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भरतपुर राज्य

भरतपुर राज्य का इतिहास – History of Bhartpur state

भरतपुर राज्य के महाराजा जाट वंश के हैं। जाट वंश की उत्पत्ति के लिये भिन्न भिन्न विद्वानों की भिन्न भिन्‍न राय है। कुछ पाश्चात विद्वानों ने इनकी उत्पत्ति इन्डो सीथियन्स से बतलाई है और लिखा है कि कई विदेशी जातियों की तरह जाट भी मध्य एशिया से आकर हिन्दुस्तान में बस गये और धीरे धीरे हिन्दु जाति ने इन्हें अपने में मिला लिया। पर आधुनिक ऐतिहासिक अन्वेषणों ने उक्त मत को भ्रम पूर्ण सिद्ध कर दिया है। सुप्रख्यात्‌ डॉक्टर ट्रम्प और बीम्स ने इनकी उत्पत्ति विशुद्ध आर्यवंश से मानी है ( Memoirs of the races of North Western provinces of India ) सर ह॒र्बट रिसली ले अपने ( people of India) नामक ग्रंथ में ऐेतिहासिक ओर भौतिक प्रमाणों के आधार पर जाटों को विशुद्ध आर्य जाति के सिद्ध करने की सफल चेष्टा की है। महामति कर्नल टॉड साहब ने शिलालेखों के आधार पर यह प्रगट किया है कि इसवी सन्‌ 409 मेंभारत में जाट जाति के राज्यवंश का अस्तित्व था। महाभारत में जत्रि नामक लोगों का वर्णन है। सर जेम्स केम्बेल और प्रियर्सन उक्त लोगों को जाट ही ख्याल करते हैं। और भी कितने ही विख्यात विद्वानों ने जाटों को विशुद्ध आर्य वंश के स्वीकार किये हैं। अरब इतिहासकारों तथा भूगोलवेत्ताओं ने भारतीय ऐतिहासिक युग के प्रारम्भिक काल में जाटों को भारत में बसते हुए पाया है ( Elliots history of India)। यहाँ यह बात ध्यान में रखने योग्य है कि भारत में अरब लोगों का सब से प्रथम सम्बन्ध जाटों ही से पडा था और वे सारे हिन्दुओं को जाट ही के नाम से सम्बोधित करते थे। कई फारसी तवारीखों में भी जाट जाति के विस्तार का ओर उसके वीरत्व का उल्लेख किया गया है। कहने का मतलब यह है कि जाट आर्यवंश के हैं और प्राचीनकाल में उनकी भारत में बस्ती होने के ऐतिहासिक उल्लेख मिलते हैं। यह भी पता चलता है कि उस समय ये क्षत्रियों की तरह उच्च वंशीय माने जाते थे। पर सामाजिक मामलों में अधिक उदार होने के कारण ये ब्राह्मणों की आखों में खटकने लगे और उन्होंने इनका जातीय पद नीचे गिराने का यत्न किया। अब हम जाट जाति के प्राचीन इतिहास पर अधिक न लिखकर औरंगजेब के समय के जाटों की स्थिति पर ही कुछ प्रकाश डालना चाहते हैं क्योंकि वहीं से भरतपुर राज्य की उत्पत्ति का प्रारंभ है।

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ओरंगजेब के समय में जाट

पाठक जानते हैं. कि दुर्दान्त मुगल सम्राट औरंगजेब ने संसार को प्रकाशित करने वाली आर्य सभ्यता और आर्य संस्कृति के नाश पर कमर बाँधी थी। उसने सारे भारत को इस्लाम धर्म में दीक्षित कर हिन्दू जाति और हिन्दू धर्म का नामो निशान मिटा देने के लिये दृढ़ संकल्प कर लिया था। हिन्दू मंदिरों को नष्ट-भ्रष्ट करना हिन्दुओं के पवित्र ग्रन्थों को जला भुनाकर खाक करना उसका दूसरा स्वभाव सा पड़ गया था। हिंदुओं पर उसने जिजिया कर बैठाया। शाही हुक्म से उसने मूर्तियाँ तुड़वाई। भव्य मंदिरों के स्थान पर उसने मस्जिदें बनवाई। उसने हिंदुओं को सरकारी नौकरियों से हटा दिया। उसने एक फरमान निकाल कर अपने माल विभाग ( Revenue Department ) से सारे हिन्दूओं को बर्खास्त कर दिया। हिन्दू धार्मिक मेलों को उसने कतई रोक दिया। हिंदुओं को अपने त्योहार मनाने से मना कर दिया। मुसलमानों के लिये उसने सायर महसूल कतई माफ फर दिया और हिन्दुओं पर और भी अधिक बढ़ा दिया। वह इतने ही से सन्तुष्ट न हुआ। उसने इस्लाम धर्म स्वीकार करने से इन्कार करने वाले बहुत से हिन्दुओं को तलवार के घाट उतार दिया। कितनों ही को हाथी के पैरों के नीचे कुचलवा दिया। कितनों ही की आखें निकलवा लीं। मतलब यह कि इस समय चारों ओर से हिन्दुओं पर अत्याचार और जुर्मों का दौर दौरा होने लगा। हाहाकार मच गया। इसका वही परिणाम हुआ जो होना चाहिये था। इसका वर्णन आगे चलकर पाठकों को मिलेगा।

भारत में राष्ट्रीयता का उदय

एक दृष्टि से उक्त अत्याचारों के द्वारा औरंगजेब ने हिन्दू जाति पर
बड़ा उपकार किया। वह सदियों से सोई हुई थी। सम्राट अकबर की कुशल नीति ने उस नींद को और भी गहरी कर दी थी। औरंगजेब ने इस विशाल कायर जाति को जगा दिया। उसमें नवजीवन ओर स्फूर्ति पैदा करने का वही कारण हुआ। इस अत्याचारों के खिलाफ महाराष्ट्र में एक नवीन शक्ति का उदय हुआ । उसने सारे भारत को अलोकित कर दिया। सारे महाराष्ट्र में नवजीवन की जाज्वल्यमान प्रकाश किरणें दिखने लगीं। उधर पंजाब में शांति प्रिय सिक्ख धर्मवीर धर्म में परिवर्तित हो गया। गुरु गोविंद सिंह की अधीनता में सिक्खों ने औरंगजेब के खिलाफ तलवार उठवाई। उन्होंने निश्चय किया कि उसे (औरंगजेब) जैसा का तैसा जवाब दिया जाये। धर्मोन्माद का मुकाबला धर्मोन्माद से किया जावे। इसी भावना को लेकर पंजाब में शांति प्रिय सिक्ख लोग एक प्रबल सैनिक और विशिष्ट जाति के रूप में परिवर्तित हो गये। उधर राजपूत जाति की भी आँखें खुलीं क्योंकि उसने भी देखा कि औरंगजेब उन पर अपने क्रूर हाथ साफ करना चाहता हैं और महाराजा जसवन्त सिंह जी की रानी और नाबालिग पुत्र को कैद करने का प्रयत्न कर उसने इस बात का प्रमाण दे दिया है। इसी प्रकार वीभत्स अत्याचारों से तंग आकर भारतकी बहादुर जाट जाति ने भी मुगल सम्राट के खिलाफ विद्रोह का झंण्डा
उठाया। मथुरा और आगरा के जाट किसान उक्त अत्याचारी सम्राट के कारण बेतरह तंग और परेशान हो गये थे। उन्हें उसके जुल्मों का बुरी तरह शिकार होना पड़ा था। उनकी औरते और बचे उठाये जाने लगे थे। अनेक ललनाओं को मुसलमानों की काम वासना का शिकार होना पड़ा था। मथुरा का सूबेदार मुर्शिदकुली खाँ गांवों पर हमला कर सुन्दर ललनाओं को ले जाय करता था। दूसरी घृणित प्रथा यह थी कि जब कोई हिन्दू मेला लगता था तो यह मनुष्य-रूप-धारी राक्षस हिन्दु का वेष पहन कर मेले में घुमता और ज्योंहि इसे चन्द्रमुखी सुन्दर हिन्दू रमणी दिखलाई दी कि वह उस पर रपट कर उसे उड़ा ले जाता था और पास ही यमुना नदी में नाव पर बैठकर आगरा भाग जाता था।

भरतपुर राज्य
भरतपुर राज्य

इसके थोड़े ही दिनों के बाद औरंगजेब ने अकुलनबी नामक एक
मुसलमान को मथुरा का शासक नियुक्त किया। इसने हिन्दुओं के मन्दिर नष्ट भ्रष्ट करना शुरू किया। उसने अपने मालिक औरंगजेब की तरह हिन्दुओं की मूर्तियों का नामो निशान मिटाने का निश्चय कर लिया। धर्म-प्राण जाट लोगों ने इसका मुकाबला किया। ईसवी सन्‌ 1666 में दोनों की लड़ाई हो गई। इस समय जाटों का नेता गोकल था। इसने सादाबाद का परगना लूट लिया। इसके बाद औरंगजेब ने ओर उसके हसनअली खां सेनापति सेना-नायकों ने जाटों पर चढ़ाई करने के लिये एक अति प्रबल सेना के साथ कूच किया। हसन अली खाँ ने जाटों के तीन गांवों पर जोर के हमले किये। जाटों ने अद्भुत पराक्रम और वीरत्व के साथ शत्रु सेना का प्रतीकार किया। अल्प संख्यक वीर जाटों के मुकाबले में शत्रु सेना असंख्य थी। जब जाटों ने लड़ते लड़ते धैर्य और वीरत्व की पराकाष्ठा कर दी। जब उन्हें विजय की आशा न रही तब उन्होंने अपने स्त्री बच्चों को मारकर मुगलों पर जोर का हमला कर दिया। उन्होंने 4000 मुगलों को तलवार के घाट उतार दिया। पर आख़िर में विशाल मुगल सेना के सामने इन्हें विजयश्री प्राप्त न हुई। जाट नेता गोकल पकड़ा गया। औरंगजेब ने इसे जिस क्रूरता के साथ मरवाया उसे देखकर राक्षस भी सहम जावे। आगरा के पुलिस ऑफिस के प्लेटफार्म पर उसकी हड्डियों पसलियाँ एक एक करके तोड़ी गई। उसकी बोटी बोटी कर दी गई। क्रूरता और अमानुषिकता की हद हो गई। पर वीरवर गोकल का यह खून व्यर्थ न गया। उसने वीर जाटों के हृदय में स्वाधीनता के सुमधुर बीज का रोपण कर दिया। इस बलिदान ने जाट जाति के दिल में अनुपम साहस और स्वाथत्याग के सह्लगुणों का अपूर्व विकास कर दिया। उसमें जागृति के प्रकाश-चिन्ह चमकने लगे।

राजाराम

गोकल की मृत्यु के पन्द्रह वर्ष बाद एक अधिक शक्तिशाली और
योग्य जाट नेता का उदय हुआ। इसका नाम राजाराम था। इसने जाटों की बिखरी हुई सेना को सुसंगठित किया। सेना में नियम- बद्धता का तत्व प्रयुक्त किया। उसे अच्छे और नये शस्त्रो से सुसज्जित किया। धीरे धीरे उसने अपनी ताकत अच्छी बड़ा ली। इसका परिमाण यह हुआ कि उसने आगरा जिले में मुगल हुकूमत का एक तरह से अन्त कर दिया। उसने मुगल सलतनत के कई गांव लूट लिये। आगरे के मुगल गवर्नर शफ़ीखां पर उसने घेरा डालकर बहुत तंग किया। धोलपुर के पास उसने सुविख्यात्‌ तुराणी वीर अगरखाँ के मुकाम पर अकस्मात हमला कर उसकी गाड़ियां घोड़े और सैनिक तथा सामान लूट लिया। खाँ ने हमला करने वालों का पीछा किया, जिसमें वह अपने अस्सी साथियों के साथ मारा गया।

ईसवी सन्‌ 1687

इसके बाद औरंगजेब ने बिदारबख्त को राजाराम के खिलाफ भेजा। पर उसके अपने लक्ष्य स्थल पर पहुँचने के पहले ही राजाराम ने बहुत उधम मचा दिया। इसवी सन्‌ 1688 के आरंभ में हैदराबाद का मीर इब्राहीम ( महावत खाँ ) सम्राट के प्रतिनिधि की हैसियत से पंजाब जा रहा था। जमुना किनारे सिकन्द्रा के पास उसने अपना मुकाम किया। राजाराम ने वहां पर हमला कर दिया। बड़ी भीषण लड़ाई हुई। इसमें राजाराम को कामयाबी नहीं हुई। इसके बाद उसने अकबर के मकबरा को लूटकर वहां का बहुत सा कीमती सामान लूट लिया। इमारत को भी हानि पहुँचाई । ईसवी सन्‌ 1688 की 4 जुलाई को शेखावतों ओर चौहानों की एक लड़ाई में हिस्सा लेते हुए राजाराम मारा गया।

