बैगा प्रदेश वास्तव में मध्य भारत के दक्षिणी प्रदेश को कहते है। बैगा जनजाति मध्य प्रदेश, झारखंड, छत्तीसगढ़ राज्यो में वास करती है। बैगा जनजाति के अतिरिक्त गोंड जाति के लोगों का भी यहीं वास है। यह दोनों जातियां भारत के उन आदिवासियों के अवगेष हैं, जो आर्य-युग में भी भारत में रहते थे। भील, द्रविड, गोंड आदि सभी जातियां उन्हीं प्राचीन भारत-वासियों की संतानें हैं। हजारों वर्ष बीत जाने के पश्चात आज भी ये लोग उतने ही जंगली हैं, जितने प्रारम्भ में थे। बहुत से इतिहासकारों का मत है। कि ये लोग भी भारत के सब से पहले तथा मूलवासी नहीं है। परन्तु इनसे पहले भी कोई आदि मानव यहां वास करता था जो पत्थर के युग के मानव के नाम से प्रसिद्ध है। परन्तु आज वे लोग भारत में नहीं मिलते, हो सकता है, कि वह अन्य आदिम-जातियों तथा आर्यो का सम्पर्क पाकर इतने सभ्य हो गये हों, जिनसे पत्थर के युग का नाश हो गया हो किन्तु यह ठीक प्रकार से नहीं कहा जा सकता, अपितु उसके प्रति केवल कल्पना ही की जाती है। पर उसके बाद जो ताम्र युग आया, उसकी छापें आज भी आसाम प्रदेश की पहाड़ियों तथा दक्षिणी भारत के जंगलों में कहीं कहीं देखने को मिल जाती हैं। बहुत से विद्वानों का मत है, कि उनके विचार में पाषाण-युग का मानव भी यहां का वास्तविक वासी नहीं था, बल्कि इस भारत देश में उस से भी पहले एक नग्न मानव रहा करता था जिसे कि पाषाण-युग के आदमियों ने इस भूमि से बल पूर्वक निकाल दिया था। वह नग्न मानव ही शायद इस भूमि का वास्तविक वासी हो सकता है। परन्तु यह सारे कथन केवल अनुमान द्वारा ही कहे गये हें। सत्य क्या है इसे कोई नहीं जानता।
बैगा जनजाति का इतिहास
भारतीय ग्रन्थ, जिन के बारे में यह बताना आज के मानव के लिये कठिन ही नहीं, बल्कि पूर्ण असम्भव भी है, कि उनकी रचना किस जमाने में की गई, परन्तु इतना तो जगत के सभी विद्वानों ने स्वीकार किया है, कि यह ग्रन्थ आर्य ही अपने साथ लाये थे। तथा भारत में जिस समय वे आये, उस से भी हज़ारों वर्ष पहले उनकी रचना हुई थी। जब कई इतिहासकारों ने इस बात को स्वीकार किया है तो उनके लिये यह जान लेना भी आवश्यक है, कि वे ग्रन्थ अपने लेखों से यह सिद्ध करते हैं, कि उनकी रचना कहीं अन्यत्र न होकर भारत के भूमि-पटल पर ही हुई थी। फिर यह कैसे मान लिया जाये, कि आर्यो का जन्म-स्थान यह भारत नहीं था। यदि यहां का आदि-मानव नग्न था, तो वह भी आर्य ही था, और वह आदि-मानव कितना सभ्य था, इसका प्रमाण वेद, मनुस्मृति, रामायण, महाभारत तथा अन्य सैकड़ों हिन्दू ग्रंथों का अस्तित्व है जो आज भी सुरक्षित हैं। इसलिये इन बैगा जनजाति तथा गोंड जातियों के प्रति भी यह ठीक प्रकार से नहीं कहा जा सकता, कि शायद यही भारत के आदि-मानव थे। परन्तु यह उन्हीं लोगों की वास्तविक संतान अवश्य हैं, इतनी बात अवश्य कही जा सकती है।
