नवाब दोस्त मोहम्मद खान ने अपने रिश्तेदारों तथा जाति बाँधुवों को चाँदखेड़ी तालुके में एकत्रित करना शुरू किया। साथ ही साथ उन्होंने अपने एक अनुभवी गुप्तचर को पारासून राज्य का भेद लेने के लिये भेजा। गुप्तचर अत्यंत चतुर था। वह फकीर के वेश में पारासून में घूमा करता था। उसने होली के दिन पारासून के ठाकुर तथा उसके सिपाहियों को नाच रंग में मस्त देखकर उसकी सूचना दोस्त मोहम्मद खाँ को दी। नवाब दोस्त मोहम्मद खान अपने साहसी ओर होशियार सिपाही साथ लेकर पारासून पहुँचे। उस समय मध्य रात्रि थी। ठाकुर तथा दूसरे पुरुष नशे में बेसुध थे। नाच भी हो रहा था। दोस्त मोहम्मद खां ने ऐसा सुयोग्य अवसर पाकर एकाएक उन्हें घेर लिया तथा ठाकुर और उसके कई अनुयायियों को मार डाला। ठाकुर के मारे जाने से उसके पुत्र, औरतें तथा तमाम मालियत दोस्त मोहम्मद खां के कब्जे में आ गई।

दोस्त मोहम्मद खाँ का उत्साह इस विजय से और बढ़ गया। उन्होंने दूसरे प्रदेश भी अपने अधीन करने का निश्चय किया। खिचीवाड़ा तथा उमतवाडा प्रान्तों के लुटेरों का प्रबंध भी उन्होंने अच्छा किया। भीलखा के शासक मोहम्मद फारुख की ओर से शमसाबाद के हाकिम राजा खाँ और शमशीर खा ने दोस्त मोहम्मद खाँ के साथ युद्ध किया। युद्ध में राजा खां और शमशीर खाँ दोनों मारे गये। जगदीशपुर के देवरा वंश का राजपूत सरदार बड़ा लुटेरा था। उसने दिलोद परगने के पटेल से कर माँगा। पटेल ने नवाब दोस्त मोहम्मद खान की सहायता की आशा पर उसे कर देने से इंकार कर दिया। अतएव जगदीशपुर के राजपूत सरदार ने उक्त पटेल को लूट लिया। इस पटेल ने दोस्त मोहम्मद खाँ से सहायता मांगी। वे ऐसे अवसर की बाट जो ही रहे थे। उन्होंने उसे सहायता देने का वचन दिया। पठान लोग गुप्त रूप से आक्रमण की तैयारी करने लगे। कुछ दिनों के पश्चात्‌ जगदीशपुर के अधिकांश राजपूत डाका डालने के लिये दूर देश में चले गये। दिलोद परगने के रायपुर ग्राम के ठाकुर ने नवाब दोस्त मोहम्मद खाँ को यह खबर दी। खबर पाते ही नवाब दोस्त मोहम्मद खान ने अपने कुछ चुने हुए सिपाहियों सहित जगदीशपुर के नजदीक तहाल नदी पर पहुंच कर वहाँ अपना मुकाम किया।

नवाब दोस्त मोहम्मद खान
नवाब दोस्त मोहम्मद खान

वह यहाँ शिकार के बहाने से आये थे उन्होंने जगदीशपुर के ठाकुर के पास अपना वकील भेजकर उनसे भेट करने की इच्छा प्रकट की। जगदीशपुर के ठाकुर ने उन्हें दावत दी और खुद उनके डेरे पर पहुँचे। नवाब दोस्त मोहम्मद खान ने ठाकुर का आदर सत्कार किया तथा मित्र-भाव प्रदर्शित कर उन्हें अपने डेरे में बुलाया। कुछ समय के पश्चात्‌ वे अतर पान लाने के बहाने से डेरे के बाहर निकले। पूर्वानुसंधित कार्यक्रम के अनुसार ज्यों ही नवाब दोस्त मोहम्मद खाँ ने डेरे के बाहर पेर रखा त्योंही उनके सिपाहियों ने रस्सियां काटकर डरे को गिर। दिया और कुल राजपूत सरदारों को काट डाला। उनकी लाशें तहाल नदी में फेंक दी गई। इसी दिन से इस नदी का नाम “हलाली” नदी पड़ गया। इस प्रकार सारा जगदीशपुर का राज्य नवाब दोस्त मोहम्मद खान के अधीन हो गया। उसने इस स्थान का नाम जगदीशपुर बदल कर इस्लामपुर रखा। यहाँ उन्होंने एक किला और कुछ इमारतें बनवाई और बाद में वे यहीं रहते थे।