भज्जा सिंह

राजाराम के मारे जाने के बाद उसके बुढ़े पिता भज्जा सिंह ने जाटों का नेतृत्व स्वीकार किया। इसी समय मुगल सम्राट ने जाटों को नेस्त नाबूद करने के लिये आंबेर के नये राजा बिशनसिंह कच्छवा को नियुक्त किया। बिशनसिंह ने मुगल सम्राट से जाटों का प्रख्यात्‌ सिनसानी किला नष्ट भ्रष्ट करने की लिखित प्रतिज्ञा की थी। राजा बिशनसिंह की हार्दिक अभिलाषा यह थी कि वे अपने दादा मिर्जा राजा जयसिंह की तरह मुगल सम्राट द्वारा सम्मानित हों और उन्हें भी ऊँचे दर्जे के मनसब का सम्मान प्राप्त हो। कहना न होगा कि राजा बिशनसिंह को जाटों के देश पर हमला करने में अकथनीय कठिनाइयों का सामना करना पडा। जाटों ने उन्हें बहुत तंग किया। कई तरह से जाट सेना मुगल सेना पर रात में आक्रमण करने लगी। समुचित खाद्य सामग्री न मिलने के कारण मुगल सेना को बड़ा कष्ट सहना पड़ा। क्योंकि जाटों ने मुगलों के लिये खाद्य सामग्री आने के मार्ग में बड़ी बड़ी बाधाएं उपस्थित कर दी थीं। पर राजा बिशनसिंह हिम्मत न हारे। वे बड़ी दृढ़ता से आपने उद्देश्य को पूरा करने में लगे रहे। कोई चार मास के अर्से में वे बढ़ते बढ़ते किले के पास पहुंच गए। वहां उन्होंने अपनी खाईयां खोद ली। तोपें चढ़ गई तथा सुरंगें लगा दी गई। आसपास का जंगल साफ कर दिया गया। मुगल सेना ने दरवाजे के पास सुरंग को लगाया। पर जाटों ने उसके मार्ग को पत्थरों से बंद कर दिया था, इससे किले की हानि नहीं हुई। बहुत से मुगल सैनिक वह अफसर जलकर खाक हो गये। इस पर फिर दूसरी सुरंग लगाई गई। इस किले की दीवार टूट गई और उस पर के जाट लोग बारूद से उड़ गए। तीन घंटे के बाद मुगलों ने उस पर जोरदार हमला कर दिया। जाटों ने बड़ी बहादुरी के साथ उसका प्रतिकार किया। एक एक इंच भूमि के लिए वे लड़े। इसमें सब मिलाकर उनके 1500 आदमी मारे गए। मुगल भी साफ न बचे। उनके भी 800 सैनिक मारे गए। पर इस समय विशाल मुगल सेना के आगे जाटों को तीतर बितर होना पड़ा। इसके दूसरे साल सन् 1691 में राजा बिशनसिंह ने बागौर के सुदृढ़ जाट किले पर हमला किया। दुर्भाग्य से इसी समय खाद्य सामग्री आने के लिए किले का दरवाजा खुला रखा गया था। इससे आक्रमणकारी उसमें बड़ी आसानी से घुस गये। और उन्होंने वहां बड़े अमानुषिक क्रूरता के साथ बहुत से जाटों को कत्ल कर डाला। और लगभग 500 को गिरफ्तार कर लिया। कहना न होगा कि इससे जाट शक्ति को बड़ा धक्का लगा। इससे कुछ समय तक जाट लोगों ने युद्ध कार्य छोड़कर शांति प्रिय कृषि कार्य स्वीकार किया।

चूडामन जाट भरतपुर राज्य

भज्जा सिंह की मृत्यु के बाद उनका पौत्र और राजाराम के भतीजे चूडामन ने जाटों का नेतृत्व स्वीकार किया। प्रो० यदुनाथ सरकार के मतानुसार इसमें संगठन करने करने की अद्भुत प्रतिभा शक्ति थी। यह प्राप्त अवसर से लाभ उठाना खूब जानता था। इसमें जाट जाति की सुदृढ़ता और मराठा जाति की राजनीतिज्ञता थी। राजनीति में वह सरासर का विचार नहीं देखता था। किस तरह जाट जाति का प्रभुत्व बढ़े यही उसका ध्येय था। कहना न होगा कि इसने जाट शक्ति को ज्वालयमान किया। उसे ऐसा बना दिया जिससे मुगल सम्राट भी भय खाने लगे। उस समय सारे देश में इसका दबदबा था गया। इसने मुगल सेना को किस प्रकार तंग किया और वह किस प्रकार शक्ति सम्पन्न हुआ इसका वृस्तित उल्लेख हम जयपुर राज्य के इतिहास में कर चुके हैं।

जाट शक्ति का विस्तार और भरतपुर राज्य के मूल संस्थापक

ठाकुर बदन सिंह

ठाकुर बदन सिंह चूडामन जाट के भतीजे थे। ये आंबेर के सवाई
राजा जयसिंहजी के पास बतौर ( Feudatory cheif) रहे
थे। सवाई महाराजा जयसिंहजी ने इन्हें सम्राट महम्मदशाह के जमाने में चुड़ामन जाट की जमीन और उपाधियाँ प्रदान की थीं। ये बड़े सत्य और शान्ति-प्रिय थे। लुटेरे सरीखा जीवन व्यतीत करना इनके स्वभाव के विरुद्ध था। इन्होंने एक नियमबद्ध शासक की तरह राज्य किया। इन्होंने बड़े सुसंगठिन रूप से अपने राज्य का विस्तार और दृढ़ीकरण किया। ये जाट जाति की उच्छ खल प्रकृति को बदल कर उसे नियम बद्ध बनाने में बहुत कुछ सफल हुए। इन्होंने नियम बद्ध शासन का आरंभ किया। विधायक कार्यक्रम के द्वारा इन्होंने अपनी सत्ता को मजबूत किया और अपने आपको आमेर की अधीनता से स्वतन्त्र कर दिया। इनकी बढ़ती हुई ताकत को देखकर आमेर के तत्कालीन महाराजा ने 18 लाख रुपया प्रति साल आमदनी की जमीन देकर इन्हें प्रसन्न किया। सब से बड़ा और उल्लेखनीय कार्य आपने यह किया कि प्रायः सारे आगरा और मथुरा के जिलों में अपनी राज्यसत्ता स्थापित की। आपने उक्त जिलों के शक्तिशाली जाट कुटम्बों के साथ अपना विवाह सम्बन्ध प्रस्थापित किया। इससे भी आपकी राजनेतिक सत्ता को बड़ी सहायता मिली। आपकी बढ़ती हुई शक्ति को देखकर भारत के कई राजा आपको राजा के नाम से संबोधित करते थे। महाराजा सवाई जयसिंह जी ने आपको अपने इतिहास प्रसिद्ध अश्वमेध यज्ञ में निमंत्रित किया।

राजा बदन सिंह का दरबार बड़ा आलिशान था। आपकों कला कौशल का बड़ा शौक था। सौंदर्य परिक्षण की भावना आपमें बहुत जागृत थी। भव्य इमारतें बनवाने का आपको बड़ा शौक था। आपने की भव्य महल और बगीचे बनवाएं। आपने की भव्य महलों द्वारा डींग के किले को सुशोभित किया। बयाना जिले के शायर गांव के किले में आपने एक महान उद्यान बनाकर उसके मध्य में एक बड़ा ही सुन्दर सरोवर बनवाया। राजा बदन सिंह अपनी वृद्धावस्था में राजकार्य से अवसर ग्रहण कर ईश्वर भजन करने लगे। उनके वीर सुयोग्य और प्रतिभाशाली पुत्र सूरजमल जी राज्य सिंहासन देखने लगे। सन् 1756 की 7 जून को बदन सिंह का देहान्त हो गया।

राजा सूरजमल जी भरतपुर राज्य

राजा बदन सिंह की मृत्यु के बाद राजा सूरजमल जी भरतपुर राज्य के सिंहासन पर विराजे। ये महान और वीर राजनीतिज्ञ दूरदर्शी और प्रतिभा संपन्न महानुभाव थे। इनका नाम न केवल भरतपुर राज्य के इतिहास में नहीं वरन् भारत के इतिहास में अपना विशेष महत्व रखता है। ये भारत के एक ऐतिहासिक महापुरुष हैं। जिन महानुभावों ने अपने वीरत्व व चतुराई से भारत के इतिहास को बनाया है, उनमें सूरजमल जी का आसन ऊंचा है।

सूरजमल जी लम्बे चौड़े और बदन से बड़े हट्टे-कट्टे थे। श्याम रंग के होने पर भी वे बढ़े तेजस्वी दिखलाई पड़ते थे। आपको पुस्तक ज्ञान विशेष न था, पर संसार में सफलता प्रदान करने वाले व्यवहारिक ज्ञान की आप में कमी न थी। एक सुप्रख्यात्‌ इतिहास- वेत्ता लिखता हे–“राजा सूरजमल जी की राज्यनैतिक क्षमता अद्भुत थी–उनकी बुद्धि बड़ी तीव्र और बड़ी साफ थी।” एक फारसी इतिहास-वेत्ता का कथन है;–“यद्यपि राजा सूरजमल किसानों की सी पोषाक पहनते थे ओर अपनी देहाती ब्रजभाषा बोलते थे, पर वे जाट जाति के प्लेटो थे। बुद्धिमत्ता और चतुराई में माल सम्बन्धी और दीवानी मामलों की व्यवस्था करने में राजा सूरजमल जी अपना सानी न रखते थे। उनमें उत्साह था, जीवन- शक्ति थी, काम के पीछे लगने का दृढ़ आग्रह था ओर सबसे बड़ी बात यह थी कि उनका मन एक लोहे की दीवार की तरह मजबूत था, जो हार खाना जानता ही न था। कूट-नीति और षडयन्त्रों की दृष्टि में वे मुगलों और मराठों से आगे पैर रखते थे। अपने पिता राजा बदन सिंह जी की जीवितावस्था में सूरजमल जी ने सब से प्रथम जो साहस“ पूर्ण कार्य किया, वह भरतपुर के किले पर अधिकार करना था। यह घटना इसवी सन्‌ 1744 की है। इस समय यह किला मिट्टी का बना हुआ छोटा सा मकान था। राजा सूरजमल जी ने उसे एक विशाल और सुदृढ़ किले में परिणित कर दिया। कहना न होगा कि इस किले के पास भरतपुर शहर बसाया गया। सूरजमल जी का शासन न्यायपूर्ण था, अतएवं लोगों का उनकी ओर स्वाभाविक आकर्षण हुआ। अब हम राजा सूरजमल जी की कारगुजारी पर दो शब्द लिखना चाहते हैं।

राजा सूरजमल जी ओर जयपुर नरेश ईश्वरी सिंह जी

पाठक जानते हैं कि राजा बदन सिंह जी और सूरजमल जी के साथ जयपुर के महाराजा सवाई जयसिंहजी का घनिष्ट संबन्ध था । जब महाराजा सवाई जयसिंह जी का देद्दान्त हो गया तो उनके बढ़े पुत्र राजा ईश्वरीसिंह जी राज्यासीन हुए। इस पर उनके छोटे भाई माधव सिंह जी ने झगड़ा उठाया और यह दावा किया कि सवाई जयसिंह जी जी शिशोदिया वंश की रानी से उत्पन्न होने के कारण वे ही राज्य के असली हकदार हैं। कहना न होगा कि माधव सिंह जी का पक्ष और भी कई राजाओं ने लिया। इन्दौर के मल्हार राव होलकर, गंगाधर ताँतिया, मेवाड़ के महाराणा, आदि ईश्वरी सिंह पर चढ़ आये। सूरजमल जी ईश्वरीसिंह जी ही को राज्य के असली वारिस समझते थे। अतएव उन्होंने अपनी जाट सेना सहित ईश्वरीसिंह जी का पक्ष ग्रहण किया। सन्‌ 1749 में दोनों सेनाओं का बगेरू मकाम पर मुकाबला हुआ। एक ओर तो सात राजा थे और दूसरी ओर केवल राजा ईश्वरी सिंह जी और सूरजमल जी। कहने का मतलब यह कि बराबरी की जोड़ न थी। आमेर की फौज के अगले हिस्से के सेनापति सिकर के शिवसिंह जी थे। सूरजमल जी सेना के मध्य भाग को संचालित करते थे। पीछले भाग के सेनापतित्व का भार खुद राजा ईश्वरीसिंह जी ने लिया था। बड़ा घमासान युद्ध हुआ। पहले दिन कोई अंतिम निर्णय प्रकट नहीं हुआ। किसी पक्ष की हार-जीत न हुईं । दूसरे दिन जयपुर की सेना के एक सेना लायक सिकर-अधिपति मारे गये। तीसरे दिन विजयीन्मत्त शत्रुओं ने फिर जोर से हमला किया। आमेर की फोज भरी मुकाबले के लिये तैय्यार हो गई। इस दिन सेना के आगे के भाग का सेनापतित्व सूरजमल जी को दिया गया। निरन्तर घोर वर्षा होते रहने पर भी इस दिन बड़ा ही भीषण और घमसान युद्ध हुआ। इस दिन ईश्वरी सिंह जी बड़े निराश हो गये। उनकी सेना पर कई तरफ से जोर के हमले होने लगे। बड़ी कठिन परिस्थिति हो गई। ऐसे समय में राजा ईश्वरी सिंह जी ने राजा सूरजमल जी को गंगाधर तांतिया की फौज पर हमला करने के लिये कहा। सूरजमल जी ने एक क्षण की भी देरी न करते हुए गंगाधर की फौज पर अकस्मात्‌ हमला कर दिया। दो घण्टे तक बड़ा भीषण युद्ध हुआ। खून की नदियाँ बह चलीं । बूँदी के कवि सूरजमल ने अपने “वंश भास्कर में लिखा है कि सूरजमल जी ने अपने अकेले हाथों से विपक्षी दल के 50 आदमियों को मारा और 108 को घायल किया। सूरजमल जी की विजय हुई। घोर निराशा में आशा की प्रकाशमान किरणें चमकने लगीं। चौथ दिन फिर युद्ध हुआ और दो दिन तक चलता रहा इस वक्त विपक्षी दल की सेनाएँ थक गई। मराठों ने सुलह के लिये प्रस्ताव किया और माधव सिंह जी को इस वक्‍त अपने उन्हीं पांच परगनों से संतोष करना पड़ा, जो उन्हें दिये गये थे।