हालांकि बैगा जनजाति का खान-पान, रहन-सहन, रीति-रिवाज आर्य वंशजों से बिल्कुल भिन्न है, फिर भी न जाने ये लोग हिन्दू- धर्म के अनुयायी कैसे हो गये। यह आश्चर्य की ही बात है। हो सकता है, कि हज़ारों वर्षो तक आर्यों के बीच रहने के कारण ही इन लोगों ने हिन्दू-धर्म को अपना लिया हो, तब यदि यह भील, गोंड तथा द्रविड़ आदि जातियों के लोग आर्य नहीं थे, तो फिर ये हिन्दू केसे हो गये ? हो सकता है, कि प्रारम्भ में इन लोगों के बीच किसी भी धर्म का उदय न हुआ हो, और आर्यो के ओर से दबकर यह जब वनवासी हो गये, तो ऐसी दशा में किसी धर्म को जन्म देना इनकी सामर्थ्य से बाहर हो गया। और जब इस देश पर इस्लामी आक्रमण हुये, और मुसलमान भी इसी भूमि पर बस गये, तो भारत के निवासी होने के कारण उन्होंने भी इन्हें हिन्दू ही समझा। और इसी प्रकार अग्रेज़ों ने भी।
ओर जब स्वामी दयानन्द ने उजड़ती तथा क्षीण होती हुई हिन्दू जाति का उत्थान करने, तथा उसे शक्तिवान बनाने के लिये आर्य-समाज को जन्म दिया। तो वह हिन्दू ही समझे जाने लगे। चूंकि पहले बैगा जनजाति का अपना कोई धर्म नहीं था। हिन्दू देवताओं की पूजा करना ही इनका एक छोटा सा धर्म साधन बन चुका था, और विदेशी ही नहीं अपितु स्वयं हिन्दू लोग भी इन्हें, हिन्दू-धर्म की ही एक शाखा समझने लगे थे, जिससे इन लोगों को भी यह भ्रम हो गया, कि शायद हम हिन्दू ही हैं, क्योंकि जब दुनियां भी हमें हिन्दू समझती है, तो अवश्य ही हमारे पू्र्वज हिन्दू ही होंगे। यही कारण है, कि हिन्दू धर्म इन लोगों के अत्यन्त समीप होने के कारण, बैगा जनजाति का धर्म बन गया।
यह बैगा तथा गोंड लोग परस्पर इतनी भिन्न प्रकृतियों के लोग हैं जिनसे इनमें सामाजिक दृष्टि से एक बहुत बड़ा भेद पाया जाता है। बैगा लोग जहां एक उच्च कोटि की जादूगर जाति से सम्बन्ध रखते हैं, वहां गोंड जाति के लोग शिकार करने में इतने सिद्ध-हस्त होते हैं, कि जिस पर निशाना बाँधा, वह फटका भी नहीं खा पाता कि वहीं ढेर हो जाता है। इनके छोटे छोटे बच्चे हाथ में तीर कमान उठाये घने तथा भयानक जंगलों में निर्भय होकर घूमते रहते हैं। कारण यह है, कि बचपन से ही तीर चलाने की फला में वह इतने निपुण हो जाते हैं, कि फिर किसी भी भयानक जानवर से उन्हें भय नहीं रहता। तथा ये इस योग्य होते हैं, कि अपनी रक्षा स्वयं अपने आप कर सकें।
इसके विपरीत बैगा लोग भी तीर चलाने की विद्या में काफ़ी सिद्ध हस्त होते हैं, परन्तु साथ साथ बह उच्च कोटि के जादूगर भी हैं, और यह केवल कहने की ही बातें नहीं। अपितु यह सत्य है कि इनके पास अभी जादूगरी विद्या के ऐसे आधार मौजूद हैं, जिन पर विश्वास करना पड़ता है। और जिन के आश्चर्य -जनक दृश्य अनेक बार इस प्रदेश में देखने को मिले हैं, और आज भी मिलते हैं। विध्याचल तथा मध्य-भारत के प्रदेशों में बसने वाले सभ्य लोग भी इन के जादू में अपनी पूर्ण श्रद्धा रखते हैं। यहां तक कि यदि नगर में कोई आदमी अधिक बीमार पड़ जाये और उसकी दशा को डाक्टर भी संभाल पाने में असमर्थ हो जाएं तो इन्हें ही बुला कर तंत्र मंत्रों का इलाज कराया जाता है। और यह देखने में अनेक बार आया है, कि इनकी इस जादू भरी चिकित्सा से लोग अच्छे भी हो जाते हैं। इन लोगों को चाहे कोई भी बीमारी क्यों न हो जाये पर ये लोग डाक्टरों, हकीमों के पास कभी नहीं जाते। तंत्रों-मन्त्रों के बल से ही अपना इलाज स्वयं कर लेते है, ओर अच्छे भी हो जाते हैं। वैसे इन लोगों को जड़ी बूटियों का भी इतना ज्ञान है, कि यदि सर्प आदि कोई विषैला जन्तु इन्हें काट खाये, तो यह तुरन्त उसे लगा कर उसके विष का नाश कर डालते है।
