पुण्यभूमि आर्यवर्त के सौराष्ट-प्रान्त(गुजरात) में जीर्ण दुर्ग नामक एक अत्यन्त प्राचीन ऐतिहासिक नगर है, जिसे आजकज जूनागढ़ कहते है। भक्त नरसी मेहता का जन्म लगभग संवत् 1470 में इसी जूनागढ़ में एक प्रतिष्ठित नागर ब्राह्मण परिवार में हुआ था। कुछ लोगों का मत है कि जूनागढ़ के पास ही तलाजा नामक गांव में भक्त नरसी मेहता का जन्म हुआ था। और बाद में उनका परिवार जूनागढ़ आकर रहने लगा था। इसकी पुष्टि स्वयं नरसी मेहता के एक पद से होती है। जिसमें वो कहते है:–
गाम तलाजामां जन्म मारो थवोः भाभीए मूरख कही मेहेणुं दींधु।
वचन वाग्युं एक अपूज शिवलिगनुं वनमांहे जइ पूजन कींधु।।
भक्त नरसी मेहता की कथा
भक्त नरसी मेहता के पिता का नाम था कृष्ण दामोदरदास तथा माता का नाम था लक्ष्मीगौरी। उनके एक और बडे भाई थे, जिनका नाम था वंशीधर। अभी वंशीधर की उम्र 22 वर्ष और नरसी मेहता की उम्र 5 वर्ष के लगभग थी कि उनके माता-पिता का देहान्त हो गया और उसके बाद नरसी मेहता का पालन-पोषण बड़े भाई तथा दादी ने किया। दादी का नाम था जयकुंवरि। भक्त नरसी मेहता बचपन से गूंगें थे प्रायः आठ वर्ष की उम्र तक उनका कण्ठ नहीं खुला। इस कारण लोग उन्हें गूंगा कहकर पुकारने लगे। इस बात से उनकी दादी जयरकुंवरि को बडा कष्ट होता था। वह बराबर इस चिन्ता में रहती थीं कि मेरे पौत्र की जबान कैसे खुले। परन्तु मूक को वाचाल कौन बनावे, पंगु को गिरिवर लांघने की शाक्ति कौन दे? जयकुंवरि को पूरा विश्वास था, ऐसी शक्ति केवल एक परमपिता परमेश्वरम ही है, उनकी दया होने पर मेरा पौत्र भी तत्काल वाणी प्राप्त कर सकता है और साथ यह भी उसे विश्वास था कि उन दयामय जगन्नाथ की कृपा साधारण मनुष्यो को उनके प्रिय भक्तो के द्वारा ही प्राप्त हुआ करती है। अतएव स्वभावतः ही उनमे साधु-महात्माओ के प्रति श्रद्धा ओर आदर का भाव था। जब और जहां उन्हें कोई साधु-महात्मा मिलते, वह उनके दर्शन करती और यथाशक्ति श्रद्धापूर्वक सेवा भी करती।
कहते है, श्रद्धा उत्कृष्ट होने पर एक-न-एक दिन फलवती होती ही है। आखिर जयकुंवरि की श्रद्धा भी पूरी होने का सुअवसर आया। फाल्गुन शुक्ल पंचमी का दिन था। ऋतुराज का सुखद साम्राज्य जगत भर में छा रहा था। मन्द-मन्द बसन्त वायु सारे जगत के प्राणियों में नवजीवन का संचार कर रहा था। नगर के नर-नारी प्रायः नित्य ही सांयकाल हाटकेश्वर महादेव के दर्शन के लिए एकत्र हुआ करते, स्त्रियां मन्दिर में एकत्र होकर मनोहर भजन तथा रास के गीत गाया करती। नित्य की तरह उस दिन भी खासी भीड थी। जयकुंवरि भी नाती को साथ लेकर हाटकेश्वर महादेव के दर्शन को गयी। दर्शन करके लौटते समय उनकी दृष्टि एक महात्मा पर पड़ी, जो मन्दिर के एक कोने में व्याध्राम्बर पर आसन लगाये बैठे थे। उनके मुख से निरन्तर “नारायण नारायण” शब्द का प्रवाह चल रहा था। उनका चेहरा एक अपूर्व ज्योति से जगमगा रहा था। देखने से ही ऐसा मालूम होता था जैसे कोई परम सिद्ध योगी हो। उनकी दिव्य तपोपलब्ध प्रतिमा से आकृष्ट होकर जयकुंवरि भी अपने साथ की महिलाओं संग उनके दर्शन करने को चली गयी। उसने दूर से ही बडे़ आदर ओर भक्ति के साथ महात्मा जी को प्रणाम किया ओर हाथ जोड़कर विनती की– “महात्मन् ! यह बालक मेरा पौत्र है, इसके माता-पिता का देहान्त हो चुका है। प्रायः आठ वर्ष का यह होने चला, पर कुछ भी बोल नहीं सकता। इसका नाम नरसिंहराम है ( भक्त नरसी मेहता का पुराना नाम ) परन्तु सब जग इसे गूंगा कहकर ही पुकारते है।इससे मुझे क्लेश क्ले होता है। महाराज ! ऐसी कृपा कीजिए कि इस बालक की वाणी खुल जाये गोस्वामी तुलसीदास जी ने ठीक दी कहा है कि–
संत हृदय नवनीत समाना। कहा कविन पै कहइ न जाना।।
निज परिताप दबइ नवनीता। संत दबइ परताप पुनीता॥
महात्मा्ं का हृदय मक्खन के समान होता है। इतना ही नहीं माखन तो केवल अपने ही ताप से द्रवित होता है और सत्पुरुष दूसरो के ताप से द्रवीभूत हो जाते है। फिर ये महात्मा तो देवी शक्ति से सम्पन्न थे और मानो उस वृद्धा की मनोकामना पूरी करने के ही लिए ईश्वर द्वारा प्रेरित होकर वहां आये थे। उन्होंने बालक को अपने पास बिठाया और उसे एक बार ध्यानपूर्वक देखकर कहा– यह बालक तो भगवान का बडा भारी भक्त होगा। इतना कहकर उन्होने अपने कमण्डलु से जल लेकर मार्जन किया। और बालक के कानों में फूंक देकर कहा– बच्चा कहो राधे कृष्ण राधे कृष्ण।
बस, महात्मा की कृपा से जन्म का गूंगा बालक राधे कृष्ण राधे कृष्ण कहने लगा। उपस्थित सभी मनुष्य आश्चर्यचकित हो गये ओर महात्मा जी की जय-जयकार पुकारने लगे। गूंगे पौत्र के मुख से भगवान के नामोच्चार सुनकर वृद्धा जयकुंवरि को कितनी प्रसन्नता हुई होगी, इसे कौन बता सकता है। उसने महात्माजी को बार-बार प्रणाम किया और हाथ जोड़कर बडी दीनता के साथ प्रार्थना की– महाराज ! आपकी ही कृपा से मेरा पौत्र अब बोलने लगा। मेरा बड़ा पौत्र राज्य में थानेदार के पद पर है। आप मेरे घर पर पधारने की कृपा करे और मुझे भी यथाशक्ति सेवा करने का सुअवसर प्रदान करे। आपकी चरणरज से मेरा घर भी पवित्र हो जायगा।
परन्तु सच्चे महात्मा सेवा या पुरस्कार के भूखे नहीं होते। वे तो सदा स्वभाव से ही लोक-कल्याण की चेष्टा करते रहते है। महात्मा जी ने प्रसन्नता पूर्वक उत्तर दिया—माता ! सुझे कोई योगबल या तपोबल नहीं प्राप्त है। इस संसार में जो कुछ होता है, सब केवल प्रभु की कृपा से ही होता है। उन महामहिम परमात्मा की माया ‘अघटनघटनापटीयसी कहती है। अतः मेरा उपकार भूलकर उन परमात्मा के ही प्रति कृतज्ञता प्रकट करो ओर उनका नाम स्मरण, भजन-पूजन करो। मै इस तरह अकारण अथवा प्रतिष्ठा के लिए किसी गृहस्थ के घर पर नहीं जाता। तुम घर पर जाकर प्रभु का भजन करो, तुम्हारा कल्याण होगा। मै तो अब गिरनार पर जाता हूं ओर तुम्हारे इच्छानुसार यह कह जाता हूं कि थोडे ही दिनो में एक कुलवती सुरूपा कन्या से इसका विवाह भी हो जायगा।
जयकुंवरि को महात्मा जीके सामने विरोष आग्रह करने का साहस न हआ। वह पौत्र के साथ प्रसनवदन अपने घर चली आयी ओर उसने बडे पौत्र वंशीधर से महात्माजी का चमत्कार कह सुनाया। वंशीधर ने महात्माजी के दर्शन करने की लालसा से सिपाहियों द्वारा बडी खोज करायी, परन्तु कहीं उनका पता न लगा। लोगों का विश्वास है कि अपने भावी भक्त नरसी मेहता को ईष्टमन्त्र तथा वाचा देने वाले सिद्ध पुरुष स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ही थे।
