बाबा मलूकदास जी जिला इलाहाबाद के कड़ा नामक गांव में बैसाख वदी 5 सम्वत् 1631 विक्रमी में लाला सुंदरदास खत्री कक्कड़ के घर प्रकट हुए। जब पांच बरस के हुए तो मकान से बाहर गली में खेला करते थे और खेल के दर्मियान जो कुछ कांटा कुडा करकट गली में पड़ा होता था उसे उठाकर एक कोने में डाल देते कि किसी के पांव में लग कर कष्ट न हो। एक दिन की बात है कि जब वह मामूल मुताफिक़ खेल रहे थे एक संत महात्मा उसी गली में आ निकले और उनको देख कर लोगों से पूछा कि यह किसका लड़का है और यह सुनकर कि वह सुंदरदास का बेटा हैं बाप को बुलवाया ओर कहा कि अचरज हैं कि यह लड़का गली में इस तरह अकेला खेल रहा है इसकी आजानुबाहु यानी लम्बी भुजा इस बात की सूचक हैं कि या तो यह सात दीप का अखंड राजा हो या ऊंची साध गति को प्राप्त हो। बाबा मलूकदास जी की इतनी लम्बी बाहें थी जो खड़े होने से घुटने के नीचे पहुंचती थीं। इस बात को सुनकर सुन्दरदास तो अचरज में आकर हक्के बक्के हो गये पर बाबा मलूकदास बोले कि महात्मा जी आप ठीक कहते हैं।
बाबा मलूकदास का जीवन परिचय हिंदी में
बाबा मलूकदास जी साध सेवा लड़कपन ही से बड़ी निष्ठा से करते थे, जो साधू ओर भूखे आते उनका सम्मान ओर खाने पीने की फिकर रखते। एक दिन एक मंडली साधुओं की आई और भोजन मांगा। बाबा जी ने घर के भंडार घर में सेंध लगा कर जो कुछ सामग्री थी निकाल ली और साधुओं को खिला दिया। जब उनकी मां रसोई के समय राशन निकालने गई तो वहांकुछ न पाया बेचारी रोने लगीं कि अब घर के लिए कहां से खाना बनाऊं और बोली कि यह काम मल्लू का है। इसी दर्मियान में बाबा मलूकदास जी आ पहुंचे और पूछा कि मां क्यों रोती है। मां बोली कि बेटा तुम्हारी करतूत पर रोती हूँ कि भंडारे की सब सामग्री साधुओं को खिलाकर बाप मां को भूखा रखोगे। बाबाजी बोले कि मैंने तो एक दाना नहीं लिया है जिस पर मां झुंझला कर उन्हें भंडार घर में पकड़ ले गई कि देख सब बर्तन तो खाली पड़े हैं लेकिन वहां पहुंच कर जो देखा तो सब सामग्री ज्यों की त्यों भरी पाई।
जब इनकी अवस्था दस ग्यारह बरस की हुई तो बाप ने इन्हें व्यापार में लगाना चाहा और कम्बल थोक में लेकर कहा कि इनको बाजार में बेच आया करो। देहात में हर आठवें दिन पेंठ लगती है सौ यह आठवें दिन कम्बल बेचने जाते थे ओर इस दर्मियान में कोई साधू या गरीब इनसे मांगता तो उसे
यूं ही दे देते।