बैगा जनजातिकई बार तो यहां तक देखने में आया है, कि बरसते हुये अखण्ड मेघों को केवल मन्त्रों के बल से ही इन्होंने चीर डाला। आते हुये तूफ़ानों को रोक दिया। घने तथा भयानक जंगलों में अपने मंत्रों के प्रताप से ही ज्वाला भड़॒का दी, ओर उन्हें भस्म कर डाला। सब से आश्चर्य की बात तो यह है, कि शेर चीतों जैसे जंगली जानवरों को भी अपने मन्त्रों से ये लोग इस प्रकार बेबस कर देते हैं, कि वह इनके बराबर से गुजर जाते हैं, परन्तु इनकी ओर झांकते तक नहीं। इनके बच्चों को प्राय: शेरों के साथ खेलते हुए देखा गया है। बहुत से लोगों का विचार है, कि इस विद्या में यह लोग इतने निपुण है, कि यदि चाहें, तो सारे जंगली जानवरों के बल पर ये लोग अन्य प्रदेशों पर विजय प्राप्त कर सकते है। परन्तु यह बात जंचती नहीं।
बहुत से लोगों का कहना है, कि पहले ये लोग, कुल्हाड़ी तथा फावड़ों से खेती करते थे, परन्तु जिस समय सम्पूर्ण भारत पर अंग्रेजों के पांव जम गये, और 1857 की स्वतन्त्रता क्रान्ति की असफलता पर इनकी जड़ें और भी अधिक मज़बूत हो गईं ओर वे भारतीय सम्पत्ति को एक तरह से अपनी पैत्रिक जागीर समझने लगे, तो उन्होंने इन आदिवासियों के फावड़ा तथा कुल्हाड़ी से खेती करने वाले ढंग पर पाबन्दी लगा दी। आज्ञा भंग करने वालों को कड़े से कड़े दण्ड दिये जाने लगे, जिस से इनके हृदय पर एक भयंकर चोट लगी, और अत्याचार ने सादगी पर विजय पाई। जमाने की चाल को देखते हुये, अंग्रेजों ने उनकी यह पुरानी रीति छुड़ाने के लिये जो कुछ भी किया, उसका उद्देश्य यह नहीं था, कि वे इन लोगों की पुरानी आदतों को छुड़ा कर इन्हें सभ्य तथा शिक्षित बनाना चाहते थे, बल्कि वह तो अपने लाभ हेतु ही उनके साथ यह कठोर व्यवहार करने पर उतारू हो गये थे। कारण यह था, कि यह जातियां बहुत ही प्राचीन विचारों के लोगों से परिपूर्ण थीं, तथा इनका खेती करने का ढंग भी बड़ा अनोखा था।
हल आदि आर्य औजारों से खेती करना यह लोग पाप सम़झते थे। इनका विचार था, कि हम चूंकि मिट्टी से पैदा हुये हैं, इसलिये धरती माता के पुत्र हैं। हल के नोकीले फालों से हम अपनी माता की छाती नहीं चीर सकते। ऐसा करने से हम महा पापी हो जायेंगे, तथा हमें नर्क में भी स्थान नहीं मिलेगा। हमें इस पाप का दण्ड बड़ा भयानक भोगना होगा। यही कारण था, कि ये लोग हल आदि यन्त्रों के बजाये कुल्हाड़ी तथा फांवड़ों से खेती करते थे। आप सोचते होंगे, कि कुल्हाड़ों तथा फावड़ों से भी तो धरती को खोदा ही जाता होगा? परन्तु आपको आश्चर्य होगा, कि ये लोग खेती भी इस प्रकार करते थे, कि धरती पर तनिक भी चोट नहीं लगने पाये। इनका ढंग इस प्रकार था, कि यह लोग कुल्हाड़ों से घने जंगलों को काट कर गिरा देते थे, जब यह कटी हुई वनस्पति धूप तथा हवा में पड़े पड़े, सूख जाती थी, तो ये लोग उसमें आग लगा देते थे, जिससे महीनों तक जंगलों में आग ही लगी रहती थी। और कभी कभी तो यह अग्नि इतना भयानक रूप धारण कर लेती थी, कि