माणिक गौरी स्वरूपवती और सुलक्षणा कन्या थी,अतएव मनचाही योग्या पौत्रवधू पाकर उसे बड़ा सन्तोष हुआ। वंशीधर ने छोटे भाई नरसिंहराम की केवल पालन-पोषण और विवाह की ही चिन्ता नहीं की, बल्कि उनकी शिक्षा की ओर भी ध्यान दिया। उन्होने नरसिंह राम को एक संस्कृत पाठशाला में पढ़ने के लिए बैठा दिया। परन्तु नरसिंहराम का मन पढ़ने-लिखने में नहीं लगा। जबसे उन्हें महात्मा जी के द्वारा ईष्टमन्त्र की प्राप्ति हुई तब से उनका मन अधिकाधिक भगवान की ओर आकृष्ट होने लगा। वह निरन्तर राधे-कृष्ण नाम का जप किया करते। सुबह शाम मन्दिर मे जाकर देवी-देवताओं की पूजा करने, दर्शन करते और भजन- कीर्तन सुनते। श्री शंकर भगवान में भी उनकी बडी भक्ति थी। वह मन्दिर मे जाकर बडी श्रद्धा और प्रेम के साथ उमा-महेश्वर की पूजा-अर्चना करते और प्रेमानन्द में विभोर होकर भोलेनाथ के गुणगान करते। अगर कहीं पुराण या भागवत की कथा होती तो वहां जाकर बड़े ध्यान से भगवत कथा सुना करते। द्वारिका आने जाने वाले साधु-महात्मा जब अपने गांव में आते तो उनके दर्शन करते, यथासंभव उनकी सेवा करते, उनके उपदेश सुनते। अगर कोई भजन-कीर्तन करता तो स्वयं भी उसके साथ बैठकर भजन के पद गाते या करताल बजाया करते, कोई यदि भाव विभोर में आकर नृत्य करने लगता तो वह भी उसके साथ नाचने-कूदने लगते। अगर कभी कोई रास मण्डली गांव में आ जाती तब तो इनके आनन्द का कोई ठिकाना ही न रहता। नित्य ही रासलीला देखा करते। श्रीराधा, श्रीललिता आदि सखियों तथा ब्रज के अन्य गोप-गोपियो के भगवत प्रेम को देखकर वह इतने तत्लीन हो जाते कि उन्हें अपने शरीर की सुधि-बुधि भी नही रहती। कभी-कभी तो स्वंय भी वह किसी मण्डली में शामिल हो जाते। जब उन्हे रास में गोपी बनकर नाचने का सुअवसर मिल जाता तब तो वह अपार आनन्द का अनुभव करते ओर कृष्ण प्रेम में नाचते-नाचते बेहोश हो जाते। वह अपनी धुन मे खाना-पीना भी छोड देते, कई दिनों तो घर पर जाते ही नहीं। इसके लिए उन्हे भाई-भौजाई की डांट भी सुननी पडती, ताडना भी सहनी पडती, समाज में निन्दा भी होती, परन्तु फिर भी वह अपनी चाल न छोडते। भला जो एक बार अमृत स्वरूप भगवत प्रेम रस का आस्वादन पा गया उसे कोई उससे दूर हटा सकता है भक्त नरसी मेहता ने पढ़ना-लिखना, खाना-पीना, सोना, खेलना-कूदना, दुःख-सुख, निन्दा- स्तुति सब कुछ उस एक भगवत प्रेम के ऊपर वार दिया।
वंशीधर ने उन्हें अपने मनोनुकूल ठीक मार्ग पर लाने के लिए कोई बात उठा न रखी, भौजाई ने भरपूर कौसने तथा पति-पत्नी दोनो को कष्ट पहुंचाने में अपनी ओर से कोई कोर-कसर न रहने दी, परन्तु (जैसे काटी कामरी चढत न दूजो रंग) नरसी मेहता के पक्के रंग पर कोई दूसरा रंग चढ़ा, धीरे-धीरे उनकी उम्र भी प्रायः पंद्रह वर्ष की हो गयी। भाई ने जब देखा कि अब उनका पढ़ना लिखना कठिन है, तब उन्होंने उनको घोड़ों की परिचर्या तथा घास काटने का कार्य सौप दिया। परन्तु इस साइसी के काम से भी नरसी मेहता को कोई कष्ट नहीं हुआ। वह बडी प्रसन्नता के साथ भगवन स्मरण करते हुए शक्तिभर सारा कार्य करने लगे।
प्रायः सौलह वर्ष की अवस्था होते-होते भक्त नरसी मेहता की पत्नी माणिकगौरी के गर्भ से एक पुत्री का जन्म हुआ। उसके दो वर्ष बाद फिर माणिकगौरी को एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। पुत्री का नाम कुँवरबाई ओर पुत्र का नाम शामलदास रखा गया। इस तरह भक्त नरसी मेहता को दो सन्तान का पिता होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। परन्तु उनका यह सौभाग्य दुरितगौरी की आंखो का कांटा बन गया। एक तो यों ही देवर-देवरानी को देखकर वह सदा जला करती थी, अब उनके परिवार की वृद्धि उसके लिए और भी असह्य हो उठी। दोनों भक्त दम्पत्ति यद्यपि सेवक-सेविका की तरह दिन रात घर के सब छोटे-बड़े काम किया करते थे, फिर भी दुरितगौरी यही समझती थी कि यें लोग मुफ्त ही घर में बैठकर खा रहे है और दिन-पर-दिन इनका खर्च भी बढता ही जाता है। अतएव वह अब नित्य उनके काम में अकारण दोष निकालने लगी ओर झुठी-झूठी बातों से उनके विरुद्ध अपने पति के कान भरने लगी। नानाप्रकार के कारण दिखाकर उन्हे सताने लगी। वंशीधर यद्यपि यह जानते थे कि मेरी पत्नी बडी दुष्ट है, द्वेषवश छोटे भाई ओर उसकी पत्नी पर झूठा दोषारोपण करती है, वे बेचारे तो एकदम निर्दोष और पवित्र है, फिर भी कभी-कभी पत्नी की बातों में आकर वह छोटे भाई को कुछ भला बुरा सुना दिया करते थे।इस तरह परिवार में कुछ कलह का सूत्रपात हो गया।
वृद्धा जयकुंवरि को इस कलह का भावी कुपरिणाम स्पष्ट दिखाई दे रहा था। परन्तु घर में मृत्यु शैय्या पर पड़ी एक वृद्धा की बात सुनता कौन है? वह चुपचाप सब देखा करती। धीरे-धीरे उसकी अवस्था भी लगभग 95 वर्ष की हो गई। उसने मन में सोचा “अब मेरा जीवन बहुत थोडा है। अगर नरसी मेहता की पुत्री का विवाह भी मेरे सामने ही हो जाता तो अपनी यह अन्तिम इच्छा भी पूरी करके मैं शान्तिपूर्वक इस संसार से विदा होती ओर इस बेचारी का भी एक ठिकाना लग जाता। उन्होंने एक दिन वंशीधर को पास बुलाकर अपनी अभिलाषा प्रकट की।
वंशीधर ने वृद्धा दादी की आज्ञा टलना उचित नहीं समझा। उन्होने एक कुलीन और सुयोग्य वर की खोज करने के लिए कुल के पुरोहित को भेज दिया। पुरोहित जी घूमते-फिरते काठियावाड़ के
ऊना नामक गांव में आये और उन्होंने वहां के श्रीमन्त नागर श्री रंगधर मेहता के पुत्र वसन्तराय के साथ कुंवरबाई का विवाह निश्चित किया। निश्चित तिथि पर बड़े धूमधाम के साथ कुंवरबाई की शादी हो गई। वृद्धा जयकुंवरि की अभिलाषा पूरी हुई और वह उसके लगभग तीन मास बाद शान्तिपूर्वक इस संसार से विदा हो गई।
शिव का अनुग्रह
बड़े भाई की आज्ञा के अनुसार नरसी मेहता बडी सावधानी से
पशुओं का पालन करते थे। अपनी ओर से जान-बूझकर काम में तनिक भी लापरवाही नदीं करते थे। जब इससे फुरसत मिलती थी तब भजन-पूजन करते थे, कथा-कीर्तन मे जाते थे अथवा साधुसंग किया करते थे। परन्तु भौजाई उनसे कभी सन्तुष्ट नहीं रहती थी, वह बराबर उन्हें तंग करने का कोई-न-कोई मौका ढूंढा ही करती थी। नरसी मेहता उसके दुष्ट स्वभाव के कारण उससे बहुत डरा करते थे। अपनी ओर से बराबर एसी चेष्टा किया करते थे, जिसमे उसे शिकायत करने का मौका ही न मिले। अधिकतर वह घर भी तभी आते जब बड़े भाई घर में होते। जिस दिन सरकारी काम से वंशीधर कहीं बाहर चले जाते उस दिन तो भक्त नरसी मेहता की दुर्दशा हो जाती। दुरितगौरी का सब दिन का क्रोध मानो उसी दिन जाग्रत हो उठता और वह जितना कष्ट पहुंचा सकती उस दिन उतना दोनों पति पत्नी को पहुंचाती। फिर भी भक्तराज कभी विचलित न होते।
