भीमाबाई महान देशभक्ता और वीरह्रदया थी। सन् 1857 के लगभग उन्होने अंग्रेजो से युद्ध करके अद्भुत वीरता और साहस का प्रदर्शन किया था। उनकी देशभक्ति और वीरता ने उन्हे अमर बना दिया। भीमाबाई दूसरी लक्ष्मीबाई थी। यद्यपि उनकी वीरता की कहानी बहुत लंबी नही है। पर जोभी है, उसमे वीरता और साहस की अद्भुत गाथा है। जिसने उन्हे लक्ष्मीबाई जैसी भारतीय वीरांगनाओ की पंक्ति में बिठा दिया। अपने इस लेख में हम भारत की इसी विरांगना भीमाबाई की जीवनी, भीमाबाई का जीवन परिचय और भीमाबाई की वीरता की कहानी को विस्तार से जानेगें।
भीमाबाई का बचपन
भीमाबाई का जन्म सन् 1835 के लगभग होल्कर राज्य में हुआ था। वहह होल्कर राज्य के नृपति की पुत्री थी। उनके पिता का नाम जसवंत और माता का नाम केसरी बाई था। भीमा बाई के माता पिता दोनो शूरवीर थे। उन्हें वीरता अपने पूर्वजो से ही प्राप्त हुई थी।
भीमा बाई बचपन से ही वीरता के चित्र बनाया करती थी। उन्हें गुडिया गुड्डो के साथ खेलने की अपेक्षा शस्त्रो से खेलना बहुत पसंद था। बचपन से ही वह धनुष पर बाण रखकर निशाना ललगाया करती थी।
यह बच्ची जैसे जैसे उम्र की सीढियो पर चढने लगी वैसे वैसे उसकी वीरता का भी विकास होने लगा। बडी होने पर वह सेनिको के वेश में घोडो की सवारी करती थी। उन्होने नियमानुसार तलवार चलाने की शिक्षा प्राप्त की थी। वे जब सैनिक के वेश में घोडे पर सवार होती थी तो बिल्कुल चंडी के समान लगती थी।
भीमाबाई की शिक्षा दीक्षा
भीमा बाई का मन पढने लिखने में बिल्कुल भी नही लगता था। फिर भी उन्हे मराठी भाषा का अच्छा ज्ञान था। वह मराठी में रामायण और महाभारत जैसे ग्रंथ पढा करती थी। उन्हे“गीता”सर्वाधिक प्रिय थी। वे कहा करती थी– “गीता के अनुसार मनुष्य की आत्मा अमर है। अत: मनुष्य को भयभीत न होकर निरंतर अपने कर्तव्यो का पालन करते रहना चाहिए।
भीमाबाई होल्कर का काल्पनिक चित्रभीमाबाई का विवाह
भीमा बाई जब विवाह के योग्य हुई तो उनके पिता ने उनका विवाह एक वीर और सुयोग्य राजकुमार के साथ कर दिया। परंतु भीमा बाई के भाग्य में अधिक दिनो तक पति का सुख नही लिखा था। विवाह के कुछ वर्ष पश्चात ही उनके पति का देहांत हो गया।
पति के देहात के बाद भीमा बाई अपने पिता के पास चली आई। वे फिर लौटकर ससुराल के घर वापस नही गई। आजीवन अपने पिता के घर ही रही। माता पिता की मृत्यु के बाद उन्होने अपने भाई मल्हार राव के साथ रहकर अपना जीवन व्यतीत किया। मल्हार राव भी अपनी बडी बहन का बडा आदर करता था। वह राजा होने पर भी सारा काम काज अपनी बडी बहन की सलाह के अनुसार ही किया करता था।
अंग्रेजो की होल्कर राज्य पर नजर
उन दिनो अंग्रेज सारे देश पर अपना पंजा जमाने में लगे हुए थे। वे देशी रियासतो को धीरे धीरे हडपते जा रहे थे। वे देशी राजाओ को आपस में लडा देते थे। एक की सहायता करते तथा दूसरे के साथ युद्ध करके उसे हरा देते थे। तथा दोनो राज्यो को अपनी हुकुमत में मिला लेते थे। इस तरह अंग्रेज बडी चालाकी से अपने सम्राज्य का विस्तार करते जा रहे थे।
सारे देश की तरह मध्य भारत की रियासतो को भी अंग्रेज हडपते जा रहे थे। वे शीघ्र ही होल्कर राज्य को भी हडपना चाहते थे। क्योकि मध्य भारत के राज्यो में होल्कर राज्य का काफी महत्वपूर्ण स्थान था
