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भोटिया जनजाति

भोटिया जनजाति कहां पाई जाती जनजीवन और इतिहास

भोट प्रदेशभारत की उत्तरी सीमा पर स्थित वह हिमखण्ड है, जहां तिब्बत की दक्षिणी सीमा भारत की उत्तरी सीमा का स्पर्श करती है। वर्ष के अधिक मास यहां बर्फ के तूफ़ानों में ही बीतते हैं। घोर वनों तथा पथरीली चट्टानों से ढका हुआ यह प्रदेश उजाड़ तो नहीं कहा जा सकता, परन्तु फिर भी इसके सम्बन्ध में यह कह देना अनुचित न होगा, कि यहां मनुष्य के बसने हेतु कुछ भी प्राप्त नहीं है। परन्तु यह देख कर आश्चर्य होता है, कि यहां भी मानव आबाद है। किसी ऐसे प्रदेश में, जहां पेट भरने के लिये रोटी का टुकड़ा भी नसीब न हो, वहां भी मानव के वास को देख कर आश्चर्य क्‍यों न हो ? न जाने किसकी प्रतीक्षा में वह मानव वहां बसा हुआ है ? ऐसी कौन सी आशा है, जिसके पीछे वह उस भूमि का परित्याग नहीं कर सकता ? जिस भोट प्रदेश के लोगों की कहानी हम कहने चले हैं, उनका ठीक स्थिति कुमाऊं प्रदेश के उत्तरी भाग में है। तथा कश्मीर लद्दाख तिब्बत तथा हिमाचल के प्रदेश में भी इनकी स्थिति है। वास्तविक रूप से यही प्रदेश भोट प्रदेश समझना चाहिए इस प्रदेश मे रहने वाले लोग भोटिया जनजाति के लोग कहलाते हैं।

भोटिया जनजाति का जनजीवन

भोटिया जनजाति की जीविका का एक मात्र साधन इनकी मेड़ें है। वैसे तो यह लोग गांव बना कर रहते हैं। परन्तु वास्तव में इनका कोई घर नहीं होता। आज यहां, तो कल वहां, यही इनके जीवन का एक क्रम सा है। ऊन, सुहागा, हींग, जीरा, लाजवंती तथा मेड़ों का व्यापार कर के ही ये लोग अपनी. रोटी कमाते हैं। इस सम्पूर्ण प्रदेश में कोई भी आदमी धनी दिखाई नहीं पड़ता। वर्ष के जिन महीनों में यहां बर्फ के तूफ़ान ठाठें मारा करते हैं उन दिनों ये लोग वहां नहीं रहते। अपितु अपनी भेड़ बकरियों सहित नीचे स्थानों की ओर चले आते हैं। तथा वहीं अपना व्यापार चलाते हैं। परन्तु ग्रीष्म ऋतु में जब पहाड़ों की बर्फ पिघल कर बह जाती है, तो ये लोग अपने देश को ही पुनः लौट जाते हैं। कुछ लोग अपने परिवारों को यहां छोड कर तिब्बत की मण्डियों में चले जाते है, तथा निचले देशों से खरीद कर लाया हुआ माल वहां बेच कर अन्य आवश्यक वस्तुएं खरीद लेते हैं और फिर अपने देश को लौट आते हैं। गर्मियों के दिन बिताने के पश्चात बर्फ का आरम्भ होते ही ये लोग फिर निचले प्रदेशों में उतर आते हैं, और व्यापार आदि चलाते हैं। वैसे इन भोटिया और जाड़ जनजाति के रहन-सहन तथा कारोबार में कोई विशेष अन्तर नहीं, परन्तु इनका सामाजिक जीवन उन लोगों से बहुत भिन्‍न है।

बर्फ़ानी प्रदेशों के निवासी होने के कारण भोटिया जनजाति के लोगों का शारीरिक वर्ण अत्यन्त श्वेत होता है। परन्तु इनके उस श्वेत रंग पर मेल की अनेक तहें जमी हुई दिखाई पड़ती है। कारण यह है, कि ये लोग अधिक नहाते धोते नहीं। क्‍या हुआ जो वर्ष में किसी एक दिन नहाने की भूल कर डाली।वास्तव में इनका भी कोई दोष नहीं। ये लोग नहाने धोने को एक बहुत बड़ा बोझ समझते हैं। ओर इसी लिये उस से दूर रहने की चेष्टा करते हैं।