एक दिन वंशीधर राज्य कार्य के लिए बाहर गये हुए थे। नरसी मेहता प्रातःकाल घर का काम समाप्त कर घास काटने के लिए गये ओर प्रायः सन्ध्या समय घास का बोझ लेकर लौटे। घोडों के सामने घास डालकर उन्होने स्नान किया। दिनभर जंगल में धूम-धूमकर घास काटते रहने से वह क्षुधा से पीडित हो रहे थे। अतः उन्होने भौजाई से भोजन मांगा। उस पर दुरितगौरी कडककर कहने लगी– देखो तो! बड़ा भगत आया है। रोज सुबह घास काटने का बहाना करके घर से सुधि न थी। वह तो अखिल भुवनपति के ध्यान में पडे थे और उन्ही की पुकार कर रहे थे। धीरे-धीरे रात बीती, सूर्य भगवान के आगमन से पृथ्वी का अन्धकार न मालूम कहां विलीन हो गया। फिर भी ब्राह्मण नरसी मेहता उसी स्थिति में जमीन पर सिर टेके रुदन ओर विनती कर रहे थे। फिर दिन बीता ओर रात आयी ओर इस तरह दिन के बाद रात ओर रात के बाद दिन आता ओर चल जाता परन्तु वह उसी स्थिति मे पडे रहे। वह अपनी श्रृद्धा ओर संकल्प से लेशमात्र भी विचलित नहीं हुए।
इस प्रकार प्रायः सात दिन की उग्र तपस्या से कैलाशपति का
आसन डोल गया और सातवे दिन आधी रात के बाद भगवान
भोलेनाथ भक्त के सामने साक्षात प्रकट हुए। उन्हे देखते ही भक्तराज उनके परमपावन चरणकमलो पर यह कहते हुए लेट गये कि मेरे भोलेनाथ आओ ! मेरे शम्भु आओ। भगवान शंकर ने कहा– वत्स ! मे तुम्हारी सात दिन की घोर तपस्या से अत्यन्त प्रसन्न हूं। तुम मुझ से इच्छित वर मांग लो।
भक्तराज ने नम्रतापूर्वक प्रार्थना की– भगवन ! मुझे किसी वरदान की इच्छा नहीं है। फिर भी आपकी आज्ञा वर मांगने की है,अतएव जो वस्तु आपको अत्यन्त प्रिय हो, वही वस्तु आप वरदान में देने की कृपा करे!
कहते हैं कि भगवान शंकर भक्त नरसी मेहता को लेकर भगवान श्री कृष्ण के पास द्वारकाधीश पहुंच, जहां उनका भव्य स्वागत हुआ। भगवान शंकर ने श्रीकृष्ण से कहा — ये हमारा परम भक्त है इसने सात दिन तक कठिन तप करके मुझे प्रसन्न किया और मैने उसको करदान में अपनी प्रिय वस्तु देने का वचन दिया है। इसलिए आज मैं इस वैष्णव भक्त को आपके पुनीत चरणकमलो में समर्पण करने के लिए आया हूं। आप भक्त वत्सल है, सदा भक्तों के अधीन रहते है, अतः आशा है कि मेरी प्रार्थना आप स्वीकार करेंगे।
इतना सुनते ही भगवान श्रीकृष्ण ने प्रसन्नता पूर्वक भक्त नरसी मेहता के सिर पर हाथ रख कर उन्हें स्वीकार कर लिया। और भगवान शंकर वहां से विदा हो गए। भक्तराज प्रेम से गदगद होकर श्री प्रभु के चरणों में लेट गये। और अस्रुधारा धारा से श्रीचरणों को पखार दिया। भगवन ने भक्तराज को सम्बोधन करके कहा:– वत्स! मेरे और महादेव के रूप में किन्चितमात्र भी अंतर नहीं है, मैं शंकर को अपना आराध्य देव समझता हूं, और शंकर मुझको। इस प्रकार हम दोनों के अभिन्न होने के कारण, तुमने जो शंकर की पूजा की है, वह वास्तव में मेरी ही पूजा है। इतना कहकर भगवान कृष्ण भक्त नरसी मेहता को अपने अत:पुर में ले गए। उसी समय से भक्त नरसी मेहता भगवान कृष्ण की सेवा में रहने लगे।
उन्ही दिनों शरद-पूर्णिमा का समय आ गया और श्रीधाम में रास की तैयारी हुई। तत्काल वृन्दावन की तरह सुरम्य रासमण्डल तैयार हो गया और सौलह सत्रह गोपियां और इतने ही भगवान के रूप प्रकट हो गये। उसी समय भक्तराज ने भी गोपी वेष में अपना राग छेड दिया। वह भगवद्गुणगान मे एकदम लीन हो गए। उनके इस भाव को देवकर गोपाल अयन्त प्रसन्न हो गए ओर उन्होने पुरस्कार में भक्तराज को अपना पीताम्बर ओढा दिया। उसके बाद श्री भगवान ने शंखध्वनि की और रास शुरू हो गया। कृष्ण ने नरसी मेहता के हाथ मे दीपक देकर रास मण्डल के बीच में खडा कर दिया। भक्तराज रास देखने में तन्मय हो गये। इस प्रकार आनन्दोत्सव, भगवन दर्शन और भगवन सेवा में ही नरसी मेहता को प्रायः एक मास॒ बीत गया, परन्तु उन्हें यह समय एक पल से अधिक नहीं मालूम हुआ। एक दिन वह बैठे भगवान की चरण सेवा कर रहे थे कि अचानक उनका ध्यान अपने सौभाग्य पर गया ओर वह सोचने लगे– “अहा ! मै धन्य हूं जो मुझे साक्षात लक्ष्मी तथा देवी मुनियों को भी दुर्लभ भगवान की चरण-सेवा करने का सुअवसर प्राप्त हुआ है। परन्तु ऐसा सौभाग्य मुझे अपनी भौजाई की ही कृपा से प्राप्त हुआ है, अतएव मुझे उन्ही का उपकार मानना चाहिये। भक्तराज इसी विचार मे डूबे हुए थे कि एकाएक उन्हें भगवान की वाणी सुनायी पडी। उन्होने कहा– वत्स! तुम्हारी सेवा ओर एकान्त भक्ति से मैं अत्यन्त प्रसन्न हूं। कहो, तुम क्या चाहते हो। भक्त नरसी मेहता ने निवेदन किया:– भगवान! यदि दास की धृष्टता न समझी जाय तो इससे पहले मेरा एक प्रश्व है। यदि किसी दरिद्र मनुष्य को चिन्तामणि मिल जाय और वह फिर भी सामान्य धन के लिए लालच करे तो उसे क्या कहा जायगा। भगवान ने उत्तर दिया– असन्तोषी, मूर्ख।
तब स्वामिन् ! आप मुझे मूर्ख क्यों बनाना चाहते हैं? चिन्तामणि के समान अपने चरण कमलो की प्राप्ति कराकर फिर आज मुझसे अन्य मांग की आशा रखते है। नाथ ! मुझे भुलावे में न डालिए। मैं अब और कुछ नहीं चाहता। मैं अब सदा आपके चरणों में रहना चाहता हूं। नरसी मेहता ने निम्रता पूर्वक कहा। भगवान ने कहा:– वत्स ! तुम्हारी निष्ठा धन्य है। परन्तु जगत में प्रत्येक गृहस्थ के ऊपर तीन प्रकार के ऋण होते है– पहला ऋण है स्त्री-पुत्रादि का, दूसरा पितरो का, ओर तीसरा देवों का। मनुष्य गृहस्थाश्रम को स्वीकार करके जब तक उन ऋणो से मुक्त नहीं हो जाता तब तक उसे पुनर्जन्म धारण करना पडता है। अतः; मेरी आज्ञा से मृत्युलोक जाकर तुम इन तीनों ऋणो से मुक्त हो जाओ।
नरसी मेहता को यह सुनकर बडा दुःख हुआ। भगवान से अलग होना उनके लिए असहनीय था। अतः उन्होने सजल नेत्रों से कहा:– प्रभु! आपके चरणों की धुलि प्राप्त होने पर भी क्या कोई ऋण शेष रहता है? हे नाथ! ऐसी आज्ञा देकर मुझे पुनः संसार में न फंसाए। मैं संसार से त्रस्त होकर आपके चरणों में आया हूं। मैं पुनः संसार के व्यावहारिक कार्यों में फंसना नहीं चाहता।
भगवान ने कहा:– भक्तराज ! सत्य है कि मेरी शरण प्राप्त होने पर जीव तमाम ऋण अनुबंध से मुक्त हो जाता है। तुम भी अपने उपर कोई ऋण न समझो पर लोकसंग्रह के लिए तो ऋणों से मुक्त होना चाहिए। तुम जाओ! सब काम मेरी पूजा समझ कर करो, साथ ही मेरे विग्रह भी अर्चना करो। तुम्हारे जैसे ऐकान्तिक भक्त के लिये यद्यपि मूर्ति-पूजा अनिवार्य नही, फिर भी मैं तुम्हें ध्यान-पूजा करने के लिए अपनी एक प्रतिमा देता हूं। इस प्रतिमा-की पुजा-अर्चना करने ओर ध्यान करने से तुम्हारी भक्ति ओर भी दृढ़ हो जायेगी। साथ ही यह करताल भी मै देता हूं, इस करताल के द्वारा जब तुम मेरा कीर्तन करोगे तभी में तुम्हारे पास उपस्थित हो जाऊंगा और तुम्हारे गृहस्थ आश्रम के सभी कार्यों को सिद्ध कर दूंगा। अतः तुम जूनागढ़ में जाकर मेरी भक्ति करो। भगवान के इस प्रकार आश्वासन देने पर भक्त नरसी मेहता राजी हो गए। भगवान ने उन्हें अपनी प्रतिमा और करताल सौंप दी, एवं पीताम्बर और मयूर का मुकुट पहना दिया। नरसी मेहता ने भगवान के चरणों पर गिरकर बार बार प्रणाम किया और फिर भगवती प्रेरणा से तुरंत जूनागढ़ जा पहुंचे।