परंतु वीर जसवंत के सामने अंग्रेजो की एक नही चल पाती थी। जब तक राजा जसवंत जीवित रहे, होल्कर राज्य की ओर देखने का अंग्रेजो ने साहस नही किया। लेकिन जब से राजा जसवंत की मृत्यु हो गई और होल्कर राज्य के शासन की बागडोर मल्हार राव ने अपने हाथ में ली, तो अंग्रेज धीरे धीरे होल्कर राज्य की ओर बढने लगे। उन्होने सोचा कि मल्हार राव अभी कच्ची उम्र का है। और उसके पास अनुभव भी नही है। अत: उसे आसानी से अपनी मुठ्ठी में किया जा सकता है।
अंग्रेज राज काज में बाधा डालने लगे। मल्हार रावभी यह समझ रहा था कि अंग्रेज उसके राज्य को हडपना चाहते है।
मल्हार राव ने अपनी बडी बहन भीमाबाई से सलाह की। भीमाबाई भी अंग्रेजो के षड्यंत्र को देख रही थी। उन्होने कहा — अंग्रेजो की गति को रोकने के लिए उनके साथ युद्ध करना ही होगा। उन्हे हमारे राज काज में बाधा डालने का कोई अधिकार नही।
भीमाबाई की वीरता की कहानी
भाई बहन दोनो ने आपस में सलाह करके युद्ध का निश्चय कर लिया। दोनो बडे उत्साह के साथ युद्ध की तैयारियां करने लगे। भीमा बाई प्रतिदिन घोडे पर सवार होकर गांव में निकल जाती थी। और अपनी ओजस्वी वाणी से जनता को जागृत करती थी। जिसके परिणाम स्वरूप हजारो युवक होल्कर की सेना में भर्ती हो गए। देखते ही देखते होल्कर राज्य की एक बहुत बडी और संगठित सेना तैयार हो गई। मल्हार राव ने युद्ध की घोषणा कर दी। मल्हार राव अपनी बडी बहन भीमा बाई के साथ सेना लेकर मुहीदपुर जा पहुंचा। उसकी सेना में दस हजार पैदल सैनिक, पंद्रह हजार घुडसवार और आग उगलने वाली सौ तोपे थी। घुडसवारो की कमान भीमा बाई के हाथो में थी।
उधर अंग्रेज सेनापति हिसलिप पहले से ही युद्ध के लिए तैयार था। जब उसके कानो में मल्हार राव के युद्ध की घोषणा पडी तो वह भी अपनी सेना लेकर मुहीदपुर जा पहुंचा। हिसलिप बडा शूरवीर और अनुभवी सेनापति था। उसकी सेना में हिन्दुस्तानी और गोरे दोनो थे।
कितने दुर्भाग्य की बात है कि भारतीय सिपाही ही चंद रूपयो की खातिर भारत मां के पैरो में गुलामी की जंजीरे डाल रहे थे। मुसलमान शासको और अंग्रेजो दोनो ने भारत में शासन अपने बलल पर नही, बल्कि उन हिन्दुस्तानियो के बल पर किया था। जिन्होने चंद रूपयो और पद के मोह में फंसकर अपने प्राणो को भी विदेशियो के हाथो बेच दिया था
अंग्रेज फौज के घुडसवारो की कमान हंट के हाथो में थी। हंट अंग्रेज सेना का एक सहासी कैप्टन था। वह औसत दर्जे के कद का दुबला पतला आदमी था। उसकी वीरता के किस्से दूर दूर तक फैले हुए थे। उसे अपनी रणविद्या पर बडा गर्व था। वह भीमाबाई से युद्ध करना ननही चाहता था। उसे एक स्त्री के साथ युद्ध करना अपनी वीरता का अपमान लगता था। वह सोचता था कि वह स्त्री कैसी होगी जो घोडे पर सवार होकर हाथ में तलववार लेकर युद्ध करती है। वह उसे देखना चाहता था। हंट अपने घुडसवारो की फौज लेकर रण के मैदान में आ पहुंचा।
हंट रण के मैदान में भीमा बाई की प्रतिक्षा करने लगा। वह अपनी ओर से सजग नही था, क्योकि उसे अपननी युद्ध कला परर पूरा भरोसा था। ववह गर्व केए साथ सोचता था कि एक नारी जो अपनी कोमल कलाइयो में कांच की चूडियां पहनती है। वह क्या युद्ध करेगी? वह क्या तलवार चलाएगी?
