बेगम अख्तर का जीवन परिचय – बेगम अख्तर कौन थी Naeem Ahmad, July 20, 2022February 27, 2024 बेगम अख्तर याद आती हैं तो याद आता है एक जमाना। ये नवम्बर, सन् 1974 की बात है जब भारतीय रजत पट के सुप्रसिद्ध संगीत निर्देशक मदन मोहन लखनऊ के पसन्द बाग में बेगम अख्तर की कब्र पर पहुँचे थे, बेगम साहबा के पति बेगम साहिबा को गुज़रे अभी चार दिन ही बीते थे इसलिये कब्र कच्ची थी। जड़ाऊ फलों की चादर से मदन मोहन जी ने वो कब्र ढक दी थी, और केवड़े से सराबोर कर दी थी। लखनऊ के क्लार्क होटल से चल देने के बाद वो रास्ते में एक जरा किसी से नहीं बोले थे और वापसी में निरन्तर रोते हुए आये थे, जब कि रेखा सूर्या (दादरे की फनकारा) भी उनके साथ थीं। वे बताती है कि मैंने अपनी जिन्दगी में किसी मर्द को कभी इतना रोते हुए नहीं देखा था। लहद (कब्र) से लिपट कर जब वह सिसक रहे थे तो मुझे लगा था कि खामोश जबां में बेगम साहिबा की गायी हुई ये गजल कहीं से उभर रही है।लखनऊ के क्रांतिकारी और 1857 की क्रांति में अवधबुझी हुई शम्मां का धुँआ हूँ, और अपने मरकज को जा रहा हूँ। कि हसरतें तो मिट चुकी हैं, अब अपनी हस्ती मिटा रहा हूँ।उधर वो घर से निकल रहे हैं, इधर मेरा दम निकल रहा है। तबाह यूँ हो रही है किस्मत, वो आ रहें हैं, मैं जा रहा हूँ।बेगम अख्तर का जीवन परिचयइस गजल को अपने सीने में संजाये हुए एक पुराना ग्रामोफोन रिकार्ड मेरे पिता के पास था, जिसके भूरे लिफाफे पर “ बेगम अख्तर बाई फैजाबादी” की तस्वीर भी बनी हुयी थी जेवर गहनों से खूब लदी फँदी और हाथों पर अपनी ठुड्डी टिकाये हुए। गजल जिनके नाम का दम भरती है उन्हीं मलिकांए ग़ज़ल बेगम अख्तर की नुकरई आवाज की झनकारें आज भी उसी तरह तीर बनकर दिल में उतरती है। वो आवाज जिसने फैजाबाद अवध के रीडगंज इलाके बारादरी मोहल्ले में 7 अक्टूबर 1914 को आँखे खोली थी। सिविल जज सैय्यद असगर हुसैन की दूसरी बीबी मुश्तरी के आंगन में बेगम अख्तर बाई पैदा तो अपने साथ एक और बहिन को लेकर हुई थीं, लेकिन वो जोहरा बचपन में हीं गुजर गयी। इसलिये सारा लाड़ प्यार इनके ही हिस्से में आ गया। बचपन में वो दुलार से बिब्बी कही जाती थीं।लखनऊ में 1857 की क्रांति का इतिहाससुबह की किरणों ने उन बे शुमार उजालों का पता दे दिया था जो आने वाले कल की रौनक बनने वाले थे। बचपन में ही वो थियेटर की एक ऐक्ट्रेस “चन्दा” पर दिलोजान से फिदा हो गयीं, जो साहिबे सूरत भी थी और बेहद सुरीली भी। नौकरानी अमानत के साथ छिप-छिप के चन्दा को देखने सुनने जाया करती थीं, बस यहीं से चिराग ने आग पायी थी। पपीहरी आवाज और गाने का हुनर तो वो लेके पैदा हुयी थीं। उनके इन सपनों को संवारा,उस्ताद तानरस खाँ के सुप्रसिद्ध घराने के पटियाले वाले उस्ताद वाहिद खाँ, मुहम्मद रबाँ और कैराना घराने के उस्ताद वहीद खाँ साहब ने, फिर इस तरह संगीत की साधना परवान चढ़ने लगी। बाद में वो 18वीं सदी और 19वीं सदी की परम्परागत शैली के लखनऊ घराने की जीनत बनी।बेगम अख्तरइस बीच वक्त ने कुछ ऐसी करवट ली कि किसी दुश्मनी में उनका घर जल गया। बाप पहले ही मुँह मोड़ चुके थे गरज ये कि अब परिवार तबाही के कगार पर था। बेजर (धनहीन) इन्सान, बेपर का परिन्दा होता है। यही दर्द लिये, एक मुँह बोले भाई का सहारा लेकर उनकी माँ, बिब्बी के साथ फैज़ाबाद से निकलीं थीं, गया की तरफ। आवाज का ये सफर कुछ आसान नहीं था, सिवा इसके कि कोई मंजिल उन्हें आवाज दे रही थी। उसी मंजिल की तलाश ने उन्हें कभी दम लेने नहीं दिया।