एक बार यह एक दूर के गांव में कम्बल बेचने गये लेकिन उस दिन न तो कोई कम्बल बिका और न कोई मांगता मिला जिसे मुफ्त दे देते, पूरा गठ्ठर कम्बलों का कड़ी धूप में सिर पर लाद कर घर लाने में थक गये और इसलिये रास्ते में एक नीम के पेड़ की छाया में बैठ गये कि एक मजदूर आया और कहा कि एक टका पर हम तुम्हारा गठ्ठर घर पर पहुंचा देंगे। मजदूर तेज चाल से आगे बढ़ गया और बाबाजी आप बेफिकर भजन करते हुए घर लौटे। मजदूर के अकेले गठरी लाने पर इनकी मां को सन्देह हुआ कि कहीं कुछ कम्बल निकाल न लिये हों इसलिये उसे थोड़ा सा खाना देकर खिलाने के बहाने कोठरी की बाहर कुंडी लगा उसे बंद कर दिया। ताकि यह कहीं भाग न जाये। इतने में मलूकदास जी भी आ गए। माँ बहुत क्रोधित हुई कि तू अनजान आदमी के हाथ में इस प्रकार सैकड़ों रुपये का माल देके पीछे कैसे रह गया था। देख मैंने उस आदमी को कोठे में बंद कर रखा है, पहले तू अपना कम्बल गिन लेना तब उसको मजदूरी देना। आजकल का समय विश्वास का नहीं है, हर मनुष्य चालाक और दगाबाज ही दिखाई देता है। अब आगे भूलकर कभी ऐसा मत करना। यह माता ने कहा और चुप हो गई।
बाबा मलूकदास जी की प्रतिमामलूकदास जी ने पहले कम्बलों को गिना, फिर मजदूरी चुकाने के लिए कोठे को खोला तो वहां एक रोटी का टुकड़ा पड़ा था और कोई नहीं था। आँखों में आंसू भर आये, उस टुकड़े को प्रसाद समझ फ़ौरन ही खा गए और माँ से बोले कि तू अत्यंत भाग्यशाली है कि तुझे साक्षात् भगवान के दर्शन हुए। यह मजदूर नहीं था, स्वयं भगवान ही मेरी सहायता को आ पहुंचे थे। यह उनका ही स्वभाव है कि विपत्ति में संकट में सदा ही अपने जनों की सहायता करते हैं। खुद कष्ट उठाते हैं परन्तु सेवकों को सुख दिया करते हैं। मुझे बहुत धोखा हुआ मैंने उनको साधारण मजदूर समझा यह मेरी अज्ञानता थी।
फिर माता से बोले अब मैं इसी कोठे में बंद होता हूँ। जब तक मैं बाहर न आऊँ मुझे छेड़ना नहीं और न मेरे भोजन की कोई फिकर करना। मलूकदास जी कई दिन तक बिना खाए पिए उसी में बंद रहे। कहा जाता है कि वहां पर फिर उनको उसी मजदूर के दर्शन हुए और उसी ने इनको ज्ञान दिया। जब यह बाहर निकले तो इनके मुख पर अद्भुत कांति थी, चेहरा प्रफुल्लित और शांत था। उस समय कि यह साखी उन्होंने कही —
गुरु मेरा बहुरंगी, चंगी लाखों वेश बनावे
जिस पर दया दृष्टि हो उसको अपने चरण लगावे
अब तो बाबा मलूकदास जी की कीर्ति चारों ओर फैले गई और हजारों लोग चारों ओर से दर्शन को आने लगे। नित प्रति सत्संग और सत उपदेश से अनेक जीव लाभ उठाने लगे। बाबा मलूकदास के चमत्कार और करामात ऐसी और इससे बढ़कर बहुत सी कथा प्रसिद्ध है। जिन सबको यहां लिखने का स्थान नहीं है। लेकिन थोड़े से कौतुक जो अत्यधिक प्रसिद्ध है उन्हें नीचे लिखते हैं।
कहा जाता है कि एक बार बड़ा भारी आकाल पड़ा यहां तक की पेड़ों में पत्ते तक खाने को नहीं रहे। हजारों आदमी वर्षा के लिए हाहाकार करते बाबा मलूकदास जी के चरणों पर आ गिरे। पहले तो बाबा जी ने अपनी असमर्थता बहुत कुछ बयां की पर जब वह लोग किसी तरह न माने, तो दयावश उनके साथ प्रार्थना करने को मैदान में चले गए। इस बीच बाबा मलूकदास का एक शिष्य लाल दास आया और अपने गुरु को गद्दी पर न