भक्त नरसी मेहता का अन्नय आश्रय
प्रातःकाल का समय था, भगवान भुवनभास्कर ने अपने उपः कालीन प्रकाश से दसो दिशाओं को सुवर्णमयी बना रखा था।
इसी समय भक्तवर नरसी मेहता जूनागढ़ के समीप गरुङासन से उतर पडे। उन्होने एक समीपवर्ती तालाब पर स्नान आदि नित्य-क्रियाओं से छुट्टी पा कुछ देर भगवद-भजन किया। उसके बाद उन्होंने सोचा— मै किसके पास चलू? भाई-भौजाई ने तो उसी दिन घर से निकाल दिया था, वे लोग क्यों मेरा स्वागत करेंगे? परन्तु उनके सिवा अपना दूसरा है भी कौन ? पहले तो उन्ही के पास चलना चाहिये, चाहे वे मेरा अपमान ही क्यों न करे। उनके पास भगवान की दी हुई प्रतिमा, करतार, मोर मुकुट ओर पीताम्बर के सिवा ओर कुछ तो था नहीं। इन्हीं वस्तुओ के साथ वैष्णव-वेष मे वह अपने घर आये। उन्होंने बड़ी नम्रता के साथ अपने भाई-भौजाई को प्रणाम किया। उनके इस वेष को देखकर वंशीधर को बडा आश्चर्य और साथ ही क्रोध हुआ। उन्होने कहा– अरे मूर्ख ! तैने यह क्या बाना धारण किया है ? मस्तक पर तिलक, गले मे तुलसी की माला, हाथ मे करतार, सिर पर मोर मुकुट और कमर मे पीतम्बर– यह सब किसने तुझे पहनाया है? उतार फेंक इस वेष को।
भक्त नरसी मेहता जीभक्त नरसी मेहता ने बडे विनय के साथ कहा– भाईजी! यह आप क्या कह रहे है? यह वेष स्वंय वैकुंठवासी भगवान श्रीकृष्ण जी का दिया हुआ है। मेरे लिए यही उनका परम पवित्र प्रसाद है। भगवान् के प्रसाद की अवज्ञा स्वंय भगवान की अवज्ञा है। वंशीधरने तिरस्कारपूर्ण शब्दों में कहा– अरे मूर्ख ! क्यों पागलपन की बाते करता है, नादानी छोड, अब तू लडका नहीं रहा, दो बालको का पिता है। यह भिखारियों का सा वेष छोडकर दो पैसे पैदा करने का उपाय कर। नात-जात मै क्यों मेरी हठी कराता है, ये सब चाल छोडकर ठीक रास्ते पर आ जाये तो अब भी राणा से कह सुनकर तुझे दस-पांच की की नौकरी दिला दूं। इस पागलपन में क्या रखा है? भूखों मरना पडेगा।’
भक्तराज ने कहा:– भाई! आप मेरे बड़े भाई होने के नाते पिता तुल्य पूज्य है। आपकी बातें मानना ही मेरा धर्म है। परन्तु मैं लाचार हूं, यह वेष मेर प्रियतम परमात्मा का दिया हुआ है। यह मूर्ति, करतार, मुकुट, पीताम्बर आदि सभी वस्तु उन्ही से प्रसाद स्वरूप प्राप्त हुई है अतः ये मुझे प्राणों से भी अधिक प्रिय है। इन वस्तुओं का ओर इस वेष का त्याग मुझसे जीते-जी नहीं हो सकता। अवश्य ही संसार की दृष्टि मे यह मेरा पागलपन ही है! दुनिया का चश्मा ही न्यारा है, दुनिया को सयाने मनुष्य दीवाने-से प्रतीत होते है, यह इतिहास प्रसिद्ध बात है। क्या प्रह्लाद को हिरण्यकश्यप ने पागल नहीं समझा था ? क्या विभीषण को रावण ने मूर्ख नहीं समझा था? जहां ऐसी बात है वहां तो दीवाना बनकर रहना ही श्रेयस्कर है। आशा है कि इस ढिठाई के लिए आप क्षमा करेंगे। नरसी मेहता ने निर्भीकतापूर्वक उत्तर दिया।
वंशीधर ने कहा:– बेवकूफ ! क्यों व्यर्थ मुझे समझाने की चेष्टा कर रहा है? भगवान कहा तेरे लिए रास्ता देख रहे थे कि तू उनसे मिल आया तेरे-जैसे अक्लमंदो को यदि वह दर्शन देने लगे तब तो संसार ही सूना हो जाये, वैकुंठ मे फिर घुसने को जगह भी न मिले। अरे कोई धूर्त मिल गया होगा धूर्त। नरसिंह ! अब इस बेवकूफी को छोड़, नहीं तो बहुत पछताना पड़ेगा। नात-जात, सगा-सम्बन्धी कोई साथ न देगा। लड़की का विवाह तो हो गया, परन्तु लडके का विवाह होना मुश्किल हो जायगा और विवाह नहीं होने से हमारा कुल भी नीचा माना जायेगा।
अभी तक दुरितगौरी चुपचाप दोनों भाईयों की बातचीत सुनती
रही, परन्तु अब नरसी मेहता का हठ उसको अस्हय हो उठा। उसने बीच में ही उनकी बात काटते हुए रोषपूर्ण शब्दो में कहना शुरू किया– देखो, बडा टीका लगाकर भगतराज आ गये ! छोटे-बडे का तनिक भी लिहाज नही, लाख समझाओ परन्तु अपनी ज्ञानकथनी नहीं छोड़गे। आजतक घर में झगडे का नाम नहीं था, आज आते ही झगडने लगा। तेरा ज्ञान त॒झे मुबारक हो, हमें तुझे साथ रखकर नात-गोत में अपनी नाक नहीं कटानी है। या तो यह वेष उतार दे ओर भले आदमी की तरह घर मे रह ओर नहीं तो हमे मुंह मत दिखा। मैने तुम सब लोगों का ऋण नहीं खाया है यदि कुछ भी लाज-शर्मं हो तो अपने बच्चों को साथ लेकर घर से निकल जा। इतने दिन न जाने कहां भूखों मरता रहा, अब फिर मेरी जान खाने को आ गया।
नरसी जी:– भाभी ! ऐसे कठोर वचन क्यो मुंह से निकाल रही हो यदि आपको मेरा कुटुम्ब भार स्वरूप मालूम हो रहा है तो कल से मैं अलग हो जाऊंगा। आप व्यर्थ मन में क्लेश न माने, मैं तोआपको माता के समान मानता हूं।
भौजाई:– तू वड़ा टेकवाला है, यह मुझे मालूम है। यदि ऐसी हीतेरी इच्छा है तो फिर कल क्यो? आज ही अच्छा मूहर्त है।
प्राणेश ! धर्मशाला में तो मुसाफिर ओर साधु-फकीर रहा करते है; गृहस्थ लोग धर्मशाला रहना अच्छ नहीं समझते। फिर हमारी नागर-जाति अत्यन्त द्वैष करने वाली है इस बात का भी विचार कर॒ लेना चाहिये। माणिकबाई ने लौकिक व्यवहार की स्मृति दिखा दी।
प्रिये ! यह संसार भी एक प्रकार की धर्मशाला ही है। जिस प्रकार इस छोटी-सी धर्मशाला मे मुसाफिरों का आना-जाना बराबर जारी रहता है, उसी प्रकार संसार रूपी विशाल धर्मशाला में भी मुसाफिर रूपी अनेक जीवो का आगमन लगा रहता है। राजा से लेकर रंक तक सभी मनुष्य का यही हाल है। उसमे विचार करने की कोई बात नहीं। नरसी मेहता ने पत्नी को तात्विक ढंग से समझाया। जैसी आपकी इच्छा कहकर पतिव्रता माणिकबार्ई चुप हो गयी।
भक्तराज अपने परिवार सहित गांव से बाहर धर्मशाला मे जाकर ठहर गये, उनके परिवार की एकमात्र सम्पत्ति थी, भगवान् की दी हुई प्रतिमा, करताल ओर मुकुट। सांयकाल हो जाने पर भक्तराज भगवान की प्रतिमा के सामने बैठकर प्रेमपूर्वक भजन करने लगे। उनके नेत्रो से प्रेमाश्रु बह रहे थे। प्रायः आधी रात तक भजन निरन्तर चलता रहा। उसके बाद भजन बंद कर भक्त नरसी मेहता शयन की तैयारी कर रहे थे कि ठीक उसी समय एक धनाढव्य सेठ ने भक्तराज के पास आकर प्रणाम किया ओर फिर वह उनके पास बैठ गये। भक्तराज ने महाजन से पूछा आप कौन हैं?