शम्सुन्निसा बेगम लखनऊ के नवाब आसफुद्दौला की बेगमजिन्दगी में सबसे बड़ा काम होता है खुद को पा लेना। और कलकत्ते में जब उनकी पहली रेकार्डिंग हुई तो उन्हें लगा कि बिब्बी के सामने अख्तरी आकर खड़ी हो गयी है इस गजल के साथ -वो असीरे दामे बला हूँ मैं, जिसे सांस तक भी न आ सके वो कफीले संजरे नाज हूँ जो न आँख अपनी उठा सके। ये जो पहली गजल रेकार्ड की गयी वो बाद में फिल्म “एक दिन की बादशाहत” में भी शामिल थी जो कलकत्ते में ही बनी थी। सन् 1944 में कलकत्ते के ही एक अचानक प्रोग्राम में वो मजमे के बीच पहले पहल पहचानी गयीं और फिर दुनिया उनकी दीवानी हो गयी, जहाँ उन्होंने ऊँची तान में गाया था-“तूने ऐ बुते हरजाई, ये कैसी अदा पाई तकता है तेरी सूरत, हर एक तमाशाईयहीं भारत कोकिला श्रीमती सरोजिनी नायडू उनकी प्रशंसक बन गयी। उनके द्वारा उपहार स्वरूप दी गयी खद्दर की एक साड़ी वो सदा अपने साथ संजोए रहीं। उनकी आवाज में जो अनु नासिका स्वर था बड़ा ही सुहाना था और फिर खरज की पत्ती तो उनके गले की जीनत ही थी जो लाखों में किसी एक को नसीब होती है। इस तरह उनकी आवाज का ऐब भी, हुनर बन चुका था।गोमती नदी का उद्गम स्थल और गोमती नदी लखनऊ के बारे मेंसन् 1938 में उनको मुंबई बुला लिया गया जहां उन्होंने मुमताज़ बेगम, नसीब का चक्कर आदि फिल्मों में काम किया। नल दमयंती, नाच रंग दानापानी (मीना कुमारी – भारत भूषण — 1953) और एहसान (नलिनी जयवंत — अजीत — 1954) में उनका प्ले बैक भी था। गाने थे – “ऐ इश्क मुझे और तो कुछ याद नहीं है” -(दानापानी), “ हमें दिल में बसा भी लो” – (एहसान)।लखनऊ की चाट कचौरी ऐसा स्वाद रहें हमेशा यादथियेटर के जमाने में उन्होंने दिल लखनवी के एक नाटक “नयी दुल्हन” में भी काम किया था और कहना न होगा कि ये नाटक सालों साल चलते रहते थे, लेकिन अब वो इन सब से किनारा कशी करने लगीं थीं, अब तो या गाना था या वो। हैदराबाद दरबार और रामपुर ने उन्हें सर आँखों पर बिठाया, लेकिन उनका दिल तो लखनऊ में लगा था। 1938 में ही वो आइडियल फिल्म कम्पनी के लिए लखनऊ आ गयी थीं। सन् 1941 में महबूब साहब के बुलावे पर उन्हें फिल्म रोटी के लिए फिर बम्बई फिर जाना पड़ा था उस सुप्रसिद्ध फिल्म में उनके साथ, चन्द्रमोहन, सितारा और शेख मुख्तार भी थे। अब बम्बई से उनका जी उकता गया था लखनऊ ने उन्हें फिर बुला लिया था। यहीं उनकी शादी काजी इश्तयाक अहमद अब्बासी साहब से बात की बात में हो गयी और फिर तो गाना बजाना दर किनार गुनगुनाना भी छोड़ दिया था। इस तरह चार साल तक उन्हें न किसी ने देखा और न सुना। जिसने रेडियों के प्रबुद्ध रचनाकार जीत जरधारी साहब द्वारा किए गए एक आकाशवाणी इन्टरव्यू के सारे सवालों का पहले एक ही जवाब दिया था ‘गाना…गाना… बस गाना” उनको ही गाने बजाने से खबरदार किया जाना भला क्या बरदाश्त होता।चारबाग रेलवे स्टेशन का इतिहास – मुस्कुराइए आप लखनऊ में हैलखनऊ में वो पहले अख्तर मंजिल में फिर चाइना बाजार गेट के पास जहाँगीराबाद पैलेस में रहीं, बाग मुन्नू की मतीन मंजिल में भी रहीं और बाद में फान ब्रेक ऐवन्यू उनका मुस्तकिल मकाम बना। वक्त ने करवट ली और 25 सितम्बर, 1948 के दिन आकाशवाणी लखनऊ के स्टूडियों में वो फिर बरामद हुई। इस खुशनाम घटना के पीछे स्टेशन डायरेक्टर एल.