बयाना का युद्ध कब हुआ था – राणा सांगा और बाबर का युद्ध Naeem Ahmad, March 28, 2022February 28, 2023 बयाना का युद्ध सन् 1527 ईसवीं को हुआ था, बयाना का युद्ध भारतीय इतिहास के दो महान राजाओं चित्तौड़ सम्राज्य के राणा सांगा और और दिल्ली तख्त के प्रथम मुग़ल बादशाह बाबर के बीच हुआ था। यह संग्राम इतना भीषण था की इसमें दोनों ओर लाखों सैनिक मारे गए थे, अपने इस लेख में हम बयाना के युद्ध बारे में विस्तार से जानेंगे और निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर जानेंगे:— (बयाना का युद्ध कब लड़ा गया? बयाना का युद्ध कब हुआ? बयाना का युद्ध कब और किसके बीच हुआ? बयाना का युद्ध किन किन के मध्य हुआ? बयाना की लड़ाई अब लड़ी गई? बयाना के युद्ध में किसकी जीत हुई?) Contents1 बयाना के युद्ध से पहले की स्थिति2 घासा का युद्ध – सुलतान सिकंदर लोदी और राणा रायमल का युद्ध2.1 आपसी को फूट2.2 राज्याधिकार का निर्णय2.3 फूट का प्रभाव2.4 राज्य से पृथ्वीराज का निर्वासन2.5 सूरजमल का विद्रोह ओर विश्वासघात2.6 चित्तौड़ के राज्य का विस्तार2.7 भयानक संघर्षों में सांगा की जीत3 बाबर बादशाह और राणा सांगा और बयाना का युद्ध4 बयाना के युद्ध की ओर5 बाबर और सांगा का बयाना का पहला युद्ध6 सांगा के साथ बाबर का बयाना का दूसरा युद्ध7 हमारे यह लेख भी जरूर पढ़े:—– बयाना के युद्ध से पहले की स्थिति राणा उदय सिंह महाराणा कुम्भा का लड़का था। आरम्भ से ही उसका चरित्र अच्छा नहीं था। चित्तौड़ के सिंहासन पर बैठने और राज्य करने की उसकी इच्छा बहुत अधिक थी। अपनी इसी अभिलाषा के उन्माद में उसने अपने पिता राणा कुम्भ को सन् 1473 ईसवी में जान से मार डाला था। लेकिन ऐसा करने से उसकी अभिलाषा पूरी न हुई। राणा कुम्भा के बाद राज्य का वही अधिकारी था और इसी अधिकार को प्राप्त करने के लिए उसने अपने पिता महाराणा कुम्भा की ह॒त्या की थी। लेकिन राज्य के मन्त्री ओर सरदार उसके इस अक्षम्य अपराध से उसके शत्रु बन गये और उन सब ने मिलकर उसके राज्याधिकार का विरोध किया । राणा उदय सिंह का सही नाम उदयसिंह था, लेकिन ऊदा के नाम से ही वह सम्बोधित होता था। मन्त्रियों और सरदारों के विरोध करने पर भी राणा उदय सिंह अपने अधिकार को प्राप्त करने के लिए बराबर झगड़ा करता रहा। चित्तौड़ के सरदारों ने उसके उत्पातों और संघर्षो की कुछ भी परवाह न की और राज्य के अधिकारियों ने मिलकर राणा कुम्भा के भाई राणा रायमल को सन् 1473 ईसवी में ही चित्तौड़ के सिंहासन पर बिठाया। राज्य के सभी लोग इस बात से बहुत प्रसन्न हुए कि उदय सिंह को उसके अपराध का उचित दंड दिया गया। चित्तोड़ के सिंहासन पर रायमल के बैठते ही उदय सिंह ने विद्रोह किया। वह अकेला कुछ न कर सकता था, इसलिए उन लोगों के साथ मेल करने की वह कोशिश करने लगा, जो चित्तौड़ के शत्रु थे। राणा मोकल और राजकुमार चन्द्र के साथ मन्दौर नगर के जोधराव का संग्राम हो चुका था और इन दिनों में वह जोधपुर का राजा था। वह हृदय से अब भी चित्तौड़ का अशुभचिंतक था। उदय सिंह ने उससे मिलकर, उसके साथ मित्रता पैदा की देवड़ा नामक एक सामन्त के साथ भी चित्तौड़ की शत्रुता चल रही थी। राणा उदय सिंह ने उससे भी मिलकर आबू पहाड़ पर स्वतंत्र राज्य की स्थापना की। इन शत्रुओं के साथ मेल कर उदय सिंह ने चित्तौड़ के राज्य में उत्पात करना आरम्भ किया। राणा कुम्भा ने अपने शासन-काल में जिस मेवाड़-राज्य की उन्नति को शिखर पर पहुँचाया था, उसके विनाश और विध्वंस में उदय सिंह ने कोई कसर न रखी। लेकिन शक्तिशाली चित्तौड़ के सामने इन विरोधियों की पराजय हुई और राणा उदय सिंह अपने उद्देश्य में सफल न हो सका। घासा का युद्ध – सुलतान सिकंदर लोदी और राणा रायमल का युद्ध इन दिनों में सिकन्दर लोदी दिल्ली में शासक था। उदय सिंह को जब और कोई उपाय न मिला तो वह दिल्ली में पहुँचा और वहाँ के सुलतान सिकन्दर लोदी को चित्तौड़ पर आक्रमण करने के लिए तैयार किया। दिल्ली के मुस्लिम बादशाहों के साथ चित्तौड़ की शत्रुता सदा से चली आ रही थी। राणा उदय सिंह की बातों पर सुलतान तैयार हो गया। ऊदा के समझाने के अनुसार, उसकी समझ में आ गया कि चित्तौड़ की बहुत-सी प्रजा राणा ऊदा को राज्याधिकार न देने के कारण राज्य से खिलाफ है। सुलतान ने यह भी समझ लिया कि चित्तौड़ पर आक्रमण करने के लिए इससे अच्छा अवसर फिर नहीं मिल सकता। इसके कुछ ही दिनों के बाद राणा ऊदा की मृत्यु हो गयी सिंहेशमल और सूरजमल नामक राणा उदय सिंह के दो लड़के थे। वे सयाने हो चुके थे, दिल्ली के सुलतान ने उदय सिंह के इन दोनों लड़कों को अपने साथ में लेकर चित्तौड़ पर चढ़ाई की और अपनी फौज लेकर उसने मेवाड़ में नाथद्वारा के पास पहुँच कर मुकाम किया। मेवाड़ में दिल्ली के बादशाह की फौज आते ही चित्तौड़ में युद्ध की तैयारियाँ हुई। मेवाड़ के सरदार और सामन्त अपनी सेनाश्रों के साथ चित्तौड़ में पहुँच गये। आबू और गिरनार के राजा भी अपनी सेनाओं के साथ, रायमल की सहायता के लिए चित्तौड़ में आ गये। ग्यारह हजार पैदल और 58 हजार सवारों की सेना को लेकर रायमल चित्तौड़ से रवाना हुआ और दिल्ली की सेना के साथ युद्ध करने के लिए वह मेवाड़ में पहुँच गया। घासा नामक स्थान में दोनों ओर की सेनाओं का युद्ध शुरू हुआ कई घन्टे तक मुस्लिम सेना ने राजपूत सैनिकों के साथ भयानक मार की लेकिन उसके बाद मुस्लिम सेना कमजोर पड़ने लगी। जिस विशाल सेना को लेकर रायमल ने इस युद्ध को आरम्भ किया था, उतनी सेना के आने की आशा मुस्लिम बादशाह ने न की थी। मेवाड़ और चित्तौड़ के सम्बन्ध में उदय सिंह ने जो बातें सुलतान सिकन्दर को बतायी थीं, वे सभी झूठी निकलीं। इस युद्ध में जो सरदार, सामन्त और राजा