महाजन:– भक्तराज ! में एक परदेशी महाजन हूं, आजकल यात्रा कर रहा हूं। कृपया अप अपना हाल सुनाये, सेठ जी ने संक्षेप मे अपना परिचय देकर प्रश्न किया। भक्त नरसी मेहता ने शुरू से अंत तक अपनी सारी आपबीती सुनाई दी। साध पुरुष के दिल में किमी से कुछ छिपाव तो होता नहीं। सेठजी ने उनकी दसा पर संवेदना प्रकट करते हुए कहा–“भक्तराज! आपकी स्थिति सुनकर सुनकर बडा कष्ट हुआ यदि आप बुरा न माने तो मैं आपकी कुछ सेवा करना चाहता हूं।
भक्तराज:– सेठजी आपकी उदारता धन्य है। मैं आपका आभारी परन्तु सबसे पहले में आपका पूरा परिचय जानना चाहता हूं भक्तराज ने आग्रहपूर्वक कहा।
सेठजी:– भक्तशिरोमणि ! यदि आपकी यही इच्छा है तो मै पहले अपना पूरा परिचय ही देता हूं। आपसे कुछ छिपाव तो है नहीं। मैं अक्रूर हूं। भगवान श्रीकृष्ण को आपके निर्वाह की अत्यन्त चिन्ता रहती है। इसलिए भगवान की आज्ञा से में आपके पास आया हूं। आपको जो कुछ चाहिए उसे नि:संकोच भाव से मुझे सुचित कीजिए। भगवान् की अकस्मात् कृपा जानकर भक्तराज गदगद हो गये। उनके मन में निश्चय हो गया कि भगवान का वचन सर्वथा सत्य है। कुछ क्षण कृतगयता पूर्ण ह्रदय से भगवान का स्मरण करके भक्तराज बोले– महाराज! रहने के लिए एक मन्दिर, जीवनरक्षा के लिए कुछ अन्नजल तथा साधू सेवा के लिए आवश्यक सामग्री, इसके सिवा मुझे और क्या चाहिए?
सेठजी:– ‘अच्छा, प्रातःकाल होते ही अपकी आज्ञानुसार सारी व्यवस्था हो जायगी। दूसरे दिन प्रातःकाल भक्त नरसी मेहता तो स्नानादि नित्यकर्मो से निवृत्त होकर भजन-पूजन में प्रवृत्त हुए ओर अक्रूर जी सेठ के वेष में शहर जाकर उनका सारा प्रबंध करने लगे। उन्होने एक अत्यन्त सुन्दर मकान उनके रहने के लिए मोल ले लिया ओर अन्न, वस्त्र तथा अन्य गृहस्थी की सारी वस्तु खरीद कर उसमें भर दी। सारा प्रबंध हो जाने पर अक्रुर जी ने भक्तराज के पास आकर कहा– भक्तराज ! आपकी आज्ञा के अनुसार सभी वस्तु तथा मन्दिर तैयार है। आप चलकर ग्रहण किजिए। भक्तराज परिवार सहित उस मकान में आ गये। उन्होंने देखा, मकान के अंदर श्रीकृष्ण-मन्दिर, कीर्तनशाला, पाकशाला, भण्डार घर, अतिथिशाला, सोने-बैठने की जगह इत्यादि सब चीजों की पूर्ण व्यवस्था है। भंडार घर में तीन वर्ष तक के लिए पर्याप्त अन्नादि सामग्री भर दी गई है। किसी वस्तु की कमी नहीं है। अक्रूर जी ने कहा– भक्तराज ! भगवान् श्रीकृष्ण जी की आज्ञानुसार मैने सारी व्यवस्था कर दी है। यह पांच हजार स्वर्ण मुद्रा आपको व्यय करने के लिए देता हूं अब आज्ञा दीजिये, मै विदा होना चाहता हूं।
भक्त नरसी मेहता की पुत्री कुंवरबाई का दहेज
भक्त नरसी मेहता का जीवन एकान्त भजन में बितने लगा। साधु संतों के अखाडे में जाना, सत्संग करना, भजन गाना यही उनका नित्य का कार्य था। यदि कोई भक्त उनको अपने घर भजन करने का आमन्त्रण दे जाता तो वह बड़े उत्साह के साथ रातभर उसके घर जाकर भजन करते रहते। इसके अतिरिक्त उनके घर पर सदा साधु-संतो का जमघट लगा रहता और वह मुक्त हस्त होकर उनकी हर तरह से सेवा किया करते। भगवन भजन और साधु सेवा के अतिरिक्त उनके जिम्मे दूसरा कोई कार्य नही था। बाहर से आमदनी का कोई जरिया हो नही और खर्च खुले हाथी किया जाए तो दूसरे की तो बात ही क्या, कुबेर के भण्डार का भी अन्त होते देर न लगे। यही कारण था कि भक्त नरसी मेहता जो द्रव्य ओर अन्नादि सामग्री अक्रूर जी दे गये थे, वह सब तीन वर्ष की जगह छः महीने में ही साफ हो गयी। यहां तक नौबत आ गई कि घर की एक-एक चीज बेचकर भगवान का भोग लगाया जाता और साधु-संतो को सन्तुष्ट करने की चेष्ठा की जाती। परन्तु यह अवस्था भी कब तक चलती। थोड़े दिनो में ही जो गिनी-चुनी एक परिवार के काम के योग्य चीजें थी, वो भी प्रायः समाप्त हो चुकी अब परिवार का काम बडे संकोच से चलने लगा। परन्तु इतना होने पर भी भक्तराज एकदम निश्चिन्त थे। स्वप्न मे भी यह चिन्ता उनके शान्त मन को स्पर्श नहीं करती थी कि कल क्या होगा। बस, जैसे चलता था वैसे चलता था ओर वह अपने नित्य के भजन कीर्तन मे मस्त थे।
उन्हीं दिनों एक नई आफत उनके सिर आ गयी। ऊना से श्रीरंगधर मेहता के कुल-पुरोहित कँवरबाई को विदा करा ले जाने के लिए आ पहुंचे उस दिन प्रातःकाल ही भक्तराज किसी स्थान पर भजन करने के लिए गये हुए थे। पुरोहित जी ने आकर प्रश्न किया मेहता जी कहां गये है? कही बाहर गये है, पधारिये महाराज ! रसोई करती हुई माणिकबाई ने उत्तर दिया। पुरोहित जी ने भीतर आकर अपना नाम, तथा आने का कारण विस्तारपूर्वक सुनाया। माणिकबार्ई ने आसन बिछा दिया और यथोचित आदर-सत्कार किया। पुरोहित जी आसन पर बैठ गये। माणिकबाई पुत्री की विदाई सुनकर मन-दी-मन सोचने लगी अब क्या होगा? भक्तराज तो दिन-रात भक्ति लीन रहते हैं कोई काम काज करते नहीं। जहां नित्य भोजन की ही चिन्ता लगी रहती है, वहां कुंवरबाई के दहेज क्या प्रबंध होगा? यदि बिना दहेज पुत्री को विदा कर दू तो नात-जात मे बड़ी निन्दा होगी।
थोडी देर बाद भक्त नरसी मेहता जी घर आये। तब तक रसोई
भी तैयार हो चुकी थी, केवल उनके आने की ही देर थी। आते
ही उन्होने प्रश्न किया–“सती ! भोग में अब क्या विलम्ब है। कुछ देर नही, ला रही हूं, यह कहते हुए माणिकबाई भोग की सारी सामग्री एक थाली में परोसकर ले आई। और भक्तराज से कहा कुंवरबाई को लिवा जाने के लिए श्रीरंगधर मेहता के पुरोहित जी आए है, मैं तो इसी चिन्ता में पडी हूं कि पूत्री को विदा करने तथा दहेज आदि के लिए कम-से-कम इस समय रूपया चाहिये। परन्तु यहां एक भी नही, वहां सौ की बात भी कैसे की जाय? इतना कहते इए माणिकबाई ने एक गहरा सांस छोड़ा।
भक्त नरसी मेहता ने पत्नी को चिन्ताकुल देखकर बड़ी शांति से समझाने लगे:– ‘साध्वी ! मेरा-मेरा करती हुई तू इतनी चिन्ता क्यो करती है इन पुत्र-पुत्री के हम तो नाम के माता-पिता है, वास्तविक पिता तो हम सबके वह कृष्ण भगवान ही है और वह सवर तरह से समर्थ है। फिर हम व्यर्थ क्यो चिन्ता करें? उनको तो स्वयं ही चिन्ता होगी और उनकी जैसी रूचि होगी, वैसा वह ठीक समय पर आप ही प्रबन्ध कर देंगे।