थोड़े ही समय में बहुत सफलता प्राप्त हो जाने के कारण नवाब दोस्त मोहम्मद खान की हिम्मत बहुत बढ़ गई और वे मोहम्मद फारुख पर आक्रमण करने की तैयारी करने लगे। भीलसा के नजदीक जमाल बावड़ी गाँव में मोहम्मद फारुख ओर नवाब दोस्त मोहम्मद खां की फौजों का सामना हुआ। नवाब दोस्त मोहम्मद खां की सेना उनके छोटे भाई शेर मोहम्मद खाँ के संचालन में युद्ध कर रही थी। मोहम्मद फारुख युद्ध-स्थल में नहीं उतरा। वह एक हाथी पर सवार होकर दूर ही से युद्ध का तमाशा देख रहा था। नवाब दोस्त मोहम्मद खाँ अपनी सेना के कुछ चुने हुए सिपाहियों सहित पास ही की एक टेकरी के पीछे छिपे बेठे थे। भीषण युद्ध शुरू हुआ। कुछ देर में मोहम्मद फारुख के दुराहा नामक ग्राम के राजा खाँ मेवाती ने शेर मोहम्मद खाँ को इतने जोर की बरछी मारी कि वहआर पार निकल गई। इधर शेर महम्मद खाँ पर बरछी का वार होना था कि उधर उन्होंने राजा खां मेवाती पर तलवार का एक हाथ मारा। इससे उस के भी दो टुकड़े हो गये। अपने सेनापति के मारे जाने पर नवाब दोस्त मोहम्मद खान की फौज के पाँव उखड़ गये। वह युद्ध से भाग खड़ी हुई। मोहम्मद फारुख की फौज ने उसका पीछा किया। अपनी सेना के विजयी होने से मोहम्मद फारुख अत्यंत प्रसन्न हुए। उन्होंने रण-दुंदुभी बजाने का हुक्म दिया। नवाब दोस्त मोहम्मद खान, जोकि इस समय तक टेकरी की आड़ में छिपे हुए बेठे थे, शत्रुको आनन्द और खुशी में लीन होते देख अपने गुप्त-स्थान से बाहर निकले। बड़े साहस और चतुराई से उन्होंने मोहम्मद फारुख को घेरकर उसे कत्ल कर डाला। इसके पश्चात्‌ अपने मुँह पर धांटा बाँधकर वे मोहम्मद फारुख के हाथी पर सवार हुए।

रण-दुंदुभी बजाने वाले सब सैनिक नवाब दोस्त मोहम्मद खान के अधीन हो गये थे। अतएव उन्होंने उन्हें रण-दुंदुभी बजाने की आज्ञा दी। रण-दुन्दुभी का नाद सुनकर भीलसा की सेना, जो कि अपनी विजय से पहिले ही प्रफुल्लित हो उठी थी, इस समय फूली न समाई। युद्ध खत्म होने तक रात हो गई थी, इससे भीलसा की सेना ने दोस्त महम्मद खाँ को नहीं पहचाना। वह उन्हें अपना मालिक समझ कर उसके साथ भीलसा के किले तक था पहुँची। किले के रक्षकों ने भी नवाब दोस्त मोहम्मद खान को अपना स्वामी समझा। उन्‍होंने किले का द्वार खोलकर दोस्त मोहम्मद खाँ को किले के अन्दर ले लिया। किले में अपनी सेना सहित प्रवेश करने पर दोस्त मोहम्मद खाँ ने मोहम्मद फारुख का मृत शरीर बाहर निकाल कर फेक दिया तथा किले पर अपना अधिकार कर लिया।

इस विजय से नवाब दोस्त मोहम्मद खान की शक्ति बड़ी प्रबल हो गई। थोड़े दिनों के पश्चात्‌ महालपुर, गुलगाँव, झँटकेढ़ा, ग्यासपुर, अंबापानी, लाँची, चोरासी छानवा, अहमदपुर, बांगरोद, दोराहा, इच्छावर, सिहोर, देवीपुरा, आदि बहुत से परगने उनके कब्जे में जा गये। नवाब दोस्त मोहम्मद खां की बढ़ती हुई शक्ति को रोकने के लिये मालवा प्रान्त के सूबेदार दया बहादुर ने उनके विरुद्ध एक सेना भेजी। दोनों ओर की सेना में युद्ध हुआ। इस समय भी अपनी कूटनीति से नवाब दोस्त मोहम्मद खान को विजय प्राप्त हुई और सूबेदार दया बहादुर की सेना पराजित हुईं। इस युद्ध में विपक्षी दल का तोपखाना तथा अन्य युद्धोपयोगी बहुत सा सामान दोस्त मोहम्मद खाँ के हाथ लगा। उनके भाग्य को बढ़ते हुए देख कर शुजालपुर के अमीन विजेराम ने अपना परगना उन्हे सौंप दिया और खुद ही उनके अधीन हो गया। कुखाई का सरदार दलेल खाँ नवाब दोस्त मोहम्मद खां की सफलता पर सुब्ध हो कर भीलसा पहुँचा। उसने उनसे मुलाकात की और उन्हें युद्ध में सहायता पहुँचाने का वादा किया। यह भी निश्चित किया गया कि युद्ध के पश्चात्‌ कब्जे में आए हुए प्रदेश का आधा आधा हिस्सा दोनों में बांटा जावे। जिस समय एकांत में इस विषय पर दोनों में वाद-विवाद हो रहा था, उस समय दोनों में झगड़ा हो गया। दोस्त मोहम्मद खां ने ऐसा योग्य ‘अवसर पाकर सरदार दलेल खां को कत्ल कर डाला।

गुन्नूर में गोंड लोगों का एक सुदृढ़ किला था। उनका सरदार
निजामशाह गोंड़ था। उसे चैनपुर बाड़ी में रहने वाले किसी रिश्तेदार ने विष देकर मार डाला था। निजामशाह की रानी का नाम कमलावती था। उसके एक लड़का था, जिसका नाम नवलशाह था। ये गुन्नूर के किले में रहते थे। नवाब दोस्त मोहम्मद खाँ के साहस पर विश्वास कर इन्होंने निमामशाह पर विष-प्रयोग करने वाले रिश्तेदारों से बदला लेने का निश्चय किया। अतएव, इन्होंने नवाब दोस्त मोहम्मद खान से चैनपुर बाड़ी पर आक्रमण करने के लिये अनुरोध किया। नवाब दोस्त मोहम्मद खाँ ने चुपचाप चैनपुर बाडी को घेर लिया और उसे अपने अधीन कर लिया। इस विजय के उपलक्ष्य में कमलावती रानी ने उन्हें अपना मैनेजर नियुक्त किया। रानी की मृत्यु होते ही इन्होंने गुन्नूर के किले पर अपना अधिकार पर लिया। इन्होंने बहुत छोटे छोटे गोंड़ सरदारों को भी कत्ल करवा दिया था।