तभी हंट को आकाश परर उडती हुई धूल दिखाई पडी। धीरे धीरे धूल घनतर हो गई और करीब आती गई। हंट समझ गया यह धूलल भीमा बाई के घोडो की टापो से उठी हुई धूल है। वह उत्कंठित होकर उसी ओर देखने लगा।
जिस प्रकार बादलो में बिजली चमकती है। उसी प्रकार उस धूल के बीच से निकलती हुई भीमा बाई दिखाई पडी। वह घोडे पर सवार नीचे से लेकर उपर तक सैननिक वेश में थी। उनका गौरवर्ण था, उनके लाल लाल अधर थे, उनकी बादाम के समान बडी बडी आंखे थी, जो बडी तेजस्वनी थी।
हंट ने अपने जीवन में ऐसी नारी कभी नही देखी थी। वह विस्मित होकर भीमाबाई की ओर देखने लगा। पर भीमा बाई ने उसके पास पहुंचकर बिजली की तरह कडकते हुए कहा — ऐ फिरंगी” क्या देख रहे हो? युद्ध करो।
भीमा बाई ने कथन समाप्त कररते करतेए तलवार हंट के ऊपरर चला दी। हंट ने पैतरा बदलकर अपने को बचा लिया।
हंट ने जब भीमा बाई के रौद्र रूप को देएखा तो उसने अपनी फौज को आदेश दिया — चलो आगे बढो
घोडे हिनहिना उठे तथा हिनहिनाते हुए एक दूसरे पर चढने लगे। घुडसवारो का रोमांचकारी युद्ध होने लगा। हंट और भीमा बाआई एक दूसरे पर वार करने लगे। हंट भीमा बाई के हाथो से तलवार गिरा देना चाहता था। पर भीमा बाई ने उसके कंधे पर ऐसा वार किया की खून की धारा निकल पडी। हंट गिरते गिरते बचा वह काफी घायल हो गया था।
भीमा बाई गंभीर वाणी में बोल उठी — ऐ फिरंगी” हम घायल शत्रु पर वार नही करते। जाओ। अपनी चिकित्सा कराओ।
तभी हिसलिप की संगठित सेना रण के मैदान में पहुंच गई। मल्हार राव का हाथी उसे लेकर भाग खडा हुआ। भीमाबाई ने जब देखा की उनकी हार निश्चित है तो वह घोडे पर भागती हुई एक गांव पहुंची और अपने परिचित एक किसान के घर में विश्राम करने लगी। उधर मल्हार राव अंग्रेजो के साथ संधि करने को विवश हो गया। मंदसौर में अंग्रेजो और मल्हार राव के बीच संधि हुई। संधि में निश्चय हुआ मल्हार राव राजधानी रामपुरा को छोडकर इंदौर गांव में रहेंगे। अंग्रेज सरकार उन्हे वार्षिक पेंशन देगी। वार्षिक पेंशन के अतिरिक्त उनका राज काज से कोई संबध नही रहेगा। इंदौर में भी अंग्रेज फौज की छावनी रहेगी।
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मल्हार राव ने संधि की सूचना अपनी बहन भीमा बाई को दी। दूत ने जब भीमा बाई के पास पहुंचकर संधि की शर्ते उन्हे सुनाई तो वह क्रोधित हो उठी और कहा– मुझे ये शर्ते मंजूर नही है। मै अपने देश की स्वतंत्रता के लिए अंतिम सांस तक युद्ध करूंगी।