पाकर हाल पूछा तो मालूम हुआ कि गांव वालों के साथ बस्ती के बाहर पानी बरसाने के लिए प्रार्थना करने गए हैं। यह सुनकर शिष्य लालदास को इंद्र पर बड़ा क्रोध आया कि वह ऐसा अहंकारी हैं कि जब हमारे गुरु महाराज उठकर जावै तब पानी बरसावै, यह कहकर एक साधू का भंग घोंटना उठाकर बोला की अभी इंद्र को एक सौटा ऐसा लगता हूं कि इंद्र आसन सहित यही गिरता है, परंतु भंग घोंटने का सौटा उठाते ही इंद्र कांपने लगा और उसी समय बड़े वेग से पानी बरसने लगा। बाबा मलूकदास जी अभी मैदान में भी न पहुंचे थे कि वर्षा देखकर आश्रम लौट आए। और यहां सब वृत्तांत सुनकर शिष्य लालदास पर बहुत अप्रसन्न हुए कि देवताओं पर इस तरह जोर न चलाना चाहिए। उनसे राजी से काम लेना चाहिए। शिष्य ने बड़ी दीनता से क्षमा मांगी जिस पर गुरूजी कहा कि जाओ जाकर पृथ्वी की परिक्रमा करके आओ जब तुम्हारा अपराध क्षमा होगा। शिष्य लाल दास आदेश पाते ही गुरु को दंडवत प्रणाम करके रवाना हुआ। और गंगा नदी में कूद पड़ा और वहां से समुंद्र में एक जहाज के पास जा निकला। जहाज के खलासियों ने उसे बहता देखकर बाहर निकाल लिया और जहाज के मालिक सौदागर के पास ले गए। सौदागर ने पूछा कि तुम्हारा जहाज कहां तबाह हुआ। पर उसने जवाब दिया कि कहीं नहीं। हम अपने गुरु की आज्ञा से पृथ्वी परिक्रमा करने निकले हैं। और उसके विशेष प्रश्न करने पर सारा हाल कह सुनाया। साथ ही अपने गुरु का पता ठीकाना बता दिया और फिर समुद्र में कूद गोता लगाकर गायब हो गया। सौदागर अचरज में पड़ गया और उसके मन में गुरूजी बाबा मलूकदास की महिमा पूरे तौर पर समा गई।
कुछ दिनों बाद सौदागर का जहाज़ बड़े खतरे में पड़ा तब उसने संकल्प लिया कि अगर जहाज बाबा मलूकदास की दया दृष्टि से बच जाए तो मैं चौथाई माल उनके चरणों में भेंट करूंगा। बाबा की दया से जहाज बच गया, और सौदागर बाबा मलूकदास की सेवा में चौथाई माल लेकर कड़ा में हाजिर हुआ, और सब हाल कह सुनाया। उस समय के बादशाह आलमगीर का वजीर बाबा के पास मौजूद था। उसका मन मोती की एक माला देखकर बहुत ललचाया। जिसे सौदागर बाबा मलूकदास जी को पहनाने के लिए हाथ में लिए खड़ा था। बाबा जी सौदागर से बोले किसी का माल भेंट में लेना दोष की बात है। पर हमने तुम्हारे जहाज को बचाने में बड़ा परिश्रम किया है। यह कहकर अंगौछा अपने कंधे से हटाकर पीठ को दिखलाया जिस पर बहुत से दाग मौजूद थे। फिर माला को सौदागर के हाथ से लेकर वजीर के गले में डाल दिया।