रायमल की सहायता में आये थें, सभी उदय सिंह से घुणा करते थे। उसकी सहायता कर के चित्तौड़ का विनाश चाहने वाले दिल्ली के सुलतान का आक्रमण किसी प्रकार राजपूतों को सहन न हो सकता था। इसीलिए घासा के मैदान में उन राजपूतों ने दिल्ली की सेना का भीषण संहार किया। मुस्लिम सेना हार कर भागी और युद्ध से बहुत दूर जाकर उसने साँस ली। युद्ध के बाद चित्तौड़ की सेना लौट गयी। उदय सिंह के दोनों लड़कों ने चित्तौड़ में जाकर रायमल से अपने अपराधों की क्षमा माँगी। राणा ने उन्हें क्षमा करके राज्य में रहने के लिए स्थान दे दिया। आगे चलकर वे दोनों लड़के राणा के वंश में मिल गये। उनके द्वोष का नाश हो गया। आपसी को फूट राणा रायमल के दो लड़कियाँ और तीन लडके थे। ये तीनों लडके साँगा, पृथ्वीराज और जयमल अत्यन्त पराक्रमी और वीर थे उनके तेजस्वी बल वैभव को देखकर शिशोदिया वंश में बड़ी-बड़ी आशायें होने लगी थीं। राज्य के मन्त्रियों का विश्वास था कि इन तीनों पुत्रों के प्रबल प्रताप से चित्तौड़ का मस्तक ऊँचा होगा और इस देश का कोई भी और चित्तौड़ का सामना करने के लिए साहस न करेगा। राणा रायमल को स्वयं अपने इन तीनों लडकों के बल और पराक्रम पर बड़ा स्वाभिमान था। लेकिन चित्तौड़ के भाग्य में तो भगवान ने कुछ और ही लिख रखा था। जिस समय ये तीनों लड़के योवनावस्था में प्रवेश कर रहे थे, वंश के दुर्भाग्य से उन भाइयों में फूट पैदा हो गयी। वह साधारण फूट धीरे-धीरे बढ़कर भयानक विष के रूप में परिणत हो गयी। तीनों ही एक, दूसरे के रक्त के प्यासे हो गये। अपने होनहार पुत्रों की इस शत्रुता को देखकर राणा रायमल को बहुत दुख रहने लगा। कई बार निराश होने के बाद भी राणा ने अपने पुत्रों को समझाने की कोशिश की परन्तु सफलता न मिली। इस दशा में राणां को असहय कष्ट हुआ उसने अन्त में निश्चय कर लिया कि यदि लड़के आपस की इस शत्रुता को मिटा न देंगे तो में उनको राज्य से निकल जाने का आदेश दूँगा। राणा के इस क्रोध से राजदरबार के समस्त मन्त्री और सरदार घबरा उठे, परन्तु उनका कोई उपाय काम न कर रहा था। इसलिए सभी लोग विवश थे। राणा की कठोर आज्ञा का उसके लड़को पर कोई प्रभाव न पड़ा ओर उनके द्वेष उसी प्रकार बराबर चलते रहे, जैसे वे चल रहे थे। साँगा और पृथ्वीराज सगे भाई थे उनकी माता ने काला वंश में जन्म लिया था जयमल उन दोनों का सौतेला भाई था। तीनों भाइयों में सांगा सब से बड़ था और नियमानुसार सांगा ही राज सिंहासन का अधिकारी था। लेकिन पृथ्वीराज इस विधान को मानने के लिए तैयार न था। अधिकारी न होने पर भी वह सिंहासन पर बैठने का अधिकार प्राप्त करना चाहता था और सांगा अपने आपको अधिकारी समझता था, इसलिए अपने अधिकार को छोड़कर वह सिंहासन पर पृथ्वीराज को बिठाने के लिए राजी न था। फूट का इतना ही कारण था और इस फूट ने बढ़कर दोनों भाइयों के बीच एक भीषण और शत्रुत्रा का रुप धारण कर लिया था। राज्याधिकार का निर्णय राणा सांगा और पृथ्वीराज देखने-सुनने में दोनों ही सुन्दर और प्रभावशाली थे। बल और पराक्रम में निर्बल कौन है, इसका निर्णय करना कठिन था। लेकिन स्वभाव में दोनों, एक दूसरे से भिन्न थे। शारीरिक बल में शक्तिशाली होने पर भी सांगा न्यायप्रिय था और सोच समझकर काम करना जानता था। लेकिन पृथ्वीराज में यह बात न थी। वह कहा करता था की जो शक्तिशाली होता है, वही अधिकारी होता है। एक दिन की बात है सॉंगा और पृथ्वीराज अपने चाचा सूरजमल के साथ बेठे हुए राज्य के उत्तराधिकार पर बातें कर रहे थे। बड़ीदेर के पश्चात् सांगा ने कहा कि हम लोग इसका निर्णय चाचा पर ही क्यों न छोड़ दें। पृथ्वीराज के मुंह से निकल गया कि हाँ चाचा ही बता दें कि हम दोनों में उत्तराधिकारी कौन हैं। पृथ्वीराज आवेश में आकर यह बात कह तो गया। उसे इस बात का गर्व था कि मेरे विरुद्ध कोई निर्णय कैसे दे सकता है। उसके ऐसा समझने का कारण था। अभी तक राज्य के जितने लोगों ने इस झगड़े को सुलझाने को कोशिश की थी, वे दोनों भाइयों से झगड़ा न करने को बात तो कहते थे, लेकिन झगड़ा करता कौन है और उत्तराधिकारी कौन है, इस बात को साफ साफ कोई कहना नहीं चाहता था। सांगा और पृथ्वीराज के सहसा स्वीकार कर लेने पर सूरजमल ने अपना निर्णय सुनाते हुए कहा कि राज्य का उत्तराधिकारी तो वास्तव में सांगा ही है। इस बात को सुनते ही पृथ्वीराज अपने आप को सम्हाल न सका और क्रोध में आकर उसने अपनी तलवार का वार साँगा पर करते हुए कहा तलवार के बल पर ही इस बात का निर्णय हो सकता कि राज्य का उत्तराधिकारी कौन है। सूरजमल ने दोनों को रोकने को कोशिश की लेकिन वह असफल रहा और दोनों भाइयों में तलवार की मार आरम्भ हो गयी । दोनों ही अत्यन्त शक्तिशाली थे। तलवारर चलाने और युद्ध करने में वे दोनों एक-से-एक बढ़कर थे। फूट का प्रभाव यौवन के उन्माद में सांगा और पृथ्वीराज एक दूसरे के प्राणों का नाश करने पर उतारू हो गये। सूरजमल यह सब दृश्य देखता रहा। वह बीच में नहीं आया। तलवार की मार से दोनों भाई रक्त से नहा गये उनके शरीरों पर बहुत से घाव हो गये और उन घावों से रक्त के फब्वारे छुट रहे थे। इस भयानक अवस्था में भी दोनों भाई अपनी तेज तलवारों के प्रहार एक दूसरे पर कर रहे थे। उनमें कोई कमजोर पड़ता हुआ दिखाई न देता था। राजपूती आवेश के कारण दोनों में से कोई हटना न चाहता था। इसी समय तीसरा सौतेला भाई जयमल आकर लड़ाई में शामिल हुआ और अपनी तेज तलवार का प्रहार उसने साँगा पर किया। उसने पृथ्वीराज का पक्ष लिया। अब एक तरफ दो भाई थे और दूसरी तरफ अकेला साँगा था। साँगा इस बात को जानता न था कि जयमल पृथ्वीराज का साथ देगा। पृथ्वीराज और जयमल की मारों से साँगा के शरीर में भयानक चोटे आयीं और उन चोटों के कारण उसकी हालत