नाथ! कल तो पुत्री को भेजना होगा और आज तक उसे देने के लिए एक वस्त्र का ठिकाना नहीं। परमात्मा कहां रहते है जो ऐन मौके पर कर आकर उसे सारी वस्तुएं सौंप दे? चिन्ता के मारे माणिकबाई की आंखों से अश्रु धारा बहने लगी। भक्त नरसी मेहता ने पत्नी को फिर समझाया जिससे उनके मन में विश्वास पैदा हुआ। फिर उन्होने अतिथि ओर पति के लिए आसन लगाकर भोजन परोसा ! मेहता जी पुरोहितजी के साथ बैठकर भोजन करने लगे।
भोजन करते-करते पुरोहित जी ने वार्तालाप शुरू किया– मेहता जी ! श्रीरंगधर जी मेहता ने मुझे कुंवरबाई को लाने के लिए भेजा है! मै उनका कुल-पुरोहित हूं। मै कल ही यहां से विदा हो जाना चाहता हूं। आप कृपा कर सीघ्रता करे।
“गुरु महाराज ! इतनी जल्दी करने से काम कैसे चलेगा? अभी तक तो पुत्री के लिए एक नया वस्त्र भी तैयार नहीं किया है। आपको दो-चार दिन ठहरना पडेगा। माणिकबाई ने चट उत्तर दे दिया। “आपको जो-जो वस्तु तैयार करनी हो, उन्हें आज ही कर लिजिए कल तो कृपा करके मुझे विदा कर ही दीजिये। पुरोहित जी ने आग्रह प्रकट किया। महाराज ! हमे कोई वस्तु तैयार करने की चिन्ता नही; जो कुछ करना है, उसे मेरे भगवान् करेगे। परन्तु जब तक मेरी कुल मर्यादा के अनुसार दहेज का प्रबन्ध परमात्मा की ओर से नहीं हो जाता तब तक तो आपको ठरना ही होगा। भक्तराज ने हंसते-
हंसते कहा। भक्तराज की यह बात पुरोहित जी की समझ में बिल्कुल नहीं आई उन्होने आश्चर्य के साथ कहा– मेहता जी ! आप क्या कहना चाहते है, कुछ समझ में नहीं आता। आपके परमात्मा कब तक आकर आपकी पुत्री के दहेज के लिए सामग्री पहुंचा जाएंगे। ऐसी बातें तो न कहीं सुनी गई ना देखी गई। मालूम नहीं आप क्यों इस तरह की अनहोनी बात मुंह से निकाल रहे हैं। “पुरोहित महाराज ! घबराइए नहीं, भगवान की माया तो ‘अघटनघटनापटीयसी’ कहलाती ही है, उसके लिए कुछ भी अनहोनी नहीं। श्रद्धा रखिये, द्वारिकाधीश श्रीकृष्ण बड़े भक्त वत्सल और दयालु है, जो कुछ करगे, अच्छा ही करेंगे। भक्त नरसी मेहता ने विश्वास पूर्ण स्वर में कहा। भक्तराज की ऐसी विचित्र बात भला पुरोहित जी के कैसे समझ में आती ? परन्तु वह कर भी क्या सकते थे ? आखिर नरसिंहराम उनके प्रिय यजमान श्रीरंगधर मेहता के सम्बन्धी थे; सहसा उनके विरुद्ध कडा व्यवहार कैसे करते? उन्होने चुप रहना ही उचित समझा।
दो-तीन दिन पुरोहित जी चुपचाप पडे रहे। परन्तु उन्होंने फिर भी कोई विशेष तैयारी नहीं देखी। भक्तराज निश्चित अपने भजन- पूजन मे लगे हुए थे, मानो दूसरा कोई कार्य ही सामने न हो। अन्त में पुरोहित जी ने झुंझलाकर कहा–“मेहता जी ! आज तीन-चार दिन मुझे आपके घर बैठे हुए हो गये, परन्तु आप तो बिल्कुल निश्चिंत होकर भजन पूजन में लगे हैं। मैं अब अधिक दिन नहीं ठहर सकता। दहेज का प्रबन्ध हो या न हो कल मैं कुंवर बाई को लेकर अवश्य विदा हो जाऊंगा।
पुरोहित जी ठीक ही कह रहे हैं। पीछे आप सुखपूर्वक भजन करते रहियेगा। पुत्री के लिए आज ही वस्त्र आदि दहेज की पूरी तैयारी करा दीजिए, माणिकबाई ने भी कहा। अच्छा, जब तुम्हारी भी ऐसी ही इच्छा है तो आज अपने नाथ का आवाहन करूंगा देखते, उनकी कैसी कृपा होती है भक्त नरसी मेहता ने सहज भाव से कहा। संध्या समय भक्तराज कृष्ण मन्दिर में पहुंच गये और हाथ में करतार लेकर भगवान के भजन में लीन हो गये। फिर क्या था सुबह तक अक्रूर जी दहेज का सारा सामान लेकर उनके घर पधारे और कुंवरबाई को पुरोहित जी के साथ विदा कर दिया गया।
भक्त नरसी मेहता के पुत्र का विवाह
भक्त नरसी मेहता के पुत्र शामलदास की अवस्था धीरे-धीरे बारह वर्ष की हो गयी। माणिकबाई ने देखा कि अब लडका भी विवाह योग्य होने को आया और हमारे घर खाने का भी ठिकाना नहीं है। गरीब के घर अपनी पुत्री कौन देना चाहेगा? और कुल-परिवार के लोग भी प्रसन्न नही जो काम में सहायता करेंगे, वे तो यही कारण दिखाकर उलटे बाधक हो सकते है। ऐसी स्थिति मे तो पुत्र का विवाह होना कठिन ही प्रतीत होता है। एक दिन उसने अपनी चिन्ता पति पर प्रकट की। पति ने कहा— प्रिये ! तुम व्यर्थ दुःख क्यो करती हो? चिन्ता छोडो, केवल श्रीकृष्ण का ध्यान करो, सदा मन में उन्हीं को रखो। वह दयालु प्रभु अपनेआप हमारे सारे कार्य यथा समय करते रहेंगे, वह स्वयं हमसे अधिक हमारे लिए चिन्तित होगें।
उन्दी दिनों गुजरत के वड़नगर नामक शहर के रहने वाले मदन मेहता की पुत्री के लिए एक सुयोग्य वर खोज चल रही थी। मदन मेहता एक प्रतिष्ठित नागर गृहस्थ थे। वह स्वयं एक राज्य के दीवान के पद पर थे और आठ दस लाख की सम्पत्ति भी उनके पास थी। उनकी सुंदर पुत्री जूटीबाई (सूरसेना) विवाह के योग्य हो हो गई थी
उन्होंने कई जगह सुयोग्य वर की खोज की परन्तु कहीं उनका मन नहीं जमा। अन्त में कुल-परिवार के लोगो को एकत्र कर उन्होंने पूछा कि पुत्री का विवाह कहां करना चाहिए। सब लोगों ने राय दी कि आसपास तो अपके योग्य कोई गृहस्थ नहीं। जूनागढ़ में हमारी जाति के सात सौ घर बसते है अतः वहां कोई योग्य घर अवश्य मिल जायेगा। सारे सम्बंधियो की सलह के अनुसार मदन मेहता ने अपने कुल पुरोहित क एक सुन्दर, सुशील, कुलीन ओर गुणवान् वर की खोज करने के लिए वाहन तथा द्रव्यादि देकर जूनागढ़ भेज दिया। मदन मेहता के एक सहपाठी मित्र सारंगधर जूनागढ़ में रहते थे। अतः उन्होने उनके नाम एक पत्र भी पुरोहित जी को दे दिया। पुरोहित जी को सब लोग दीक्षित नाम से पुकारा करते थे।
जूनागढ़ के जिस मुहल्ले मे नागर लोगो की घनी बस्ती थी, उसके बीच मे एक चबूतरा बना हुआ था, जिस पर शाम को बहुत से लोग बैठकर गपशप किया करते थे। उस दिन भी कुछ लोग बैठ कर बात कर रहे थे कि वहां दीक्षित जी का रथ आकर खडा हुआ । सब का ध्यान उस भोर आकृषित हो गया। दीक्षित जी ने पूछा– महोदय ! सारंगधर जी मेहता का घर कहां पर है। सारंगधर मेहता नागर जाति का एक प्रतिष्ठित गृहस्थ था उस समय वह भी वहां मौजूद था। उसने उत्तर दिया–“ किहिए महोदय! आप कहां से पधार रहे है, क्या काम है, मुझे ही लोग सारंगधर कहते है।