राजा सूरजमल भरतपुर राज्य
राजा सूरजमल भरतपुर राज्य

सूरजमल जी और मुग़ल

सम्राट अहमदशाह के जमाने में साइतखाँ, अमीर-उल उमरा, जुल-फिकर-जंग आगरा और अजमेर का शासक (Governor) नियुक्त किया गया। यह आगरा के आसपास के जाट मुल्क पर फिर से अधिकार करना चाहता था। उसने 15000 सवारों की एक अच्छी सुसज्जित सेना के साथ कूच किया। वह यथा समय राजा सूरजमल जी के राज्य के उत्तरीय हिस्से तक पहुँच गया। सूरजमल जी भी बेखबर नहीं थे। वे मुगल सेना की मति-विधि को खूब गौर से देख रहे थे। मुगल सेना के कुछ लोगों ने एक छोटे से किले के सैनिकों के साथ झगड़ा खड़ा कर दिया और उन्हें वहाँ से निकाल दिया। सादत खाँ ने इसे अपनी भारी फ़तह मान ली। उसने विजयोत्सव तक मनाना शुरु कर दिया। इसके बाद फिर वह आगे बढ़ा। सूरजमल जी अपनी सुसज्जित सेना सहित मौके पर उपस्थित हो गये। मुगल सेना बेतहाशा भागी, उसका पीछा किया गया। कहना न होगा कि बहुत सारे मुगल बुरी तरह से मारे गये। तत्कालीन एक फारसी इतिहासकार का कथन है–“जाट राजा ने अमीर-उल-उमरा को गिरफ्तार करने या मरवाने की दुष्कीर्ति प्राप्त करने की इच्छा प्राप्त न की। उसने मुगल केम्प को दो तीन दिन तक घेरे रहने में ही सन्तोष मान लिया। यह उसकी उदारता थी कि शक्ति के रहते हुए भी उसने अपने दुश्मन के साथ ऐसा अच्छा बर्ताव किया।” इसके पीछे दोनों दलों में सुलह दो गई। मुगल प्रतिनिधि को यह शर्ते स्वीकार करनी पड़ी कि वे या उनके मातहत जाट-देश में कोई पीपल का पेड़ न काटने पावे और न वे हिन्दू मन्दिरों को तोड़े’ या उनका अपमान करें। कहने की आवश्यकता नहीं कि मुगल साम्राज्य के अमीर-उल-उसमरा पर विजय प्राप्त करने से राजा सूरजमल जी का बहुत दबदबा छा गया। उनका आत्म-विश्वास बहुत बढ़ गया। इसके थोड़े ही समय बाद सूरजमल जी विजय पर विजय प्राप्त करते रहे इससे उनकी राज्य विस्तार की महत्वाकांक्षाएँ बहुत बढ़ गई। वे अपने प्राप्त राज्य ही में सन्तुष्ट नहीं थे। वे दिल्‍ली के आसपास के प्रदेशों पर भी अपनी विजय पताका उड़ाना चाहते थे। इसके लिये वे उपयुक्त
अवसर देख रहे थे।

बल्लभगढ़ के जाटों को फरीदाबाद का फौजदार बड़ा तंग करता था। इससे उन्होंने राजा सूरजमल जी की सहायता मांगी। यहां पर प्रसंगवात बल्लभगढ़ के जाट जमींदार के लिये दो शब्द लिख देना अनुपयुक्त न होगा। गोपाल सिंह नामक एक जाट बल्लभगढ़ से तीन मील की दूरी पर सिही नामक ग्राम में आकर बसा था। यह मथुरा-दिल्ली सड़क पर लूट मार कर धनवान बन गया था। उसने तैगांव के गुजरों से सहायता प्राप्त कर आसपास के गावों के राजपूत चौधरी को मार डाला था। फरीदाबाद के मुगल शासक मुर्तजाखां ने उसे इस अपराध में दंड देने के बदले उसे फरीदाबाद परगना का चौधरी नियुक्त कर दिया था। उसे उक्त परगनों की रेव्हेन्यू पर एक आना लेने का हक भी प्राप्त हो गया था। गोपाल सिंह की मृत्यु के बाद उसका पुत्र चरणदास उत्तराधिकारी हुआ। उसने जब यह देखा कि आसपास के जिलों में मुगल सत्ता निर्बल हो रही है, तब उसने उन जिलों की आमदनी मुगल शासक के पास भेजना बन्द कर दिया। इतना ही नहीं उसने मुगल सत्ता को मानने से भी इन्कार किया। इस पर वह गिरफ्तार कर जेल में बन्द कर दिया गया। थोड़े ही दिन बाद उसके पुत्र बलराम ने उक्त मुगल शासक का कुछ दमपटटी देकर धोखे से अपने बाप को छुड़ा लिया। इसके बाद दोनों बाप बेटे भागकर भरतपुर चले गये। उन्होंने सूरजमल जी जाट की सहायता प्राप्त कर मुगल शासक मुर्तजा खां को मार डाला।

मुगल सम्राट के वजीर ने बलराम ओर राजा सूरजमल जी जाट को उक्त परगनों से अपना अधिकार हटा लेने के लिये बारम्बार लिखा। पर उसे हमेशा कोरा जवाब मिला। इस पर वह बहुत क्रोधित हुआ और उसने जाटों के नाश करने का दृढ़ संकल्प किया। इसवी सन्‌ 1749 के जनवरी मास में वह जाटों के खिलाफ रण मैदान में उतर पड़ा। राजा सूरजमल जी ने भी इसके लिये तैयारी कर ली। उन्होंने सिही के जाटों को शक्ति भर सहायता करने का निश्चय किया। उन्होंने डीग और कोंहमीर के किलों को रक्षक स्थान बनाकर इसवी सन्‌ 1749 में वज़ीर के खिलाफ कूच किया। कहना न होगा कि भाग्य ने राजा सूरजमल जी का साथ दिया। इसी समय वज़ीर को अवध के पास रोहिलों के जबरद॒स्त बलवे का सामाचार मिला। इससे वह जाटों को ज्यों का त्यों छोड़कर उधर चला गया। उसने बलवा दबा कर रुहिलों से छिने हुए मुल्क पर निगरानी रखने के लिये अपने नायब नवलराय को नियुक्त कर दिया। इसके बाद वजीर ने जाटों के खिलाफ फिर फौज भेजी। जाटों को लड़ने के लिये प्रस्तुत पाकर खुद वजीर भी उनके खिलाफ रवाना हुआ। वह खिजिराबाद तक पहुँचा ही था कि उसे यद समाचार मिला कि अहमद खाँ बंगेश के हाथों से नवलराय मारा गया है। इससे वजीर ने इस समय राजा सूरजमल जी के साथ समझोता कर लेना ही ठीक समझा। एक मराठा वकील के मार्फत समझौता हो गया। राजा सूरजमल जी को वजीर की ओर से खिल्तत मिली। दोनों में इसी समय अच्छी मैत्री हो गई।

पहले जहाँ सूरजमल जी नवाब वज़ीर के शत्रु थे, अब वही उसके
मित्र बन गये। इतना ही नहीं उन्होंने नवाब वजीर की उस चढ़ाई में भी योग दिया, जो उसन अहमदखां बंगेश और रोहिलों केखिलाफ की थी। सन् 1750 की 23 जुलाई को 70000 अश्वारोही सेना के साथ नवाब वजीर, अहमदखां बंगेश और रोहिलों के खिलाफ़ रवाना हुआ। राजा सूरजमल जी ने अपनी जाट सेना की सहायता से अदमदखाँ की राजधानी फर्खाबाद पर अधिकार कर लिया। सन् 1750 की 13 सितंबर को पथारी मुकाम पर बड़ी भीषण लड़ा हुई। वजीर ने हाथी पर बैठकर अपनी सेना का मध्य भाग संभाला था। राजा सूरजमल जी सना की बाँयी बाजू को संचालित कर रहे थे। राजा सूरजमल जी ने शत्रु पर भीषण आक्रमण कर दिया। इसमें शत्रु पक्ष के कोई 6000 या 7000 पठान मारे गये। रुस्तमखाँ अफ्रीदी और अन्य रोहिला सेना-नायक बुरी तरह भागे। कहने की आवश्यकता नहीं कि राजा सूरजमल जी के कारण नवाब वजीर की विजय हुईं। अहमद खाँ बंगेश इतने पर भी निराश न हुआ। उसने पलाश के झाड़ों के नीचे फिर अफ़ग़ान सेना को जमा कर वजीर की सेना पर अकस्मात्‌ रूप से हमला कर दिया। इस समय वज़ीर की एक गम्भीर सैनिक भूल के कारण अफगानों को कुछ सफलता मिल गई। नवाब वजीर सख्त घायल हुआ और उसी अवस्था में वह अपने केम्प में लाया गया। दूसरे ही दिन उसने मुगल राजधानी की ओर पीछे हटने की तैयारी की। इस समय अफगानों ने प्राय उसके सारे मुल्क पर अधिकार कर लिया। इलाहाबाद लूट लिया गया। अगर लखनऊ के नागरिक जोर का मुकाबला न करते तो वह भी लूट लिया जाता। इस हार की खबर ज्यों ही दिल्‍ली पहुँची कि नवाब वजीर के शत्रुओं ने उसके खिलाफ बादशाह के कान भरने शुरू किये। वे नवाब वजीर की बरख्वास्ती के लिये पडयंत्र करने लगे। पर यथा समय नवाब वजीर के दिल्‍ली पहुँच जाने पर इन पड्यन्त्रकारियों की तमाम कारवाई निष्फल हुई नवाब वजीर ने राजा सूरजमल आदि अपने हितैषियों को रुहेलों पर फिर से हमला करने के विषय पर विचार करने के लिये बुलाया। इतना ही नहीं उसने मल्हारराव होलकर की फौज को प्रति दिन 25000 रुपया और सूरजमल जी की जाट सेना को प्रतिदिन 15000 रुपया वेतन पर कर लिया। इन सब तैयारियों के साथ उसने अहमद खां बंगेश पर चढ़ाई की। फरुखाबाद लूटा जाकर बहुत कुछ नष्ट भ्रष्ट कर दिया गया। सारा रुहेला देश तलवार और आग से बर्बाद कर दिया गया। कहने की आवश्यकता नहीं कि नवाब वजीर की विजय हुईं। उसने इस विजय के समाचार बादशाह तक पहुँचाये।

नवाब वजीर के दिल्ली से रवाना होने के कोई एक मास बाद ही
मुगल साम्राज्य को एक विपत्ति का सामना करना पड़ा।अहमद शाह अब्दाली ने पंजाब पर हमला किया। सन्‌ 1751 की 18 फरवरी को उसने लाहौर में प्रवेश किया। दिल्ली पर भी उसका हमला होने का भय होने लगा। इसी समय मुगल सम्राट ने राजा सूरजमल जी को 31000 जाट ओर 9000 घोड़ों का मसनब प्रदान कर उनकी इज्जत की। सम्राट ने वजीर को मल्हारराव होलकर के साथ अतिशीघ्र दिल्‍ली आने के लिये कई सन्देश भेजे। वज़ीर की गेरहाजिरी में एक खोजा ने कमजोर दिल बादशाह के दिल पर कबजा कर रखा था। उसने बादशाह को अहमदशाह दुर्रानी की शर्ते स्वीकार करने को दबाया। बादशाह ने दुर्रानी को लाहौर और मुलतान देकर उसे वापस लौट जाने के लिये कहा। जब वजीर दिल्‍ली लौटा तो उसे बादशाह के इस कार्य पर बड़ा क्रोध आया। उसने बादशाह को इस कार्य में प्रवृत्त करने वालों को दण्ड देने का निश्चय किया। उक्त खोजा एक भोज के समय वजीर के यहाँ बुलाया गया और जहर देकर मार डाला गया।

यह बात सम्राट अहमदशाह और उनकी माता को अच्छी न लगी।
सम्राट ने अपनी माता के अनुरोध से नवाब वजीर को अपने पद से खारिज कर दिया। इतना ही नहीं उसकी इस्टेट तक जप्त कर ली गई। इस पर बादशाह और वजीर में झगड़ा हो गया। बादशाह का अन्याय वजीर को बहुत अखरा और उसने दिल्‍ली पर घेरा डाल दिया। इसी समय उसने अपनी सहायता के लिये सूरजमल जी जाट को बुलवा भेजा। वजीर के दुष्मन अफगान नवयुवक गाजीउद्दीन की अधीनता में शाही फौज से जा मिले। इतने ही में सूरजमल जी जाट अपनी सेना सहित आ पहुँचे। उन्होंने उस समय दिल्‍ली की बहुत बुरी हालत कर डाली। वह बुरी तरह लूटी गई। अभी तक “जाट गर्दी” नाम से यह लूट मशहूर है। बादशाही सेना को भी इन्होंने शिकस्त दी। इसका परिणाम यह हुआ कि बादशाह के घुटने टिक गये। उसने नवाब सफदरजंग वज़ीर से सुलह का अनुरोध किया। उसे अवध ओर इलाहाबाद का फिर से वायसरॉय बना दिया। कहने का अर्थ यह है कि सूरजमल जी ने अपने एक मित्र को नाश होने से बाल-बाल बचा दिया।

पानीपत का युद्ध

हिन्दुस्थान के इतिहास में परिवर्तन करने वाले पानीपत के युद्ध के
विषय में पाठकों ने बहुत कुछ पढ़ा होगा। मराठों के सेनापति भाऊ साहब ने उक्त युद्ध निश्चित करने के लिये आगरा में एक सभा की थी। इस सभा में राजा सूरजमल जी भी निमन्त्रित किये गये थे। इस समय राजा सूरजमल जी ने एक बड़ा ही महत्वपूर्ण भाषण दिया, उसका सरांश यह है:—“मैं केबल जमीदार हूँ। आप एक महान नृपति हैं। पर इस समय मुझे जो ठीक मालूम होता है, उसे में स्पष्ट रूप से कहता हूँ। आपको यह बात अवश्य ही स्मरण रखनी चाहिये कि यह युद्ध एक महान मुसलमान सम्राट के खिलाफ है। इसमें कई मुसलमान राजा उसके साथ हैं। शत्रु बड़ा चालाक और धूर्त है।