इन की आकृति अधिकतर तिब्बती लोगों से मिलती जुलती है। पहनावा वैसे तो भारतीय ढंग का है, परन्तु फिर भी उस पर तिब्बती वेशभूषा का रंग चढ़ा हुआ दिखाई पड़ता है। पुरुष लम्बे लम्बे घुटनों से नीचे तक चोगे पहनते है। सिर पर एक तिब्बती ढंग की टोपी, अथवा एक अनोखे प्रकार की पगड़ी पहनने का रिवाज है। स्त्रियों की वेश भूषा भी कुछ कुछ इसी प्रकार की है। परन्तु सिर को ढकने के लिये वह चादर का उपयोग करती हैं। बहुत सी स्त्रियां केशों को ढकने के लिये सिर पर रूमाल भी बाँध लेती हैं। कानों में बालियाँ, हाथों में कंकरा तथा गले में कण्ठी-माला पहनने का उन्हें बडा चाव होता है। बहुत से लोगों का विचार है, कि भोटिया लोग अपोध्या नरेश भगवान श्री राम के वंशज हैं। इस से सम्बन्धित अनेक लोक कथायें भी यहां प्रचलित हैं। पर इतना अवश्य है, कि आज भी इन के समाज में मिलने वाली सामाजिक प्रथाएं इस बात का प्रमाण हैं, कि ये लोग वास्तव में रघुवंश के ही अवशेष हैं।

भोटिया जनजाति के सभी निवासी अधिकतर क्षत्रिय कुल से ही सम्बन्ध रखते हैं। तथा अब अपने आप को गंगा के मैदान के प्राचीन निवासी ही बताते हैं। पर समझ में नहीं आता कि कुमाऊँ प्रदेश के हिम शिखरों पर ये लोग कैसे जा बसे, परन्तु परिस्थितियों के अनुसार कोई भी कार्य कठिन नहीं जो पृथ्वी के एक सिरे पर बसे मानव को उजाड़ कर उसके दूसरे सिरे पर पटक देती है।

भोटिया जनजाति
भोटिया जनजाति

भोटिया जनजाति की विवाह रिति रिवाज

भोटिया जनजाति की विवाह आदि की रीतियां भी बड़े अनोखे प्रकार की है। विवाह करने के लिये लड़के तथा लड़॒की पर किसी प्रकार की कोई पाबन्दी नहीं लगाई जाती। अपितु इस विषय में उन्हें पूर्ण रूप से स्वतन्त्रता प्राप्त होती है। अपनी इच्छा अनुसार ही लड़का तथा लडकी एक दूसरे को पसन्द करने के पश्चात विवाह करने का अधिकार रखते हैं। जिसमें माता पिता को किसी तरह भी इनकार नहीं हो सकता। परन्तु फिर भी उनकी अनुमति प्राप्त करना आवश्यक समझा जाता है। जब लड़का लड़की परस्पर एक दूसरे को पसन्द कर लेते है तथा परस्पर विवाह द्वारा एक सूत्र में बन्ध जाने को तैयार हो जाते हैं, तब लड़का अपने किसी मित्र या सेवक के द्वारा कुछ रुपये एक रूमाल में बांध कर लड़॒की के माता पिता के पास भिजवाता हैं। तब लड़॒की के माँ बाप इस विषय पर विचार करते हैं कि जो वर लड़की ने चुना है, वह उसके योग्य हैं अथवा अयोग्य। क्योंकि कई बार संतान अनुभव के अभाव में परस्पर निर्वाचन में धोखा भी तो खा सकती है। वैसे देखा गया है, कि माँ बाप प्राय: अपनी संतानों के इस निर्वाचन में कोई बाधा उत्पन्न नहीं करते तथा उन्हें विवाह करने की अनुमति दे ही डालते हैं।