के. मेहरोत्रा तथा अस्स्टिन्ट स्टेशन डायरेक्टर सुनील बोस साहब की कामयाब कोशिश थी और उसी रेडियों माइक ने उन्हें “अख्तरी बाई” से “बेगम अख्तर” बनाया इनके साथ सारंगी नवाज गुलाम साबिर साहब तो साथ निभाते ही थे तबले की संगत के लिए मुन्ने खाँ पर ही भरोसा करती थीं। शहर की बड़ी-बड़ी महफिलें में उनका होना इज्जत की बात समझी जाती थी, सिटी स्टेशन के करीब राजा महमूदाबाद के जश्ने शादी में वो गौहर जान, जददन बाई, रसूलन बाई, वहीदन बाईं के साथ बैठी थी तो जनरल हबीबुल्ला और बेगम हामिदा जी की शादी में भी जलवा अफरोज थी।लखनऊ की मस्जिदें – लखनऊ की ऐतिहासिक मस्जिदसन् 1951 में उनकी माँ मुश्तरी बीबी ने दुनिया से परदा किया तो वो सदमें में पहुँच गयीं। पसन्द बाग के बीच उनकी कब्र के पास जाकर बैठी रहती थी, माँ बेटी में इतना अटूट लगाव था। उन्होंने आवाज की कभी कोई एहतियात नहीं की, बड़ी बदपरहेजी की, बड़ी लापरवाहियाँ बरतीं। वो आवाज़ की ताबेदार नहीं रही, लेकिन मुकद्दरं ये कि आवाज हमेशा उनकी ताबेदार रही। उन्होंने मीर, गालिब, जिगर, शकील, या फैज को ही नहीं गाया, बहजाद और सुदर्शन फाकिर की गजलों को भी ये एजाज़ दिया। गजलों के बोल और जज्बात के लिहाज से उन्हें मुनासिब रागों में उठाना ही उनका कमाल था। अपनी तपस्या और शैली की सहजता की बदौलत उन्होंने सेमी क्लासिकल म्यूजिक को जमीन से उठाकर आसमान पर बिठा दिया था ठुमरी दादरे में भी वे बेमिसाल थीं गजल की तो मिल्कियत उनके साथ थी ही, जब वो गाती हैं –फूल खिले हैं, गुलशन गुलशन लेकिन अपना अपना दामनतो इस गजल में वो जब जब, दामन कहती है तो अलग अलग अर्थों के साथ होता है कभी नाउम्मीदी, कभी बदकिस्मती, कभी बेचारगी तो कभी शिकायतन। ताबे उम्र वो उस बेड़िन की आवाज को कानों में रखे रहीं जिसने कभी गाया था “पूरब देश बंगाले से ननदोई हमारे आए हो।” ये वो बीज था जो लोक शैली की बाकी बानगी लेकर उनके दादरों में खूब फला फूला। जाने माने फिल्मकार सत्यजीत रे की फिल्म “जलसाघर” में उनका किरदार आज भी उस भव्य अदाकारी का आईनेदार है। बड़ी फनकार होने के साथ साथ वो अपनी शख्सियत नफासत, रहन-सहन और तौर तरीकों में भी बहुत शानदार थीं। हर एक के दुख-सुख में बड़ी मोहब्बत के साथ शरीक होती थीं। इनमें सबसे हसीन थी उनके अन्दर की औरत जो शराफत, मिलनसारी, दरियादिली और दर्दमन्दी में आगे-आगे थी। अखलाक ऐसा कि दूर-दूर महके, हर अमीर गरीब उनका अपना हो जाता, हर छोटा उनमें अपनी माँ की छवि देखता और उन्हें “अम्मी” ही कहता। आकाशवाणी पर जिस शानओ-शफकत से आतीं कि लोग आज तक नहीं भूले हैं। कार में अपने साथ बास्केट लातीं, थरमस में चाय होती और साथ में नफीस क्राकरी और नमकीन बिस्किट फिर क्या स्टूडियो में सभी, क्या साजदार और क्या कामदार एक रंग में शामिल हो जाते और उनकी चाय के तलबगार बन जाते।लखनऊ की चाट कचौरी ऐसा स्वाद रहें हमेशा यादलखनऊ के भातखंडे संगीत महाविद्यालय में वो एक अरसे तक विजीटर्स प्रोफेसर रहीं, जापानी जार्जेट पर सुहानी चिकनकारी की साड़ी पहने कार से उतर कर जब दाखिल होतीं तो शमीमेनाज की गमक लोगों के दिलों दिमाग पर छा जाती थीं जो उनके आंचल से लपकती थी। जैसे उनकी गजल गायिकी का अपना अलग अन्दाज था उसी तरह उन्होंने ठुमरी में पूरब अंग और पंजाब अंग का मेल करके एक नया रंग ईजाद किया था जो उनकी अपनी देन थी।