राजस्थान में जयपुर वाले जिसे ब्रजनंदन जी का मन्दिर कहते है वह ब्रज निधि का मंदिर है। ब्रजनिधि का मंदिर जयपुर नगर-प्रासाद के चांदनी चौक में स्थित है। यह ‘ब्रज निधि’ उपनाम से काव्य रचना करने वाले महाराजा प्रतापसिंह की भक्ति-भावना का प्रतीक तो है ही, देवालय निर्माण की उस शैली का विशिष्ट प्रतिनिधि भी है जो जयपुर बसने के साथ ही आरम्भ हई थी, और प्रतापसिंह के समय में अपने चरम विकास को पहंची थी।
ब्रज निधि जी मंदिर का इतिहास और परिचय
इस शैली की विशेषता दुर्ग के समान ऊंचे और भव्य प्रवेश द्वार, ऊची उठान का आंतरिक द्वार या पोल, खुले विशाल चौक और जगमोहन या मण्डप की ऐसी संयोजना है जहां पहुंचकर प्रतीति होती है जैसे किसी हवेली के ”रावले ” या अन्तपुर में आ गये। आज कल यह देखकर बडा क्लेश होता हैं कि जयपुर के इतिहास, संस्कृति और कला की दृष्टि से ऐसे महत्त्वपूर्ण देवालय भी घोर उपेक्षा के शिकार हैं और संस्कारहीन शासकों तथा लालची प्रबन्धकों ने मन्दिरों को वृस्तुत अपने-अपने मजीदानों और यार-दोस्तों के रहने के मकानों मे परिणत कर दिया हैं। ठाकुरजी तो बेचारें बस उस निज मन्दिर या गर्भगृह के मालिक हैं जहां वे बिराजे हुए है।
महाराज सवाई प्रतापसिंह ने कई प्रकार से अपनी रचनाओं में कहा है, ”हमारे इष्ट है गोविन्द”। कहते है एक रात स्वप्न में उसे गोविन्द की आज्ञा हुई कि वह अपने प्रेम और अपनी भावना के अनुसार पृथक प्रतिमा बनवाकर महल के समीप एक नये मन्दिर में विराजमान करे। प्रताप सिंह ने इस आज्ञा को शिरोधार्य कर यह विशाल देवालय बनवाया और ब्रज निधि के नाम से भगवान कृष्ण की श्याम और राधा की पीत मूर्ति को पाट बैठाया।
ब्रज निधि मंदिर जयपुर
जब ब्रज निधि मंदिर का पाटोत्सव होने लगा तो बडा उत्सव मनाया गया। जयपुर के मुसाहिब दोलतराम हल्दिया की जौहरी बाजार स्थित हवेली मे ठाकुर ब्रज निधि जी अपने विवाह के लिये पधारे और वहा प्रिया-प्रियतम का पाणिग्रहण संस्कार हुआ। इसके बाद ही राधा की मूर्ति मन्दिर में लाकर विराजमान की गई।
दौलतराम हल्दिया के लिये यह समारोह बेटी के ब्याह से कम न था। बडी तबियत से उसने बरात की खातिर की। लम्बी-चौडी ज्योणार का आयोजन किया ओर दहेज देकर प्रियाजी की मूर्ति को विदा किया। ब्रज निधि मन्दिर की ठाकुरानी राधा के साथ हल्दिया वंश ने आज तक यह सम्बन्ध बरकरार रखा है। बेटी के घर पर्व- त्योहारों को उपहार भेजने की प्रथा सारे राजस्थान में है और ब्रज निधि जी के मन्दिर मे विराजमान राधा के लिये हल्दियों के यहां से तभी से “तीज का सिजारा” आता रहा है।
इस विवाहोत्सव का वर्णन करते हुए प्रतापसिंह ने पद भी लिखा, कविता भी लिखे ओर रेखते या गजले भी। यहां एक रेखता ही देना प्रासंगिक होगा:–
शादी मे रायजादा से तमने किया है क्या।
नाजुक बदन की नाज का प्याला पिया है क्या।।
खुशरूह की खूबी का खजाना लिया है क्या।
ब्रज निधि बदस्त उसके दिल को दिया है क्या।।
जटिल समस्याओं से भरे अपने जीवन मे सवाई प्रताप सिंह निराशा की घडियो में भक्ति करता और आशा की किरणे फूट पडने पर तब के राजाओं के युग धर्म के अनुसार भोग-विलास ओर आमोद-प्रमोद मे डूब जाता। उसकी मौत खून-विकार और अतिसार रोग बढ जाने से हुईं। उस दशा मे वह ठाकुर ब्रज निधि जी के चरणो के तले तहखाने मे ही प्राय विश्राम करता था। 1803 ई. में सावन के सजल महीने मे इस सरस और बहुगुणी व्यक्तित्व के धनी राजा का अन्त हो गया।
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जोधपुर से 245 किमी, अजमेर से 262 किमी, जैसलमेर से 32 9 किमी, जयपुर से 333 किमी,
दिल्ली से 435
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नाकोड़ा जी तीर्थ जोधपुर से बाड़मेर जाने वाले रेल मार्ग के बलोतरा जंक्शन से कोई 10 किलोमीटर पश्चिम में लगभग
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सभी लोक तीर्थों की अपनी धर्मगाथा होती है। लेकिन साहिस्यिक कर्मगाथा के रूप में रणकपुर सबसे अलग और अद्वितीय है।
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राजस्थान की राजधानी जयपुर के ऐतिहासिक भवनों का मोर-मुकुट चंद्रमहल है और इसकी सातवी मंजिल ''मुकुट मंदिर ही कहलाती है।
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जयपुर नगर बसने से पहले जो शिकार की ओदी थी, वह विस्तृत और परिष्कृत होकर बादल महल बनी। यह जयपुर