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बप्पा रावल प्रतिमा

बप्पा रावल का इतिहास और जीवन परिचय

राजा महेन्द्र के बाद उनके पुत्र कालभोज, (बप्पा रावल का मूल नाम) जो बप्पा रावल के नाम से प्रसिद्ध हैं, राज्यासीन हुए। यह बड़े प्रतापी और पराक्रमी थे। इनके सोने के सिक्के चलते थे।अनेक संस्कृत शिलालेखों तथा पुस्तकों में बप, बैप्पक’ बप्प’ बप्पक’ बाप! बप्पाक’ बापा’ आदि मिलते हैं। बप्पा रावल के समय का जो स्वर्ण-सिक्का मिला है उससे एक ऐतिहासिक रहस्य का उद्घाटन होता है। उदयपुर राज्य के राज्यवंश की मूल जाति के विषय में जो अनेक तरह के भ्रम फैले हुए हैं, उनसे इनका निराकरण होता है।

बप्पा रावल का इतिहास और जीवन परिचय

इस सिक्के में, जो कि सुप्रख्यात्‌ पुरातत्वविद राय बहादुर पं० गौरी शंकरजी ओझा को अजमेर के किसी महाजन की दुकान से प्राप्त हुआ है, एक ओर चँँवर, दूसरी ओर छत्र और बीच में सूर्य का चिन्ह है। इससे यह पाया जाता है कि बप्पा रावल सूर्यवंशी थे। इन बप्पा रावल ने चित्तौड़ के मोरी (मौर्य वंशीय ) राजा से चितौड़ का किला विजय किया था। इन्होंने अपने राज्य का विस्तार दूर दूर तक फैलाया था । दंत-कथाओं में तो यहां तक उल्लेख है कि उन्होंने ठेठ ईरान तक धावा मारा था और वहीं उनका देहान्त हुआ। बप्पा रावल बड़े प्रतापी थे। वे हिन्दू-सूर्य’ “चक्रवर्ती आदि उच्च उपाधियों से विभूषित थे। इनके सम्बन्ध की अनेक दन्त-कथाएँ प्रचलित हैं।

इन दन्त-कथाओं में बहुत सी ऐसी बातें हैं जिनमें अतिशयोक्ति का अधिक अंश हैं। इस दन्त-कथाओं में बप्पा रावल के बारे वर्णन इस प्रकार मिलता है कि बप्पा रावल का देवी के बलिदान के समय एक ही झटके से दो भैसों का सिर उड़ाना, बारह लाख बहत्तर हज़ार सेना रखना, पैंतीस हाथ की धोती और सोलह हाथ का दुपट्टा धारण करना, बत्तीस मन का खड़ग रखना, वृद्धावस्था में खुरासान आदि देशों को जीतना, वहीं रहकर वहाँ की अनेक स्त्रियों से विवाह करना, वहाँ उनके अनेक पुत्रों का होना, वहीं मरना, मरने पर उनकी अन्तिम क्रिया के लिये हिन्दूओं और वहाँ वालों में झगड़ा होना और अन्त में कबीर की तरह शव की जगह फूल ही रह जाना आदि आदि लिखा हुआ मिलता है। हम ऊपर कह चुके हैं कि इन दन्त-कथाओं में अतिशयोक्ति होने की वजह से ये पूर्णरूप से विश्वास करने योग्य नहीं हैं। पर इनसे यह निष्कर्ष तो अवश्य निकलता है कि बप्पा रावल महान पराक्रमी, महावीर और एक अदभुत योद्धा थे। उन्होंने बाहुबल से बड़े बड़े काम किये।

बप्पा रावल प्रतिमा
बप्पा रावल प्रतिमा

अगर दन्त-कथाओं पर विश्वास किया जाबे तो यह भी मानना पड़ेगा कि उन्होंने ठेठईरान तक पर चढ़ाई की ओर वहीं वे वीरगति को प्राप्त हुए। काफी समय पहले लंदन के एक प्रख्यात मासिक पत्र में किसी युरोपीय सज्जन का एक लेख प्रकाशित हुआ था। उसमें लेखक ने यह दिख लाया था कि इरान के एक प्रान्त में अब भी मेवाड़ी भाषा बोली जाती है। अगर यह बात सच है तो निसन्देह मानना ही पड़ेगा कि बप्पा रावल ने एक न एक दिन ठेठ ईरान तक पर अपना विजयी झंडा उड़ाया था। पर इस सम्बन्ध में अन्तिम निर्णय पर पहुँचने के लिये खोज की आवश्यकता है।