भीमा बाई अपने घुडसवारो को लेकर फिर रण के मैदान में जा पहुंची। हंट उनके सामने उपस्थित हुआ
भीमा बाई ने उसे देखते ही कहा– घाव अच्छा हो गया फिरंगी।
और भीमाबाई ने हंट पर तलवार चला दी। हंट ने भी तलवार का जवाब तलवार से दिया। दोनो में युद्ध होने लगा। दोनो एक दूसरे पर वार करने लगे। हंट इस बार बडी सतरकताआ और सजगता से लड रहा था। इधर पराजय ने भीमा बाई के हौसलो को पस्त कर दिया था। वे लड अवश्य रही थी। पर इस बार उनके हाथो में पहले जैसी तेजी नही थी।
हंट ने भभीमा बाई पर कसकर वार किया। उन्होने उसके वार को अपनी तलवार पर लिया। वे स्वंय तो बच गई पर तलवार हाथ से छूटकर दूर जा गिरी।
हंट बोला– रानी साहिबा। आप शूरवीर है। आपकी वीरता के लिए मेरे ह्रदय में श्रद्धा है। आप निहत्थी है। मै आप पर वार नही करूगां। कहिए तो तलवार उठाकर आपके हाथ में दे दूं।
भीमा बाई ने उत्तर दिया– धन्यवाद। मै शत्रु की दी हुई तलवार से युद्ध नही करती।
हंट ने कहा– रानी साहिबा। मैने सुना था कि भारतीय नारिया रण में युद्ध करती है। आज में अपनी आंखो से देख रहा हूं। आपकी वीरता ने मेरे मन को मोह लिया है। कहिए में आपकी क्या सैवा कर सकता हूं।
भीमाबाई ने उत्तर दिया– आप भारतीयो को आपस में लडाकर आपना राज्य स्थापित कर रहे है। आप चालाकी से भारतीयो को गुलाम बना रहे है। आप मेरी क्या सेवा करेगें।
हंट बोल उठा — जो हो। पर मैं सचमुच आपकी सेवा करने के लिए तैयार हुं। कुछ कहकर तो देखिए।
भीमा बाई ने सोचते हुए उत्तर दिया– अच्छी बात है। तो फिर वचन दीजिए कि इंदौर में अंग्रेज फौज की छावनी स्थापित नही होगी।
हंट के लिए यह ववचन देना बहुत कठिन था। यह उसके अधिकार से बाहर का काम था। फिर भी उसने कहा– रानी साहिबा। मैं वचनन तो नही दे सकता प्रयत्न अवश्य करूगां।
हंट ने सेनापति हिसलिप से कहा– भीमाबाई की इच्छानुसार इंंदौर में फौज की छावनी न बनाई जाए। यह बात हिसलिप के भी अधिकार से बाहर थी। उसने हंट को आश्वासन दिया की वह पॉलिटिकल एजेंट को लिखेगा।
हिसलिप ने जब अपनी सिफारिश के साथ पॉलिटिकल ऐजेंट को लिखा तो उसने उसकी बात मान ली। अंग्रेजी फौज के लिए छावनी इंदौर में ननही महू में बनाई गई।
भीमाबाई युद्ध में पराजित अवश्य हो गई। पर उन्होने छावनी इदौर में नही बनने दी। आज वह हमारे बीच नही है लेकिन उनकी कुर्बानी को आज भी भारत के लोग अपनी यादो में बसाए हुए है।