आपको इस युद्ध के संचालन में बड़ी सावधानी से काम लेना चाहिये। युद्ध यह एक शतरंज का खेल है। पता नहीं पासा किस और उलट जावे। अतएवं मेरी राय में आप अपनी महिलाओं को तथा अनावश्यक सामान को चंबल के उस पार झांसी या गवालियर भेज दीजिये ओर फिर आप कई अनावश्यक झंझटों से मुक्त होकर शत्रु का मुकाबला कीजिये। अगर अपनी विजय हो गईं तो लूट का बहुत सा समान अपने को मिल जायगा। अगर युद्ध का परिणाम हम लोगों के विरुद्ध हुआ तो हम, स्त्रियों बच्चों के संकट से बरी होने के कारण, आसानी से भाग सकेगें। अगर 5आप अपने स्री बच्चों को इतना दूर भेंजना अनुचित और अव्यवहारिक समझे तो में अपने लोहे जेसे मजबूत किलों को आपके लिये खाली कर दूँगा वहाँ आप उन्हें सुरक्षित रूप से रख दीजिये। वहाँ उनके लिये सब प्रकार का प्रबन्ध हो जायेगा। आप अपने स्त्री बच्चों ओर अनावश्यक सामानों से मुक्त होकर शत्रु का मुकाबला कीजिये। युद्ध के संबंध में भी में एक बात सूचित करना आवश्यक समझता हूँ, वह यह कि आमने-सामने युद्ध करने के बजाय गनीमी लड़ाई से शत्रु को तंग कीजिये। उस पर इधर उधर से गुप्त हमले कीजिये। गुप्त आक्रमणों द्वारा उसे चारों ओर से तंग कीजिये। इससे शत्रु परेशान होकर अपने देश को लौट जायगा। उन्होंने महाराष्ट्र सेनापति भाऊ साहब को यह भी सूचित किया कि फौज की एक टुकड़ी पूर्व को ओर और दूसरी लाहौर की ओर भेजी जाये। इससे अहमदशाह दुर्रानी की फौज के लिये खाद्य सामग्री आने का मार्ग बन्द हो जावे।” राजा सूरजमल जी यह सलाह देकर बेठे न रहे, उन्होंने अब्दाली के कट्टर दुश्मन सिक्ख तथा बनारस के राजा बलवन्त सिंह से इस आशय का पत्र व्यवहार करना शुरू किया कि वे पंजाब और अवध से शत्रु सेना के लिये आने वाली खाद्य सामग्री में बाधा डालने का प्रयत्न करें।

राजा सूरजमल जी ने महाराष्ट्र सेनापति सदाशिवराव भाऊ को युद्ध के सम्बन्ध में जो राय दी थी उसका एक खबर से सब ने समर्थन किया। सब ने यह कहा कि शत्रु के दाँव को बचाकर भाग जाना ओर फिर मौका आते ही धोखे से शत्रु पर हमला कर “ शठं प्रति शाठय ” की नीति को स्वीकार करना ही सफलता का राज मार्ग है। अभिमान में चूर होकर अनुपयुक्त अवसर में शत्रु का मुकाबला कर कठिन परिस्थिति उत्पन्न कर लेना मूर्खतापूर्ण कार्य होगा।” यह बात सबको पसन्द आ गई। पर प्रधान सेनापति भाऊ ने इस राय को ठुकरा दिया। उन्होंने अपने लिये–पेशवा के भाई के लिये-इस काम को शान के खिलाफ समझा। उन्होंने इस समय ताना मारकर मल्हारराब होलकर और सूरजमल जी आदि का अपमान किया। इससे सूरजमल जी को बहुत बुरा मालूम हुआ। पर कुछ महाराष्ट्र मुत्सद्दियों के समझाने बुझाने से उन्होंने लड़ाई में योग देना स्वीकार किया। कहने की आवश्यकता नहीं कि राजा सूरजमल जी अपने मित्र गाज़ीउद्दीन और 8000 जाट सेना के साथ महाराष्ट्रों से मिल गये। इसवी सन्‌ 1760 में मित्र सेनाएँ दिल्ली पहुँची और उन्होंने उस पर घेरा डाल दिया। गाजीउद्दीन ने बड़ी सर गर्मी के साथ दिल्‍ली पर अधिकार कर लिया ओर मराठों ने नगर को लूटा। इस समय मराठों के हाथ इतनी लूट लगी कि उनमें कोई गरीब न रहा। गाज़ीउद्दीन ने बादशाही खानदान के एक आदमी को तख्त पर बैठा दिया और खुद वज़ीर का काम करने लगा। पर यह बात महाराष्ट्र सेनापति भाऊ को अच्छी न लगी। उन्होंने नारोशंकर नामक एक महाराष्ट्र को राजा बहादुर की उपाधि से विभूषित कर उसे वजीर के पद पर नियुक्त कर दिया।इसका राजा सूरजमल जी ने बड़ा विरोध किया। होलकर और सिन्धिया ने भी इनका साथ दिया। पर महाराष्ट्र सेनापति भाऊ ने इनकी एक न सुनी इससे सूरजमल जी को बहुत बुरा लगा। इस अपमान कारक स्थिति में ज्यादा दिन रहना उनके लिये असह्य हो गया । वे अब वहाँ से खिसकने की कोशिश करने लगे और ‘आखिर मौका पाकर वहाँ से खिसक ही गये। इसके बाद पानीपत के युद्ध का जैसा परिणाम हुआ, पाठक जानते ही हैं। इसमें मराठों का पूर्ण पराभव हुआ। उनकी बढ़ती हुई शक्ति क्षीण हो गयी। समूची
मराठी सेना नष्ट हो गई। उसके प्रायः सब बड़े बड़े वीर काम आये।

सूरजमल जी की उदारता

पानीपत के युद्ध से जब कुछ बचे बचाये मराठे सरदार या सैनिक
दक्षिण की ओर लौटे तो रास्ते में सूरजमल जी का मुल्क पड़ा।सूरजमल जी के साथ उन्होंने पहले जैसा व्यवहार किया था, उसका उल्लेख हम ऊपर कर चुके हैं। पर उदार हृदय सूरजमल जी ने इस महा संकट के समय में विपत्तियों से जजरित महाराष्ट्र लोगों के साथ बड़ी दी सहायता का व्यवहार किया। उन्होंने उनका बड़ा आदरातिथ्य किया। उनके लिये अन्न, वस्त्र और औषधि प्रभृति का प्रबन्ध किया। इस वक्त यदि सूरजमल जी अपने बेर का बदला लेने में उद्यत हो जाते तो शायद पानीपत की दुःख कथा सुनाने के लिये एक आदमी भी न बचता। तमाम मुसलमान और महाराष्ट्र लेखकों ने सूरजमल जी की इस सहायता और उदारता को मुक्तकंठ से स्वीकार किया है। एक तत्कालीन फारसी लेखक लिखता है– “मराठे जब सूरजमल जी के राज्य में घुसे तो उन्होंने हिन्दु-धार्मिक भावों से प्रेरित होकर उनकी रक्षा करने के लिये अपनी फौजें भेजीं। उन्हें अन्न वस्त्र बांटकर उनके दुःखों को दूर किया। भरतपुर राज्य में रानी साहिबा ने इन भागे हुए दुः:खित मराठों के प्रति बड़ा ही दया-पूर्ण व्यवहार किया। आठ दिन तक कोई चालीस हजार आदमियों को भोजन दिया गया। ब्राह्माणों को दूध, पेड़े तथा अन्य मिठाइयाँ बाँटी गई। आठ दिन तक सबका बड़ा सत्कार किया गया। सबके लिये आराम का काफी प्रबन्ध किया गया। सब नगर-निवासियों के नाम एक घोषण प्रकट कर उनसे यह अनुरोध किया गया कि महाराष्ट्र सैनिकों के साथ अच्छा से अच्छा व्यवहार किया जावे ओर उन्हें हर तरह का आराम पहुँचाया जावे। किसी को किसी तरह की तकलीफ न होने पावे। इस प्रकार इस दिव्य कार्य में सूरजमल जी ने दस लाख रुपया खर्च कर अपनो उच्चाशयता और उच्च श्रेणी के मानवी भावो का परिचय दिया। उन्होंने हजारों आदमियों के प्राणों को बचा दिया। मराठी सेना का एक शमशेर बहादुर नामक सेनापति कुहमीर किले में घायल होकर आया था। सुरजमल जी ने उसकी बड़ी सेवा की, पर उसने भाऊ के वियोग के असह्य दु:ख में ‘हाय हाय करके प्राण विसर्जन कर दिये। (सरदेसाई का पानीपत प्रकरण 260 ) सूरजमल जी ने मार्ग-व्यय के लिये रुपये बांटकर महाराष्ट्र सेनिकों को ग्वालियर के लिये सुरक्षित रूप से रवाना कर दिया।

सुरजमल जी ओर नरोशंकर

फ्रान्कालिव नामक एक इतिहास-बेत्ता ने लिखा है कि दिल्ली का
मराठा शासक नरोशंकर वापस लौटते समय मार्ग में लूट लिया गया ओर इस लूट में राजा सूरजमल जी का गुप्त हाथ था, पर यह बात बिलकुल गलत है। श्रीयुत्‌ सरदेसाई ने अपने “मराठी रियासत” नामक सुविख्यात ग्रंथ में लिखा हैः– “नरोशंकर के एक मराठा साथी ने इस विषय पर समुचित प्रकाश डाला है। उसके कथनानुसार नरोशंकर तीन चार हज़ार फौज के साथ दिल्‍ली से भागा था। रास्ते में उसकी मल्हारराव होलकर के साथ भेंट हुईं। मल्हारराव के पास इस समय कोई आठ दस हजार फौज थी। भरतपुर राज्य में सूरजमल जी ने नरोशंकर और उसके सब साथियों की बड़ी ही खातिर की। वे वहाँ पन्द्रह दिन तक ठहरे। सूरजमल जी ने बड़ी नम्रनता के साथ यहाँ तक कहा कि यह राज्य आपका है–हम आपकी सेवा करने के लिये तैयार हैं। आप यहाँ खुशी से ठहरिये। सूरजमल जी जैसे आदमी बहुत कम हैं। उन्होंने अपने विश्वासपात्र सरदारों के साथ नरोशंकर आदि सबको सकुशल ग्वालियर पहुँचा दिया”। सुप्रख्यात्‌ मद्दाराष्ट्र मुत्सददी नाना फडनवीस ने अपने एक पत्र में लिखा है:— “सूरजमल जी के व्यवहार से पेशवा के हृदय को बहुत ही शांति-लाभ हुआ।” उपरोक्त प्रमाणों से फ्रान्कलिन द्वारा सूरजमल जी पर लगाये गए झूठे कलंक का साफ साफ प्रक्षालन हो जाता है। दुःख है कि बिना किसी ऐतिहासिक प्रमाण के फ्रान्‍कलिन ने अक्षम्य दुष्टता की और सफ़ेद को काले के रूप में दिखाने का नीच प्रयत्न किया है।

राजा सूरजमलजी को विजय

पानीपत युद्ध में विजय प्राप्त कर अहमदशाह ने दिल्ली में प्रवेश
किया। जब उसने सुना कि राजा सूरजमल जी ने पानीपत से लौटे हुए मराठों को आश्रय दिया तो वह क्रोध से आग बबूला हो गया वह सूरजमल जी पर चढ़ाई करने का मंसूबा बाँधने लगा। जब सूरजमल जी ने यह बात सुनी तो उन्होंने नागरमल नामक एक विश्वासपात्र आदमी को अहमदशाह के पास उसका गुस्सा शांत करने के लिये भेजा। इसका कोई परिणाम न हुआ। सूरजमल जी ने भी शाह की विशेष पर्वाह न की। क्योंकि वे जानते थे कि युद्ध से थका हुआ शाह अब विशेष साहसिक प्रयत्न न करेगा। उन्होंने बड़ी हिम्मत के साथ पानीपत के प्रसिद्ध विजेता शाह के दिल्ली में होते हुए भी आगरा को पादाक्रान्त कर उस पर अधिकार कर लिया। यहाँ यह कहने की आवश्यकता नहीं कि यह मुगल साम्राज्य की दूसरी राजधानी थी। यह विजय उन्हें बीस दिन में प्राप्त हुई। यहाँ उन्हें 50 लाख की लूट हाथ लगी। शाह के दिल्‍ली से रवाना होने के पाँच दिन पहले यह खबर मिली कि सूरजमल जी की फौजों ने अकबराबाद के किलेदार को किला खाली करने के लिये मजबूर किया और उन्होंने उसमें प्रवेश कर दिया। इस काम से शाह ज्यादा चींचपड़ न करे इसलिये सूरजमल जी ने उसके पास एक लाख रुपया और पाँच लाख का इकरारनामा भेज दिया। यह इकरारनामा धूर्त शाह को धोखा देने के लिये था। इसका सूरजमल जी ने अमल नहीं किया। “शर्ट प्रति शाब्यं’ की सफल राजनीति का उन्होंने अनुकरण किया।

हरियाणा पर विजय

पानीपत के खूनी युद्ध के बाद कुछ समय के लिये उत्तरीय हिंदुस्तान में शांति छा गई थी। युद्ध की विभीषिका से घबराकर लोग कुछ समय तक दम लेना चाहते थे। सिक्खों की तेजी से बढ़ती हुईं शक्ति ने अहमदशाह के आक्रमण में जबरदस्त बाधा उपस्थित कर दी थी। उधर दक्षिण में मराठे हैदरअली और निजाम के साथ युद्ध में लगे हुए थे। इस परिस्थिति का फायदा उठाकर राजा सूरजमल जी ने एक अति शक्तिशाली जाट राज्य स्थापित करने का विचार किया। उन्होंने रावी नदी से लगाकर जमना तक अपना विजय झंडा फहराना चाहा। उन्होंने अब्दाली और रुहेलों के राज्य के बीच जाट राज्य की एक जबरदस्त और मजबूत दिवार खड़ी कर देना चाहा। इस वक्त दिल्‍ली के निकटस्थ हरियाणा ग्राम पर जबरदस्त मुसलमान जागीरदारों का अधिकार था। ये सूरजमल जी के पथ में कंटक रूप थे। इसका कारण यह था कि इनका मकाम जाट और सिक्ख राज्यों के बीच होने से ये इन दोनों के मिल जाने में बाधक रूप होते थे। सूरजमल जी ने अपने पथ से इस जबरदस्त कंटक को हटा देना चाहा। उन्होंने अपने बड़े पुत्र जवाहिर सिंह को हरियाणा जिला विजय करने के लिये तथा अपने छोटे पुत्र नाहरसिंह को दुआब पर अधिकार करने के लिये भेजा। पर जवाहर सिंह को इसमें सफलता न हुईं। अब खुद सूरजमल जी अपनी सेना और तोपखाने के साथ वहाँ आ पहुँचे। दो महीने के घेरे के बाद उन्होंने हरियाणा जिले के फरुखनगर पर अधिकार कर लिया। वहाँ का बलूची जागीरदार गिरफ्तार कर भरतपुर भेज दिया गया। इस समय रेवाड़ी, हरसारु, रोहतक आदि पर सूरजमल जी की ध्वजा पताका फहराने लगी। ये स्थान राजा नवल सिंह के समय तक भरतपुर राज्य में थे। दुःख है कि बलूची लोगों से युद्ध करते हुए वीरवर सूरजमल जी सन्‌ 1763 में वीर गति को प्राप्त हुए।

