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बड़ी दरगाह बिहार शरीफ

बिहार शरीफ दरगाह – बिहार शरीफ बड़ी दरगाह का मेला – बड़ी दरगाह

दिल्ली हजरत निजामुद्दीन, बदायूँ, अजमेर शरीफ,देवा शरीफ और जौनपुर की भांति बिहार राज्य केनालंदा जिले का बिहार शरीफ नगर भी उत्तर पूर्व भारत के ख्याति प्राप्त स्थलों में से है। जहाँ बड़ी संख्या में सूफी संतों की दरगाहें और खा़नका़हे मौजूद है। बिहार राज्य के प्रायः सभी क्षेत्रों मे सूफी संतों के मजार, मकबरे, खानकाहे और दरगाह है। तथा उनसे जुड़ी यादगारें फैली हुई है। परंतु बिहार शरीफ दरगाह इन सभी में सर्वप्रथम है। जहाँ अपने जमाने के सर्वाधिक लोकप्रिय, महान और सर्वोत्तम संत मखदूम जहाँ शेख शरफुद्दीन अहमद याहया मनेरी की कब्र और मकबरा है। आपको लोग प्यार से मखदूम जहाँ कहकर पुकारते है। आपके मकबरे को बडी दरगाह बिहार शरीफ के नाम से जाना जाता है। बडी दरगाह शरीफ पर साल भर भक्तों और जायरीनों का तांता लगा रहता है। यहां साल भर में उर्स भी लगता है। जिसे बडी दरगाह का मेला या बडी दरगाह का उर्स के नाम से जाना जाता है। नालंदा जिले में होने के कारण इसे नालंदा बडी दरगाह या बिहार राज्य की महत्वपूर्ण दरगाह होने के कारण बिहार में बड़ी दरगाह के नाम से भी लोग जानते है। अपने इस लेख मे हम इसी पवित्र स्थान की बिहार शरीफ की सैर करेगें और बड़ी दरगाह बिहार शरीफ के बारें में विस्तार से जानेगें।

बिहार शरीफ दरगाह का इतिहास, दर्शन व हिस्ट्री इन हिन्दी



हजरत मखदूम जहाँ शेख शरफुद्दीन याहया मनेरी की मृत्यु से 6 वर्ष पहले आपके सगे मौसेरे भाई और प्रसिद्ध सूफी संत हजरत मखदूम अहमद चिरमपोश की मृत्यु हुई तो उनके दफन के समय मखदूम जहाँ भी अम्बेर गए और उस समय वहां उपस्थित रहे। मखदूम जहाँ जब वहां से लौटे तो नगरीय क्षेत्र को छोडकर आबादी से बाहर अपनी माता श्री के मजार पर आये और अपनी कब्र का स्थान स्वंय चिन्हित कर सबको बताया और अपने शिष्यों में से भी जो उनके साथ थे। उन्हें भी अपने समीप कब्र के लिए स्थान बांट दिया। उस समय आपकी माताश्री के मजार पर एक गुम्बद निर्मित था। जिसे 775 हिजरी में हजरत इब्राहिम मलिक बयां के सुपुत्र कलिक दाऊद ने एक चबूतरे के साथ निर्माण कराया था।




782 हिजरी/ 1380 ईसवीं में मखदूम जहाँ के चिन्हित इस स्थान पर दफन होने के बाद से ही यह स्थान विशेष महत्व और श्रद्धा का अनुपम केंद्र बन गया और बड़ी दरगाह कहलाने लगा। यह पावन स्थल नगरीय क्षेत्र से बाहर दक्षिणी छोर पर स्थित है। जिसे पश्चिम से पूर्व की और बहती हुई पंजानी नदी नगर से बांटती थी। अब यह नदी सुख गई है। यह इलाका दस्तावेजों के अनुसार हुजूरपुर मैंहदौर कहलाता है।