हिजरी सन्‌ 1140 के जिल्हिजा मास की 9 वीं तारीख को नवाब दोस्त मोहम्मद खान ने भोपाल के आसपास एक नगर कोट और एक किला बंनवाने का काम शुरू किया। भोपाल उस समय एक विशाल सरोवर के तट पर बसा हुआ छोटा सा ग्राम था। भोपाल नगर की उन्नति के लिये नवाब दोस्त मोहम्मद खाँ ने बहुत कोशिश की। हिजरी सन 1132 में सैयद हुसैन अली खाँ तथा सैयद दिलावर खाँ ने निजाम-उल-मुल्क से बुरहानपुर के समीप युद्ध किया था। उस समय नवाब दोस्त मोहम्मद खान के भाई मीर अहमद खाँ 500 अश्वारोही तथा 200 ऊंटों की सेना सहित दिलेर खाँ की ओर से युद्ध में लड़े थे। इस द्वेष का बदला लेने के लिये निजाम-उल-मुल्क ने दिल्‍ली से हैदराबाद वापिस लौटते समय हिजरी सन 1142 में इस्लामपुर दुर्ग के समीप “निजाम टेकड़ी” पर अपना डेरा डाला। नवाब दोस्त मोहम्मद खान ने निजाम-उल – मुल्क सरीखे प्रबल शत्रु से युद्ध करना उचित न समझा। अतएव उन्होंने उनसे संधि कर ली और अपने पुत्र यार महम्मद खाँ को बतौर जामिन के निजाम-उल-मुल्क के हवाले कर दिया।

नवाब दोस्त मोहम्मद खान ने तीस वर्ष तक कठिन परिश्रम करके भोपाल राज्य की स्थापना की थी। उन्हें युद्ध में लगभग 30 ‘चोटे लगीं थीं। ईसवी सन् 1726 में 66 वर्ष की उम्र में उनकी मृत्यु हो गई। इनकी कब्र भोपाल के नजदीक फतेहगढ़ के किले में अब तक मौजूद है। नवाब दोस्त मोहम्मद खाँ के पिता नूर मोहम्मद खां की कब्र भी भीलसा में बनी हुई है। दोस्त मोहम्मद खान के पाँच भाई और थे। इनमें से चार भाई प्रथक प्रथक युद्धों में मारे गये थे । पाँचवें भाई अकिल मोहम्मद खाँ थे। वे राज्य के दीवान थे। नवाब दोस्त मोहम्मद खान के 6 पुत्र तथा 5 पुत्रियां थीं।

नवाब दोस्त मोहम्मद खान के बाद मसनद पर किसे बेठाया जावे, इसके लिये झगड़ा चला। पाठक जानते हैं कि, दोस्त मोहम्मद खान ने अपना एक पुत्र निजाम को सौंपा था। वह सब से बड़ा पुत्र था। पर भोपाल रियासत के अमीर उमराओं ने उनके हक को लाकबूल कर सुलतान मोहम्मद खाँ नाम के दूसरे लड़के को जिसकी उम्र उस समय केवल आठ वर्ष की थी, मसनद पर बैठाया। नवाब दोस्त मोहम्मद खाँ के सब से बड़े पुत्र यार मोहम्मद खान ने निजाम की कृपा प्राप्त कर ली थी। निजाम ने जब सुना कि भोपाल रियासत के अमीर उमरावों ने यार मोहम्मद खान का हक मार दिया है, तब उन्हें बहुत बुरा लगा ओर उन्‍होंने उसे नवाब मानकर एक बड़ी फौज के साथ भोपाल रियासत भेजा। इस फौज का किसी ने मुकाबला नहीं किया। बस फिर क्‍या था? नवाब यार मोहम्मद खान ने अपने भाई को गद्दी से अलग कर दिया और अपने आपको भोपाल रियासत का नवाब घोषित कर दिया। नवाब यार मोहम्मद खान बड़े महत्वाकांक्षी थे। वे अपने राज्य की सीमाओं को बढ़ाना चाहते थे। ये इसके लिये यत्न करने लगे और अपने राज्य को बहुत कुछ बढ़ा लिया। सन्‌ 1754 में इस महत्वाकांक्षी नवाब का देहान्त हो गया।

नवाब फैज मोहम्मद खान भोपाल रियासत

यार मोहम्मद खानके पाँच पुत्र थे। सब से बढ़े पुत्र का नाम फैज मोहम्मद था। मसनद के लिये फिर झगड़ा खड़ा हुआ। भोपाल रियासत में एक पार्टी ऐसी थी जो पदच्युत नवाब सुल्तान मोहम्मद खान को मसनद पर बैठाना चाहती थी। दूसरी पार्टी नवाब फैज मोहम्मद खान के पक्ष में थी। इन दोनों में परस्पर खूब झगड़ा हुआ।

आखिर में स्वर्गीय नवाब यार मोहम्मद खान की विधवा बेगम ममोला बीबी और रियासत के दीवान विजयराम ने बीच में पड़ कर यह समझौता करवाया कि, नवाब सुलतान मोहम्मद को रियासत में जागीर दे दी जावे और वह मसनद का हक छोड़ दे। यह समझौता दोनों पार्टियों ने मंजूर कर लिया।

नवाब फैज मोहम्मद खान जो इस वक्त नवाबी की मसनद पर थे, वे अत्यधिक धार्मिक प्रवृत्ति के थे, वह अपना बहुत सा समय ईश्वर की भक्ति में लगाते थे, भोपाल रियासत के राजकाज की ओर उनका ध्यान विशेष न था। जिसके चलते भोपाल रियासत में अव्यवस्थाएं फैल गई। इन अव्यवस्थाओं को सुधारने के लिए उन्होंने राज्य के शासन-सूत्र का भार अपनी माता ममोला बीबी और अपने वजीर पर डाल दिया। और खुद अपने धार्मिक कर्मकांडो में व्यस्त रहने लगे। बेगम ममोला बीबी और वजीर के शासन सूत्र के समय में भोपाल राज्य पर मरहठों के कई हमले हुए और इनमें भोपाल रियासत का बहुत सा मुल्क मरहठों के हाथ चला गया। इसवी सन्‌ 1777 में नवाब फैज मोहम्मद खान की मृत्यु हो गई।