सूरजमल जी की विशाल राज्य-सत्ता

सूरजमल जी ने अपने बाहुबल से विशाल राज्य सम्पादन कर लिया था। भरतपुर राज्य के अतिरिक्त आगरा, धौलपुर, मेनपुरी, हाथरस, अलीगढ़, एटा, मेरठ, रोहतक, फरुखनगर, मेवात, रेवाड़ी, गुडगाँव और मथुरा आदि जिलों पर आपका एक-छत्री राज्य था। इसके सिवाय आप अपनी मृत्यु के समय लगभग 100000000 रुपया खज़ाने में छोड़ गये थे। आपकी सेना भी जबरदस्त थी। उसमें 5000 घोड़े, 60 हाथी, 15000 अश्वारोही सेना, 25000 पेदल सेना, और 300 तोपें थीं। राजा सूरजमल जी जाट जाति के एक प्रकाशमान रत्न थे। उनकी प्रतिभा, उनकी दूरदर्शिता, प्राप्त अवसर से लाभ उठाने की उनकी अद्भुत तत्परता, उनका शौर्य आदि कितने ही गुण उनको महान बनाने में सहायक हुए हैं। उन्होंने हिन्दुस्तान के इतिहास में निस्सन्देह अपना विशेष स्थान कायम कर लिया है।

राजा जवाहर सिंह जी भरतपुर राज्य

स्वर्गीय राजा सूरजमल जी के पाँच पुत्र थे, यथा:- जवाहर सिंह,
ताहर सिंह, रतन सिंह, नवल सिंह, और रणजीत सिंह। इनमें सब
से बड़े पुत्र जवाहर सिंह भरतपुर राज्य के सिंहासन पर आसीन हुए। राजा जवाहर सिंह जी बड़े पराक्रमी वीर थे। पर साथ ही वे बड़े दुराग्रही और हठी स्वभाव के थे। आपने अपने पिता का राज्य उनकी जीवित अवस्था ही में खूब बढ़ाया पर भीषण दुराग्रही स्वभाव के कारण इनकी इनके पिता के साथ नहीं पटती थी। राजा सूरजमल जी ने गुस्सा होकर इनसे उन्हें अपना मुंह न दिखलाने के लिये कह दिया था। इसके बाद तनातनी बढ़ते-बढ़ते दोनों में युद्ध होने तक की नौबत आ गई। राजा जवाहर सिंह जी गोपालगढ़ और रामगढ़ के किलों से तोपें दागने लगे और राजा सूरजमल जी डींग और शाहबुर्ज के किलों से तोपों ही के द्वारा उत्तर देने लगे। इस लड़ाई में जवाहर सिंह के पैर में चोट लगी, जिसने उन्हें सदा के लिये लंगड़ा कर दिया। जब ये घायल होकर बिस्तरे पर पड़े थे, तब पुत्र-प्रेम से प्रेरित होकर सूरजमल जी इनके पास आये और दु:ख प्रकट करने लगे। पर इस समय जवाहर सिंह जी ने कपड़े से अपना मुंह ढक लिया और कहा कि में आपकी आज्ञा ही का पालन कर ऐसा कर रहा हूं।

राज्य सिंहासन पर बैठते ही राजा जवाहर सिंह जी ने सब से पहले अपने पितृ-घातियों से सोलह आना बेर लेने की ठानी। उन्होंने सिक्खों की एक विशाल सेना, मल्हारराव होलकर की मराठी सेना ओर अपनी जाट सेना के साथ सन्‌ 1764 में कूच किया। कहने की आवश्यकता नहीं की दिल्‍ली पर एक जबरदस्त घेरा डाला गया। जवाहर सिंह जी की भारी विजय हुईं। अगर मल्हारराव होलकर इस समय इनका साथ न छोड़ते तो निश्चय ही इसी समय मुगल राजधानी दिल्‍ली पर पूर्ण रूप से महाराजा जवाहर सिंह जी की ध्वजा फहराती।

महाराजा जवाहर सिंह भरतपुर राज्य
राजा जवाहर सिंह भरतपुर राज्य

सन्‌ 1768 में जवाहर सिंह जी पुष्कर की यात्रा के लिये रवाना हुए। इस समय जयपुर में महाराजा माधोसिंह जी राज्य करते थे। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि महाराजा माधो सिंह जी का भरतपुर के जाट घराने के साथ स्वभाविक बेर था। इसके कई कारण थे। प्रथम तो यह कि राजा सूरजमल जी ने माधोसिंह जी के खिलाफ ईश्वरीसिंह जी की सहायता की थी। दूसरी बात यह थी कि जवाहर सिंह जी ने माधो सिंह जी से कामा प्रान्त देने के लिये अनुरोध किया था, वह माधोसिंह जी ने स्वीकार नहीं किया। इस प्रकार और भी कई बातों से दोनों राज-घरानों में उस समय द्वेष की आग जल रही थी। थोड़े से बहाने से इसके और भी भभक उठने की पूरी संभावना थी। दुर्देव से इसके लिये अवसर मिल गया । जवाहर सिंह जी जयपुर राज्य की सीमा से होकर पुष्कर गये। यही बात जयपुर के तत्कालीन राजा माधो सिंह जी के लिये जवाहर सिंह जी से अपनी दुश्मनी निकालने के लिये काफी थी। बिना इज़ाजत के राजा जवाहर सिंह जी जयपुर की सीमा से होकर कैसे निकल गये इस पर महाराजा माधो सिंह ने बड़ी आपत्ती की। उन्होंने अपने सब विशाल सामन्तों को इकट्ठा कर एक विशाल सेना महाराजा जवाहर सिंह जी के खिलाफ़ भेजी। बड़ा भीषण युद्ध हुआ और इसमें जीत का पलड़ा कछवाओं की ओर रहा। पर इसमें जयपुर के राज्य को इतनी भारी हानि उठानी पड़ी कि उनकी विजय भी पराजय के समान हो गई। जयपुर के प्राय: सब नामी नामी सामंत काम आये। इस युद्ध के विषय में कर्नल टॉड साहब लिखते हैं;—

“A desaprate conflict unsued which though it terminated in favonr of the khchwahas and in flight of the leader of the jats. Proved destructive to amber. In the loss of almost every chieftain of not. अर्थात भयंकर युद्ध हुआ और इसका फल कछवाहों के पक्ष में तथा जाट नेता के प्यालों में हुआ। पर युद्ध आमेर के लिए विनाशकारी सिद्ध हुआ, क्यों कि इसमें वहां के सब प्रसिद्ध सामंत मारे गए”

राजा जवाहर सिंह जी पुष्कर से आगरा लौट गये और वहां वे सन्‌
1768 के जुलाई मास में शुज्जात मेवात के हाथों से मारे गये। स्थानाभाव के कारण हम राजा जवाहर सिंह जी के सब पराक्रमों पर यथोचित प्रकाश नहीं डाल सकते। वे एक सच्चे सिपाही थे। वीरत्व उनमें कूट-कूट कर भरा हुआ था। उनमें अपने पिता की तरह अद्भुत शासन क्षमता भी थी। प्रजा-कल्याण की ओर भी उनका समुचित ध्यान था। उनका दरबार बड़ा भव्य ओर आलीशान था। बहादुर सिपाही को अपने वीरत्व प्रकाश करने का कोई स्थान था तो वह भरतपुर ही था। महाराजा जवाहर सिंह जी ने देश की कला-कौशल को बड़ा उत्तेजन दिया। कवियों को बड़े पुरस्कार देकर उनकी काव्य प्रतिभा-को बढ़ाया। आपने आगरा में गो-हत्या बिलकुल रोक दी। कसाइयों की दुकानें बन्द कर दी गई। आपने और भरी बहुत से ऐसे काम किये जिनकी वजह से एक सच्चे हिन्दू को योग्य अभिमान हो सकता है।

राजा रत्नसिंह जी भरतपुर राज्य

राजा जवाहर सिंह जी के बाद राजा रत्नसिंह जी भरतपुर राज्य के राज्य-सिंहासन पर बैठे। दुःख है कि ये राजा सूरजमल जी तथा राजा जवाहर सिंह जी की तरह वीर और पराक्रमी न थे। ये मन के बड़े कमजोर थे। विलास प्रियता ही इनके जीवन का ध्येय प्रतीत होता है। चार हजार नृतकियां इन्हें घेरे रहती थीं। ये बड़े फिजूल- खर्च थे और दुव्यसनों में धन का दुरुपयोग किया करते थे। इन्हें यन्त्र, मन्त्र और किमियागारी का भी बड़ा शौक़ था। ये ही बातें इनकी मृत्यु का कारण हुई। वृन्दावन के एक गोस्वामी के साथ इनका विशेष परिचय हो गया। गोस्वामी ने आप से कहा कि हम मन्त्र के बल से निकृष्ट धातु को भी स्वर्ण कर सकते हैं। इस कार्य को सिद्ध करने के लिये आपने उस धूर्त गोस्वामी को बहुत सा रुपया दे डाला। गोस्वामी ने आपको विश्वास दिलाया कि अमुक दिन में सोना बनाकर दिखला दूँगा। जब वह निश्चित दिन नजदीक आया, तब वह धूर्त गोस्वामी बडा घबराया। उसे घोर दण्ड मिलने का भय होने लगा। अन्त में उसने मौका पाकर राजा रत्नसिंह जी को हृदय में छुरी मारकर उनके प्राण ले लिये। राजा रत्नसिंह जी ने केवल नो मास तक राज्य किया था।

राजा केहरी सिंह जी भरतपुर राज्य

राजा रत्नसिंह जी के बाद उनके पुत्र केहरी सिंह जी भरतपुर राज्य के राज्य-सिंहासन पर बेठे। इस समय इनकी अवस्था केवल दो वर्ष की थी। अतएवं उनके चाचा नवल सिंह जी राज्य-कार्य देखने लगे। यद्यपि इस समय अधिकार-लालसा के कारण नवल सिंह जी ओर उनके भाई रणजीत सिंह जी में मनोमालिन्य हो गया था और इससे दोनों में युद्ध हो गया था, पर इतनी घर की फूट होने पर भी दिल्‍ली के बादशाही दरबार में भरतपुर राज्य का बड़ा दबदबा था। तत्कालीन मुगल बादशाह इनसे इतना सशक्कित था कि उसने इनके खिलाफ युद्ध करने के लिये 5000000 की मंजूरी दी थी।

महाराजा रणजीत सिंह जी भरतपुर राज्य

महाराजा केहरी सिंह जी के बाद महाराजा रणजीत सिंह जी भरतपुर राज्य के राज्य सिंहासन पर अधिष्ठित हुए। इनके समय में राजनैतिक दृष्टि से कई महत्वपूर्ण घटनाएँ हुई, अतएवं उन पर थोड़ा सा प्रकाश डालना आवश्यक है। जिस समय महाराजा रणजीत सिंह जी राज्य-सिंहासन पर बैठे थे, उस समय अंग्रेज भारत में अपनी सत्ता मजबूत करने के काम में लगे हुए थे। कहने की आवश्यकता नहीं कि होलकर, सिन्धिया प्रभुति कुछ शक्तियों के द्वारा उनके इस कार्य में बड़ी-बड़ी बाधाएं उपस्थित की जा रहीं थीं। महाराजा रणजीत सिंह जी ने अंग्रेजों से सन्धि कर उनसे मैत्री का सम्बन्ध स्थापित कर लिया था। इतना ही नहीं वरन्‌ उन्होंने कुछ युद्धों में अंग्रेजों की अच्छी सहायता भी की थी। पर महाराजा रणजीत सिंह और अग्रेजों का यह मैत्री पूर्ण सम्बन्ध अधिक दिन तक स्थिर न रह सका। एक घटनाचक्र ने इसमें विच्छेद उत्पन्न कर दिया।

महाराजा रणजीत सिंह भरतपुर राज्य
महाराजा रणजीत सिंह भरतपुर राज्य

महाराजा रणजीत सिंह जी के समय में इन्दौर के महाराजा यशवन्तराव होलकर का उदय हो रहा था। कहने की आवश्यकता नहीं कि इन यशवन्तराव होलकर का आतंक उस समय सारे भारत में छा रहा था। सारे राजपूताने के राजा इन्हें खिराज देते थे। अंग्रेजों पर भी इनका बड़ा दबदबा था। मुकन्दरा की घाटी पर यशवन्तराव ने जनरल मानसून की फौजों को हराकर उनका जिस प्रकार सर्वनाश किया था, उससे तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड मार्किवस महोदय का दिल दहल उठा था। यह बात उनके एक प्राइवेट पत्र से प्रकट होती है । इसके बाद बनास नदी ओर सीकरी के पास ब्रिटिश और होल्कर की फौजों का मुकाबला हुआ, पर इसमें किसी की हार जीत प्रकट नहीं हुईं। इसके पश्चात्‌ यशवन्त राव ने मथुरा की ओर से कूच किया। वहाँ भी ब्रिटिश फौजी के साथ इनका युद्ध हुआ, पर कोई फल प्रकट नहीं हुआ। फिर यशवन्त राव ने बृन्दावन की ओर कूच किया। इसी समय अंग्रेज सेनापति लॉर्ड लेक मथुरा आ पहुँचे। दोनों सेनाओं में मुठभेड़ हो गई और यह कई दिन तक चलती रही। लॉर्ड लेक को हारकर दिल्‍ली की ओर पीछे हटना पड़ा। होलकर की फौजों ने उन्हें इतना तंग किया कि उनकी पीछे हटना भी मुश्किल हो गया। जनरल लेक बड़ी मुश्किल से दिल्‍ली पहुँच पाये। इसके बाद होलकर
की फौजों ने दिल्ली पर आक्रमण किया यहाँ इन्हें सफलता न मिली। अंग्रेजों ने उनके आक्रमण को विफल कर दिया। वापस लौटते हुए यशवन्त राव ने भरतपुर राज्य के डीग के किले में आश्रय लिया। हिन्दुओं की उच्च संस्कृति और सभ्यता के अनुसार भरतपुर राज्य के तत्कालीन महाराजा रणजीत सिंह जी ने यशवन्तराव का बड़ा सत्कार कर उन्हें आदरपूर्वक अपने यहाँ ठहराया। यह बात जनरल लेक को बहुत बुरी लगी और डीग पर उन्होंने आक्रमण कर दिया। भरतपुर राज्य की सेना ने बड़े ही वीरत्व के साथ ब्रिटिश फौज का मुकाबला किया। 23 दिन के भीषण युद्ध के बाद डीग के किले पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया। इसमें अंग्रेजों के 227 आदमी मारे गये।