बड़ी दरगाह बिहार शरीफ
बड़ी दरगाह बिहार शरीफ




हजरत शरफुद्दीन याहया मनेरी का पवित्र मजार बडी दरगाह क्षेत्र के केंद्र में स्थित है। और चारो ओर कच्ची पक्की अनगिनत कब्रें स्थित है। जिस जमीन में कब्रें फैली हुई हैं यह लगभग 64 एकड़ होगी। इसी से बडी दरगाह शरीफ के विशाल क्षेत्र का अनुमान लगाया जा सकता है। अपनी माताश्री की कब्र बनने के बाद से शरफुद्दीन याहया मनेरी यहां बराबर आते थे। एक बार वृद्धावस्था और अस्वस्थता के कारण डोली पर सवार होकर शब-ए-रात में वहां आने की चर्चा “मुनिसुलमूरीदीन” में भी मिलती है। आप वहां नमाज पढ़ते थे। और आपके नमाज पढ़ने का एक विशेष स्थान भी था। आज तक वह स्थान शरफुद्दीन याहया मनेरी के मुसल्ले के नाम से मौजूद है। और वर्तमान मस्जिद के बरामदे में बांये किनारे पर है।





बडी दरगाह की मजार के ठीक सामने पश्चिम कि ओर मस्जिद के बरामदे से सटे दक्षिण में खुले प्रांगण में एक पत्थर है। जिस पर बैठकर आप वजू (धर्म विधान के अनुसार पवित्र होने के लिए हाथ मुंह धोना) करते थे। और कभी कभी पत्थर से सटकर बैठ ही जाते थे। यही कारण है कि आज तक आपके वार्षिक उर्स के मुख्य आयोजन में जो ईद के मास में पांचवीं तिथि को 12 बजे रात्रि में आपकी दरगाह पर सम्पन्न होता है। आपके सज्जादानशीन उसी पत्थर से उसी प्रकार सटकर आपकी मजार की ओर मुंख करके बैठते है, और कुल (एक विशेष प्रकार की प्रार्थना) पढ़ा जाता है। इस पत्थर के अंदर एक विशेषता भी बताते है। कि गर्मियों के मौसम में कड़ी धूप में बारह बजे दिन में यह पत्थर खुले प्रांगण में पड़ा रहता है। और गर्म नही होता है।

सज्जादानशीन और रिश्तेदारों की कब्रे


बिहार शरीफ दरगाह में आपके मजार के पवित्र चरणों के पास थोडा स्थान छोडकर आपके सगे भाई हजरत खलीलुद्दीन का मजार है। और उनके मजार के समांतर आपके दूसरे शिष्यों के मजार बने हुए है। जिनमें पूर्व की ओर हजरत जैन बदरे अरबी और उनकी माता की कब्रे भी स्थित है। हजरत खलीलुद्दीन के मजार के चरणों के पीछे मजारों की पंक्ति में आपके सज्जादानशीनों की कब्रे है। जिन्हें लोहे की रेलिंग से घेरकर स्पष्ट कर दिया गया है। इनमें हजरत शाह वलीउल्लाह, हजरत शाह अमीरूद्दीन, जनाब हुजूर शाह अमीन अहमद, हजरत शाह बुरहानुद्दीन, जनाब हुजूर शाह मुहम्मद हयात, जनाब हुजूर शाह मुहम्मद सज्जद के मजार पूर्व से पश्चिम की ओर क्रमानुसार है। इस पंक्ति के पीछे की पंक्ति में दिवंगत सज्जादानशीन जनाब हुजूर सैय्यद शाह मुहम्मद अमजाद और उनसे सटे पूरब हजरत शाह वलीउल्लाह के पिता शाह अलीमुद्दीन दरवेश का मजार है। यह सभी अपने अपने समय में शरफुद्दीन याहया मनेरी की गद्दी की शोभा बढ़ा चुके है। इस क्षेत्र में आपके शिष्य और प्रिय सेवक शेख चुल्हाई शिष्य तथा रसोईया फतूहा के मजार भी स्थित है। हेलाल और अकीक के भी मजार इसी आसपास घेरे में मौजूद है। आपके कुछ दूसरे शिष्य और सगे संबंधियों के मजार भी इसी क्षेत्र में है। बडे बड़े सूफी संत और महात्मा अपने अपने काल के विषिष्ट व्यक्ति इस क्षेत्र में चिरनिद्रा में लीन है।




आपकी पवित्र मजार शरीफ के उत्तर सिरहाने में तोशखाना है। जिसमें जिसमें दरगाह पर चढने वाली भेट रखी जाती है। इसी तोशाखाने में आपके 23वें सज्जादानशीन हजरत शाह अमीन अहमद फिरदौसी के समय से (उनके आदेशानुसार) आपके प्रयोग में लाई गई और दूसरी पवित्र वस्तुएं (तबर्रूकात) रखी हुई है। पहले यह तबर्रूकात खानकाह मुअज्जम में रहते थे। हर वर्ष वार्षिक उर्स के अवसर पर ईद की 8 तारीख को सज्जादानशीन के प्रतिनिधि द्वारा इन्हें आम दर्शन के लिए रखी जाती है।