आस पास के नगरों को भी भय उत्पन्न हो जाता था। फिर जब वर्षा की ऋतु आती तब कहीं जाकर यह ज्वाला शांत हो पाती थी। इस भयंकर अग्नि काण्ड से जो राख धरती पर जम जाती थी उसी राख को फावडों से छील छील कर यह लोग बीज बोया करते थे। यही इनके खेती करने का एक मात्र ढंग था। परन्तु इस प्रकार यह एक ही स्थान पर केवल दो या तीन वर्ष तक खेती कर पाते थे। और वर्षा के कारण जब यह राख बह जाती थी तब यह किसी अन्य वन को उसी प्रकार काट कर अपने लिये भस्म की धरती उपलब्ध करने के विचार से उसे अग्निदेव के हाथों सौंप देते थे।
इस प्रकार इन बैगा, गोंड आदि आदिम-जातियों ने भारतीय अमूल्य वनस्पति का नाश कर डाला। अंग्रेजों ने जब यह देखा, तो उन्होंने कानूनी तौर पर उनकी इस स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध लगा दिया। वनों का काटना, या उनमें आग लगाना सरकारी तौर पर अपराध घोषित कर दिया गया। इस तरह इन के परम्परा से चले आने वाले पुण्य पर प्रतिबन्ध लगा कर इन्हें पाप के गड्ढों में ढकेलने वाले विचारों ने इन के मानस पर एक बहुत बड़ा आघात किया। इन की आत्मा हाहाकार कर उठी। परन्तु ज्यों ज्यों आने वाली नसलों के बीच इस बात का प्रचार किया गया, कि वन तो मनुष्य को ईश्वर की ओर से दी गई एक अमूल्य सम्पत्ति है, इस का नाश करना अपनी सम्पत्ति का नाश करना है तथा अपने आप को ग़रीब बना कर, अपनी आने वाली नसलों को भूखों मारना है। धरती की छाती कुरेद कर उस से अन्न प्राप्त करना उसी प्रकार उचित है, जिस प्रकार बालक माँ की छाती को टटोल कर दूध पीने का अधिकार रखता है। यह पाप नहीं है। छाती को टटोल कर दूध पीने का अधिकार प्रत्येक माता के लाल को है। शायद तब कहीं जा कर ये लोग कुछ समझ पाये। परन्तु फिर भी इनकी आत्मा कभी कभी अशांति का आभास करने ही लगती है।
आज दु:ख, गरीबी, तथा क्लेश में अपने आप को घिरा देख कर बहुत से बैगा लोगों की यह धारणा बन चुकी हैं कि हम ने धरती माता की छाती को हल की नोक से फाड़ कर जो अपराध किया है, उसी का दण्ड आज हमें मिल रहा है, कि हम, भूखे है, हम ग़रीब है, हम हर समय दु:खों में घिरे रहते हैं। हमें शांति नहीं। चारों ओर मुसीबत ही दिखाई देती है। परन्तु अब अंग्रेज़ नहीं रहे जो उन पर अत्याचार करें। अब भारत स्वतन्त्र है। ओर ये पिछड़े हुए लोग भी इस देश पर अपना उतना ही अधिकार रखते हैं, जितना कि एक सभ्य नागरिक। अब इन लोगों की गरीबी, दुःख तथा दर्द को दूर करने का बीड़ा हमारी सरकार ने उठाया है। शिक्षा के बल पर इन पिछडी हुई जातियों के एक एक बच्चे को सभ्य बनाने की
प्रतिज्ञा की गई है। इस प्रदेश के अनेक भागों में सरकार ने पाठशालाएँ भी खोल दी हैं। जिन में शिक्षा अनिवार्य तथा मुफ्त कर दी गई है।
बैगा जनजाति का पहनावा
बैगा प्रदेश की इन जातियों के लोगों का वर्ण अधिकतर साँवला ही देखा गया है, परन्तु कहीं कहीं, कुछ श्वेत वर्ण के लोग भी मिलते हैं। ये लोग भी संसार की अन्य आदिवासी जातियों की ही भांति नग्न अवस्था में रहते हैं। केवल एक धोती ही कमर में लपेटने के आदी हें जो कि जांघों तक ऊंची होती है। स्त्रियां ऊंची ऊंची धोतियां पहनती हैं। जम्फर तथा ब्लाउज़ आदि पहनने में उन्हें बड़ा आलस्य प्रतीत होता है। इसलिये शरीर का शेष भाग खुला ही रहता है। हां, छाती को ढकने के लिये धोती के आंचल का उपयोग अवश्य कर लेती है।