खराब होने लगी। फिर भी तीनों भाईयों के बीच में बराबर तलवारें चलती रहीं। तीनों भाई लड़ते-लड़ते शिवान्ति नगर के समीप पहुँच गये। वहाँ पर बीदा नामक एक राजपूत मिला वह अपने हाथ में तलवार लिए हुए एक अच्छे घोड़े पर कहीं जा रहा था उसने इन तीनों भाइयों के भीषण युद्ध को देखा। वह एक राजपूत था और उसे वह अत्यन्त अन्याय पूर्ण मालूम हुआ कि दो भाई एक तरफ होकर तीसरे भाई पर प्रहार कर रहें हैं। उसने उनके युद्ध को रोकने की कोशिश की। लेकिन पृथ्वीराज के न मानने पर बीदा राजपुत अपनी तलवार निकाल कर लड़ाई में शामिल हो गया ओर उसने सांगा का साथ दिया। उस लड़ाई में अब चार हो गये थे। साँगा भी अब अकेला न रहा। बहुत देर तक चारों में बराबर तलवारों की मार होती रही। उसी अवसर पर जयमल लड़ाई में मारा गया और उसके जमीन पर गिरते ही कुछ समय के लिए लड़ाई रुक गई। चारों आदमी लहूलुहान हो चुके थे। उनके कपड़ों से बराबर खून जमीन पर गिर रहा था। बीदा राजपुत के संकेत पर सांगा वहाँ से चला गया और उसका नतीजा यह हुआ की लड़ाई बन्द हो गई। बयाना युद्ध से पहले का वर्णन जारी है….. राज्य से पृथ्वीराज का निर्वासन उत्तराधिकार के लिए पैदा होने वाली फूट का परिणाम यह निकला कि एक भाई जाने से मारा गया और शेष दोनों भाई मरणासन्न अवस्था को पहुँच गये थे। राज्य के सभी लोगों ने इस दुघर्टना को देखा और सुना किसी ने कुछ नहीं कहा। राणा रायमल ने जयमल की मृत्यु का समाचार सुनकर बहुत क्रोध किया। वह सोचने लगा कि मेवाड़ के राज्य पर अब दुर्भाग्य के बादल आने वाले हैं। राणा रायमल अपने क्रोध को रोक न सका। उसने पृथ्वीराज को बुलाकर तुरन्त उसे राज्य से निकल जाने की आज्ञा दी। पृथ्वीराज के उपर इस कठोर आज्ञा का कुछ भी प्रभाव न पड़ा। राणा की आज्ञा को स्वीकार करके राज्य से चले जाने के लिए वह तैयार हुआ अपने अस्त्र-शस्त्र लेकर वह घोड़े पर बैठा और साथ में पाँच राजपूत सवारों को लेकर वह राज्य से निकल गया। जाने के समय राज्य की तरफ से उससे किसी ने बातचीत नहीं की अपने राजपूत सवारों के साथ पृथ्वीराज नादोल नगर तरफ चला गया। राज्य से निकलते के समय पृथ्वीराज के सामने न कोई चिता थी और न कोई भय था। वह एक शक्तिशाली युवक था। युद्ध करना ही उसका जीवन था। युद्ध ही उसका खेल था। युद्ध ही उसका मनोरंजन था। युद्ध से अधिक प्रिय उसे अपने जीवन में और कुछ न था। अपने राज्य से जाकर पृथ्वीराज ने नादोल नगर में विश्राम किया। अरावली पहाड़ के निकट गोद्वार नामक एक राज्य था और नादोल नगर उस राज्य की राजधानी थी। अरावली पहाड़ पर मीन जाति के असभ्य और जंगली आदमी रहते थे। उनकी संख्या बहुत थी और वे सब के सब लड़ाकू स्वभाव के थे। उन लोगों ने गोद्वार राज्य में लूठमार शुरू कर दी थी और बहुत दिनों तक उस राज्य को बरबाद करने के बाद मीन लोगों ने उस पर अधिकार कर लिया था। इधर बहुत दिनों से उस राज्य में मीनों का राजा राज्य करता था। नादोल नगर में पहुँच कर पृथ्वीराज ने गोद्वार-राज्य की इन घटनाओं को सुना और वहीं पर रहकर वह उस राज्य के उद्धार की कोशिश करने लगा। उसके पास न तो सेना थी और न सम्पत्ति ही थी, फिर भी गोद्वार राज्य का उसे उद्धार करना था। सैनिकों के रूप में पृथ्वीराज और उसके सवारों ने गोद्दार राजा के यहाँ सेना में नौकरी कर ली और कुछ ही दिनों में पृथ्वीराज वहाँ की सेना का एक अधिकारी बना दिया गया। इसके बाद उसने वहाँ की समस्त सेना को प्रभावित किया। उसकी तरह उस राज्य की सेना में कोई दूसरा शक्तिशाली न था। सेना के अधिकार में आते ही उसने राजा के खिलाफ सेना में विद्रोह कर दिया और राजा को पकड़ कर उसने जान से मार डाला। साथ ही उस राज्य को अपने अधिकार में लेकर, उसने ओझा नामक एक सोलंकी राजपूत को दे दिया। ओझा को राजगद्दी देने के बाद पृथ्वीराज स्वतंत्र हो कर इधर उधर घूमने लगा। लेकिन गोद्वार-राज्य की सेना पर उसने अपना प्रभुत्व बनाये रखा। बयाना का युद्ध से पहले का वर्णन जारी है….. सूरजमल का विद्रोह ओर विश्वासघात सूरजमल चित्तौड़ में रहता था और देखने में वह राणा रायमल का भक्त हो गया था। लेकिन उसे यह बात भूली न थी कि जिस राजसिंहासन पर रायमल बैठा है, उसका अधिकारी उसका पिता उदय सिंह था। शक्तिहीन होने के कारण वह चुप था और चित्तौड़ में रहकर जीवन-निर्वाह करता था। लेकिन ईर्षा की आग उसके हृदय में जल रही थी, वह अभी तक बुझी न थी। राणा रायमल को इसका बदला देने के लिए सूरजमल लगातार कोशिश में रहा। वह चित्तौड़ में रहता था। राणा ने उसके सुख-सम्मान के लिए राज्य की तरफ से सभी प्रकार का प्रबन्ध कर दिया था और वह इस राज्य में एक शिशोदिया वंशज की हैसियत से रहा करता था। लेकिन वह किसी समय न भूलता था कि राणा रायमल ने उसके पिता उदय सिंह को निकाल कर, इस राज्य का सिंहासन प्राप्त किया है। वह लड़कर राणा रायमल अथवा उसके लड़कों का कुछ बिगाड़ न कर सकता था। इसीलिए राणा के साथ उसने अधिक स्नेह प्रकट करने की कोशिश की थी और लड़कों के साथ भी वह बहुत घुल मिलकर रहा करता था। उसने बडी चलाकी से काम लिया। साँगा को उसने किसी प्रकार विश्वास करा दिया किन जाने क्यों राणा के हृदय में पृथ्वीराज के लिए स्नेह अधिक है। इसी सिलसिले में उसने साँगा को समझा दिया कि राणा पृथ्वीराज को राज्य का उत्तराधिकारी बनाना चाहता है। धीरे-धीरे उत्तराधिकार की बात बढ़ने लगी। सूरजमल छिपे तौर पर सांगा की बात पृथ्वीराज को और पृथ्वीराज की बात साँगा को बताने लगा। उसने दोनों की तरफ से बातों में इतना कड़वापन पैदा कर दिया कि दोनों भाई अपने अपने अधिकारों के लिए एक दूसरे के प्राण लेने पर तैयार हो गये। सूरजमल का अनुमान था कि साँगा और पृथ्वीराज दोनों ही उत्तराधिकार के लिए