योग्य वर होने पर लड़की के माता पिता वर को विवाह की स्वीकृति भिजवा देते है। और जो भी शुभ तिथि उन्होंने इस कार्य को सम्पन्न करने के लिये निश्चित कर के कहला भेजी है, उस तिथि को लड़का अपने मित्र तथा मिलने वालों के सहित लड़की के घर आता है। बिना किसी रीति के ही लडकी को डोली में विदा कर ले जाता है। इस अवसर पर जब लड़का, लडकी को ले जाने लगता है, तो लडकी के पक्ष वाले उसका रास्ता रोक कर खड़े हो जाते हैं। इस स्थान पर एक बनावटी युद्ध होता है। जिसमें कन्या पक्ष के लोगों को हारना पड़ता है। और लड़का लड़की को ले जाता है। घर पहुंचने के आठ दस दिन पश्चात वर पक्ष की ओर से एक सेवक को कन्या के घर यह कहला कर भेजा जाता है, कि वह उसके पिता को तसल्सी दे, तथा उससे कहे, कि “जो ईश्वर की इच्छा थी, वह तो हो रहा, अब मलाल कैसा, कन्या फिर भी तुम्हारी ही पुत्री है, और जब वर ने उसका अपहरण करके उसे अपनी पत्नी बना लिया है, तो वह भी एक प्रकार से आपका अब पुत्र ही है। इस लिये बीती बातों को भूल कर अब उन्हें आशीर्वाद देने चलिये। इस रीति से पुराने जमाने के सामाजिक इतिहास पर कितना प्रकाश पड़ता है।

इसके पश्चात लड़के की ओर से भेजे गये प्रार्थना संदेश के प्राप्त करने पर लड़की के माता पिता, सगे-सम्बन्धी, मित्र, सहेलियां, भाई बहन सब एकत्रित हो कर लड़के के घर पहुंचते हैं। उनके पहुंचते ही रीति-अनुसार विवाह सम्पन्न किया जाता है। लड़की पक्ष की ओर से आये हुए, सभी सगे सम्बन्धी, वर तथा कन्या, दोनों को आर्शिवाद देते हैं। प्रीति-भोज दिये जाते है। और यह क्रम महीनों तक चलता है। गांव का प्रत्येक आदमी हर रोज़ अपनी ओर से अलग अलग भोज देता है। जी भर के मदिरा के प्याले उड़ाये जाते हैं। नाच रंग, तथा बाजे गाजे की सभाएं गरम रहती हैं। और यह अनुमान लगाना बड़ा कठिन हो जाता है कि वास्तव में विवाह किस के घर हो रहा है। जब महीनों तक चलने वाली दावतें समाप्त हो जाती हैं, तो लड़का अपनी ओर से अपनी सास को कुछ नक़द रुपया देकर लड़की पक्ष के लोगों को विदा करता है। यह रुपया जो लड़की की माँ को दिया जाता है, इसे माता के दूध का मूल्य समझ कर ही दिया जाता है।

मृत्यु आदि संस्कार भी भोटिया लोगों के बड़े सरल हैं। मृतक जनों के श्राद्ध आदि कर्म करने की रीति सरल होने के साथ साथ बड़ी अनोखी भी है। श्राद्ध के दिनों में ये लोग अधिक झंझट के कार्यो में नहीं पड़ते, अपितु जिस तिथि को भी मृतक का दाह संस्कार किया गया हो, उसी तिथि को किसी तालाब या झरने के किनारे पर जाकर ये लोग एक पौधा बो देते हैं तथा उसमें दस दिन तक प्रति दिन जा कर पानी दिया करते हैं। भोटिया लोगों में भगवान शिव तथा भगवान शेष नाग की पूजा का बहुत प्रचार है। समस्त शुभ अवसरों पर इन ही की पूजा करना ये लोग अपना धर्म समझते हैं। कोई नियत पाठ तथा शास्त्रों के श्लोक आदि तो इन लोगों को आते नहीं, परन्तु फिर भी अपने मतानुसार, धूप, दीप, तथा पुष्पादि से ये श्रद्धा पूर्वक उनकी पूजा करते हैं। तिब्बत, जो कि एक प्रकार से बौद्ध धर्म का केन्द्र समझा जाता है, इन लोगों के अत्यन्त समीप होने पर भी अपना धार्मिक प्रभाव इन लोगों के जीवन पर नहीं डाल सका। इससे यह स्पष्ट होता है कि ये लोग
अपने धर्म में कितनी दृढ़ श्रद्धा रखते हैं, तथा किसी मूल्य पर भी उसका परित्याग करना नहीं चाहते।

भोटिया जनजाति के चरित्र की विशेष बात यह है कि ये लोग दूसरे के धन को सदा मिट्टी के समान समझते हैं। यहां तक कि इस प्रदेश में लोगों को कभी मकानों पर ताले लगाते नहीं देखा गया। और अधिक लोग तो इस प्रदेश में ऐसे मिलेंगे जो ताले के नाम, तथा उपयोग आदि से अभी तक अनभिज्ञ हैं। कोई चीज़, चाहे वह कितनी भी मूल्यवान क्‍यों न हो, ओर वह चाहे कहीं भी क्यों न पड़ी हो, कोई आदमी उसे हाथ तक न लगायेगा। वैसे भी ये लोग अधिकतर कपड़े के बने हुये तम्बुओं में रहते हैं। जहां हर प्रकार की चीज़ें खुली ही पड़ी रहती हैं, पर कोई किसी की चीज़ को हाथ तक नहीं लगाता।