बैगा जनजाति का धर्म और त्योहार
देवी देवताओं की पूजा का इन लोगों में विशेष प्रचलन है। ये लोग उन में इतना अधिक विश्वास रखते हें, कि उन के सामने नास्तिकता की बात करने का साहस किसी को नहीं होता। इसके अतिरिक्त नदी, नाले, तालाब, पोखर, पर्वत तथा भूत व्याधि आदि की उपासना करना भी इन लोगों में प्रायः देखा गया है। हर एक गांव के निकट एक देवी का स्थान होता है, जिसकी पूजा ये लोग बड़ी श्रद्धा पूर्वक करते हैं। तथा इस देवी को ये लोग अपनी भाषा में ‘खेरवा’ कहते हैं। इन लोगों का विश्वास है, कि यह देवी गांव पर आने वाले दुःख सुख आदि की एक मात्र स्वामिनी होती है। जब गांव पर कोई कष्ट आता है, तो लोग समझते हैं, कि अब गांव की देवी हम लोगों से रुष्ट है, इसलिये बड़े यत्न पूर्वक उसको पूजन द्वारा मनाया जाता है। पूजन के लिये यह अपने निजी मन्त्रों तथा लोक-गीतों का उपयोग करते हैं। इस कार्य को सम्पन्न करने के लिये किसी शास्त्र पाठी अथवा ब्राह्मण आदि की उपस्थिति आवश्यक नहीं होती।
रामनवमी का त्यौहार ही बैगा जनजाति का मुख्य त्यौहार है, जिसे यह लोग बड़ी धूमधाम से मनाते हैं। इस दिन एक बड़ा भारी जूलूस निकाला जाता है, जिसमें स्त्री पुरुष सभी बड़े हर्ष के साथ सम्मिलित होते हैं। स्त्रियां हाथों में मिट्टी के बर्तनों में बोये हुये गेहूँ तथा जौ के आठ दस दिन की आयु के पौधे उठाये गीत गाती हुई चलती हैं। स्त्रियों के पीछे भक्त लोग चलते हैं, जो नियत स्थान पर पहुँच कर खेला करते हैं, और बेहोश हो जाते हैं। इन भक्तों को यहां के लोग बड़े आदर की दृष्टि से देखते हैं। लोहे की मोटी मोटी जंजीरें आग में तपाई जाती हैं तथा गरम हो जाने पर उन्हें दूहा जाता है। दूहते समय सबसे आश्चर्य जनक चीज जो देखने को मिलती है, वह वह है, कि जलती हुई जजीर को दूहने से भी इनके हाथों में कोई असर नहीं होता। यह जंजीर केवल वही आदमी दूहता है, जो कि देवी का भक्त हो। कितनी अनोखी बात है, कि गरम तथा जलती हुई जंजीरों के स्पर्श से भी इन के हाथ नहीं जल पाते। इन लोगों का कथन है, कि ऐसा करते हुए, कोई दवाई आदि हाथों में नहीं लगाई जाती, बल्कि यह सब मंत्रों का ही प्रभाव है।
हालांकि यह लोग अपने सभी क्रियाकर्म अपने आप ही बिना
किसी पुजारी अथवा ब्राह्मण की सहायता के ही सम्पन्न कर लेते हैं, परंतु फिर भी ब्राह्मण लोगों के प्रति इनके मन में सदा श्रद्धा बनी रहती है। ब्राह्मणों को यह लोग जगत की श्रेष्ठ जाति मानते है। नृत्य कला में भी ये लोग पूर्ण रूप से निपुण होते हैं। वैसे बैगा जनजाति के नृत्य में कोई विशेष कलात्मक शैली नहीं पाई जाती, परन्तु फिर भी ये लोग उससे इतना प्रेम रखते हें, कि नाचते नाचते अपने आप को भूल जाते हैं। अधिकतर पंक्तियों में खड़े हो कर नाचने का ही रिवाज है। स्त्रियां भी इस नृत्य में पुरुषों के साथ ही भाग लेती है। स्त्रियां तथा पुरुष अपनी पंक्तियां बना कर आमने सामने हाथों में हाथ डाले खड़े हो जाते है। तथा पंखावज पर चोट पड़ते ही नृत्य प्रारम्भ हो जाता है। नृत्य में ये लोग आगे को चलते हुये झुकते हें तथा पीछे को हटते समय फिर सीधे हो जाते हैं। स्त्रियां अपने पैरों में घुघरु बांधे रहती है, तथा एडियों को धरती से