लड़कर मर जायेंगे। इसलिए उसका विश्वास था कि उस दशा में अपने अधिकार के लिए मैं लड़ सकूंगा। लेकिन जब तक साँगा और पृथ्वीराज जीवित हैं, कोई आशा नहीं की जा सकती। अभी तक सूरजमल बड़ी शान्ति के साथ अपने उद्देश्य की पूर्ति में लगा रहा था। जयमल मारा गया था, पृथ्वीराज की शत्रुता के कारण साँगा का कोई पता न था और पृथ्वीराज को राणा ने राज्य से निकाल दिया था। इस दशा में तीनों राजकुमारों का एक तरह से अन्त हो चुका था। साँगा और पृथ्वीराज के लौटने की कोई आशा न रह गयी थी। राणा रायमल की अवस्था बुढ़ापे में चल रही थी। सूरजमल ने इस अवसर का लाभ उठाना चाहा, और उसने समझे लिया कि इस दशा में चित्तौड़ में अधिकार कर लेना जरा भी मुश्किल नहीं है। सूरजमल ने रायमल की तरफ से अपनी आँखें पलट लीं और चित्तौड़ से निकल कर वह बाहर हुआ। मालवा राज्य के साथ चित्तौड़ की पुरानी शत्रुता थी और उसके मुसलमान बादशाहों के साथ अब तक चित्तौड़ को अनेक युद्ध करने पड़े थे। सूरजमल चित्तौड़ से निकल कर मालवा राज्य में पहुँचा और वहाँ के बादशाह मुज्जफर को समझा बुझा कर चित्तौड़ पर आक्रमण करने के लिए तैयार किया। मालवा का बादशाह बहुत दिनों से चित्तौड़ की ताक में था। सूरजमल की बातों पर विश्वास करके उसने अपनी सेना को तैयार किया और सूरजमल की सहायता के लिए। उसने उसके साथ फौज रवाना कर दी। मालवा की फौज को लेकर सूरजमल ने मेवाड के दक्षिणी इलाकों पर हमला किया और एक परगने पर अधिकार कर लिया। यहीं से सूरजमल का उत्साह बढ़ गया और वह चित्तौड़ पर आक्रमण करने के लिए आगे बढ़ा। इस आक्रमणा का समाचार चित्तौड़ में राणा रायमल को मिला। उसने अपने पुत्रों का स्मरण किया और उसके बाद, चित्तौड़ की सेना लेकर वह युद्ध के लिए रवाना हुआ। नगर के बाहर बहती हुई गभीरी नदी के किनारे पर दोनों ओर की सेनायें डटकर खड़ी हो गयीं। युद्ध के आरम्भ होते ही राणा रायमल अपने हाथ में तलवार लेकर शत्रु सेना के साथ मार-काट करने लगा। दोनों ओर की सेनाओं में बहुत देर तक युद्ध हुआ। बुढ़ापे की अवस्था होने के कारण राणा रायमल युद्ध करते-करते थकने लगा, उसके शरीर में बहुत से जख्म हो गये थे और उन जख्मों से बराबर खून गिर रहा था। राणा रायमल की शक्ति शिथिल पड़ने लगी। अब उसके हाथ तलवार चलाने में निर्बल हो रहे थे। सुरजमल का जो विश्वास था, वह उसे सही दिखायी पड़ने लगा।वह समझ रहा था कि चित्तौड़ की सेना अब अधिक समय तक युद्ध न कर सकेगी। राणा थक कर या तो गिरने वाला है अथवा कैद होने वाला है। उसे खूब विश्वास था कि राणा की अवस्था अब युद्ध करने के योग्य नहीं है। इसीलिए वह सोचता था कि राणा के परास्त होते ही मालवा की फौज चित्तौड़ के भीतर प्रवेश करेगी और उसी समय मैं चित्तौड़ पर अपना अधिकार कर लूगा। सूरजमल के विश्वास के अनुसार समय नजदीक आता जाता था ओर राणा के परास्त हीने का समय अब दूर नहीं था। इसी समय अपने साथ तीन हजार पैदल और तीन हजार चुने हुए सवारों की सेना को लिए हुए पृथ्वीराज युद्ध-स्थल पर पहुँचा और बिजली की तरह वह मालवा की फौज पर टूट पड़ा। कुछ ही घंटों के भीतर उसने मालवा की सेना को काट कर फेंक दिया और सूरजमल घबरा कर इधर-उधर भागने लगा। मालवा की सेना युद्ध में टिक न सकी और उसके सिपाही लड़ाई के मैदान से भागने लगे। सूरजमल अपने प्राण लेकर वहाँ से भागा और उसके बाद युद्ध बन्द हो गया। राणा रायमल का शरीर गहरे जख्मों के कारण अत्यन्त शिथिल हो गया था। युद्ध रुकते ही पृथ्वीराज ने राणा के पास जाकर चरणों का स्पर्श किया और घने पेड़ों की छाया में राणा को विश्राम देने का उसने प्रबन्ध किया। जमीन पर लेटने के बाद भी राणा के जख्मों से रक्त बह रहा था। पृथ्वीराज ने राणा के बहते हुए रक्त को पोंछकर जख्मों पर पट्टियां बाँधी। राणा ने एक बार पृथ्वीराज के तेजस्वी मुख मंडल पर दृष्टिपात किया। उसके नेत्र क्या देख रहे थे, इसे कोई जान न सका। अपने पराक्रमी और शक्तिशाली पुत्रों का उसने एक बार स्मरण किया और उसके साथ ही उसने अपनी शिथिल अवस्था का अनुभव किया। राणा के मुख से कोई बात न निकली। लेकिन उसके दोनों नेत्रों से आंसुओं के कुछ बूंद निकल कर बाहर आ गये। मानो वे बूंद कह रहे थे कि जिसके पुत्र इतने प्रतापी और तेजस्वी हों, शत्रुओं के द्वारा उसके पिता की यह असहाय अवस्था। पृथ्वीराज ने राणा के आँसुओ को अपने हाथों से पोंछा। उसके बाद राणा की सेनायें चित्तौड़ की ओर रवाना हुईं। चित्तौड़ में आयी हुई राणा की विपदा को सुनकर पृथ्वीराज युद्ध स्थल पर पहुँचा उसने पिता के प्रति अपने कर्तव्य का पालन किया और चित्तौड़ के गौरव की रक्षा की। राज्य से निकाले जाने के बाद पृथ्वीराज किसी मौके पर लौटकर आ सकता है,सूरजमल को इसकी आशा थी। चित्तौड़ में बहुत दिनों तक रह कर न केवल सूरजमल ने राणा रायमल की सेवा की थी, बल्कि अपने पक्ष में उसने कुछ आदमियों को भी कर लिया था। लोगों की समझ में सूरजमल भी शिशोदिया वंश का ही एक अंग था। ऐसे आदमियों की भी कमी न थी, जो यह समझते थे कि उदय सिंह ने अपने पिता की हत्या की जरूर लेकिन राज्य का वह अधिकारी तो था ही अपनी आवश्यकता के अनुसार सूरजमल में अनेक गुण थे। लोगों को मिलाना, फूट डालना, बहकाना और कुछ का कुछ समझा देना वह खूब जानता था। इस प्रकार की बातों की सफलता के लिए वह न केवल अपनी बुद्धि खर्च करता था, बल्कि आवश्यकता पड़ने पर सम्पत्ति को वह पानी को तरह बहाता भी था। वृद्ध राणा रायमल के साथ युद्ध करके ही सूरजमल का विद्रोह शांत नहीं हुआ। दो सगे भाइयों को एक दूसरे का शत्रु बनाने के बाद भी उसका विद्रोह जो भीतर ही भीतर सुलग रहा था शान्त नहीं हुआ था और उसका विद्रोह राणा रायमल के तीसरे पुत्र जयमल को जान से मरवा कर भी