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बाबा धरनीदास जी

बाबा धरनीदास का जीवन परिचय हिंदी में

बाबा धरनीदास जी जाति के श्रीवास्तव कायस्थ एक बड़े महात्मा थे। इनका जन्म जिला छपराबिहार राज्य के मांझी नामक गांव में संवत्‌ 1713 विक्रमी में हुआ पर चोला छोड़ने का समय ठीक मालूम नहीं होता। मांझी गाँव सरयू नदी के तट पर उत्तर की ओर बसा है जहां अब एक बड़ा पुल रेलवे का बना है।

बाबा धरनीदास का जीवन परिचय हिंदी में

बाबा धरनीदास जी के पिता का नाम परसराम दास था और घर में खेती का काम होता था। बाबा धरनीदास जी आप मांझी के बाबू के दीवान थे और उनके मालिक उनकी बड़ी कदर करते थे और पूरा भरोसा रखते थे पर उनकी अंतर गति से बेखबर थे।

कहते हैं कि एक दिन बाबा धरनीदास जी जमींदारी के काम में लगे हुये थे कि अचानक पानी भरा हुआ लोटा जो पास रखा हुआ था उन्होंने कागज और बस्ते पर ढ़लका दिया जिस पर पर पूछा गया कि ऐसा क्‍यों किया? धरनीदास जी ने कुछ जवाब न दिया, आखिर को बाबू की अप्रसन्नता और उन्हें पागल समझ लेने पर उन्होंने कहा कि जगन्नाथ जी के वस्त्र में आरती करते समय आग लग गई थी जिसे मैंने पानी डालकर बुझाया है। इस कथन का विश्वास बाबू और उनके अधिकारियों को न हुआ और इनकी हंसी उड़ाई जिस पर बाबा धरनीदास जी बस्ता छोड़ कर, यह कहते हुए चल दिये–

लिखनी नाहि करौ रै भाई, मोहि राम नाम सुधि आई।।

बाबू ने दो भरोसे के आदमी जगन्नाथपुरी भेज कर तहकीकात कि तो मालूम हुआ कि सचमुच जिस समय कि बाबा धरनीदास जी ने लौटे का पानी गिराया वहां आग लगी थी। जिसे उनकी सुरत का एक आदमी प्रकट होकर बुझा गया। इस साल को सुनकर बाबू बड़े लज्जित हुए, और आप बाबा धरनीदास को बुलाने और उनसे अपना अपराध क्षमा कराने को गए। परंतु बाबा ने फिर नौकरी पर लौटने से इंकार किया और कहा कि अब हमको भगवत भजन करने दो। बाबू ने बहुत कुछ नगद और जमीन भी उनके गुजारे के लिए देना चाहा पर उन्होंने नामंजूर कर दिया। यही कथा जगन्नाथपुरी में आग बुझाने की संत कबीर दास की बाबत भी बहुत प्रसिद्ध है। और यह कहां तक ऐतबार के लायक है यह तो हम लेख पढ़ने वालों के ऊपर छोड़ते हैं।

बाबा धरनीदास जी
बाबा धरनीदास जी

इसके बाद बाबा धरनीदास जी गृहस्थ आश्रम छोड़कर साधू हो गए और उसी गांव में एक झोपड़ी डालकर रहने लगे। कहते हैं कि उन्होंने गृहस्थ आश्रम में चंद्रदास नाम के एक साधू से दीक्षा ली थी और भेष लेने पर एक दूसरे साधू सेवानंद को गुरु धारण किया जो भी हो इसमें संदेह नहीं कि बाबा धरनीदास जी ऊंचे दर्जे के शब्द अभ्यासी और गहरे भक्त थे। जिनकी गति उनकी अत्यन्त मधुर प्रेम रस में पगी हुई और अंतरी भेद की वाणी से प्रकट होती हैं।

कितनी ही करामातें बाबा धरनीदास जी की महिमा की मशहूर है। एक बार उनको कई अहीर जाति के चोर रात को मिले और उनसे अपनी राग में गीत गंवाई, फिर वहां से चलकर चोरी को गये, और चोरी करते समय आंखों के पीछे ऐसी अंधेरी छा गई कि रास्ता घर से निकलने तक का नाम सूझता था। जब उनको बड़ा दुखी देखा तो बाबा धरनीदास जी ने अपने बड़े शिष्य सदानंद जी को दया करके भेजा, जो उनको अपने गुरु की सेवा में लाए। उनके सम्मुख पहुंचते ही चोरों की आंखें खुल गईं। और वह वहीं महात्मा जी के चरणों पर गिर कर साधु बन गए।

इसी तरह कहते हैं कि एक बार बहुत से साधू भ्रमण करते हुए आये। जिनके भोजन का प्रबंध किया गया, पर जब खाने का समय आया तो उन लोगों ने शरारत से कहा कि तुम जाति के कायस्थ हो द्वारकाधीश का छाप लगाकर अपनी शुद्धि नहीं की है। इससे हम तुम्हारा धान्य ठाकुर जी को कैसे भोग लगा सकते हैं। बाबा धरनीदास जी ने बहुत समझाया पर उन लोगों ने एक न सुनी, आखिर को महात्मा जी बोले अच्छा थोड़ी सी मुहलत दो हम द्वारका जाकर छाप ले आते हैं। यह कहकर वह अपनी कुटिया में घुस गये। और तुर्तही बाहर निकाल कर द्वारिका जी की छाप अपनी बांह पर दिखला दी जिसको देखकर वह लोग अचरज में आ गए और चरणों पर गिर पड़े।

ऐसे ही बाबा धरनीदास जी के शरीर त्याग करने की कथा प्रसिद्ध है कि जब समय आया तो आपने अपने शिष्यों से कहा कि अब हम विदा होते हैं, यह कहकर उस स्थान पर आये जहा गंगा और सरयू का संगम है, और जल पर चादर बिछाकर उस पर आसन लगाकर बैठ गए। थोड़ी देर तक धारा के साथ बहते नजर आए, फिर उनके शिष्यों को दिखाई पड़ा कि पानी में आग लगी है। जिसकी लपटें आकाश तक उठी और बाबा धरनीदास जी गुप्त हो गये।

इन कथाओं पर टीका कसी करना ऐसे भोले भक्तों का जो उन पर कसौटी से विश्वास करते हैं जी दुखाना होगा। तो भी इतना कहना अनुचित न होगा कि बाबा धरनीदास सरीखे महात्मा की महिमा ऐसी सिद्धि शक्ति की मोहताज नहीं है और न ही सच्चे महात्मा कभी ऐसी करामात दिखाते हैं।

बाबा धरनीदास जी की गद्दी पर उनके गुरुमुख शिष्य सदानंद जी बैठे। अब तक यह गद्दी कायम है और हिन्दुस्तान में हजारों अनुयाई उनके पंथ के फैले हुए हैं। यघपि शब्द अभ्यास विरले ही करते हैं। बाबा धरनीदास जी के लिखे हुए दो ग्रंथों का पता चलता है। एक सत्यप्रकाश दूसरा प्रेम प्रकाश।

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