नवाब हयात मोहम्मद खान

नवाब फैज मोहम्मद खानके कोई पुत्र न था। अतएव उनके भाई हयात मोहम्मद खान मसनद पर बेठे। इस पर मृत नवाब की बेगम ने आपत्ति की। उसने शासन-सूत्र अपने हाथ में लेने की इच्छा प्रकट की। यद्यपि नवाब हयात मोहम्मद खान मसनद पर रहे, पर वे भोपाल रियासत का इन्तजाम सन्तोष-जनक नीति से न कर सके। इसका कारण यह था कि ये अपना बहुत सा समय धार्मिक क्रियाओं में व्यतीत करते थे। अतएव उन्होंने फौलाद खान नामक एक गोंड़ को अपना प्रधान मंत्री बनाया। इस समय रियासत की आमदनी में से 500000 रूपया नवाब को खर्च के लिये दिये जाने लगे और शेष 1500000 राज्य-कार्य के लिये खर्च किये जाने लगे।

नवाब फैज मोहम्मद खान का मकबरा भोपाल
नवाब फैज मोहम्मद खान का मकबरा भोपाल

सन् 1776 में जब ईस्ट इंडिया कंपनी ने पुरन्दर की संधि को अस्वीकृत कर दिया, तब तत्कालीन गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्ज मे बम्बई सरकार का समर्थन करने का निश्चय कर लिया। अतएव
उन्होंने बंगाल से फौज भेजी। उसके रास्ते में भोपाल राज्य पड़ा था। उस फौज की नवाब हयात मोहम्मद खान ने यथा सम्भव हर प्रकार को सहायता की। सन् 1780 में भोपाल रियासत के तत्कालीन प्रधान मन्त्री फौलाद खाँ को किसी ने मार डाला। उसके बाद छोटे खा प्रधान मन्‍त्री हुआ। यह बड़ा होशियार और बुद्धिमान था। उसने मराठों के साथ मित्रता का सम्बन्ध स्थापित किया। मृत नवाब फैज मोहम्मद खान की बेगम ने इसके सुदृढ़ शासन को पसन्द नहीं दिया। उसने इसके खिलाफ विद्रोह खड़ा करने का यत्न किया। पर उसने बेगम के इस यत्न को सफल ने होने दिया। इसे इस उच्च पद से हटाने के लिए जो फौजें खड़ी की गई थीं जिन्हें उसने हरा दिया। पर कुछ समय तक वहां षड्यंत्र और विद्रोह चलते रहे। आखिर में छोटे खाँ इन सभी को दबाने में सफल हुआ। इसने राज्य शासन बढ़ी बुद्धिमत्ता और योग्यता से किया। इसने बहुत से प्रजा-हितकारी कार्य भी किये, जो कि भोपाल रियासत के लिये तथा उसकी प्रजा के लिये बहुमूल्य सिद्ध हुए।

सन्‌ 1795 में छोटे खां का देहान्त हो गया । वह फतहगढ़़
के किले में गाढ़ा गया। इसके बाद अमीर मोहम्मद खाँ और हिम्मत राम ने क्रम से वहाँ के प्रधान मन्त्री के पद को ग्रहण किया। इस समय नवाब हयात मोहम्मद खान के निर्बल शासन की वजह से भोपाल रियासत की हालत बहुत खराब हो रही थी। यहाँ के उच्च अधिकारियों में सिवा परस्पर षड़यंत्रोंके और कुछ नहीं हो रहा था। इसी बीच में मराठों ने भोपाल राज्य पर हमले किये और उसके मुल्क को तहस नहस कर डाला। सन्‌ 1795 में मुरीद मोहम्मद खाँ भोपाल की चीफ़ मिनिस्टरी का पद ग्रहण करने के लिये निमन्त्रित किये गये। वे अपने 1000 साथियों सहित वहाँ पहुँचे। उन्होंने नवाब से मुलाकात की और कहा कि जब तक विरोधी लोग हटा न दिये जावेंगे तब तक मैं प्रधान मन्‍त्री का पद कभी ग्रहण नहीं कर सकता। मुरीद मोहम्मद खान की बात नवाब ने मान ली। विरोधी समझे जाने वाले लोग निकाले जाने लगे। मुरीद ने बड़ी हृदय-हीनता से प्रजा पर नये नये टैक्स बैठाने शुरू किये। नवाब की बेगम को मार डालने में भी उनका हाथ था। उसने नवाब के पुत्र गाजी मोहम्मद खान और दोस्त मोहम्मद खान के प्रपोत्र को भी मरवाने का षड़यन्त्र रचा। ये सब बातें नवाब को मालूम हो गई। उसने मुरीद के खिलाफ मामला उठाना चाहा, पर इसी बीच में मराठों के आक्रमण का आतंक उपस्थित हुआ। अगर महाराजा सिन्धिया मराठों को वापस न बुला लेते तो वह इस आक्रमण में पूरी सफलता प्राप्त करते। कुछ हो, वापस लौटते समय मराठों की फौज मुरीद को पकड़ ले गई और वह उसके द्वारा कैद कर लिया गया। आगे जाकर उसने आत्म-हत्या कर ली।