शान्त नहीं हुआ था। युद्ध में पराजित होने के बाद भी उसका विद्रोह सुलगता रहा और उसके विद्रोह के फलस्वरूप ही चित्तौड में राणा रायमल के दूसरे पुत्र शक्तिशाली और अजेय पृथ्वीराज को विष दिया गया, जिसके कारण स्वाभिमानी युवक पृथ्वीराज अचानक संसार से बिदा होकर चला गया। राणा रायमल अपने बुढ़ापे में इस बज्रपात को सहन न कर सका और पुत्र के शोक में इस चित्तौड़ को अनाथ और अनाश्रित बना कर उसने परलोक की यात्रा की। बयाना का युद्ध से पहले का वर्णन जारी है….. चित्तौड़ के राज्य का विस्तार राणा रायमल की मृत्यु के बाद उसका बड़ा लड़का साँगा सन् 1509 ईसवी में चित्तौड़ के राज सिंहासन पर बैठा। वह युद्ध में जितना ही प्रवीण था, राजनीति में उतना ही वह सुयोग्य था। उसके शासन काल में मेवाड़ का राज्य उन्नति की चरम सीमा पर पहुँच गया था। राज्य का अधिकारी होने के बाद सब से पहले उसने मेवाड़ की उन्नति पर ध्यान दिया। युद्ध करने में वह शक्तिशाली और सभी प्रकार कुशल था। उसकी कोशिशों में उसे सफलता मिली। उसने मारवाड़, बीकानेर, अम्बेर और दूसरे कई एक राज्यों पर अधिकार कर लिया। अपने राज्य के विस्तार में वह लगातार आगे बढ़ा और समूचे राजपूताना में उसने अपना प्रभुत्व कायम कर लिया। इसके बाद उसका ध्यान दिल्ली के विस्तृत राज्य की तरफ गया और उसके कुछ स्थानों में उसने कब्जा कर लिया। इन दिनों में सिकन्दर लोदी का शासन समाप्त हो चुका था और दिल्ली में उसका बेटा इस इब्राहीम लोदी राज्य कर रहा था। वह अत्यन्त अहंकारी बादशाह था। दिल्ली-राज्य की ओर राणा साँगा को बढ़ते हुए देखकर उसने युद्ध को तैयारी की। साँगा ने दिल्ली के राज्य का जो जो भाग अपने अधिकार में कर लिया था, इब्राहीम लोदी न केवल उसे छीनकर वापस लेना चाहता था, बल्कि साँगा को बदला देने के लिए उसके राज्य के कितने ही भागों पर कब्जा कर लेना चाहता था। इब्राहीम लोदी ने मेवाड़-राज्य पर चढ़ाई की। सन् 1517 ईसवी में राणा साँगा ने उसके साथ युद्ध किया उस युद्ध में इब्राहीम लोदी की पराजय हुई और वह अपनी सेना के साथ लौट गया। इसके बाद दूसरे वर्ष, सन् 1518 ईसवी में सुलतान इब्राहीम लोदी ने अपनी एक बड़ी सेना के साथ मेवाड़-राज्य पर फिर चढ़ाई की। राणा साँगा ने सुलतान की सेना को इस बार भी भयानक क्षति पहुँचाई और इब्राहीम लोदी को पराजित किया। इस हार में सुलतान ने अपने राज्य का एक बढ़ा इलाका राणा साँगा को दे दिया, जो मेवाड़-राज्य में मिला लिया गया। दिल्ली से सुलतान सिकन्दर और इब्राहीम ने ग्वालियर को जीतकर अपने राज्य में मिला लिया था। राणा साँगा ने ग्वालियर पर भी अधिकार कर लिया। इस तरीके से राणा साँगा ने अपने शासन-काल में थोड़े ही दिनों के भीतर चित्तौड़ की बड़ी उन्नति कर ली थी। बयाना का युद्ध से पहले का वर्णन जारी है….. भयानक संघर्षों में सांगा की जीत महमूद द्वितीय सन् 1510 ईसवी में मालवा-राज्य के सिंहासन पर बैठा। उन्हीं दिनों में मुस्लिस सरदारों ने एक भयानक विद्रोह पैदा कर दिया। गुजरात और दिल्ली के बादशाहों ने भी उस विद्रोह में सहायता की। विद्रोही सरदारों की सहायता करने के लिए गुजरात का बादशाह मुज़फ्फर शाह द्वितीय भी अपनी सेना के साथ आया था। चन्देरी-राज्य के सामन्त मेदिनी राय ने अपनी सेना लेकर उन विद्रोहियों का सामना किया और पराजित किया। इसके बाद भी विद्रोह शान्त नहीं हुआ। मुस्लिम बादशाह और सरदार मिल कर एक हो गये थे और विद्रोहियों की शक्ति को बढ़ाकर वे न केवल चन्देरी राज्य को ले लेना चाहते थे, बल्कि अपनी बढ़ी हुई शक्तियों के द्वारा वे राणा साँगा के राज्य को धक्का पहुँचाना चाहते थे मेदिनी राय ने घबरा कर राणा साँगा से सहायता माँगी। मुस्लिम विद्रोही सरदारों के उत्साह बहुत बढ़ गये थे। उन्हें भारत के मुस्लिम राज्यों से सेना और सम्पत्ति की सहायता मिल रही थी। इसी उन्माद मे आकर गुजरात के मुज़फ्फ़र शाह ने मेवाड़ की माँद रियासत पर हमला करके कब्जा कर लिया और वह अपनी सेना लिए हुए मेवाड़ की तरफ आगे बढ़ा। राणा साँगा ने अपनी सेना लेकर गागरौन के मैदान में गुजरात के मुज़फ्फ़र शाह का मुकाबला किया और उसे पराजित करके साँगा ने कैद कर लिया। चित्तौड़ के कैदखाने में कुछ दिनों तक रहकर मुज्जफर शाह ने अपने राज्य का आधा हिस्सा राणा साँगा को दे दिया और किसी प्रकार उसने अपने प्राण बचाये। उसके दिये हुए राज्य को चित्तौड़ में मिला लेने पर मेवाड़ का राज्य एक बड़े विस्तार में पहुँच गया और उसकी सीमा बुन्देलखंड तक बढ़ गयी। बुन्देलखण्ड में गढ़ कटंका एक राज्य था। उसका राजा संग्राम शाह प्रतापी और शक्तिशाली शासक था। उसने अपने शासन-काल में अपने राज्य का विस्तार बहुत बढ़ा लिया था और उसका राज्य भोपाल से मण्डला तक फैला हुआ था। मालवा और छत्तीसगढ़ के समस्त किलों को जीतकर उसने अपने अधिकार में कर लिया था। साँगा ने मेवाड़-राज्य को बढ़ाकर बुंदेलखंड तक पहुँचा दिया था गागरौन के युद्ध में विजयी होकर उसने सन् 1520 ईसवी में गुजरात पर आक्रमण किया। राणा साँगा अपने जीवन के आरम्भ में जैसा शूरवीर और बुद्धिमान मालूम होता था, उससे भी अधिक अपनी योग्यता और वीरता का प्रमाण उसने अपने शासन-काल में दिया। अपनी सेना को उसने अत्यन्त शक्तिशाली बना लिया था और सैनिकों को युद्ध की शिक्षा देने में उसने बड़ी बुद्धिमानी से काम लिया था। दिल्ली और मालवा के बादशाहों के साथ, सब मिलाकर राणा साँगा के अठारह युद्ध हुए थे और सभी में साँगा को विजय हुई थी। घाटौली के मैदान में मुस्लिम सेनाओं के साथ राणा साँगा ने जो भयानक युद्ध किया था, उसमें बहुत थोड़े मुस्लिम सैनिक भागकर अपने प्राण बचा सके थे, बाकी सब के सब जान से मारे गये थे। बयाना का युद्ध से पहले