इसके बाद जनरल लेक ने इसवी सन्‌ 1805 की 3 जनवरी को
भरतपुर राज्य पर घेरा डाला। ब्रिटिश फौजों ने भीषण गोलाबारी की। पर इसमें उन्हें सफलता न हुई। इस असफलता की बात को स्वंयं जनरल लेक ने मार्किस वेलेस्ली के नाम लिखे हुए 10 जनवरी के अपने एक पत्र में स्वीकार की है। पर इस पर भी अंग्रेज सेनापति निराश नहीं हुए। भरतपुर राज्य के वीर नरेश भी अपना वीरत्व प्रकट करते रहे। उन्होंने फिर बड़े जोर से आक्रमण किया पर इस वक्त भी उन्हें वीर जाट राजा के सामने परास्त होना पड़ा। इसके बाद जनरल लेक की सहायता पर कर्नल मरे की आधीनता में गुजरात से एक जबरदस्त ब्रिटिश फौज आ पहुँची। 12 फरवरी को जनरल लेक तथा कर्नल मरे की फौजों ने सम्मिलित होकर भरतपुर राज्य पर बड़ा ही भीषण आक्रमण किया, पर इसमें भी इन्हें उल्टे मुँह की खानी पड़ी। जब यह खबर तत्कालीन गवर्नर जनरल को पहुँची तो वे बड़े निराश हुए। इसवी सन्‌ 1805 की 9 मार्च को मार्किस वेलेस्ली ने जनरल लेक को जो पत्र लिखा था उसमें उन्होंने लॉर्ड लेक से बड़े जोर से यह अनुरोध किया था कि वे भावी आक्रमण के विचार को बिलकुल त्याग कर राजा से सन्धि कर लें। इस पत्र में और भी कितनी ही ऐसी बातें लिखी थी जिससे यह प्रकट होता था मानों वे विजय से बिलकुल निराश हो गये हैं। वे किसी भी प्रकार को शर्तों पर सुलह करने के लिये उत्सुक हो रहे थे। इसके साथ ही यह प्रयत्न किया जा रहा था कि रणजीत सिंह जी को किसी न किसी प्रकार यशवन्तराव होलकर से अलग कर दिया जाये। मार्किस वेलेस्ली ने लिखा था,–‘ “जब कि प्रधान सेनापति भरतपुर राज्य के घेरे के लिये फिर तैयारी कर रहे है या घेरा डाल रहे हैं, क्या यह ठीक न होगा कि ऐसे समय में कुछ ऐसे प्रयत्न किये जाये जिससे कि रणजीत सिंह को होलकर से फोड़ लिया जाबे। यद्यपि अभी तक भरतपुर राज्य का पतन नहीं हुआ है तथापि रणजीत सिंह बहुत दुर्दशाग्रस्त हो गये हैं। और अगर रणजीत सिंह ने होलकर को त्याग दिया तो वह बिना आशा भरोसा का हो जायगा।

इसका उत्तर देते हुए लॉर्ड लेक ने लिखा था:– ““इस बात का प्रयत्न किया जा रहा है और आगे भी किया जायगा, जिससे रणजीत सिंह होलकर को परित्यक्त कर दें। दरअसल रणजीत सिंह बहुत आपतिग्रस्त तथा भयभीत हो गये हैं और उन्होंने अगर होलकर को परित्यल कर दिया तो वे ( होलकर ) बिलकुल निस्सह्यय हो जावेंगे।”

कहने का मतलब यह है कि रणजीत सिंह को होलकर से अलग
करने के बहुत प्रयत्न किये गये पर इसमें कामयाबी न हुई। इस पर ब्रिटिश राजनीतिज्ञों ने एक दूसरी चाल चली, उन्होंने होलकर के प्रधान साथी अमीरखाँ तथा उसके साथियों को फोड़ लेने के प्रयत्न किये। तत्कालीन गवर्नर जनरल ने अपने एक नोट में लिखा हैः– “मि० सेटान और जनरल स्मिथ को यह अधिकार दिया जाता है कि वे अमीर खाँ के साथियों को जमीन का लालच दिखलाकर उससे फोड़ लें। अगर अमीर खाँ होलकर का पक्ष त्याग कर ब्रिटिश की ओर मिल जाने के लिये तैयार हो तो उसे एक अच्छी जागीर का प्रलोभन दिया जावे। उससे अनुरोध किया जावे कि वह एक निश्चित समय के अन्दर जनरल स्मिथ से उनके डेरे पर जाकर मिले।

उपरोक्त नोट के जवाब में लॉर्ड लेक ने लिखा थाः– “अमीर खाँ के आदमियों को अवश्य ही जमीन का प्रलोभन दिया जावे।” कहने का मतलब यह है कि राजा रणजीत सिंह और यशवंतराव होलकर में फूट डालने के असफल प्रयत्न किये गये। आखिर में यद्यपि अंग्रेजों की विजय हुई, पर उन्हें महाराजा रणजीत सिंह जी का लोहा मुक्तकण्ठ से स्वीकार करना पड़ा। कर्नल मेलेसन अपने ( Native State Of India )नामक ग्रंथ थ में लिखते हैं:–

“But thought the Raja of Bhartpur lost by the time he had taken both money and territory, he gained in prestige and credit, his capital was the only fortress in India from whose walls British troops had been repulsed and this fact alone exalted him in the opinion of princess and people of India”

कर्नल मेलेसन के उस अवतरण से महाराजा रणजीत सिंह जी की महत्ता स्पष्टतया प्रकट होती है। इन पराक्रमी महाराजा रणजीत सिंद जी का देहान्त ईसवी सन्‌ 1805 में हो गया।

महाराजा रणधीर सिंह जी भरतपुर राज्य

महाराजा रणजीत सिंह जी के बाद महाराजा रणधीर सिंह जी भरतपुर राज्य के राज-सिंहासन पर अधिष्ठित हुए। आप बड़े समर्थ और योग्य शासक थे। पिंडारी युद्ध में आपने ब्रिटिश सरकार की बड़ी सहायता की, जिसे मार्किस ऑफ हेस्टिंग्ज ने मुक्तकण्ठ से स्वीकार किया है। महाराजा रणधीर सिंह जी के बाद महाराजा बलदेव सिंह जी प्रभृति एकाध नृपति हुए, जिनका समय ऐतिहासिक दृष्टि से विशेष महत्वपूर्ण नहीं है। घरेलू तथा गद्दी नशीनी के आपसी झगड़ों ही में इनका विशेष समय व्यतीत हुआ। इनके बाद महाराजा जसवन्त सिंह जी का राज्यकाल विशेष उल्लेखनीय रहा है। उसी पर हम यहाँ प्रकाश डालना चाहते हैं।

महाराजा जसवन्त सिंह जी भरतपुर राज्य

महाराजा बलवन्त सिंह जी के बाद उनके पुत्र महाराजा जसवन्त
सिंह जी भरतपुर राज्य के राज्य सिंहासन पर बिराजे। इस समय आप नाबालिग थे, अतएवं आगरा के कमिश्नर मि० टेलर ने राज्य के शासन-सूत्र को संचालित करने के लिए राज्य के सरदारों और माजी साहिबा की सलाह से धाऊ घासीराम जी को रिजेन्ट नियुक्त किया। अंग्रेजी सरकार ने इस नियुक्ति का समर्थन किया। हाँ, उसने राज्य कारोबार पर देख-रेख रखने के लिये पोलिटिकल ऐजेन्ट की नियुक्ति कर दी। उक्त घटना के चार वर्ष बाद महाराजा जसवन्त सिंह जी की माता का स्वर्गवास हो गया और इसी साल अर्थात्‌ सन्‌ 1853 की 8 जुलाई को आपका राज्याभिषेक हुआ। कहने की आवश्यकता नहीं कि धाऊ घासीराम जी ने उक्त महाराजा की परवरिश बहुत ही अच्छे ढंग से की। जसवन्त सिंह जी के पिता महाराजा बलवन्त सिंह जी के राज्यकाल में राज्य शासन का बहुत सा काम जबानी होता था। केवल राज्य-कोष का हिसाब और डिस्ट्रिक्ट ऑफिसरों को दिये जाने वाले हुक्म लिखे जाते थे। स्वर्गीय महाराजा खुले आम इजलास करते थे और मुकदमों के फैसले जबानी ही दे दिया करते थे। सन्‌ 1855 में एजेन्ट हु दी गवनर जनरल कर्नल सर हेनरी लारेन्स भरतपुर राज्य आये और उन्होंने राज्य शासन को नियम बद्ध किया। कई नये महकमे खोले गये और उन पर जुदे जुदे आफिसरों की नियुक्ति हुई। जमीन की बाकायदा पैमाइश की गई। अच्छी तनख्वाह पर तहसीलदारों की नियुक्ति की गई। सब महकमों का बाकायदा रिकार्ड रखने की पद्धति जारी की गई।

सन् 1857 का गदर

सन् 1857 में सारे भारत में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह की प्रचंड अग्नि प्रज्जवलित हो गई थी। इस समय भारत में एक छोर से लगाकर दूसरे छोर तक अशांति की प्रबल लहर बह रही थी। ऐसे कठिन समय में जब कि ब्रिटिश राज्य की नींव हिल रही थी, भरतपुर राज्य दरबार ने ब्रिटिश सरकार की बड़ी सहायता की। यहां से बहुत सी फौजें ब्रिटिश सरकार की सहायता के लिए भेजी गई। कैप्टन निक्सन भरतपुर राज्य की फौजें और तोपखाना लेकर विद्रोह का झगड़ा उठाने वालों का दमन करने के लिए दिल्ली पहुंचने वाले थे, पर रास्ते में मथुरा मुकाम पर उन्होंने दिल्ली की अति गंभीर स्थिति का हाल सुना, इससे आप मथुरा ही ठहर गए। और वहां के डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट और कलेक्टर मि० थार्नहिल को नगर रक्षा के लिए बड़ी सहायता दी। जब उन्होंने सुना कि विद्रोही दल के मथुरा आने की संभावना नहीं है, तब आपने दिल्ली की ओर कूच किया। केवल एक पलटन इस आशय से मथुरा छोड़ते गए कि आवश्यकता पड़ने पर इसका उपयोग हो सके। मि० थार्नहिल कैप्टन निक्सन के साथ काशी तक गये।

महाराजा जसवंत सिंह भरतपुर रियासत
महाराजा जसवंत सिंह भरतपुर रियासत

मि० थार्नहिल की अनुपस्थिति में तीन पलटनों ने जो मथुरा के खजाने की रक्षा के लिए तैनात थी, बगावत का झंडा उठाया और उन्होंने की हिंसामय कार्यों के सहित वहां के खजाने को भी लूट लिया। कहा जाता है कि इस समय इस खजाने में 11 लाख रुपये थे। यहाँ यह कहना आवश्यक है कि मथुरा में रही हुई भरतपुर राज्य की सेना ने इस नाजुक मौके पर भी जितना उससे हो सका अंग्रेजी सरकार की सहायता की। खुद केप्टन निक्सन ने इस फौज की “’सेनिक आज्ञकारिता” की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की।

इसके पश्चात्‌ केप्टन निक्‍सन भरतपुर राज्य की सेना को जयपुर राज्य के दौसा ग्राम में ले गये। इस समय तात्या टोपे, राव साहब और फिरोजशाह की सम्मिलित सनाओ के साथ सन् 1858 की 16 जनवरी को इसका मुकाबला हुआ।

यहाँ तात्या टोपे आदि की पराजय हुई। उनके 300 आदमी मारे गये। उन्हें वैराट्‌ ओर शेखावाटी में भागना पड़ा। तत्कालीन एजेन्ट टु दी गवर्नर जनरल अपनी (Mutiny report) में लिखते हैं ““विद्रोह के समय में भरतपुर के जलों में कोई बखेड़ा नहीं हुआ। ब्रिटिश सरकार के खिलाफ विद्रोह का झगडा उठाने मे किसी जाट का नाम नहीं आया।”।

महाराजा जसवंत सिंह जी की शिक्षा

महाराजा जसवंत सिंह जी की शिक्षा के लिये भी सुप्रबन्ध किया
गया। सब असिस्टेंट सर्जन बाबू भोलानाथ आपके अंग्रेजी भाषा के शिक्षक नियक्त हुए। पंडित बिहारीलाल और मौलवी गुलजार अली क्रम से आप के हिंदी और फारसी के अध्यापक बनाये गये।

विवाह

सन 1859 में महाराजा का तत्कालीन पटियाला-नरेश महाराजा
नरेन्द्र सिंह जी की राजकुमारी के साथ शुभ विवाह सम्पन्न हुआ। सन् 1868 की 26 जनवरी का उक्त महारानी साहिबा से आपको एक पुत्र हुआ। इनका नाम महाराज कुमार भगवंत सिंह रखा गया। दुर्भाग्य से सन्‌ 1869 की दिसम्बर को इन महाराज कुमार का देहावसान हो गया। सन 1870 की 7 फरवरी को महारानी साहिबा का भी पटियाला में स्वर्गवास हो गया।