हजरत मखदूम जहाँ शरफुद्दीन अहमद याहया मनेरी की दरगाह शरीफ लगभग 600 वर्षों तक आकाश की नीली छत्री में जगमगाती रही अब इसे ओर सुंदर और भव्य बनाया गया है। बडी दरगाह शरीफ की सुंदरता देखते ही बनती है। हर समय प्रातः हो या संध्या, दोपहर हो या रात्रि यहां आश्चर्यजनक रूप से हार्दिक शांति और अलौकिक छत्र छाया का आभास होता है। देर रात में आपके मजार के दर्शन का तो पूछना ही क्या, शांत वातावरण में आपकी महिमा तनिक और उजागर होकर चमकती है, और ह्रदय को छू जाती है। बड़े बड़े संत महात्माओं और ज्ञानियों ने आपकी दरगाह पर अपनी उपस्थिति दर्ज करके आत्म लाभ और आलौकिक सुख प्राप्त किया और तृप्त हुए है। राजा से लेकर रंक तक की मनोकामना यहां पूरी होती आई है। सुबह से रात तक यहां श्रृद्धालुओं का मेला सा लगा रहता है। दूर दूर से हर धर्म और जाति के लोग बड़े आदर और श्रद्धा के साथ यहां का दर्शन कर धन्य होते है।

बादशाहों और नौकरशाहों में आपके प्रति सम्मान


901 हिजरी / 1495-96 ईसवीं में सिकंदर लोदी आपकी मजार शरीफ में श्रृद्धांजलि अर्पित करने बिहार शरीफ दरगाह आया और दरगाह के बाहर दीन दुखियों, निर्धनों को दान दक्षिणा देकर लौटा। हर काल में यहां राजा महाराजाओं और प्रशासन ने श्रृद्धा स्वरूप और श्रृद्धालुओं की सुविधा के लिए निर्माण कार्य करवाया है। शूरवंश के शासकों ने अपने शासन काल में दरगाह शरीफ के चारों ओर मकान, मुसाफिर खाना, मस्जिद और हौज का निर्माण कराया और फव्वारा भी लगवाया था।



आपके नौवें सज्जादानशीन हजरत मखदूम शाह अखबंद फिरदौसी के काल में स्वतंत्र शासक सुलेमान केरारानी ने 977 हिजरी / 1569-70 ईसवी में बड़ी दरगाह में महत्वपूर्ण निर्माण कार्य करवाया। दरगाह शरीफ में प्रवेश के लिए अंतिम द्वार जो सन्दली दरवाजा कहलाता है। वह उसी के द्वारा निर्मित है। इस द्वार के शीर्ष पर 4×10 का उसका शिलालेख विद्यमान है। इसी द्वार के दाहिने ओर हजरत मौलाना मुज्जफर बल्खी का हुजरा है। सन्दली दरवाजे से ठीक उत्तर सतह से थोडी ऊंची सतह पर मौलाना मुज्जफर बल्खी के हुजरे के सामने उनके खलीफा शेख जमाल औलिया अवधी का मजार और हुजरा है। सन्दली दरवाजे से पहले बड़ी दरगाह शरीफ में प्रवेश के दूसरे द्वार का निर्माण शेख सलाउद्दीन ने कराया था। इसी द्वार से सटे पूरब द्वार के निकट एक पंक्ति में बने मजार भी आपके सज्जादानशीनों के है।

बड़ी दरगाह बिहार शरीफ
बड़ी दरगाह बिहार शरीफ



सम्राट अकबर को भी आपके प्रति श्रृद्धा थी। उनके नवरत्नों में से एक अबुलफजल ने “आईने अकबरी” में आपकी और आपके पत्रों की भूरि भूरि प्रशंसा की है।

बादशाह जहांगीर भी आपके प्रति श्रृद्धा रखता था। उसने 1033 हिजरी में अपने समकालीन शरफुद्दीन याहया मनेरी के 13वें सज्जादानशीन आब्हुस्सलाम फिरदौसी की सेवा में मौजा सादिर की जागीर फरमान द्वारा भेंट की थी।