लखनऊ के बर्लिंगटन होटल में अस्थायी स्टूडियो बनाकर ग्रामोफोन कम्पनियों ने उनके चार सौ (400) से ज्यादा रेकार्ड बनाये थे। लखनऊ आकाशवाणी के स्टूडियों में एक रोज़ उनके चले जाने के बाद जड़ाऊ पन्ने का एक भारी झुमका कालीन के किनारे पड़ा मिला जाहिर है कि वो ड्यूटी आफिसर के पास पहुँचा और उन्हें ये समझते देर न लगी कि ये बेशकीमती ‘झुमका-कर्णफूल’ और किस का हो सकता है। उन्होंने फौरन फोन किया तो घर से बोली “हम तो समझे थे कि गया सो गया, लेकिन ये उसकी तकदीर थी कि जो जुदा न हो सका, खैर मैं खुद गाड़ी से आ रही हूँ लेने के लिए”क्राइस्ट चर्च लखनऊ का इतिहास हिन्दी मेंकुछ देर बाद वो डयूटी रूम में थीं। डयूटी आफिसर ने कहा “आप ने नाहक जहमत की, हम घर तक भिजवा देते। तो बोली – “नहीं भई, किसकी जान फालतू है जो इस जोखिम को ले के निकलता” और गहना पर्स में डालकर मुस्कराती हुई लौट गयी। उनकी प्रधान शिष्याओं में शान्ती हीरानंद, अंजली बनर्जी और रीता गांगुली हैं जो उस खंजर की धार को आज भी अपने साथ लिये हुये हैं। हारमोनियम, सिगरेट, पान और चाय बेगम अख्तर साहिबा की चार कमजोरियाँ थीं। अपनी सुप्रिया शिष्या रीता गाँगुली के साथ जब-जब कहीं रहीं अपनी पसन्दीदा चाय उनसे ही बनवातीं और जब प्याला सबेरे की किरण के साथ अम्मी के होंठों पर पहुँचता तो बेसाख्ता कहती। “मजा आ गया, कमबख्त लड़की, दुआएँ ले जाती है सुबह सुबह” जो आवाज पहले शोलों की तरह लपकती थी अब और रियाज के साथ समन्दर की तरह गहरी हो चुकी थी। बेगम अख्तर अपने फन और वतन का सितारा बन कर चमक उठी तो उनकी कदर हर कहीं होने लगी थी और अब बेगम अख्तर लखनऊ या हिन्दुस्तान की ही नहीं सारे जहॉन की अजीम हस्ती थीं। उन्होंने अपने हिन्दुस्तान के हर गोशे में ही नहीं गाया, पाकिस्तान, नेपाल, अफगानिस्तान, रूस, यूरोप आदि देशों में भी अपनी कला का प्रदर्शन किया। संगीत अकादमी के सम्मान के अलावा उन्हें पदमश्री और पदम भूषण से भी नवाजा गया। फिर एक दिन वो भी आया जब वक्त के बेदर्द हाथों ने मलकए गजल बेगम अख्तर को 30 अक्टूबर, 1974 को अहमदाबाद की एक गुलजार अंजुमन के बीच से उठा लिया था और तब बेगम अख्तर का पार्थिव शरीर लखनऊ लाया गया और वो अपनी वसीयत के मुताबिक लखनऊ में ठाकुरगंज के करीब पसन्दबाग में अपनी माँ के पहलू में दफन हुई। “लहद में सोए हैं, छोड़ा है शहनशीनों को कजा कहाँ से कहाँ, ले गई मकीनों को”हमारे यह लेख भी जरूर पढ़े:—[post_grid id=’9530′]Share this:ShareClick to share on Facebook (Opens in new window)Click to share on X (Opens in new window)Click to print (Opens in new window)Click to email a link to a friend (Opens in new window)Click to share on LinkedIn (Opens in new window)Click to share on Reddit (Opens in new window)Click to share on Tumblr (Opens in new window)Click to share on Pinterest (Opens in new window)Click to share on Pocket (Opens in new window)Click to share on Telegram (Opens in new window)Like this:Like Loading... 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