दीक्षित जी ने रथ से उतरकर यजमान की दी हुई चिट्ठी उसके
हाथ में दे दी। चिठ्ठी खोलकर वह पढ़ने लगा। चिठ्ठी सुनकर वहां बैठे अतिदुखराय (जो धनी व्यक्ति थे,) ने मदन मेहता से संबंध बांधने की इच्छा जाहिर की। और दीक्षित जी को आक्रष्ट॒ करने का भरपूर प्रयत्न किया। वहां पर बैठे हुए कुछ गांव के लोगों ने भी उनकी प्रशंसा का पुल बांध दिया। दीक्षित ने उनके पुत्र को देखने की इच्छा प्रकट की, और उनके घर पहुंचे, जब अतिदुखराय का पुत्र गहने-वस्त्र से सजकर सामने आया तो दीक्षित जी ने उससे प्रश्न किया- तुम्हारा नाम क्या है? लडके ने तोतली आवाज में उत्तर दिया— विः”“”विः““विः*-“द्याधर'”“’र'”“ र““राय । दीक्षित जी ने फिर आगे कुछ न पूछ सारंगधर को उठने के लिए कहा।
इस प्रकार कई दिनों तक घूम-फिरकर अपने हित-मित्र ओर जाति के प्रायः सैकड़ों लडको को सारंगधर ने दिखाया। परन्तु दीक्षित जी की दृष्टि में एक भी लडका नहीं चढ़ा। किसी को वधिर, किसी को तुतला, किसी को मूर्ख, किसी को कुरूप इत्यादि एक-न-एक कारण दिखाकर उन्होने सबको फेल कर दिया। स्वयं दीक्षित जी भी अयोग्य लडको को देखते-देखते तंग आ गये। उन्हें सन्देह हो गया कि शायद सारंगधर योग्य वर दिखाने की अपेक्षा अपने सगे-सम्बन्धी और मित्र के लडके दिखाने की अधिक चिन्ता रखता है।अब उनका मन सारंगधर पर विश्वास करने की गवाही नहीं देता था। परन्तु मदन मेहता ने जब सारंगधर को अपना मित्र समझकर उसके पास उन्हे भेजा था, तब वह उसके विरुद्ध कैसे कल सकते थे? अतएव उन्होंने सारंगधर से कहा–“मेहताजी ! केवल कुलीन या सुन्दर लडका मुझे नहीं चाहिये, लड़का गुणवान् भी होना चाहिये। आपने बहुत से लडके दिखाये, परन्तु सुयोग्य वर एक भी दिखायी नहीं पडा।
सारंगधर जी इधर दीक्षित जी की चाल से तंग गया था। उसने सोचा यह बडा विलक्षण आदमी है, इसे कोई लडका पसंद ही नहीं आता। यह अपने को बडा चालक समझता है। अब मे भी ऐसा घर बताता कि यह भी याद रखेगा। सारंगधर ने मुसकराते हुए दीक्षितजी से कहा– दीक्षित जी ¡ आप मेरी जाति के सेकडों लडकें देख चुके। अब मै अपनी जाति के मुखिया का एक लड़का दिखाता हूं, मुझे आशा है, वह लड़का आपको अवश्य पसंद आ जायेगा। बहुत तरह की चीजें दिखाने के बाद अच्छी चीज दिखाने पर ही उसका मूल्य ठीक समझ आता है।
दीक्षित जी ने कहा- अच्छा; अन्त में ही दिखाइए, पर दिखाइये सुयोग्य वर, अब अधिक तरह की चीजें देखने की मेरी इच्छा नही है। अब तो काम खत्म करके मैं शीघ्र वापस होना चाहता हूं। सारंगधर ने मन मे मजाक का भाव देकर दूर से ही इशारा करते हुए कहा- वह देखिये, स्वर्ण-कलश वाला जो मन्दिर दिखायी देता है, वह भक्त नरसी मेहता मेहता का घर है। वह बड़ा ही कुलीन ओर भग्वदभक्त गृहस्थ है। उनका व्यवहार बडा सच्चा है ओर उन्होंने धन भी खूब एकत्र कर रखा है। उनका पुत्र भी हर तरह से योग्य है। वहां आपको पूर्ण सन्तोष होगा। वहां मेरे जाने की कोई विशेष आवश्यकता नहीं। अच्छा महाराज! नमस्कार! मैं अभी वहां जाता हूं। यदि सब प्रकार से सन्तोष हो जायगा तो, मैं अवश्य सबंध कर दूंगा।
दीक्षित जी को शामलदास का मुखमण्डल चन्द्रमा के समान सुकान्ति युक्त दिखाई पड़ा। उसकी अलौकिक तेजस्वी मूर्ति को देखकर वह अत्यन्त प्रसन्न हुए। उन्होंने सामुद्रिकविद्या के अनुसार शामलदास में अनेक शुभ लक्षण देखे। उन्होने तुरंत शामलदास के हाथ मे श्रीफल तथा स्वर्ण मुद्रा देकर ललाट पर तिलक कर दिया फिर प्रसन्नता के साथ वह बोले–भक्तराज! मदनराय की पुत्री जूठीबाई के साथ आज मै शामलदास का सम्बन्ध करता हूं।
जैसी परमात्मा की इच्छा कहकर भक्तराज ने अपनी निर्लिप्ता
प्रकट की। इतने में ही माणिकबाई भी वहा पहुंच गई। पुत्र का
सम्बन्ध हो जाने की बात जानकर माता का ह्रदय कितना पुलकित हुआ, इसे कौन कह सकता है? इस निर्धनता में भी अपने इस सौभाग्य की बात सोचकर आनन्द के मारे उसके नेत्र मीठे हो गये।
दूसरे दिन दीक्षित जी वडनगर के लिए विदा हो गये। उन्होने वड़नगर पहुंचकर अपने यजमान के सामने भक्त नरसी मेहता की अपूर्व भक्ति, सज्जनता, साई आदि का खूब बखान किया।सामलदास के रूप, शरीर ओर सुरक्षण का वर्णन करते हुए जूठीबाई के सौभाग्य के लिए उसे बधाई दी। मदन राय का सारा परिवार उनके वर्णन को सुनकर बड़ा आनन्दित हुआ। नरसी मेहता की निरृधनता पर मदनराय ने बड़े उत्साह के साथ कहा कि–“जब कल-शीलादि में वह सब तरह से योग्य है तो फिर धन की कोई चिन्ता नहीं। भगवान् ने भरपूर दिया है; सात-आठ लाख की सम्पत्ति में से एकाध लाख भी उन्हे दे देने से उनका कष्ट दूर हो जायेगा।
शामलदास की बारात
जूनागढ़ के नागरों मे यह बात वायुवेग से फैल गयी कि वड़नगर मदन राय मेहता की पुत्री के साथ भक्त नरसी मेहता के पुत्र का सम्बन्ध हो गया। इस बात को सुनकर नरसी मेहता से द्वेष रखने वाले कितने ही नागर ब्राह्मणो को मानो जूडी आ गयी। कहते है दुष्ट लोग अपनी नाक कटाकर भी दूसरे का सगुन बिगाडते है। जूनागढ़ के भी कुछ ब्राह्मणों ने इसी नीति के अनुसार नरसी मेहता के पुत्र के विवाह में विध्न उत्पन्न करने की ठानी। उन्होंने सारंगधर को अपना अगुआ बनाया ओर एक पत्र मदनराय मेहता के नाम लिखकर एक ब्राह्मण के हाथ वड़नगर भेज दिया।
दीक्षित जी के वड़नगर लौटने के बाद से मदन मेहता ने विवाह
की तैयारी शुरू कर दी थी। मकान की सजावट हो रही थीं, बारात ठहराने के लिए स्थान बनाया जा रहा था, बारात के लिए भोजनादि का प्रबन्ध किया जा रहा था। बाजे-गाजे के सट्टे लिखे जा रहे थे। राज्य के बड़े बड़े श्रीमंतो, नगर रईसों तथा सगे सम्बन्धियो को निमंत्रण दिया जा रहा था। इकलौती पुत्री का विवाह खूब सजधज के साथ करने के विचार से सारा प्रबन्ध बड़ी सतर्कत के साथ हो रहा था। इसी बीच जूनागढ़ का ब्राह्मण वड़नगर पहुंचा और उसे मदन मेहता को ले जाकर पत्र दे दिया। पत्र मे लिखा था:–