शासन-सूत्र में परिवर्तन

अब तक भरतपुर राज्य के शासन-सूत्र के प्रधान संचालक पोलिटिकल एजेन्ट थे। कौंसिल को नाममात्र के अधिकार थे। वह केवल उन्हीं मामलों का निर्णय करती थी जो पोलिटिकल ऐजन्ट के द्वारा उसके पास भेज जाते थे। संचालक ऐजेन्ट टु दी गवर्नर जनरल की सलाह से अंग्रेज सरकार ने इतने अधिक हस्तक्षेप की नीति को पसंद नहीं किया। सन्‌ 1861 की 16 मार्च को कैप्टन सी० के० एम० बॉल्टर पोलिटिकल एजेन्ट के स्थान पर नियुक्त किये गये। इसी समय से कौन्सिल को शासन सम्बन्धी बहुत कुछ अधिकार दिये गये। सन्‌ 1862 की 11 मार्च को भारत के अन्य राजाओं की तरह श्रीमान भरतपुर नरेश को भी दत्तक लेने की सनद प्राप्त हुई। सन 1865 में भरतपुर दरबार ने रेलवे बनाने के लिए अंग्रेज सरकार को मुफ्त में ज़मीन दी। सन्‌ 1867 को 28 दिसम्बर को भरतपुर दरबार और ब्रिटिश सरकार के बीच (Extradition treaty) हुई । इसमें अपराधियों के लेनदेन की शर्त का खुलासा है।

महाराजा जसवंत सिंह जी की शिक्षा संबंधी प्रगति

महाराजा जसवन्तसिह जी ने शिक्षा सम्बन्धी प्रगति में बड़ी प्रतिभा
का परिचय दिया। सन 1868-69 मे कैप्टन बॉल्टर ने आपके
सम्बन्ध में निम्मलिखित विचार प्रकट किये थे:– “आपने अपने समकक्ष और सम्बंधिति वाले अन्‍य नवयुवको से अत्यधिक उदार शिक्षा प्राप्त की। आपने बहुत प्रयास किया। आपके विचार बहुत उन्नत थे। विदेशों के संबंध मे आपका ज्ञान उन सब राजाओं से,
जिन्हें मे पढ़ चुका हूं, अधिक व्यापक और विस्तृत है। आप शिष्टाचार के उन नियमों और बन्धनों के बड़े ही खिलाफ हैं जो उन जैसी उच्च-स्थिति के पुरुषों को जन-सधारण के संगर्स से अलग रखने में कारणीभूत होते हैं। आप घोड़े के बड़े बढ़िया सवार थे। कसरत का आपको बढ़ा शौक था। आप रियासत के हर हिस्स से भली प्रकार परिचित थे। आप उन लोगों की स्थिति और आवश्यकताओं को खूब जानते हैं जिन पर इश्वर ने शासन करने की जिम्मेदारी डाली हैं।

आगे चल कर इसी सिलसिले में कैप्टन वॉल्टर ने राजाओं की शिक्षा के लिये एक कॉलेज खोलने की आवश्यकता प्रदर्शित की। कर्नल कीटिंग्ज ने कर्नल वॉल्टर के उक्त विचारों की ओर भारत के तत्कालीन वॉयसराय लॉर्ड मेयो का ध्यान आकर्षित किया। तदनुसार लॉर्ड महोदय ने सन् 1870 की 22 अक्टूबर को अजमेर में एक दरबार किया। इस दरबार में राजपूताने के बहुत से नरेश सम्मिलित हुए थे। बस, मैयो कॉलेज की नीव इसी समय से गिरी। महाराजा जसवंत सिंह जी ने इस कॉलेज के लिये पचास हजार रुपया प्रदान किया। भरतपुर राज्य के विद्यार्थियों के लिये छात्रालय बनवाने के लिये भी आपने 7150 रुपये प्रदान किये।

सन्‌ 1869 की 10 जून को महाराजा जसवन्त सिंह जी को
नियमित राज्याधिकार प्राप्त हुए। इन अधिकारों को महाराजा साहब ने इतना अच्छा उपयोग किया कि सन् 1871 में आपको पूर्ण राज्याधिकार प्राप्त हो गये। उक्त सन्‌ की 7 वीं मार्च को भरतपुर राज्य में एक आम दरबार हुआ। जिसमें कई प्रतिष्ठित युरोपियन और भारतीय सज्जन उपस्थित हुए थे। इसी में बड़े समारोह के साथ महाराजा पूर्ण राज्याधिकारों से विभूषित किये गये। इस अवसर पर तत्कालीन पोलिटिकल एजेण्ट कैप्टन पौलेट और एजेंट टु दी गवर्नर जनरल कर्नल ब्रूक्स ने महाराजा की योग्यता, बुद्धिमत्ता, कार्य-कुशलता और शासन-पटुता की प्रशंसा की, और कहा कि आपको नियमित अधिकार प्राप्त होने के कुछ ही समय बाद राज्य के कई महकमों की स्थिति आशातीत-रूप से सुधर गई।

महाराजा का राज्यकार्य

महाराजा जसवंत सिंह जी केवल शिकार तथा खेलकूद में अपना
समय बर्बाद नहीं किया करते थे, वरन्‌ राज्य-कार्य में भी वे बड़ी दिलचस्पी लिया करते थे। आप खुद मुकदमों की सुनवाई करते तथा उनका यथा समय निर्णय करते। कहा जाता है कि बड़ी गहरी जाँच और सूक्ष्म पथ्यवेक्षषण के बाद आप मुकदमों का फैसला दिया करते थे, जिससे किसी पर अन्याय न हो। इसी समय भारत के तत्कालीन वायसराय लॉर्ड मेयो का अंडमान टापू में किसी कैदी ने खून कर डाला। लॉर्ड महोदय महाराजा जसवंत सिंह जी के बड़े मित्र थे। आपकी मृत्यु का समाचार सुन कर महाराजा साहब को बड़ा दुःख हुआ। आपने आपके स्मृति-भवन के लिये 300 रुपये प्रदान किये।

सन्‌ 1873 में जयपुर और अलवर में भीषण रूप से मुसलधार
वृष्टि हुई। बाख-गंगा और रूपारेल नामक नदियों में बड़े ज़ोर की बाढ़ आई। चारों ओर जल ही जल हो गया। भरतपुर के आस पास के तालाब फूट निकले, कई गाँव के गाँव बह गये। सड़के बंटाढार हो गयीं। कोई 600000 रुपयों का नुक़सान हुआ। नदी किनारे की सारी खरीफ फसल नष्ट हो गई। ऐसे कठिन समय में महाराजा जसवंत सिंह जी ने बड़ा प्रजा-प्रेम प्रदर्शित किया।आपने अपने पव्लिक वर्कस डिपार्टमेन्ट के सारे आदमियों को तथा फौज ओर पुलिस को अपनी प्रिय प्रजा की जान और माल की रक्षा करने के लिये लगा दिया। इतना ही नहीं, खुद महाराजा दिन और रात शहर और आस पास के गाँवों में घूम घूम कर अपनी प्रिय प्रजा की रक्षा का आयोजन करते और सरकारी अधिकारी इस कठिन समय में प्रजा की रक्षा के लिये कैसा काम कर रहे हैं, इसका निरीक्षण किया करते थे। इस प्रशंसनीय कार्य से भरतपुर राज्य की प्रजा के हृदय में महाराजा ने अपना विशेष स्थान प्राप्त कर लिया था।

रूपारेल का मामला

रूपारेल नदी का उद्गम-स्थान अलवर राज्य में है। पुराने समय से इस नदी का जल भरतपुर राज्य की भूमि को सींचने के काम में लाया जाता है। सन्‌ 1805 की 14 अक्टूबर को अलवर दरबार ने लॉर्ड लेक के साथ जो इकरारनामा किया था, उसमें उन्होंने स्पष्ट रूप से यह स्वीकार किया था कि आवश्यकतानुसार भरतपुर राज्य के लिये यह नदी खुली रहेगी। अलवर दरबार मे इस इकरारनामे का बराबर पालन नहीं किया। इससे कई बार अंग्रेजी सरकार को इस मामले में हस्तक्षेप करना पड़ा। सन्‌ 1837 की 15 फरवरी को अंग्रेज सरकार ने यह निर्णय किया कि उक्त नदी का आधा आधा जल दोनों रियासते बराबर बॉट लें। यह हुक्म अलवर और भरतपुर दोनों रियासतों ने स्वीकार कर लिया, तथापि इसके अमलदरामद में कुछ न कुछ बखेड़ा होता ही रहा। इस पर सन्‌ 1854 में कर्नल सर हेनरी ( एजेन्ट टु दी गवर्नर जनरल ) ने एक नई व्यवस्था की। वह यह कि प्रत्येक वर्ष की 10 अक्टूबर से 9 जून तक अर्थात्‌ 8 मास तक नदी अलवर राज्य के लिये और शेष 4 मास तक भरतपुर राज्य के लिये खुली रहे।

इस व्यवस्था से 18 मास तक दोनों दरबारों के बीच शान्ति रही।
पर इसके बाद अलवर राज्य भरतपुर राज्य के इस अधिकार पर अनुचित आक्रमण करने लगा। वह भरतपुर सरकार के खिलाफ ब्रिटिश सरकार के पास शिकायतें भी करने लगा।सन्‌ 1873 में अलवर के पोलिटिकल एजेन्ट कैप्टन कैडेल ने इस सम्बन्ध में एक लम्बा मैमोरेन्डम बना कर एजेन्ट टु दी गवर्नर जनरल के पास भेजा। जब महाराजा जसवंत सिंह जी को इसकी खबर लगी तो उन्होंने इस मामले को फिर से उठाने के लिये जोर दिया। भरतपुर के तत्कालीन पोलिटिकल एजेन्ट कैप्टन शॉबट ने आपका समर्थन किया। तत्कालीन एजेन्ट टु दी गवर्नर जनरल सर ल्यूईंस पेली ने अलवर राज्य के पक्ष की कमजोरी को बतलाते हुए यह मामला अंग्रेज खरकार के पास भेज दिया। अंग्रेज सरकार ने इसका निर्णय भरतपुर दरबार के पक्ष में किया। भरतपुर दरबार की विजय हुईं। भारत सरकार के सेक्रेटरी ने राजपूताना के ए. जी. जी. को सन् 1874 की 7 अक्टूबर को पत्र नंबर 2200 पी. भेजा था उसका सारांश यह है:– “श्रीमान वायसराय का अपनी कौंसिल सहित यह मत है कि इस प्रकार के झगड़ों के निर्णय का जो कि इस सदी के आरम्भ से दो रियासतों के बीच चल रहे हैं, यही एक सुरक्षित मार्ग है कि मौजूदा व्यवस्था ही को अमल दरामद रखा जावे। अतएवं आपसे अनुरोध किया जाता है कि आप दोनों दरबारों को यह सूचित कर दें कि निश्चय रूप से मोजूदा व्यवस्था का ही अमलदरामद रहेगा।

सन्‌ 1805 में अलवर ने यह इकरार किया था कि लासबोरी नदी का बाँध भरतपुर राज्य के प्रान्तों के लाभ के लिये आवश्यकतानुसार हमेशा खुला रहेगा। सन 1854 में सर हेनरी लारेन्स ने जो व्यवस्था की और जिसका अमलदरामद अभी तक है, उसके, आशय ही यह है कि भरतपुर की आवश्यकताओं की पूर्ति की जावे और गवर्नर जनरल इस व्यवस्था को नयी शुरू की हुई पैमाइश आदि के प्रश्नों की भित्ति पर मिटाने का कोई कारण नहीं देखते।

बाणगंगा का मामला

सन 1773 में जयपुर दरबार ने बाणगंगा नदी के जल को रोकने
के लिये जामबाई रामगढ़ के पास एक बाँध बनवाने की योजना की थी। भरतपुर दरबार ने इसका विरोध किया इस नदी से न केवल भरतपुर राज्य के सैकड़ों गाँवों की आबपाशी होती है, वरन खास भरतपुर शहर भी पीने के जल के लिये इसी पर निर्भर था। महाराज के विरोध करने पर राजपुताना डिस्ट्रिक्ट आगरा के सुपरिन्टेन्डिंग इंजिनियर की अध्यक्षता में इस मामले की जाँच करने के लिये एक कमेटी बनी और पूरी जाँच कर ने के बाद उसने पत्र नम्बर 124 सी० तारीख 21 नवम्बर सन 1873 को जो वक्तव्य लिख भेजा उसने बाँध न बाँधने देने का मत प्रदर्शित करते हुए जन हानियों को दर्शाया जो इस बाँध के द्वारा आसपास की रियासतों की हो सकती थीं। इस पर अंग्रेजी सरकार ने जयपुर दरबार को सूचित किया कि इस प्रकार के बांध से भरतपुर राज्य को जो हानि पहुँचेगी, उसकी क्षति का पूर्ति जयपुर दरबार को करनी होगी। जयपुर दरबार ने यह शर्त मंजूर करना ठीक न समझा। इससे बाँध बनवाने की योजना गर्भ ही में विलीन हो गई।

पोलिटिकल एजेन्सी

महाराजा जसवंत सिंह जी ने कई कारण दिखला कर अंग्रेज सरकार से यह अनुरोध किया था कि वह भरतपुर राज्य से पोलिटिकल एजेन्जी उठाकर कहीं अन्यन्न उसकी स्थापता कर दे। अंग्रेज सरकार ने महाराजा की इस अभिलाषा के शुद्ध भाव से प्रेरित हुई समझ कर पोलिटिकल एजेन्सी को उस वक्त आगर में बदल दिया। आगरा में पोलिटिकल एजेन्सी के लिये महाराजा ने बड़े खर्च से सुन्दर और सुसज्जित मकान की व्यवस्था कर दी थी।

दिल्‍ली दरबार

श्रीमती सम्राज्ञी विक्टोरिया के सम्राज्ञी पद धारण करने के उपलक्ष्य में सन्‌ 1877 में दिल्ली में जो आलीशान दरबार हुआ था, उसमें महाराजा जसवंत सिंह जी भी पधारे थे। इस अवसर पर महाराजा के० सी० एस० आई० की उपाधि से विभूषित किये गये थे।