वजीर वहां से मग्न होकर बादशाह के यहां आया और बाबा मलूकदास का सब हाल कह सुनाया और बड़ी महिमा गाई। आलमगीर ने जो बड़ा कट्टर था, हुक्म दिया कि तीन ओहदी तुरंत जायें और बाबा मलूकदास को जिस तरह से बैठे हों वैसे ही लाकर हाजिर करें। उन तीन ओहदियों में दो भले आदमी थे और एक लुच्चा जिसने हठ किया कि जिस सूरत में बाबाजी बैठे होंगे उसी दम पकड़ लावेंगे परन्तु चमत्कार से यह तीसरा ओहदी रास्ते ही में मर गया। बाकी दो बाबा मलूकदास के आश्रम पर पहुंचे और बाबाजी के इस कहने को कि दूसरे दिन सबेरे उनके साथ चलेंगे मंजूर किया। लेकिन पहिले ही दिन शाम को बाबाजी सतसंग से अन्तर ध्यान होकर दिल्ली जा पहुंचे ओर बादशाही महल में जहां बादशाह अपनी बेगम के साथ बैठे थे जा खड़े हुए। बादशाह ने घबराकर पूछा कि तुम कौन हो बाबा जी ने जवाब दिया कि मलूका जिसको आपने याद किया है। बेगम हट गई और बादशाह ने बाबा जी को बड़े आदर से बैठाया और उनकी जाति पूछी बाबाजी , ने जवाब दिया कि फकीरों के जात पांत नहीं होती इस पर बादशाह ने उनके खाने को खिचड़ी पकाने का हुक्म दिया जब पक कर डेगची आई और खोली गई तों उसमें से खिचड़ी के बदले कुत्ते के पिल्ले जीते हुए निकल आये जिन्हें देखकर बाबाजी ने बादशाह से पूछा कि क्या आप यही खिचड़ी खाते हैं। बादशाह बावर्ची पर बहुत क्रोधित हुये ओर दूसरी खिचड़ी बनाने का हुक्म दिया। इस वार डेगची खोलने पर उसमें से राख निकली। बाबाजी बोले कि यह खाना फकीरों के योग्य है और उसमें से एक चुटकी राख लेकर फेक दिया तो ऐसी आधी वर्षा दिल्ली भर में आई कि शहर गारत होने लगा। फिर बादशाह की प्रार्थना पर बाबाजी ने दया करके वह उत्पात हटा लिया।
ऐसे ही लिखा है कि आलमगीर ने कुएं के मुंह पर खड़े होकर नमाज पढ़ी जिसके जवाब में बाबाजी ने कूंए के बीच अधर में बिना किसी सहारे लटकते हुए भजन किया। इन सब चमत्कारों को देखकर शाह आलमगीर को विश्वास हुआ कि बाबा मलूकदास पहुंचे हुये साहेब कमाल है ओर उनसे बड़ी दीनता के साथ कुछ मांगने को कहा परन्तु बाबाजी ने इनकार कर दिया, फिर बादशाह के बहुत गिड़गड़ाने पर बोले कि अच्छा एक तो जजिया कर जो हिन्दुओं पर लगा है उस को कड़ा के लिये माफ कर दो, दूसरे दोनों ओहदियों को एक एक सूबा बख्श दो और परवाना लिख दो कि मुझको यहां न लावे। बादशाह ने उसी दम यह दोनों हुक्म लिखकर बाबाजी के हवाले किया जिनको लेकर बाबाजी सत्संग में आधी रात को फिर प्रकट हुए और अंगौछा जिसको सिर से पैर तक डाले रहा करते थे उठाकर सतसंगियों से बोले कि आज बड़ी देर हो गई अब तुम लोग अपने अपने घर जाओ। सवेरे दोनों ओहदियों को शाही परवाना दिखलाया उनमें से एक तो सूबेदारी के लालच से लौट आया लेकिन दूसरे ने कहा कि मैं ऐसा दरबार छोड़कर बादशाहत मिले तो उसको भी धूल समझता हूँ, इस दूसरे ओहदी की समाधि आज तक बाबाजी की समाधि के पास मौजूद है।
एक बार बाबा मलूकदास अपना मकान बनवा रहे थे उसमें बहुत से मजदूर दब गये जब निकाले गये तो सब जीते निकले ओर बयान किया कि बाबाजी की सूरत के एक आदमी ने हमारी दबी हुईं दशा में प्रकट होकर रक्षा की। एक अहीरन का एकलौता लड़का मर गया माँ के बहुत रोने और प्रार्थना करने पर बाबाजी ने अपनी उंगली चीर कर ज़रा सा लहू लड़के के मुंह में डाल कर जिंदा कर दिया।