इसके बाद वज़ीर मोहम्मद प्रधान मंत्री के पद पर नियुक्त किये गये। वे थी बड़े मजबूत दिल के शासक थे। इन्होंने अपने अधिकार का इतना जोर दिखलाया कि, नवाब गौस मोहम्मद खां भयभीत हो गये। नवाब गौस मोहम्मद सन् 1808 में भोपाल की मसनद पर बेठे थे पर ये नाममात्र के ही नवाब थे। क्योंकि सारे अधिकार तो वजीर मोहम्मद खान के हाथ में थे। उन्होंने रियासत पर अपनी ताकत का बेतरह सिक्का जमा रखा था। नवाब ने सब ओर से निरुपाय होकर वजीर को निकालने के लिये नागपुर के मराठों से सहायता माँगी। पर इसमें भी वे सफल नहीं हुए। वजीर ने मराठों को भी नगर से निकाल दिया। इसके बाद वजीर ने नवाब गौस मोहम्मद को अवसर ग्रहण करने के लिए मजबूर किया। इस वक्त से नवाबों के बजाय वहाँ के वजीर ही वास्तविक रूप से शासन करते रहे। नवाबकेवल नाममात्र का रहा। भोपाल के गजेटियर में लिखा है;— From this date the rule of Bhopal practically passed to vazir, branch of the family. मतलब यह है कि– इस समय से अमली तौर से भोपाल का शासन वजीरों के खानदान के ही हाथ में रहने लगा।

इसवी सन्‌ 1811 में वजीर ने ब्रिटिश सरकार से सन्धि करने के
प्रस्ताव किये, पर मराठों के हमलों के कारण इसमें सफलता नहीं हुई। सन्‌ 1816 में वजीर का देहान्त हो गया। इनके दो पुत्र थे। बड़ा पुत्र अमीर मोहम्मद खान शरीर और मन से कमजोर होने के कारण अपने पिता का पद ग्रहण न कर सका। छोटे पुत्र नज़र मोहम्मद ने यह पद ग्रहण किया। कहने की आवश्यकता नहीं कि वे ही इस वक्त भोपाल रियासत के असली नवाबथे। सारा कारोबार उन्हीं के हाथ में था। पर इस समय भोपाल का नवाब जिन्दा था। अतएव उन्होंने नवाब की उपाधि धारण नहीं की। इसवी सन्‌ 1818 में नज़र मोहम्मद ने नवाब गौस मोहम्मद की लड़की गौहर बेगम के साथ विवाह किया। इसी साल के मार्च मास में उन्होंने ब्रिटिश सरकार के साथ सन्धि की। सन्धि-पत्र में एक यह भी शर्त रखी गई थी कि आवश्यकता पढ़ने पर उन्हें ब्रिटिश सरकार की 600 सवारों 400 पैदल सिपाहियों की सहायक सेना से सहायता करनी पड़ेगी। इस शर्त की पूर्ति के लिये नजर मोहम्मद ने ब्रिटिश सरकार को बहुत से जवाहरात दे डाले,जिनकी बिक्री से सरकार को 5000000 रुपये प्राप्त हुए। इससे ब्रिटिश सरकार बड़ी प्रसन्न हुईं और उसने इस्लामनगर का किला और पाँच उपजाऊ परगने जो अब तक महाराजा सिन्धिया के अधिकार में थे, उनको लौटा दिये। सन्‌ 1819 में नजर मोहम्मद अपने नवयुवक बहनोई के हाथ भूल से मारे गये।

नवाब जहांगीर मोहम्मद खान

नवाब नजर मोहम्मद खान के कोई पुत्र न था। उनकी सिकन्दर बेगम नाम की केवल एक पुत्री थी। अतएव ब्रिटिश सरकार ने यह प्रस्ताव किया कि नजर मोहम्मद का भतीजा मुनीर मोहम्मद गोहर बेगम की रिजेन्सी के नीचे गद्दी पर बेठे। साथ ही यह भी तय हुआ कि मुनीर मोहम्मद खान सिकन्दर बेगम के साथ शादी कर ले। पर सन् 1827 में मुनीर मोहम्मद ने गौहर बेगम पर एक तरह से हुकूमत चलाना शुरू किया, इससे दोनों में नाइत्तफाकी होने लगी । अतएव ब्रिटिश सरकार ने मुनीर मोहम्मद को गद्दी से इस्तीफा देने के लिये मजबूर किया, और उसके छोटे भाई नवाब जहांगीर मोहम्मद खान को गद्दी पर बैठाया। सिकन्दर बेगम की शादी नवाब जहांगीर मोहम्मद के साथ हुई। गौहर बेगम और नवाब जहांगीर मोहम्मद खान की भी नहीं बनी।परस्पर तनातनी होने लगी। आखिर में सन्‌ 1837 में पोलिटिकल एजेन्ट ने गौहर बेगम को रिजेन्सी से अवसर प्राप्त करने के लिये कहा। उसे गुजारे के लिये 500000 रुपये दिये गये। इंसवी सन्‌ 1877 में दिल्ली में जो दरबार हुआ था, उसमें गौहर बेगम को “इस्पीरियल ऑर्डर आफ दी क्राऊन आफ इंडिया” की पदवी से विभूषित किया गया।