भोटिया जनजाति के लोगों के प्रत्येक ग्राम में प्रायः चौपालें भी पाई जाती हैं, जिन्हें ये लोग अपनी भोटिया भाषा में ‘रांग वाग कुडी’ कहते हैं। इस “रांग बाग कुड़ी’ का इन भोटिया लोगों के जीवन में एक बहुत बड़ा स्थान है। इसके बिना इनका सारा जीवन बिल्कुल शून्य सा ही प्रतीत होता है। संध्या समय गांव भर के युवक तथा युवतियां यहां एकत्रित होते हैं, तथा उनके बीच किसी भी प्रकार की शर्म या झिझक नहीं पाई जाती। कुवांरी लड़कियां तथा लड़के अपने विवाह आदि के लिये अपने जीवन साथियों का चुनाव स्वयं ही इस “रांग बाग कुड़ी’ के मिलन समय कर लेते हैं।

‘रांग बाग कुड़ी’ एक प्रकार से इन भोटिया लोगों के मनोरंजन का भी एक मुख्य स्थान है। संध्या समय एक ओर आग जलाकर रख दी जाती है, तथा दूसरी ओर सभी लड़के तथा लड़कियां पास पास हा एक साथ मिल कर बैठ जाते हैं। फिर एक लड़का तथा एक लड़की उठती है, तथा ढोलक की ताल पड़ते ही उनका नृत्य प्रारम्भ होता है। इसी प्रकार बारी बारी एक एक जोड़ा उठ कर नृत्य करता है। इस समय मदिरा तथा तम्बाकू का जी भर कर पान किया जाता है। यह इनका दैनिक क्रम है, जिसे ये लोग “रांग बाग कुडी” के नियत स्थान पर प्रति दिन प्रस्तुत करते हैं। जब कोई युवक-महमान इनके यहां आता है, तो उसे भी ‘राँग बाग कुडी’ में ही ठहराया जाना शुभ समझा जाता है। अन्यथा महमान को यदि कहीं ओर ठहरा दिया जाये, तो इसमें वह अपना अपमान समझता है। परिवार के बीच अपने महमानों को ठहराना यह लोग ठीक नहीं विचारते।

“तुबेरा’, ‘बाज्यू तथा ‘तिमली” यह तीन प्रकार के गायन ही इन लोगों के बीच प्रचलित हैं। तुबेरा राग उत्तर प्रदेश के ग्रामों में सुनाई पड़ने वाले “रसिया” गानों की तरह श्रृंगार रस से परिपूर्ण होते हैं। वैसे ये गीत भोटिया भाषा में होने के कारण साधारण लोगों की समझ में नहीं आते। किन्तु यदि उनको समझना ही आ जाये, तो बड़ी लज्जा आने लगती है। क्योंकि इन गीतों को पंक्तियां इतनी नग्न तथा खुली भाषा में बांधी गई होती है, कि स्त्रियां तो मारे लज्जा के सिकुडी जाती हैं। बाज्यू गीतों में वीर रस की कथाएं पाई जाती हैं, जैसे आल्हा ऊदल आदि और तिमली राग साधारण सामाजिक तथा प्रकृति के विषयों पर कहे गये गीत हैं।

मेहमान की सेवा करने में यहां के लोग अपना बड़ा सौभाग्य समझते हैं। उसे किसी प्रकार का कष्ट न होने पाये, बस यही इनकी कामना रहती है। जो भी अतिथि इन के यहां जाता है वह इनकी सेवा सदा स्मरण रखता है। निस्संदेह ये लोग कई कारणों से आज के युग से बहुत पीछे रहे हुये प्रतीत होते हैं, परन्तु आज स्वतन्त्र भारत की सरकार ने इस ओर भी दृष्टिपात किया है, आशा है कि अब इन्हें पीछे ही नहीं पड़े रहना पड़ेगा, अपितु वह दिन अब निकट आ पहुंचे हैं, जब ये लोग आज के युग की चाल के साथ आ मिलेंगे।

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Naeem Ahmad

CEO & founder alvi travels agency tour organiser planners and consultant and Indian Hindi blogger

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