जयपुर नगर बसने से पहले जो शिकार की ओदी थी, वह विस्तृत और परिष्कृत होकर बादल महल बनी। यह जयपुर की सबसे पुरानी इमारतों मे से है और इसका “बादल महल’ नाम भी बडा सार्थक है। बादल महलतालकटोरा तालाब पर खडा है, जिसके सामने जय निवास का निचला बाग है। मेह बरसता हो तो लहराते ताल और हरे-भरे विस्तृत बाग के बीच कटावदार मेहराबों और आसमानी रंग की छत ओर दीवारों वाला यह बादल महल जैसे बादलों मे उड़ान भरता प्रतीत होता है।
बादल महल जयपुर
जयपुर के प्रसिद्ध तीज और गणगौर के त्याहारों पर जयपुर के राजा बादल महल में दरबार लगाया करते थे, ओर इन दरबारों में आने वाले जागीरदारो उमरावों ओहदेदारों ओर शागिर्दपेशा लोगों तक को लाल या हरी, एक-सी पोशाक में आना पडता था। महाराजा प्रताप सिंह के समय में देवर्षि भट्ट जगदीश एक उत्कृष्ट कवि थे। वे कवि कलानिधि श्रीकृष्ण भट्ट के द्वितीय पुत्र थे। उन्होने तीज के जुलूस और बादल महल के दरबार के दृश्य का इस प्रकार वर्णन किया है :—
उतै भूरि बादर है बादर महल इतै
चचला उतै को इतै कचनिया लाखी है।
जगन जमात उतै, दीपन की पात इतै
गरज उतै को इतै, नौवतिया आखी है।।
उतै सांझ फली इतै रग रूली सभा सौभ
कवि जगदीश भल, भारती यो भाखी है।
उतै इन्द्र इतै महेन्द्र श्री प्रताप भप
अद्भत तीज को जुलूस रचि राखी है।।
1875 ई में तीज के दिन ग्वालियर के महाराजा जियाजीराव सिंधिया महाराजा रामसिंह के मेहमान होकर चंद्रमहल के छवि निवास में ठहरे हुए थे। शाम के चार बचे तीज की तैयारी और मेले की चहल-पहल होने लगी तो सिंधिया से न रहा गया ओर उन्होने महाराजा रामसिंह से इच्छा प्रकट की कि क्यो न घोडो पर सवार होकर दोनो बाजार मे मेला देखे। अपने कदीमी कायदो से राम सिंह ने ऐसा कभी नही किया था, इसलिये पहिले तो सकुचाया लेकिन अपने मेहमान का मन रखने के लिए फौरन ही इसके लिए राजी हो गया। दोनों राजा घोडों पर सवार हो कर बाजार में आ गए और त्रिपोलिया व गणगौरी बाजार होते हुए चौगान में चीनी की बज के चौक मे पहुंचे। यहां से रामसिंह तो दरबार में भाग लेने के लिए बादल महल गया और सिंधिया छवि निवास मे आ गया।
बादल महल जयपुरपरम्परागत रिवाजों को तोडकर ऐसी अनौपचारिकताए करते रहना रामसिंह की प्रकृति में था। भेष बदलकर शहर और राज्य के इलाको के असली हालचाल जानने के लिए पहुंच जाना, जंगल मे फूस की टपरी मे प्याऊ लग़ाने वाली किसी बुढी डोकरी के हाथो ओक से पानी पीना, मांग कर रूखी सूखी रोटी या छांछ-रावेंडी खा आना और चुपके से उसे एक या दो मोहर दे आना जैसी बाते यह राजा करता ही रहता था। इसीलिए रामसिंह को जयपुर का विकमादित्य और हारू-अल-रशीद कहा जाता है।
1876 मे जब प्रिंस ऑफ-वेल्स एलबर्ट (बाद मे एडवर्ड सप्तम) जयपुर आया तो रामसिंह ने बादल महल मे ही जयपुर की दरस्तकारियों और दूसरी कलात्मक वस्तुओ को इस शाही मेहमान को दिखाने के लिये सजा कर रखवाया था। यहीं नुमाईश जयपुर के विख्यात इंडस्ट्रियल आर्ट म्यूजियम की शरुआत हुई जिसकी
इमारत-एलबर्ट हाल का नीव का पत्थर रामनिवास बाग मे प्रिंस एलबर्ट ने रखा था।
महाराजा माधो सिंह के जमाने मे ब्राहमण बरणी पर बैठे ही रहते थे और उनके लिए भोजन की व्यवस्था भी बराबर जारी रहती थी। ऐसे भोजों मे जयपुर मे “’लढाको’ की समस्या हमेशा रहती आयी है। बिना बुलाये आने वाले और भोजन कर जाने वाले अभ्यागत को जयपुर वाले ‘लढ़ाक’” कहते हैं। जीमण बडा होता, सैकडो हजारो का तो लढाक भी बडी सख्या मे चल जाते, लेकिन पचीस पचास के खाने मे भी लढाक आते तो बुरे लगते। फिर भी लढाक तो लढाक ही होते, आये बिना उनकी भी टेक कैसे रहती, कहते हैं, एक बार कुछ ऐसा प्रबन्ध किया गया कि एक भी लढाक न आ पाये और जो आ जाये तो पकडा जाये। इसके लिए जगह चुनी गई बादल महल जिसके एक ओर महल के प्रहरियो का कडा पहरा था और दूसरी ओर मगरमच्छो से भरा तालकटोरा। निमंत्रित लोगो की सख्या सीमित थी और उनके लिए उतनी ही सख्या मे पत्तल, दौनो और दूसरे सामान की व्यवस्था थी। इतने पर भी एक लढाक आखिर पहुंच ही गया। भोजन पर बैठाये गये तो एक सज्जन खडे रह गये। उनके लिये पत्तल नही थी। प्रबन्धकों ने पूछा कि एक ज्यादा कौन है और कैसे आया है तो लढाक ने तपाक से खडे होकर अपना कौशल बखाना कि वह जान पर खेलकर तालकटोरा तैरकर आया है और सुखे कपडो का जो सैट वह अधर की अधर लाया था, गीले उतारकर वही बदल कर आया है। लढ़ाक की इस हिम्मत और जुर्रत की बात महाराजा तक पहुंची तो उसे न केवल आगे से सभी भोजों मे आने की छूट दी गई, बल्कि जागीर भी बख्शी गई। उसके खानदान का बैक ही “लढाक” पड गया। जयपुर के पुराने लोग इस परिवार को अच्छी तरह जानते और मानते है।
अब तो बादल महल खंडहर हो रहा है। इसकी भित्तियो और छतो का पलस्तर गिरने लगा है, पत्थरो की चिनाई बाहर झांकने लगी है और रंग फीका पड गया है। कोई आश्चर्य नही होगा यदि कुछ वर्षो बाद बादल महल की केवल याद ही बाकी रह जाये।
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