नवाब जहांगीर मोहम्मद खान बड़े नवाब शाहजहां बेगम थे। वे साहित्य से भी विशेष अनुराग रखते थे। विद्वानों की बड़ी क॒द्र करते थें। इतना होते हुए भी वे राज्य-कार्य पर बड़ा ध्यान देते थे। प्रजा की उन्नति ओर विकास की ओर उनका विशेष ध्यान था। पर दुर्भाग्य से ये इस संसार में अधिक दिनों तक नहीं रहने पाये। सन्‌ 1844 में केवल 27 वर्ष की उम्र में इन्होंने परलोक-यात्रा की। नवाब जहांगीर मोहम्मद खान ने अपने मृत्यु-पत्र में यह इच्छा प्रकट की कि, उनकी रखैल का लड़का दस्तगीर उनकी गद्दी का वारिस हो और उनकी लड़की वजीर मोहम्मद के खानदान के किसी लड़के से ब्याही जावे। ब्रिटिश सरकार ने इस मृत्यु-पत्र को मंजूर नहीं किया ओर उन्होंने नवाब जहांगीर मोहम्मद खान की पुत्री शाहजहाँ बेगम ही को गद्दी का वारिस कबूल किया। साथ ही में यह भी तय हुआ कि “शाहजहां बेगम का भावी पति, जो कि भोपाल के राज्य-कुटुम्ब ही में से चुना जायेगा, भोपाल का नवाब होगा। यह इसलिये किया गया जिससे भोपाल के भूतपूर्व राज्यकर्ता गौस मोहम्मद और वजीर मोहम्मद दोनों के खानदान
आपस में मिले हुए रहें।

नवाब शाहजहां बेगम

भोपाल की राज्य-गढी पर बेठा दी गई। इस समय इनकी उम्र केवल 7 वर्ष की थी। इनकी नाबालगी में राज्य- कार्य संभालने के लिये एक रिजेन्सी कौन्सिल बनाई गई। नवाब गौस मोहम्मद खान का सब से छोटा लड़का मियाँ फौजदार मोहम्मद खान भोपाल का प्रधान मंत्री भी बना दिया गया। पर एक साल ही में यह बात मालूम होने लगी कि, शासन की यह दोहरी पद्धति ( Dual system ) असफल होती जा रही है। फौजदार मोहम्मद खाँ और नवाब सिकन्दर बेगम की नहीं बनी। दोनों में गम्भीर मतभेद होने लगे। अतएव आखिर में पोलिटिकल एजेन्ट ने हस्तक्षेप किया, और उन्होंने फौजदार मोहम्मद खानको इस्तिफा देने के लिये मजबूर किया । साथ ही में यह भी तय हुआ कि, जब तक नवाब शाहजहां बेगम बालिग न हो जाये तब तक नवाब सिकन्दर बेगम ही के हाथ में राज्य-व्यवस्था की डोर रहे।

नवाब सिकन्दर जहां बेगमनवाब शाहजहां बेगम भोपाल रियासत

सन्‌ 1838 में नवाब शाहजहां बेगम बालिग हो गईं। इसके कुछ वर्ष तक भोपाल रियासत की अच्छी तरक्की होती रही। कई अत्याचारी पद्धतियाँ मिटाई गई। किसानों को आराम पहुँचाने की व्यवस्‍थाएँ की गई। ईसवी सन्‌ 1855 में नवाब शाहजहां बेगम की भोपाल के कमांडर- इन-चीफ बक्शी बाकी मोहम्मद खाँ के साथ शादी हो गई। इससे ये महाशय भी नवाब कहलाने लगे। इन्हें नवाब वजीर उद्दौला उमरावद्दौला बहादुर का ऊँचा खिताब भी मिल गया था।

नवाब सिकन्दर बेगम भोपाल रियासत

सन्‌ 1857 में भारत में भयंकर विद्रोह अग्नि की ज्वाला भड़की।
इस की चिनगारियाँ देखते देखते सारे भारतवर्ष में फैल गई । इस समय भोपाल की रिजेन्ट ने ( यह अब तक रिजेन्ट का काम करती थीं ) ब्रिटिश सरकार की तन, मन, धन से सहायता की। इन्होंने अपने राज्य में पूर्ण शान्ति स्थापन की भी अच्छी व्यवस्था की। इन्होंने कई भागे हुए अंग्रेजों की प्राण-रक्षा की। अंग्रेजी फौजों को रसद से मदद पहुँचाई। इससे अंग्रेजों को बड़ी सहायता मिली। जब देश में पूर्ण शान्ति स्थापित हो गई,, तब नवाब सिकन्दर बेगम ने ब्रिटिश सरकार को दरख्वास्त दी कि, वह भोपाल रियासत की बेगम स्वीकार की जाये। उन्होंने अपनी दरख्वास्त में यह भी दिखलाया कि, दराअसल भोपाल रियासत की गद्दी की वही अधिकारिणी है। उसके (नवाब शाहजहां बेगम के) पति को गलती से नवाब घोषित किया गया था। इसके साथ ही नवाब शाहजहां बेगम ने भी यह स्वीकार कर लिया कि, जब तक उसकी माता नवाब सिकन्दर बेगम जीवित है, तब तक वही भोपाल की शासिका रहे।

नवाब सिकन्दर जहां बेगम
नवाब सिकन्दर जहां बेगम

ब्रिटिश सरकार ने सन्‌ 1857में नवाब सिकन्दर बेगम की दी गई सहायता को स्वीकार करते हुए उसे भोपाल की बेगम घोषित कर दिया। सन्‌ 1861 में जबलपुर में एक दरबार हुआ था, उसमें नवाब सिकन्दर बेगम भी उपस्थित हुई थीं। उस दरबार में तत्कालीन वायसराय लॉर्ड केनिंग ने नवाब सिकन्दर बेगम को संबोधित करते हुए कहा था— “सिकन्दर बेगम ! में इस दरबार में आपका हार्दिक स्वागत करता हूं। में एक लंबे अर्से से यह अभिलाषा कर रहा था कि आपने श्रीमती सम्राज्ञी के राज्य की, जो बहुमूल्य सेवाएँ की है उनके बदले में आपको धन्यवाद प्रदान करूँ। बेगम साहिबा, आप एक ऐसे राज्य की अधिकारिणी है, जो इस बात के लिये मशहूर है कि, उसने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ कभी तलवार नहीं उठाई। अभी थोड़े दिन पहले जब कि आपके राज्य में शत्रुओं का आतंक उपस्थित हुआ था, उस समय आपने जिस धैर्यता, बुद्धिमत्ता और योग्यता के साथ राज्य कार्य का संचालन किया, वैसा कार्य एक राजनीतिज्ञ या सिपाही के लिए ही शोभापद हो सकता था। ऐसी सेवाओं का अवश्य ही प्रतिफल मिलना चाहिए। में आपके हाथों में बलिया जिले की राज्य-सत्ता सौंपता हूँ। यह ज़िला पहले धार राज्य के अधीन था। पर उसने बलवे में शरीक होकर उस पर से अपना अधिकार खो दिया। अब यह राज्य-भक्ति के स्मारक स्वरूप हमेशा के लिये आपको दिया जाता है।”