बादशाह शाहजहांबिहार में बडी दरगाह शरीफ की महत्ता के प्रति जागरूक था। उसके शासनकाल में बिहार के सुबेदार हबीब खां सूर ने 1056 हिजरी / 1646-47 ईसवीं में आपके 14वें सज्जादानशीन मखदूम शाह जकीउद्दीन के काल में महत्वपूर्ण निर्माण कार्य कराये। उसने बडी दरगाह क्षेत्र में एक ईदगाह का निर्माण कराया और पक्की ईटों से उसके फर्श को पक्का बनाया तथा दरगाह शरीफ में श्रृद्धालुओं की सुविधा के लिए ईदगाह के पिछे पश्चिम में एक हौज (तालाब) बनवाया और उसे हौजे शरफुद्दीन नाम दिया, जो आज भी मखदूम तालाब के नाम से मौजूद है। ईदगाह की दीवार में उसके निर्माण कार्य का 4×10 इंच का शिलालेख मौजूद है। इस तालाब की एक विशेषता यह भी थी कि आपके मजार शरीफ के पास से पानी की निकासी इस तालाब में तांबे के पाइप के द्वारा की गई थी। जब कभी आपके मजार को गुस्ल (धोया) दिया जाता या वर्षा होती तो उस पवित्र क्षेत्र का पानी इसी तालाब में गिरता था। वह तांबे का परनाला मखदूम तालाब में पहले दिखाई देता था अब नहीं देता।




शाहजादा अजीमुश्शान ने भी अपने गवर्नरी काल में बड़ी दरगाह मजार शरीफ में हाजरी दी और निर्माण कार्य में विशेष रूची दिखलाई। उसने मौलाना मुज्जफर बल्खी के हुजरे का नवनिर्माण कराया और ईद व बकराईद के अवसर पर विषिश्ट भोजन का प्रबंध कराया। इस भोज का राजकीय स्तर पर प्रबंध मुगल शासकों के शासन काल में बहुत दिनों तक चलता रहा।




बिहार शरीफ दरगाह के 15वें सज्जादानशीन हजरत शाह वजीहुद्दीन के काल में मुगल शासक फरूखसियार ने भी कई गांव बडी दरगाह और खानकाह मुअज्जम के खर्चे के लिए बडी श्रद्धा के साथ भेंट किये। जिसका फरमान खानकाह मुअज्जम के पुस्तकालय मे मौजूद है। बिहार शरीफ मखदूम शाह बाबा के 19वें सज्जादानशीन हजरत मखदूम शाह वदीऊद्दीन फिरदौसी के नाम से मुहम्मद शाह रंगीला ने मौजा हुजूरपुर में मेंहदौर और कई गांव हजरत मखदूम जहाँ के उर्स और खानकाह के खर्चे के लिए भेंट किये।



बिहार शरीफ मखदूम शाह बाबा के 20वें सज्जादानशीन हजरत मखदूम शाह अलीमुद्दीन दरवेश फिरदौसी के काल में शाह आलम द्वितीय ने बिहार शरीफ बड़ी दरगाह और खानकाह मुअज्जम में हाजरी दी और कई गांव बड़ी दरगाह के मेले के खर्चे के लिए भेंट किये, और दरगाह मार्ग में दीन दुखियों, मजबूरों और भिखारियों पर उसने बड़ी संख्या में चांदी के इतने सिक्के बरसाये कि सबके आंचल भर गये। शाह आलम के कई फरमान खानकाह मुअज्जम के पुस्तकालय में मौजूद है। शाह आलम द्वितीय ने मिस्टर जॉजेफ जैकेल बहादुर को तत्कालीन सज्जादानशीन हजरत शाह अलीमुद्दीन के साथ विशिष्टता बरतने और उनका आदर सत्कार करने का भी निर्देश दिया था। जिसका फरमान भी मौजूद है।




1171 हिजरी में नवाब मीर जाफर भी बिहार शरीफ दरगाह में श्रृद्धा पूर्वक हाजिर हुआ और हयाते सबात नामी हस्तलिखित पुस्तक के अनुसार कई वस्तुएं बिहार शरीफ दरगाह में भेंट की। उस काल के महाराजा शताब राय और महाराजा कल्याण सिंह आशिक भी बिहार शरीफ बड़ी दरगाह के मेले में बडी श्रृद्धा के साथ सम्मिलित हुआ करते थे और दरगाह के समीप निर्धनों को खुल कर दान दक्षिणा देते थे।