का वर्णन जारी है…. बाबर बादशाह और राणा सांगा और बयाना का युद्ध चित्तौड़ के सिंहासन पर बैठने के बाद राणा साँगा ने मेंवाड़-राज्य की उन्नति को चरम सीमा पर पहुँचा कर भारत के राजाओं और बादशाहों में अपना मस्तक ऊँचा किया था। उन दिनों में दिल्ली का राज्य भारत में सब से बड़ा राज्य माना जाता था। लेकिन राणा साँगा ने अनेक बार युद्धों में वहाँ के सुलतान को पराजित किया था। राजपूत राजाओं से कोई उसकी बराबरी का न था। जिन दिनों में राणा साँगा ने भारत के बड़े-से-बड़े बादशाहों और राजाओं को पराजित करके अपने राज्य का विस्तार किया था और अपनी विजय का झडा फहराया था, उन्हीं दिनों में तैमूर लंग का वंशज काबुल का बादशाह बाबर सन् 1526 ईसवी में अपनी शक्तिशाली सेना को लेकर भारत में आया था। और दिल्ली पर आक्रमण करके वह सुलतान इब्राहीम लोदी को पानीपत के प्रथम युद्ध में पराजित कर चुका था। सुलतान मारा गया था और बाबर ने दिल्ली के राज्य पर अधिकार कर लिया था। बादशाह बाबर और राणा साँगा दोनों समकालीन थे। दोनों की शक्तियों का एक साथ विकास हुआ था और दोनों की बहुत-सी बातें एक दूसरे से समानता रखती थीं। दोनों ने युग के एक ही भाग में जन्म लिया था और दोनों ही प्रसिद्ध राज-वंशज थे । जीवन के प्रारम्भ में बाबर ने भयानक कठिनाइयों का सामना किया था और साँगा भी राज्य को छोड़कर मारा-मारा फिरा था। आरम्भ से हो दोनों साहसी और शक्तिशाली थे। काबुल से निकल कर दिल्ली तक बाबर ने विजय प्राप्त की थी और साँगा ने भारत के शक्तिशाली राजाओं को पराजित किया था। दिल्ली के सिंहासन पर बैठ कर बाबर ने समझा था कि भारत में मुझसे लड़ने वाला अब कोई राजा और बादशाह नहीं है और चित्तौड़ राज्य में अपनी ऊँची पताका फहरा कर साँगा बाबर का उपहास कर रहा था। वास्तव में दोनों ही अपने समय के अद्भुत साहसी और शक्तिशाली थे। दोनों ही अद्वितीय थे। एक ही देश में शान्ति और सन्तोष के साथ दोनों का रह सकना सम्भव न था। दोनों का युद्ध अनिवार्यं था। बयाना का युद्ध से पहले का वर्णन जारी है….. बयाना के युद्ध की ओर सन् 1526 ईसवी में पानीपत के युद्ध का अन्त हो चुका था और बाबर ने दिल्ली में प्रवेश करके कब्जा कर लिया था। परन्तु पानीपत के युद्ध की आग अभी तक ठण्डी न हुई थी। इब्राहीम लोदी की हार का समाचार बहार खाँ लोहानी के पास पहुँचा वह इस पराजय का समाचार सुनने के लिए तैयार न था। उसने अफ़गान सरदारों को बुला कर परामर्श किया, सब की सलाह से बाबर की तुर्की सेना को रोकने की तैयारी होने लगी। बहार खाँ ने अपना नाम बदल कर सुलतान मोहम्मद खाँ रखा। लड़ाई के लिए जो अफ़गान जमा हुए, उनको लेकर सुलतान मोहम्मद खाँ कन्नौज की तरफ रवाना हुआ। दिल्ली राज्य के पश्चिमी इलाके में जो अफ़गान रहते थे, उन्होंने इकट्ठा हों कर विरोध की तैयारियाँ की। उनका नेता हसन खाँ मेवाती बनाया गया। उसने सुलतान इब्राहीम लोदी के भाई महमूद लोदी को दिल्ली का सुलतान बनाना चाहा। किसी भी दशा में विरोधी अफगान बाबर के शासन को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे। बाबर को दिल्ली में यह मालूम हो गया कि इस राज्य के अफ़गान अभी लड़ने का हौसला रखते हैं और वे लड़ाई की तैयारियाँ कर रहे हैं। इस समाचार को मिले हुए अधिक दिन नहीं बीते थे, अफ़गानों में मतभेद पैदा हो गया और उसका परिणाम यह हुआ कि बादशाह बाबर के विरोध में जो तैयारी हो रही थी, वह खतम होने लगी। कई एक अफ़गान सरदारों ने बाबर के पास आकर उसकी अधीनता स्वीकार कर ली। जो अफ़गान सरदार उसके पास आये, उनको लेकर बाबर का पुत्र हुमायू विरोधी इलाकों की तरफ रवाना हुआ और बिना किसी संघर्ष के उसने वहाँ अपना कब्जा कर लिया। विरोधियों की संख्या लगातार घटती गयी इसी मौके पर अपनी सेना से साथ अफगान सरदारों को लेकर हुमायूँ पूर्व की ओर रवाना हुआ ओर पाँच महीने के लगातार संघर्ष में उसने अवध, जौनपुर और गाजीपुर जीत कर अपने अधिकार में कर लिया। बाबर और सांगा का बयाना का पहला युद्ध (बयाना का युद्ध कब हुआ था? बयाना का युद्ध किस किस के बीच हुआ था? बयाना के युद्ध में दोनों ओर की सेनाएं? राणा सांगा बयाना का युद्ध क्यों हारे? बयाना के युद्ध में बाबर की रणनीति? बयाना के युद्ध में कितने सैनिक मारे गए?) बाबर के साथ अफ़गान सरदारों के मिल जाने पर हसन खाँ मेवाती और महमूद खाँ लोदी के सामने बड़ा संकट पैदा हो गया। वे दोनों बादशाह बाबर के साथ मिलने और उसका शासन स्वीकार करने के लिए तैयार न थे। लेकिन जब राज्य के अफ़गानों ने उनका साथ न दिया तो उन दोनों ने आपस में परामर्श किया और अन्त में राणा साँगा के पास जाकर वे मिल गये। जिस दिन बाबर पानीपत के युद्ध में विजयी हो चुका था, उसी दिन से राणा साँगा की आखें बाबर की तरफ थीं। वह जानता था कि वह दिन करीब है जब बाबर की फौज के साथ चित्तौड़ की राजपूत सेना को युद्ध करना पड़ेगा। जिन दिनों में साँगा चित्तौड़ में बैठकर बाबर के सम्बन्ध में सावधानी के साथ विचार कर रहा था, उसके पास हसन खाँ मेवाती और महमूद खाँ लोदी दोनों ही गये थे। राणा साँगा ने आदर के साथ उन दोनों को अपने यहाँ स्थान दिया था और उसने उनके साथ गम्भीरता पूर्वक बातें की थीं। अपनी सेना लेकर पूर्व की ओर के राज्यों पर बहुत दूर तक हुमायू ने अधिकार कर लिया था। इसके बाद बाबर स्वयं अपनी शक्तिशाली सेना लेकर दक्षिण की ओर रवाना हुआ। यह समाचार पाते ही राणा साँगा अपनी राजपूत सेना लेकर चित्तौड़ से उसी तरफ रवाना हो गया। बाबर दक्षिण की ओर बढ़ता हुआ सीमा पर पहुँच गया। वहाँ का एक प्रदेश राणा साँगा ने जीतकर बहुत पहले अपने राज्य में मिला लिया था। राणा की सेना ने वहाँ जाकर तुर्क सेना को आगे बढ़ते से रोका। लेकिन