इसी साल श्रीमती नवाब सिकन्दर बेगम को जी. सी. एस. आई. की उपाधि मिली । ईसवी सन्‌ 1862 में आपको गोद लेने की सनद भी मिली। इसवी सन् 1864 में आप मक्का यात्रा के लिये पधारी और सन्‌ 1868 की 30 अक्टूबर को आपने परलोक की यात्रा की। मृत्यु के समय श्रीमती की अवस्था 51 वर्ष की थी।

पुत्र: नवाब शाहजहां बेगम

अब शाहजहां बेगम की बारी आई। वे पुनः भोपाल की राज्य-गद्दी पर बैठाई गई। इसी अर्से में नवाब शाहजहां बेगम के पति नवाब बाकी मोहम्मद खान बहादुर की मृत्यु हो गई। अतएव उन्होंने सन् 1871 में मौलवी सैय्यद सादीक हुसैन से दूसरा विवाह कर लिया। ये मौलवी साहब पहले भोपाल कई महत्वपूर्ण पदों पर काम कर चुके थे। नवाब बेगम शाहजहां के साथ विवाह हो जाने से इन्हें “नवाबे आला जहां अमीर उल-मुल्क” की पदवी मिल गई। सरकार ने इन्हें 17 तोपों की सलामी का मान दिया। सन्‌ 1872 में नवाब शाहजहां बेगम की सेवाओं से प्रसन्न होकर भारत सरकार ने उन्हें “जी० सी० एस० आई० की उच्च उपाधि प्रदान की। इसवी सन्‌ 1890 में बेगम साहबा के दूसरे पति का भी देहान्त हो गया। उनकी मृत्यु के बाद से लगा कर सन्‌ 1901 तक बेगम साहबा ने अपने ही हाथों से भोपाल राज्य का शासन किया । इसी साल इनका देहान्त हो गया।

नवाब सुल्तान जहां बेगम

नवाब शाहजहां बेगम के बाद भोपाल की बेगम साहबा, नवाब सुल्तान जहां बेगम जी० सी० एस० आई०, जी० सी० आई० है०,सी० आई मसनद पर बेठीं। इस बात को छः ही मास न हुए थे कि आपको अपने पति का वियोग सहन करना पड़ा। सन्‌ 1904 में नवाब सुल्तान जहां बेगम मक्का की यात्रा के लिये तशरीफ ले गई। सन्‌ 1905 में इन्दौर मुकाम पर आपने तत्कालीन प्रिन्स आफ वेल्स से मुलाकात की। सन् 1909 के दिसम्बर मास में तत्कालीन वायसराय लॉर्ड मिन्टो भोपाल पधारे। सन् 1910 में श्रीमती बेगम साहबा को के० सी० एस० आई० की उपाधि प्राप्त हुई। सन् 1911 में श्रीमती बेगम साहबा, श्रीमान सम्राट पंचम जॉर्ज के राज्यारोहण-उत्सव में सम्मिलित होने के लिए इंग्लैड पधारी। इसी समय आपने फ्रांस, जर्मनी, आस्ट्रीया, स्विटजरलैंड और तुर्की आदि आदि देशों की यात्रा की। तुर्की के सुल्तान ने बेंगम साहबा को अपनी मुलाकात का मान प्रदान किया। इतना ही नहीं आपने बेगम सहोदया को पेगम्बर साहब की दाढ़ी का बाल भी भेंट किया। सन्‌ 1911 में श्रीमती दिल्‍ली दरबार में पधारी। सन्‌ 1911 में लार्ड हार्डिग महोदय थी भोपाल पधारे।

नवाब सुल्तान जहां बेगम
नवाब सुल्तान जहां बेगम

नवाब सुल्तान जहां बेगमका स्त्री शिक्षा की ओर विशेष ध्यान था। जब श्रीमान वर्तमान सम्राट पंचम जॉर्ज दिल्ली दरबार के अवसर पर यहाँ पधारे थे। उस समय उनके आगमन को चिर-स्मरणीय बनाने के लिये श्रीमती बेगम साहाबा ने जो अपील प्रकाशित की थी, उसका सारांश यह है:-इस शुभ ‘अवसर को चिर-स्मरणीय बनाने के लिये हमें चाहिये कि, हम लड़कियों के लिये आर्दश स्कूल खोलें। इसके लिये मेरी राय में 12 लाख रुपयों की शुरू शुरू में आवश्यकता होगी। में इसके लिये राज्य से एक लाख रुपए और मेरे प्राइवेट खर्च से बीस हजार रुपया देती हूं। मेरी बहुओं (Daughter in low) ने भी इस संस्था के प्रति अपनी सहानुभूति दिखलाई है और उनमें से बड़ी ने 7000 और छोटी ने 5000 प्रदान किये हैं। आशा है मेरे इस कार्य के प्रति वे सब लोग सहानुभूति प्रकट करेंगे, जिन्हें स्त्री शिक्षा के लिये दिल में लगन है, फिर चाहे वे रईस हों, रानियाँ हों या साधारण मनुष्य हों। मुझे इसकी सफलता की पूरी पूरी आशा है।”