बिहार शरीफ मखदूम शाह बाबा के 20वें सज्जादानशीन हजरत शाह अलीमुद्दीन की मृत्यु के बाद उनके अल्पायु पुत्र हजरत शाह वलीउल्लाह मखदूम आपके 21वें सज्जादानशीन हुए तो उनकी सज्जादानशीनी और तौलियत का सत्यापन भी शाह आलम ने एक विशेष फरमान के द्वारा किया और उसमें उनके अधिकारों की रक्षा के लिए कडे निर्देश दिये। राजा बोध नारायण भी दरगाह के भक्तों में से थे, उन्होंने भी कुछ गांव बिहार शरीफ दरगाह और खानकाह मुअज्जम के खर्चे के लिए भेंट किये थे। वह भेंट पत्र भी खानकाह मुअज्जम में सुरक्षित है।

बिहार शरीफ बड़ी दरगाह का मेला – बिहार शरीफ का उर्स


हजरत मखदूम जहां शरफुद्दीन अहमद याहया मनेरी के स्वर्गवास को 657 वर्ष बीत गये अर्थात इस वर्ष 2019 ईसवीं में आपका 657 वां उर्स समारोह आयोजित हुआ। बड़ी दरगाह बिहार शरीफ का मेला के इस प्राचीन आयोजन का बिहार और बंगाल की संस्कृति पर गहरा प्रभाव रहा है। आपके वार्षिक उर्स में उमडने वाली भीड़ में हर धर्म और सम्प्रदाय के लोग बड़ी श्रृद्धा और कामना के साथ सम्मिलित होते है। भारत वर्ष में अजमेर शरीफ को जो प्रसिद्धि प्राप्त है। और वहां के वार्षिक उर्स का जो महत्व है। वही बिहार और बंगाल में बिहार शरीफ के उर्स को प्राप्त है।



रमजान के पवित्र महिने के बाद ईद की खुशियों के साथ साथ बड़ी दरगाह के मेले का भी शुभागमन हो जाता है। बड़ी दरगाह का वार्षिक उर्स “चिरागां” कहलाता है। किसी स्थान को दीयों के प्रकाश से प्रकाशित करने को चिरागां कहते है। चूकि बड़ी दरगाह के उर्स के अवसर पर बड़ी दरगाह और उस ओर आने वाले बिहार शरीफ नगर के सभी मार्ग दीयों, मशालों, फानूसों इत्यादि के प्रकाश से जगमगा उठते है। इसलिए यह आयोजन चिरागां के नाम से प्रसिद्ध हो गया। वैसे आम भाषा में लोग बड़ी दरगाह का उर्स या बड़ी दरगाह का मेला आदि ही नामों से जानते है।




रमजान के महीने से ही आपके सज्जादानशीन उर्स की तैयारियों में जुट जाते है। दरगाह शरीफ की मरम्मत, रंग रोगन, श्रृद्धालुओं की सुविधा के उपाय होने लगते है। उर्स शरीफ का मुख्य दिवस तो ईद के चांद की पांच तारीख है। लेकिन ईद के बाद से ही लोगों का समूह बिहार शरीफ दरगाह और खानकाह मुअज्जम पहुंचने लगता है। और यहां का हर घर अतिथियों से आबाद हो जाता है। सार्वजनिक स्थानों पर खेमे गाड़े जाते है। और सराय भर जाती है। पांच तारीख आते आते पूरा दरगाह क्षेत्र श्रृद्धालुओं से पूर्णतः भर जाता हैं।