बाबा मलूकदास का स्वर्गवास
बाबा मलूकदास के गुरू विठ्ठलदास द्रविड़ देश के एक महात्मा थे। बाबाजी गृहस्त आश्रम में थे और उनके एक बेटी हुई, परन्तु थोड़े ही काल में स्त्री और पुत्री दोनों का शरीर त्याग हो गया। सम्वत् 1739 में 108 बरस की अवस्था को प्राप्त होकर बाबाजी ने चोला छोड़ा। गुप्त होने के छः महीना पहले उन्होंने अपने भतीजे रामसनेही से कहा कि तुम हमारी गद्दी पर बैठो। उसने अपनी असमर्थता बयान की जिस पर बाबाजी ने ढारस दी कि ताकत बख्शी जायगी तब वह गद्दी पर बैठे और बाबाजी के बारह गुरुमुख शिष्यों ने जो एक से एक बढ़कर थे आकर उनको मत्था टेका ओर सेवा में लगे।
जब बाबाजी के चोला छोड़ने का दिन आया तो उन्होंने अपने शिष्यों और कुटुम्बियों को बुलाकर कहा कि दोपहर को जब तुम लोगों के अंतर में घंटा और संख का शब्द गुंजने लगे तब समझना कि हमने चोला छोड़ दिया और हमारे शरीर को गंगा में प्रवाह कर देना, जलाना मत, सो इस आज्ञा का पूरे तौर पर पालन किया गया और कड़ा में उनकी समाधि बना दी गईं। कहते हैं कि बाबाजी मलूकदास का सतक शरीर पहिले प्रयाग के घाट पर ठहरा और एक घाटिये से पीने को पानी मांगा और फ़िर डुबकी मार कर काशी में निकला और वहां भी पानी और फिर कलम दवात मांगी जिससे लिख दिया कि मलुका काशी पहुंचा, वहां से गोता लगाकर जगन्नाथपुरी में पहुंचा। जगन्नाथ जी ने अपने पंडों को स्वप्न दिया कि समुद्र तट पर एक रथी है उसे उठा लाओ। जब वह रथी आई तो पंडे उसे मूर्ति के सन्मुख रख कर आप बाहर निकल आये और मंदिर के पट आपने आप बंद हो गये। बाबाजी ने जगन्नाथ जी से प्रार्थना की कि हमारे विश्राम को आपके पनाले के पास का स्थान और भोजन को आपके भोग के दाल चावल के पछोरन किनका का रोट ओर तरकारी के छीलन की भाजी मिले जगन्नाथ जी ने स्वीकार करके आज्ञा दी कि हमारे भोग से बढ़कर सवाद तुम्हारे भोग में होगा। जगन्नाथजी के पनाले के पास बाबा मलूकदास जी का स्थान अब तक मौजूद है ओर उनके नाम का रोट अब तक जारी है, जो यात्रियों को जगन्नाथ जी के भोग के साथ प्रसाद में मिलता है।
बाबा मलूकदास जी के पंथ की मुख्य गद्दियां मोज़ा कड़ा, जिला प्रयागराज, जयपुर, इस्फहाबाद, गुजरात, मुलतान , पटना (बिहार ), सीताकोयल ( दक्खिन ), कलापुर, नेपाल और काबुल में हैं। बाबा मलूकदास के रचे हुए ग्रन्थ भी कितने ही हैं जिन में मुख्य ‘रत्नखान’ और ‘ज्ञानबोध” समझे जाते हैं परन्तु वह ऐसे हिन्दी अक्षर में हैं जिन्हें उनके कुटुम्ब वाले भी स्वयं नहीं पढ़ सकते ओर न उनके पढ़ने का जतन करते हैं छपवाने की बात तो दूर है।
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