अकाल ओर महाराजा का प्रजा-प्रेम

सन 1877 में भयंकर अकाल पड़ा। यह अकाल “चौंतीस का
अकाल” नाम से मशहूर है। क्योंकि यह विक्रम संवत्‌ 1734 में पड़ा था। उस साल के सितम्बर मास में महाराज़ा जसवंत सिंह जी शिमला में थे। जब आपने अकाल के कारण अपनी प्रजा की दुर्दशा का हाल सुना तो आपने शिमला की अधिक सैर करने के बजाय अपनी प्रिय प्रजा की सुध लेना अधिक उचित समझा। आप श्रीमान्‌ बायसराय से मिलते ही तुरन्त भरतपुर राज्य के लिए रवाना हो गये। भरतपुर आते ही आपने अपनी प्रिय प्रजा के कष्ठ-निवारण के लिये प्रबन्ध करना शुरू किया। सब से पहले महाराजा साहब ने अपने राज्य के तहसीलदारों को आज्ञा दी कि वे तौजी वसूली ( भूमि कर की प्राप्ति ) का काम कतई बन्द कर दे और किसानों को परवरिश के लिये पेशगी रुपया (Advance) दें। साहूकारों को बुलाकर महाराजा ने उनसे अनुरोध किया कि वे ऐसे कठिन समय में किसानों को कर्ज दें। इतना ही नहीं, प्रजा प्रिय महाराजा ने इस कर्ज की सारी जिम्मेदारी अपने कन्धों पर ले ली। बाहर से आने बाले अनाज का सारा महसूल उठा दिया गया।व्यापारियों को खूब प्रोत्साहन दिया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि बाहर से बहुत सा अनाज आ गया। भरतपुर और डिग में गरीब-खाने खोले गये, जहाँ हजारों भूखों ओर अनाथों को मुफ्त भोजन मिलने का सुप्रबन्ध था , बीसो ऐसे काम शुरू किय गये जिनमें हजारों गरीब को मजदूरी कर अपना पेट भरने के साधन मिल गये। इसी समय राज्य के उच्चाधिकारियों ने महाराजा से निवेदन किया कि वे ( महाराज ) अपनी धनिक प्रजा एवं राज्याधिकारियों से चन्दा वसूल कर अकाल-निवारण के कार्य को सुसम्पन्न करें। पर उदार-चित्त महाराजा ने बड़ी घृणा के साथ इस प्रस्ताव को अस्वीकृत कर दिया और कहा कि जब अकाल के कारण सब तकलीफ पा रहे हैं और सब लोगों के खर्च बढ़ रहे हैं ऐसी हालत में लोगों पर नया कर बैठाना या उन पर नया आर्थिक बोझ डालना अन्याय है, में इसे कभी पसन्द नहीं करता। आपने किसी से चन्दा वसूल नहीं किया। सारा का सारा खर्चा राज्य पर डाल दिया। थोड़े दिनों के बाद वर्षा हो जाने से स्थिति सुधर गई, पर महाराज की दानशीलता, उनका अत्युच्च प्रजा-प्रेम, और अपने ऐशो-आराम से अधिक उनका प्रजा कल्याणकारी प्रवृत्ति का ज्वल्यमान चित्र प्रजा के दृदयों में मंडित हो गया। सन 1877 के दिसम्बर मास में अंग्रेज सरकार का निमन्त्रण पाकर महाराजा जसवंत सिह जी कलकत्ता पधारे। यहाँ आप वायसराय के महमान होकर ठहरे। आपके अनेक शुभ कृत्यों से प्रसन्न होकर अंग्रेज सरकार ने आपको जी० सी० एस० आई० की उपाधि से विभूषित किया। इसी समय आप जगन्नाथ जी की यात्रा को भी पधारे।

नमक का मामला

भरतपुर राज्य के भरतपुर, कुम्हेर ओर डिंग आदि स्थानों में प्रति-
साल लगभग 1500000 मन नमक निकलता था। इस पर 50000 आदमियों की रोटी चलती थी। भरतपुर रियासत को इससे प्रति साल 300000 रुपयों की और साम्राज्य सरकार को 5000000 रुपयों की आमदनी थी। सन्‌ 1879 में जब अंग्रेज सरकार ने जयपुर और जोधपुर राज्य से कुछ निश्चित रकम प्रतिसाल देकर साँभर नमक की झील पर अधिकार कर लिया, उसी समय भरतपुर दरबार और ब्रिटिश सरकार के बीच एक समझौता हुआ जिसके अनुसार भरतपुर राज्य से नमक निकालने का काम बिलकुल बन्द कर दिया गया। राज्य की इसमें बड़ी भारी क्षति हुई। हज़ारों आदमियों के पेट की रोजी गई। यह सब कारवाई क्‍यों और किस प्रकार हुई, इस पर यहाँ अधिक लिखने का अवसर नहीं है। अंग्रेजी सरकार ने यह चाहा था कि महाराजा को कुछ क्षतिपूर्ति की रकम दी जावे। पर महाराजा साहब ने इसे लेना उचित नहीं समझा। तब भी अंग्रेज सरकार ने अपनी खुशी से 15000 नकद और 1000 मन सांभरी नमक देने का निश्चय किया। यह रकम अंग्रेज सरकार की ओर से भरतपुर रियासत को बराबर दी जाती रही।

अपराधियों का लेन-देन

अंग्रेज सरकार की मंजूरी से भरतपुर राज्य दरबार ओर अलवर, करोली, धौलपुर तथा जयपुर रियासतों के बीच अपराधियों की गिरफ्तारी ओर उनके लेन-देन के सम्बन्ध में सन्धि हुई। सन्‌ 1884 में भरतपुर राज्य ने शराब, अफ्रीम और अन्य विषेली चीज़ों को छोड़ कर सब चीज़ों पर लगने वाला जावक महसूल उठा दिया। सन्‌ 1885 कीअगस्त को अंग्रेज सरकार की मंजूरी से अलवर और भरतपुर राज्य के बीच कुछ गाँवों का परिवर्तन हुआ।

महाराजा भरतपुर राज्य की उदारता

सन 1883-84 में वर्षा की कमी के कारण खरीफ फसल को
बड़ी हानि पहुंची। उदार-चित्त और सह्रदय महाराजा ने इस समय भूमि कर के 1395350 रुपये माफ़ कर अपने प्रजा-प्रेम का परिचय दिया। इतना ही नहीं, श्रीमान ने किसानो को बैल आदि खेतों के जानवर खरीदने के लिये तथा कच्चे कुएं खुदवाने के लिये तकावी दी। सन 1884 में महाराजा जसवंत सिंह जी श्रीमान ड्यूक ऑफ केनाट तथा वायसराय आदि महोदय से मुलाक़ात की। इस के कुछ दिन पश्चात श्रीमान ड्यूक आफ केनाट डिग और भरतपुर मे पधारे और महाराजा जसवंत सिंह जी के अतिथि रहे। सन्‌ 1887 मे भारत के तत्कालीन प्रधान सेनापति सर डोनल्ड स्टूअट भरतपुर पधारे। महाराजा साहब ने आपका योग्य स्वागत किया। सन्‌ 1889 मे भारत के तत्कालीन बायसराय लार्ड डफरिन महोदय भरतपुर पधारे। यहाँ आपने राज्य के अनेक ऐतिहासिक स्थानों का निरीक्षण किया। महाराजा जसवंत सिंह जी ने आपका बढ़ा आदर अतिथ्य किया। सन 1890 में अंग्रेज सरकार ने महाराजा के अनेक कार्यो से प्रसन्न होकर आपकी तोपों की सलामी 7 स बढ़ा कर 15 कर दी। सन्‌ 1892 की 18 अप्रैल को श्रीमान के द्वितीय पुत्र महाराज कुमार नारायण सिंह जा का देहावसान हो गया। आप पर महाराजा का बड़ा ही स्नेह था। अतएवं आपकी मृत्यु से महाराजा के चित्त को बड़ा ही धक्का पहुँचा। सन् 1893 मे महाराजा लॉर्ड लैन्सडाऊन से मिलने के लिए आगरा जाने की तैयारी कर रहे थे। अकस्मात्‌ आप पर प्राण घातकव्याधि का आक्रमण हो गया और इसी से 12 दिसम्बर को आपका स्वर्गवास हो गया। प्रजा-प्रिय महाराजा जसवंत सिंह जी के स्वर्गवास का समाचार विद्युत वेग की तरह सारे राज्य में फेल गया। चारों ओर शोक का साम्राज्य छा गया। प्रजा को हार्दिक दुःख हुआ।

महाराजा जसवंत सिंह जी भरतपुर राज्य के जीवन पर एक दृष्ठि

भरतपुर के एक इतिहास-लेखक ने लिखा है–“ अगर महाराजा सूरजमल जी के यशस्वी और प्रकाशमान कार्यो ने उन्हें भारत के इतिहास में प्रसिद्ध कर दिया और भरतपुर राज्य को जन्म दिया तथा उसका विस्तार सुदूर प्रदेशों तक कर दिया; अगर महाराजा रणजीत सिंह ने अभूतपूर्व वीरत्व का प्रकाशन कर बड़ी चतुराई के साथ आत्म-रक्षा करने का यत्न किया ओर इतिहास में अपने नाम को गौरवान्वित किया तथा समय आने पर ब्रिटिश सरकार के साथ फिर से स्नेह-सम्बन्ध स्थापित कर लिया, वैसे ही महाराजा जसवंत सिह जी ने भरतपुर को समय की आवश्यकतानुसार उच्च श्रेणी का राज्य बनाने का यत्न किया।

महाराजा रामसिंह जी भरतपुर राज्य

महाराजा जसवंत सिंह जी के बाद उनके पुत्र महाराजा रामसिंह जी भरतपुर राज्य सिंहासन पर बेठे। आप योग्य रीति से शासन सूत्र को संचालित न कर सके। इससे ब्रिटिश सरकार ने पहले तो आपके राज्याधिकार कम कर दिये ओर बाद में एक आदमी को गोली से मार देने के कारण आप राज्यच्युत कर दिये गये।

महाराजा किशन सिंह जी भरतपुर राज्य

भरतपुर के महाराजा श्री विजेन्द्र सवाई किशन सिंह जी बहादुर
थे। आपको लेफ्टनेट कर्नल की उपाधि प्राप्त थी। आपका जन्म सन् 1899 की 4 अक्तूबर को हुआ था। आपके पिता महाराजा रामसिंह जी सन् 1900 की 27 वीं अगस्त को राज्य कार्य से अलग हुए। उस समय आपकी आयु लगभग एक वर्ष की थी। अतएवं आपके बालिग होने तक भरतपुर राज्य शासन पोलिटिकल एजेंट एवं कौसिल ऑफ रिजेन्सी के हाथों में रहा। आपने सन् 1916 तक अजमेर के मेयो कॉलेज में विद्याध्ययन किया। इसके पश्चात्‌ डिप्लोमा की परीक्षा उत्तीर्ण कर आप भरतपुर में शासन कार्य सीखने लगे। दो वर्ष तक आप लगातार शासन व्यवस्था का अध्ययन करते रहे। सन्‌ 1918 की 28 वीं नवंबर को आपको तत्कालीन वायसराय लॉर्ड चेम्स फोर्ड द्वारा सम्पूर्ण शासनाधिकार प्राप्त हुए।

महाराजा किशन सिंह भरतपुर रियासत
महाराजा किशन सिंह भरतपुर रियासत

सन् 1913 की तीसरी मार्च को आपका विवाह फरीदकोट के
स्वर्गीय महाराजा साहब की कनिष्ठ भगिनी के साथ सम्पन्न हुआ। सन् 1914 में आप इंग्लैंड पधारे तथा वेलिंगटन कालेज में भर्ती हुए। वहाँ आपने उस वर्ष के नवंबर मास तक विद्या अभ्यास किया। इसके पश्चात आप वापस लौट आये। आपके युवराज का नाम महाराज कुमार विजेन्द्र सिंह जी था। इनका जन्म सन् 1918 की 30 वीं नवंबर को हुआ था। ये ही भरतपुर राज्य के भावी महाराजा थे। श्रीमान महाराजा किशन सिंह जी भरतपुर नरेश, प्रतिभा-सम्पन्न और बुद्धिमान महानुभाव थे। आप बड़े ही सह्रदय और मिलनसार थे।उनके व्यवहार में–वार्तालाप में –उसने एक प्रकार का आकषर्ण था।

श्रीमान भरतपुर नरेश ने अपने राज्य में घोषणा द्वारा बेगार लेने की कतई मनाही कर दी थी। राजपूताने के नरेशों में आप पहले ही हैं जिन्होंने इस सम्बन्ध में एक आदर्श उपस्थित किया। श्रीमान भरतपुर नरेश समाज सुधार के बड़े पक्षपाती थे। पुष्कर में जाट महा प्रथा के सभापति की हैसियत से आपने जो भाषण दिया था, उससे आपके प्रगतिशील विचारों का पता चलता है। उसमें आपने शुद्धि और संगठन पर भी बड़ा जोर दिया था।

श्रीमान का हिन्दी साहित्य पर बड़ा प्रेम था। हिन्दी के सुविख्यात्‌
लेखक श्रीयुत जगन्नाथ दास जी अधिकारी को आप ही ने महन्त के पद पर अधिष्ठित किया था। भरतपुर में इस साल जिस अपूर्व समारोह के साथ हिन्दी साहित्य-सम्मेलन, आर्य-सम्मेलन तथा सम्पादक-सम्मेलन आदि हुए उससे श्रीमान के उत्कृष्ट साहित्य- प्रेम की सूचना मिलती है। आप ही की कृपा का फल है कि यह साहित्य-सम्मेलन अपूर्व था और जगत विख्यात हो, रवीन्द्रनाथ, विश्व कीर्ति विज्ञानाचार्य जगदीश चन्द्र बसु, पूजनीय पं० मदन मोहन मालवीय आदि विभूतियों ने इस सम्मेलन की शोभा को बढाया था। कहने की आवश्यकता नहीं कि इस सम्मेलन का सारा खर्च श्रीमान ने दिया था। कहने का अर्थ यह है कि श्रीमान भरतपुर नरेश एक होनहार और प्रतिभा सम्पन्न महानुभाव थे। अगर आप के आस पास योग्य वायु मण्डल रहता तो आप भारतीय नृपतियों के लिये एक उच्च आदर्श उपस्थित कर सकते थे। परंतु सन् 1929 में आगरा में आपका देहान्त हो गया।

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Naeem Ahmad

CEO & founder alvi travels agency tour organiser planners and consultant and Indian Hindi blogger

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