श्रीयुत मदनरायजी ‘ आपकी इकलौती पुत्री का सम्बन्धं जोडने के दिये आपके पुरोहित दीक्षित जी जूनागढ़ आये थे। आपको मालूम होगा किजूनागढ़ में हमारे सात सौ घर है परन्तु उन्होने किसी योग्य घर में सम्बन्ध न करके अत्यन्त निर्धन और जातिच्युत भक्त नरसी मेहता के पुत्र के साथ सम्बन्ध जोड़ दिया है। हम आपको नम्रता पूर्वक सूचित करते हैं कि वह घर बिल्कुल आपके योग्य नहीं है। घर-घर भीख मांगने वाला तथा जोगी-वैरागियो का संग करने वाला मनुष्य भला वड़नगर के दीवान का कैसे समधी हो सकता है। अतः आप उस संबन्ध को तोडकर किसी सुयोग्य घर की खोज करे, जिसमे आपकी मर्यादा को बट्टा न लगे। विज्ञेषु की बहना। आपका सारंधर जूनागढ़ के जाति मंडल की ओर से।
पत्र को पढ़कर मदन मेहता बड़े विचार में पड़ गए। उन्होंने सोचा कि संबंध हो गया, विवाह का दिन भी निश्चित हो गया। विवाह की सारी तैयारियां हो गई। चारों ओर आमंत्रण की चला गया। इज्जत का मामला ठहरा, क्या किया जाए, आकस्मत उन्हें एक युक्ति सुझी। उन्होंने सोचा एक पत्र जूनागढ़ भेज दें, उसके अनुकूल यदि भक्त नरसी मेहता आ गए, तब तो विवाह करने में कोई हर्ज नहीं। अगर वह वैसा प्रबंध नहीं कर सकेंगे, तब आप ही नहीं आवेगें। दोनों दशाओं में मेरी प्रतिष्ठा सुरक्षित है। उन्होंने तुरंत एक पत्र लिखकर ब्राह्मण के हाथ नरसी मेहता के पास जूनागढ़ भेज दिया। पत्र में लिखा था:—
सिद्विश्री अनेक शुभोपमायोग्य श्रीयुत भक्त नरसी मेहता को
वड़नगर से मदन राय मेहता का अनेक नमस्कार पहुंचे। आगे निवेदन है कि आपके सुपुत्र चि० श्री शामलदास के साथ मेरी पुत्री चि० जूठीबाई का शुभ विवाह शुभमिति माघ शुक्ल पचमी को होना निश्चित हुआ है। अतः आप उक्त तिथि पर हाथी, घोडे, रथ ओर पैदल–एक चतुरंगिणी वृहत बारात के साथ पधारियेगा ओर मेरी मर्यादा के अनुसार वस्त्र आभूषण लाइयेगा। अगर बारात ओर वस्त्राभूषण मेरी मर्यादा के अनुकूल न लाए तो मुझे बाध्य होकर अपनी पुत्री का विवाह अन्यत्र करना पड़ेगा।
वड़नगर से ब्राह्मण ने आकर पत्र भक्त नरसी मेहता हाथ मे दिया। पत्र पढ़कर वह श्रीकृष्ण मन्दिर मे गये और करताल लेकर भजन कीर्तन करने लगे। भक्त की पुकार सुनकर भगवान प्रकट हो गए। उन्होने अमृतमयी वाणी से कहा– वत्स ! तुझे मेरा आवाहन क्यों करना पड़ा?
भक्तराज गदद होकर प्रभु के चरणों पर लोट गये। फिर उठकर उन्होने प्रभु के हाथो में वह पत्र दे दिया। पत्र पढ़कर भगवान् ने कहा– वत्स ! किसी तरह की चिन्ता मत करो। मैं जानता हूं, यह सब जूनागढ़ के ब्राह्मणों की करतूत है। मैं स्वयं अपने कुलपरिवार सहित नागर का वेष धारण कर सारी सामग्री के साथ बारात में उपस्थित हो जाऊंगा ओर तुम्हारा कार्य सम्पन्न कराऊंगा !’ इतना कहकर भगवान् अन्तर्ध्यान हो गये।
भक्त नरसी मेहता माघ शुक्ल प्रतिपदा के दिन वह सिर पर चन्दन लगा, हाथ में करताल ले दस-पांच साधुओं के साथ पुत्र का विवाह करने के लिए जूनागढ़ से चल पड़े। ईस विचित्र बारात को देखकर माणिकबाई ने पति से कहा, स्वामी यही सामग्री लेकर आप एक दीवान के घर जायेंगे? कहीं अपमानित होकर वड़नगर से पुत्र का विवाह करने के बदले ज्यों का त्यों वापस न आना पडे। मेहता जी ने सरल ढंग से उत्तर दिया—प्रिये ! तुम बहुत अधीर हो जाती हो। जब मैंने मान लिया है कि यह मेरा पुत्र नहीं है, तब मेरा अपमान कैसा ओर इसकी चिन्ता क्यो? जिसका यह पुत्र है, वह आप ही
सारा प्रबन्ध करेगा ओर अपमान से बचने की चिन्ता भी करेगा।
जूनागढ़ के नागर ब्राह्मणों ने जब इस अनोखी बारात को देखा
तो उनके अनन्द का ठिकाना न रहा। उन्होने सोचा कि अब अपना काम आप ही बन जायेगा। नरसी मेहता ओर उसके साथी उस दीक्षित की भी सारी हैकडी सहज ही दूर हो जायेगी। देखो न इस भिखमंगे की हिम्मत ! ऐरे गौरे भिखमंगों की टोली बनाकर चला है दीवान की बेटी ब्याहने ! इस बार इसकी पोल खुलेगी। वड़नगर में जब लोग लंगोटी ओर करताल छीनकर इसकी पूजा करेगे तब यह सदा के लिए कीर्तन भूल जायेगा ओर हम लोग भी सुख की नींद सोयेगे।
परन्तु भक्तराज को काहे की चिन्ता ! वह तो बस कीर्तन करते हुए चले जा रहे थे। कुछ दूर जाने के बाद उन्होने देखा कि एक बहुत बड़ी बारात डेरा-तंबू डले पड़ी है। समीप जाकर उन्होने स्वयं भगवान को गृहस्थ रूप में देखा और उन्हें भक्तिपूर्वक प्रणाम किया। फिर भक्तराज ने प्रेम भरे स्वर मे कहा– भगवान् ! आप मेरे लिए इतना वृहत स्वरूप धारण करेगे ओर मेरा कार्य सम्पन्न करायेगें, इसकी मे कल्पना भी नहीं कर सकता था। वत्स॒ ! इसमें आश्वर्य की कौन सी बात है मैं तो सदा भक्त के अधीन रहता हूं। भक्त जिस भाव से मुझे भजता है, उसी के अनुरूप मुझे स्वरूप धारण करना पडता है। फिर यह भव्य बारात वड़नगर पहुंची इस भव्य बारात को देखकर पूरा वड़नगर और मदन मेहता आश्चर्य चकित हो गए। जब बारात द्वार पर पहुंची तो मदन मेहता उसका भव्य स्वागत किया। कुशल-समाचार होने के बाद मदन मेहता ने अपनी धृष्टता के लिए क्षमा मांगी और कहा– भक्तराज। आपके साथ सम्बंध होने के कारण आज मैं धन्य हो गया।
मेहता जी ! यह सब प्रभु की कृपा का ही परिणाम है।
भक्तराज ने उत्तर दिया। मदन मेहता ने भगवान के साथ नरसी मेहता का यथा शक्ति आतिथ्य-सत्कार किया तथा विविपूर्वक वर-पूजन करके अपनी कन्या दान कर दिया। बडे समारोह के साथ विवाह-कार्य सम्पन्न हुआ। मदन मेहता ने वस्त्र, अलंकार, रत्नादि बहुमूल्य वस्तु दहेज मे देकर पुत्री को विदा कर दिया। इस प्रकार प्रणतपाल भगवान् भक्त-पुत्र शामलदास का विवाह कार्य सम्पन्न करके कुटुम्ब सहित अन्तर्हित हो गये।
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