बजा कर इस प्रकार चोट देती हैं। कि वातावरण एक आकर्षक ताल की घ्वनि से झूम उठता है। यही इन लोगों के सरल तथा ऐश्वर्य-रहित जीवन का एक मात्र मनोरंजन है, जिसमें कुछ समय के लिये इन की चिंतायें दूर भाग जाती हैं।
धूप, वर्षा आदि से अपनी रक्षा करने के लिये ये लोग एक प्रकार की बांस की बनी हुई छतरी का उपयोग करते हैं। तथा यह इस तरह बनी होती है, कि वर्षा की एक भी बूंद इस में से छश कर शरीर पर नहीं गिर सकती। और न ही उसे हाथों में हर समय उठाये फिरने का ही कष्ट करना पड़ता है। उस के मध्य में एक प्रकार की टोपी सी होती है, जो सिर पर पहन ली जाती है। परन्तु इसका उपयोग यही लोग कर सकते हैं भारत के अन्य सभ्य नागरिकों के बस का यह काम नहीं। इस छतरी को यह लोग “खोमरी” कहते हैं।
आदिवासी होने के कारण ये लोग मांस खाने में संकोच नहीं करते परन्तु यह बैगा जनजाति का मुख्य भोजन नहीं है। सब से अधिक प्रिय भोजन इनका कन्दमूल फल हैं। फलों के आगे यह लोग दूध दही आदि को भी इतना अधिक महत्व नहीं देते। इसका यह अर्थ नहीं, कि यह लोग अन्न का भोजन करते ही नहीं। अपितु यह तो उनकी रुचि को दृष्टि में रखते हुये कहा गया है। भला बिना अन्न के कोई भी मानव अपना निर्वाह कैसे कर सकता है।इस प्रदेश के लोग जो मैदानी क्षेत्रों के आस-पास रहते हें वे अधिकतर मजदूरी करने का कार्य करते हैं। क्योंकि इन क्षेत्रों में तेंदू के वृक्षों की भरमार है। जिसके पत्ते बीड़ी बनाने के काम आते है। ठेकेदार लोग सरकार से इन जंगलों को ठेके पर ले छेते है, तथा इन लोगों के द्वारा ही इन वृक्षों के पत्ते तुड़वाया करते हैं। इनकी अपेक्षा सस्ते मजदूर ठेकेदारों को ओर कहीं नहीं मिलते, इसलिये ठेकेदारों को भी इन से काम लेने में कोई आपत्ति नहीं होती और उन्हें लाभ भी खूब रहता है। बहुत से बैगा तथा गोंड लोगों का तो यह पत्ते तोड़ने का काम अब एक प्रकार से जातीय पेशा बन चुका है।
प्राय: ये लोग अशिक्षित भोले भाले, तथा ग़रीब होते हैं। बहुत से लोग तो इन जातियों में ऐसे मिलेंगे जो आज के उन्नतिशील युग से बिल्कुल अनभिज्ञ हैं। वे नहीं जानते कि रेल, जहाज तथा मोटर, आदि ये सब क्या है। परन्तु अब भारत सरकार ने इन्हें सभ्य युग के बराबर ला कर बिठा देने का निश्चय कर लिया है। जगह जगह शिक्षा देने के लिये स्कूल खोले जा रहे हैं। रेलें, मोटर, जहाज, रेडियो तथा बिजली के उपयोग इन्हें बताये जा रहे हैं। इन के रहन-सहन में सभ्यता की नींव रखी जा रही है। कई नये ग्राम भी इन आदिवासियों के लिये बनाने की तजवीजें सोची जा रही है। और वह समय अब शीघ्र ही आने वाला है जब ये लोग अपनी गरीबी तथा अपने दुःख सुखादि के क्लेश-युक्त जीवन से मुक्ति पा कर हमारे साथ मिल बैठेंगे। हमारी कामना है, कि हमारा यह स्वप्न सत्य सिद्ध हो।
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