नवाब सुल्तान जहां बेगम के तीन पुत्र थे। नवाब नसरूल्‍ला खाँ बहादुर, नवाबजादा मोहम्मद अब्दुल्ला खान बहादुर, नवाबज़ादा हमीदुल्ला खान बहादुर। इनमें पहले पुत्र जंगल-विभाग बडे अफसर थे। दूसरे पुत्र राज्य की फौज के कमाँडर-इन-चीफ थे। इन्हें अंग्रेजी सरकार की ओर से “कमाण्डर ऑफ दी ऑर्डर ऑफ दी स्टार आँफ इण्डिया” की उपाधि प्राप्त है। तीसरे पुत्र फौज के लेफ्टिनेंट कर्नल थे। इसके साथ ही आप बेगम साहबा के चीफ सेक्रेटरी भी थे। आप प्रयाग विश्व-विद्यालय के ग्रेजूएट थे। 12 मई सन् 1930 में नवाब सुल्तान जहां बेगम की मृत्यु हो गई।

भोपाल रियासत की शासन व्यवस्था

उत्तर भारत में भोपाल सब से बड़ी मुसलमानी रियासत है। इसका
विस्तार 6859 वर्गमील था। लोक-संख्या 720000 के ऊपर थी। इसके चारों ओर आस-पास ग्वालियर, बड़ौदा, नृसिंहगढ़, टोंक की रियासतें आई हुई थी। इस राज्य में बेतवा, पार्वती, और नर्मदा मुख्य नदियाँ हैं। इस राज्य में 73 फीसदी हिन्दू , 13 फीसदी मुसलमान और 14 फीसदी अन्य मतावलम्बी थे। यहाँ बढ़ई, काछी और कुल्मी प्रधान रूप से खेती का धन्धा करते थे। यहाँ 43 फीसदी खेती करते थे। यहाँ के लोगों का ध्यान खेती के सुधार की ओर बहुत कम था।

प्रजा को न्याय देने के लिये यहाँ 44 कोर्ट थे–तथा:—चीफ्स कोर्ट, दो जज कोर्ट, एक सदर अमीन कोर्ट, एक मुन्सिफ कोर्ट, छः डिस्ट्रिक्ट और असिस्टेंट मजिस्ट्रेट की कोर्ट। 27 तहसीलदारों की कोर्ट। इन सब के ऊपर अन्तिम चीफ्स कोर्ट थी। भोपाल रियासत में शिक्षा का प्रचार अच्छा था। सन्‌ 1860 के शुरू में यहाँ पहला ‘रेग्यूलर’ स्कूल खोला गया था। इसके दस वर्ष बाद भोपाल दरबार ने यह निश्चय किया कि लोगों को इस बात के लिये उत्साहित किया जाये कि, वे अपने लड़कों को कम से कम प्रारम्भिक शिक्षा दें। इसलिये दरबार ने यह सरक्यूलर प्रकाशित किया कि, जिस आदमी ने किसी स्कूल या कॉलेज से सार्टिफिकेट प्राप्त न किया होगा, उसे राज्य के किसी महकमे में नौकरी न दी जायगी। इसके बाद वहाँ शिक्षा में प्रगति नजर आने लगी।

भोपाल में एक हाईस्कूल था जिसका नाम अलेक्जैड्रिया हाईस्कूल है। इसमें मेट्रिक तक की पढ़ाई होती थी। इसमें लगभग 200 विद्यार्थी शिक्षा पाते थे। इसके अतिरिक्त वहाँ जहॉगीरिया स्कूल था, जिसमें सब से पहले अंग्रेजी की पढ़ाई शुरू हुई थी। इसमें लगभग 300 विद्यार्थी ज्ञान लाभ करते थे। यहाँ एक मुसलमानों के लिए धार्मिक स्कूल थी, जिसे मदरसी अहसदिया कहते हैं। इसमें केवल इस्लाम ही की धर्म-शिक्षा दी जाती थी। कन्याओं के लिए भी यहाँ पाठशाला थी, जिसका नाम विक्टोरिया गर्लस स्कूल था। 1891 में इसकी स्थापना हुई थी। सारे राज्य में 75 प्राईमरी स्कूल्स थे। यूनानी हिकमत सिखलाने के लिये यहाँ एक मेडिकल स्कूल था। इसमें यूनानी हिकमत के सिवा सर्जरी ओर शरीर शास्त्र की भी तालिम दी जाती थी। अनाथ और विधवाओं के लिये यहाँ एक ऐसा स्कूल था, जिसमें कला-कौशल की शिक्षा दी जाती थी। इसमें काम सिख कर स्त्रियां इज्जत के साथ अपना गुजर कर सकती थी।

भोपाल रियासत में रोगियों की चिकित्सा का भी अच्छा प्रबन्ध था। यहाँ इस सम्बन्ध से एक ऐसी विशेषता है, जो अन्य राज्यों में नहीं थी। यहाँ यूनानी हिकमत को खुब उत्तेजन दिया जा रहा था। यहाँ राज्य की तरफ से स्थान स्थान पर जो अस्पताल खुले हुए थे, वे विशेष रूप से यूनानी थे, यहाँ उस वक्त 40 अस्पताल थे, जिनमें 37 यूनानी थे। दूसरे अस्पताल का नास लेडी लेन्स डाऊन अस्पताल है, इसमें पर्दानशीन औरतों की चिकित्सा की जाती थी। भोपाल राज्य ने उसके अफसरों ने तथा प्रजा ने ब्रिटिश सरकार को युद्ध में अच्छी सहायता दी थी। सब मिलकर भोपाल राज्य की ओर से लगभग 2734575 रुपये युद्ध फन्ड में दिये गये थे।

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Naeem Ahmad

CEO & founder alvi travels agency tour organiser planners and consultant and Indian Hindi blogger

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