इस रोक का बाबर पर कोई प्रभाव न पड़ा। उसी सीमान्त प्रदेश में अभी तक किलेदार मुसलमान ही थे। बाबर ने उन किलेदारों को मिला लिया और उनसे बियाना, धौलपुर औरग्वालियर के किले लेकर दोआब में उनको कुछ जागीरें दे दीं। बियाना में उसकी रक्षा के लिए एक तुर्क सेना रख दी गयी। इसका पता मिलते ही राणा की सेना ने बियाना पर आक्रमण किया और बाबर की सेना को मार कर बियाना पर अधिकार कर लिया। बयाना का युद्ध का समाचार पाकर बाबर राणा साँगा के साथ युद्ध करने के लिए तैयार हुआ और अपनी शक्तिशाली सेना लेकर वह सीकरी की तरफ रवाना हुआ। युद्ध के लिए बाबर की रवानगी की खबर पाकर साँगा अपनी सेना के साथ आगरा की ओर बढ़ा और भरतपुर राज्य में बयाना नामक स्थान में उसने बाबर की फौज का मुकाबला किया। दोनों ओर ने घमासान युद्ध हुआ। काबुल की तुर्क सेना और दिल्ली की मुस्लिम सेना को मिलाकर बाबर अपने साथ बहुत-बड़ी सेना लेकर युद्ध के लिए आया था। बहुत समय तक दोनों ओर की सेनाओं में भयानक युद्ध हुआ। अन्त में साँगा की राजपूत सेना ने बाबर की सेना को इतनी बुरी तरह से परास्त किया कि उनके छक्के छूट गये और युद्ध के मैदान से भागकर उसने अपने प्राणों को रक्षा की। राजपूत सेता ने भागती हुई फौज का पीछा नहीं किया। ऐसा करना उसकी समझ में राजपुतों का वीरोचित कार्य न था। बयाना के युद्ध से लौटकर बाबर ने विस्मय के साथ अपनी सेना के सरदारों और सेनापतियों के साथ बातें की। उस समय उसे मालूम हुआ कि तुर्क और मुस्लिम सेना, राजपुतों के मुकाबले में न केवल पराजित हुई है, बल्कि घबराकर उसने हमेशा के लिए अपना साहस तोड़ दिया है। सेना की यह अवस्था बाबर के लिए बड़ी चिन्ताजनक हो गयी। उसके बार-बार उकसाने और प्रोत्साहन देने पर भी जब कोई फल निकलता हुआ दिखायी न पड़ा तो उसने बड़ी बुद्धिमानी से काम लिया। उसने अपनी सेना के सामने जिहाद का नारा लगाया और हाथ में कुरान लेकर अपने सैनिकों में उसने इस्लामी जोश भरने को कोशिश की उसने कहा “ऐ मुसलमान बहादुरों, हिन्दुस्तान की यह लड़ाई इस्लामी लड़ाई है इस लड़ाई में होने वाली हार तुम्हारी नहीं, इस्लाम की हार है। हमारा मजह॒ब हमें बताता है कि इस दुनिया में जो पैदा होता है, वह मरता जरूर है। हमको और तुमको सब को मरना है लेकिन जो अपने मजह॒ब के लिए मरता है, खुदा उसे बहिश्त में भेजकर इज्जत देता है। लेकिन जो मज़हब के खिलाफ मौत पाता हैं, उसे खुदा दोजख में भेजता है। अब हमको इस बात का फैसला कर लेना है और समझ लेना है की हम लोगों में जो बहिश्त जाना चाहता हैं, उन्हें हर सूरत में इस इस्लामी लडाई में शरीक होना है। कुरान को अपने हाथों में लेकर तुम इस बात का आज अहद करो कि तुम इस्लाम के नाम पर होने वाली इस लडाई में काफिरों को शिकस्त दोगे और ऐसा न कर सकने पर इस्लाम के नाम पर तुम अपनी कुर्बानियाँ देने में किसी हालत में इनकार न करोगे ।” अपनी जोशीली बातों को खत्म करने के बाद बाबर ने इस्लाम के खिलाफ कभी शराब न पीने का वादा किया और इस वादे के अनुसार उसने शराब पीने के अपने किमती बरतनों को तुड़वा कर, रखी हुई शराब के साथ फिकवा दिया। अपनी फौज के सामने बाबर ने जो जोशीली बातें कहीं उससे साफ-साफ यह जाहिर होता है कि उसकी फोज के सिपाहियों ने राजपुतों के साथ युद्ध करने से इनकार कर दिया था। बाबर की बातों को सुनकर उसकी फौज लड़ाई के लिए तैयार हो गयी। सांगा के साथ बाबर का बयाना का दूसरा युद्ध राणा सांगा और बाबर बयाना का युद्ध? बयाना युद्ध का इतिहास? बयाना युद्ध हिस्ट्री इन हिन्दी? बयाना युद्ध का वर्णन? राणा साँगा की युद्ध शक्ति से बाबर अपरिचित नहीं रहा। मुस्लिम सेना ने युद्ध करने से मुंह मोड़ लिया था, लेकिन बाबर ने अपने बुद्धि-बल से फिर अपनी फोज को युद्ध करने के लिए तैयार किया उसके पास लड़ने की जितनी शक्ति थी, सब एकत्रित करके राणा साँगा के साथ युद्ध करने का उसने संकल्प किया और दिल्ली की समस्त सेना को तैयार होने की आज्ञा दी। बाबर की सेना में युद्ध की तैयारी हो रही थी और चित्तौड़ की तरफ से आने वाली सेनायें युद्ध का रास्ता देख रही थीं। बाबर ने इस बीच में राजनीति की दूसरी चालों से काम लिया। उसने अपने दूत को भेजकर साँगा के साथ सन्धि का प्रस्ताव किया। दूत के पहुँचने पर साँगा सोच विचार में पड़ गया। शत्रु के हथियार गिरा देने पर अथवा उसके सन्धि के प्रस्ताव पर राजपूत कभी विश्वासघात नहीं करते थे। साँगा के साथ बाबर की सन्धिवर्ता आरम्भ हो गयी। शिलादित्य नामक अपने एक सेनापति पर साँगा बहुत विश्वास करता था।सन्धि के सम्बन्ध में बातचीत करने के लिए साँगा ने शिलादित्य को नियुक्त किया। सन्धि के बातचीत में एक महीना बीत गया। युद्ध के लिए उत्तेजित राजपूत सेनिकों में ढ़ीलापन पैदा हो गया। बाबर को परास्त करने के लिए साँगा ने एक विशाल सेना चित्तौड़ में तैयार की थी और शुरवीर सैनिक तथा सरदारों को अपने साथ एकत्रित किया था। इतनी बड़ी और शक्तिशाली सेना का आयोजन चित्तौड़ के इतिहास में हो नहीं, भारत के इतिहास में पहली बार हुआ था। इन दिनों में चित्तौड़ का राज्य, राजपूताना में सबसे अधिक शक्तिशाली माना जाता था। इसलिए राणा साँगा की सहायता के लिए समस्त राजस्थान के शक्तिशाली राजा, सामन्त और सरदार अपनी अपनी सेनायें लेकर चित्तौड़ में एकत्रित हुए थे और जिस समय साँगा बाबर के साथ युद्ध करने के लिए रवाना हुआ था, उस समय उसके साथ की सेनाओं में एक लाख बीस हजार सामन्तों सरदारों, सेनापतियों और बहादुर लड़ाकों की संख्या थी। इनके सिवा अस्सी हजार सवार सैनिक थे तीस हजार पैदल सवारों की संख्या थी। युद्ध में लड़ने वाले पाँच सौ खूंख्वार हाथी थे इस प्रकार दो लाख तीस हजार