बिहार शरीफ दरगाह
बिहार शरीफ दरगाह




उर्स शरीफ के विशेष कार्यक्रम शरफुद्दीन याहया मनेरी की खानकाह मुअज्जम में सम्पन्न होते है। (खानकाह मुअज्जम आपका रिहायशी मुकाम है। जहां अब लाइब्रेरी, मदरसा, सराय, और दफ्तर है बडी दरगाह आपका कब्र मकबरा है ) जहां ईद की पांच तारीख प्रातः से ही पवित्र कुरआन का जाप और कुल आरम्भ होता है। तथा लंगर बटता है। शाम चार बजे के बाद से खानकाह में शरफुद्दीन याहया मनेरी के अनमोल पत्रो की शिक्षा का कार्यक्रम होता है। तथा रात्रि के समय जब आपकी मृत्यु हुई थी। खानकाह मुअज्जम में उस समय आंखो देखा हाल सुनाया जाता है। जिसे सुनकर हर व्यक्ति भाव विभोर हो उठता है। फिर ईशा कि नमाज के बाद सभी को लंगर खिलाया जाता है। 12बजे रात्रि को सज्जादानशीन दरगाह शरीफ जाने की तैयारी करते है। और पारंपरिक वेशभूषा में डोली पर बैठकर श्रृद्धालुओं की अपार भीड़ मे मशालों के मध्य जब वो दरगाह शरीफ की ओर चलते है तो अजीब, अनोखा, मनमोहक दृश्य होता है। हर एक श्रृद्धालु इसका प्रयास करता है कि आपके सज्जादानशीन के पवित्र हाथो को चूम सके नहीं तो स्पर्श करने का ही सौभाग्य प्राप्त कर सके। रात्रि में सज्जादानशीन दरगाह में पधारते है। सीधे आपके पवित्र मजार पर जाकर परंपरानुसार हाजरी देते है। फिर गुंबद से निकलकर खुले प्रागंण में आपके स्थान पर आसीन होते है और पवित्र कुरान का पाठ (कुल) सम्पन्न होता है।




कुल के बाद सज्जादानशीन सभी श्रृद्धालुओं की मनोकामना की पूर्ति और जनकल्याण, विश्वशांति तथा सदभाव के लिए प्रार्थना करते है। फिर सभी को आशिर्वाद देते हुए डोली पर खानकाह लौट जाते है। तब खानकाह में प्रारंभ होती है सुफी परंपरा अनुसार कव्वाली जिसमें ईशप्रेम जगाने वाली कविताएं, पैगंबर मुहम्मद साहब(स°) की स्तुतियाँ और शरफुद्दीन याहया की महिमा में कही गई कव्वालियां लोगों को भाव विभोर कर डालती है। वैसे भी बड़ी दरगाह कव्वाली बहुत प्रसिद्ध है। यह आयोजन सुबह की नमाज चलता है। सुबह की नमाज के उपरांत बांस की बनी टोकरियों में रोटी और हलवा तथा कोरे घडे मे शरबत ला कर रखा जाता है। और शरफुद्दीन याहया और उनके पीरो मुरशिद शेख नजीबुद्दीन फिरदौसी की पवित्र आत्मा के लिए कुल पढ़ा जाता है।



इसके बाद सज्जादानशीन के साथ सभी उपस्थित सूफी संत व श्रृद्धालुगण अपने अपने हाथो में गागर लिये हुए खानकाह से निकलकर समीप ही मखदूम बाग में जाते है। और वहां से सभी अपने अपने गागर में मखदूमे जहां शरफुद्दीन के नियाज के लिए पकाने वाले भोजन हेतु पानी भरकर लाते है। पानी लाने को जाने और आने के क्रम में कव्वाल साथ साथ यह पारंपरिक बोल विशेष राग में गाते हुए चलते है।
गागर ले जाते समय :–
• शरफा जहां के सोंधे आंचल बोर।
• सोने की तेरी हायला रे रेशम पाग की गरे।।
• सब पन्हरियां भर भर गेली अपनी अपनी ओर।।।
पानी भरकर लौटते समय :—
• शाहे शरफ जी मै तोसे मांमू।
• आनन्द सुख लम्पति ईशँ।।
• शाहे शरफ जी मै तोसे मांगू।।।
6 तारीख को रात में गागर में लाए पानी से बना खाना नियाज होता है। और सभी में प्रसाद बांटा जाता है। और 9 तारीख तक उर्स समारोह के अतंर्गत खानकाह में सज्जादानशीन से आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है। और परंपरा अनुसार कव्वाली और पवित्र जाप तथा लंगर का सिलसिला चलता रहता है। इस दौरान यहां खेल खिलौने, खाने पीने, आदि की दुकानें भी लगी रहती है जिससे एक मेले का सा माहौल लगातार बना रहता है।

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Naeem Ahmad

CEO & founder alvi travels agency tour organiser planners and consultant and Indian Hindi blogger

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