सैनिक, सवारों, सरदारों, सामान्तों और उन शक्तिशाली राजपूतों को लेकर राणा साँगा युद्ध के लिए रवाना हुआ था, जिनका संग्राम में लड़ना ही जीवन था। डूंगरपुर, सालुम्ब, सोनगड़ा, मेवाड, मारवाड, अम्बेर, ग्वालियर, अजमेर, चन्देरी और दूसरे राज्यों के अनेक बहादुर राजा, इस विशाल सेना का नेतृत्व कर रहे थे। सम्पूर्ण सेना का सचालन राणा साँगा के हाथ में था। सिंहनाद करती हुई अपनी इस सेना को लेकर साँगा ने बयाना नामक स्थान के करीब मुकाम किया था। जिस समय युद्ध की प्रतीक्षा में समस्त राजपूत उमड़ते हुए उत्साह के साथ बार-बार बादशाह बाबर की सेना की ओर देख रहे थे, उसी मौके पर सन्धि की बातचीत आरम्भ हुई और उसमें बहुत अधिक समय व्यतीत हो गया। सन्धि का यह प्रस्ताव असामयिक था। राजपुतों का उत्साह धीरे-धीरे क्षीण होने लगा लेकिन सन्धि के प्रस्ताव का निर्णय नहीं हुआ। सन्धि के द्वारा मिलने वाले समय का बाबर ने लाभ उठाया। दोनों और की सेना के बीच में बयाना का मैदान था। बाबर ने अपनी छावनी के आगे, बयाना के मैदान के करीब अपनी सात सौ तोपें लगवा दी झौर उनके पीछे बड़ी दूर की लम्बाई में गहरी खाइयाँ खुदवाई। उन खाइयों के पीछे, ऊँची जमीन पर उसने अपनी सेना को खड़ा किया। समस्त तैयारी कर लेने के बाद, उसने अपनी सन्धि के प्रस्ताव को अस्वीकृत करके युद्ध की घोषणा की। सन्धि के सम्बन्ध में एक महीने की बातचीत ने राजपूतों के उबलते हुए जोश को ठन्डा कर दिया उनकी युद्ध सम्बन्धी मनोवृत्तियाँ बदल गयी थीं और वे तरह-तरह के खेलों तमाशों में अपना समय व्यतीत करने लगे थे, अचानक बाबर की ओर से युद्ध की घोषणा सुनते ही साँगा और उसके साथ के दूसरे राजाओं को बढ़ा आश्चर्य हुआ। उनकी सेनाओं के उत्साह भंग हो चुके थे।राजपूतों में बड़ी तेजी के साथ युद्ध की तैयारियाँ हुई और उसके बाद, गरजती हुई उनकी सेनायें आगे की तरफ रवाना हुई बयाना के मैदान में आगे बढ़कर दोनों ओर की सेनाओं का संग्राम शुरू हुआ। बाबर की सात सौ तोपों ने एक साथ गोले फेंकने आरम्भ किये। उन तोपों की मार के सामने राजपूत सेनाओं के पहाड़ी भील सैनिकों ने अपने वाणों की वर्षा की। बहुत देर तक दोनों ओर से मार होती रही। तोपों की मार के कारण राजपुतों का आगे बढ़ना रुका हुआ था। सन्धि का बहाना करके एक महीने के अवसर में बाबर ने जो अपनी तरफ व्यवस्था की थी और लड़ाई की चालों से काम लिया था, विश्वासी और स्वाभिमानी राजपूतों को उनका कुछ पता न था। वे अपनी अटूट और प्रबल शक्तियों के द्वारा बाबर की सेना को परास्त करने में विश्वास रखते थे। राजनीति के षड़यंत्रों का उन्हें कुछ पता न था। युद्धक्षेत्र में, भीषण मार करना, शत्रु को परास्त करना अथवा बलिदान होना ही उन्होंने अपने जीवन में जाना था। धोखा देने, छल से शत्रुओं को पराजित करके युद्ध में विजयी होने को वे घुणा की दृष्टि से देखते थे। शत्रुओं के साथ युद्ध के समय भी उदारता का व्यवहार करना राजपुत अपना धर्म और कर्तव्य समझते थे। राणा साँगा ने अपने हाथी पर बैठे हुए युद्ध की परिस्थिति का निरीक्षण किया। उसने देखा, बाबर के गोलों से राजपूत बड़ी तेजी के साथ मारे जा रहे हैं और शत्रु की सेना तोपों के पीछे है। उसने एक साथ अपनी विशाल सेना को शत्रुओं पर टूट पड़ने की आज्ञा दी। राणा की ललकार सुनते ही समस्त राजपूत सेना अपने प्राणों का मोह छोडकर, एक साथ आँधी की तरह शत्रु के,गोलन्दाजों पर टूट पड़ी। उस भयानक विपदा के समय उस्ताद अली और मुस्तफ़ा ने राजपूतों पर गोलों की भीषण वर्षा की। उस मार में बहुत से राजपूत एक साथ मारे गये। लेकिन उन्होंने शत्रु की तोपों को छिन्न-भिन्न कर दिया और बाबर की सेना का संहार करने के लिए जैसे ही वे आगे बढ़े, सब-के-सब एक साथ खाई के भीतर पहुँच गये। उसी समय बाबर की सेना ने खाई ऊपर से घेर कर जो मार शुरू की, उसमें राजपूतों का भयानक रूप से कत्ल हुआ। खाई से निकल कर बाहर आने के लिये राजपूतों ने बार बार कोशिश की लेकिन उनमें, उनका भीषण संहार किया गया। राजपूत सेना के सामने एक प्रलय का दृश्य था। मरने और बलिदान होने के सिवा उनके सामने दूसरा कोई रास्ता न था। बयाना के इस प्रलयकारी युद्ध में राजपूत सेना के लगभग सभी सैनिक, सवार, सरदार सामन्त और राजा मारे गये सुलतान इब्राहीम लोदी लोदी का भाई महमूद खाँ लोदी और उसका साथी हसन खाँ मेंवाती दोनों ही राणा साँगा के साथ शामिल होकर, बाबर से लड़ने के लिए बिताना के युद्ध में ग्रे थे दोनों ही मारे गए। तलवारों और बाणों के लगने से राणा सांगा का समस्त शरीर छलनी हो गया था। और उसके अनेक गांवों से बुरी तरह खून बह रहा था। बिताना के युद्ध में राजपूत सेना के पराजित होते ही युद्ध बंद हो गया और उसी के साथ राणा सांगा की मृत्यु हो गई। इस प्रकार बयाना के युद्ध में राणा सांगा की हार हुई और बयाना के इस युद्ध में बाबर की जीत हुई। राणा सांगा की मृत्यु के बाद अपने अपने पुत्र को गद्दी पर बैठाने के लिए उसकी रानियों में कलह उत्पन्न हुई और वह कलह यहां तक बढ़ी की शूरवीर राणा सांगा की रानियां अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए बाबर से मेल करने की कोशिश करने लगी। इसी मौके पर एक रानी ने बाबर की सहायता प्राप्त के लिए रणथंभौर का प्रसिद्ध किला उसे भेंट कर दिया। बयाना के संग्राम में यदि राजस्थान के वीरों के साथ राणा सांगा के पूत्रों का भी संसार हो गया होता तो उसके मरने के बाद उसकी रानियों को शत्रुओं से मेल करके अपने जीवन का अक्षम्य अपराध न करना पड़ता। और उनके उस कुलषित कार्य से चित्तौड़ का मस्तक नीचा न होता। हमारे यह लेख भी जरूर पढ़े:—– झेलम का युद्ध - सिंकदर और पोरस का युद्ध व 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