बप्पा रावल का समय

बप्पा रावल का ठीक समय कौन सा था? इसका निर्णय करना बड़ा कठिन है; क्‍योंकि बप्पा रावल के राजस्व-काल का कोई शिलालेख या दानपत्र अब तक उपलब्ध नहीं हुआ। अतएव अन्य साधनों से उसका निर्णय करना आवश्यक है। विक्रम संवत्‌ 1028 की राजा नरवाहन के समय की एक प्रशस्ति में बप्पा रावल का जिक्र आया है। इससे यह तो स्पष्ट हो गया कि बप्पा रावल उक्त काल के पहले हुए। मेवाड़ के सुप्रख्यात वीर और विद्वान महाराणा कुंभा ने उस समय मिली हुई प्राचीन प्रशस्तियों के आधार पर कन्हव्यास॒ की सहायता द्वारा “एकलिंग माहात्म्य” बनवाया था। इसमें कितने ही राजाओं के वर्णन में तो पहले की प्रशस्तियों के कुछ श्लोक ज्यों के त्यों धरे हैं और बाकी के नये बनवाये हैं। कहीं कहीं तो ‘“यदुक्त पुरातने: कविभि:” (जैसा कि पुराने कवियों ने कहा है ) लिख कर उन श्लोकों की प्रामाणिकता खिलाई है। जान पड़ता है कि महाराणा कुम्भा को किसी प्राचीन पुस्तक से बप्पा रावल का समय ज्ञात हो गया था। परंतु इससे यह निश्चित नहीं होता कि उक्त संवत में वे गद्दी नशीन हुए या उन्होंने राज्य छोड़ा या उनकी मृत्यु हुई। महाराणा कुम्भा के दूसरे पुत्र रायमलजी के राज्य-काल में ‘एकलिंग माहात्म्य’ नाम की दूसरी पुस्तक बनी जिसको ‘एकलिंग पुराण’ भी कहते हैं। एकलिंग पुराण में बापा के समय के विषय में लिखा है। जिससे पाया जाता है कि वि०सं० 810 में बप्पा रावल ने अपने पुत्र को राज्य देकर संन्यास धारण किया। बीकानेर दरबार के पुस्तकालय में फुटकर बातों के संग्रह की एक पुस्तक है, जिसमें मुहता नैणसी की ख्याति का एक साग भी है। इसमें बप्पा रावल से लगाकर राणा प्रताप तक की वंशाववली है, जिसमें बप्पा का वि० सं० 820 में होना लिखा है। राजपूताने के इतिहास के सर्वोपरि विद्वान रा० ब० पंडित गौरीशंकर जी ओझा ने बड़ी खोज के बाद बप्पा रावल का राज्यकाल वि० सं० 791 से 810 तक माना है।

बप्पा रावल किस वंश के थे ?

बप्पा रावल के वंश के सम्बन्ध में भी यहाँ दो शब्द लिखना अनुचित ने होगा। अजमेर में र० ब० ओझा जी को बप्पा के समय का जो सोने का सिक्का मिला है, उससे उनका सूर्यवंशी होना स्पष्टतया सूचित होता है। एकलिंग के मंदिर के निकट के लकुलीश के मंदिर में एक प्रशस्ति है। यह प्रशस्ति वि० सं० 1028 की राजा नरवाहन के समय की है। उससे भी इनका सूर्यवंशी होना सिद्ध होता है। मुहता नेणसी ने भी मेवाड़ के राज्यवंश को सूर्यवंशी माना है। जोधपुर राज्य के मारलोई गाँव के जेन मंदिर के शिलालेख में गुहिदत्त, बप्पाक ( बप्पा ) खुमाण आदि राजाओं को सूर्यवंशी कहा है।

बप्पा के बाद

बप्पा रावल के बाद उनके पुत्र खुमाण ईस्वी सन्‌ 811 में राज्य- सिंहासन पर बैठे। टॉड साहब ने लिखा है कि खुमाण पर काबुल के मुसलमानों ने चढ़ाई की थी, पर इन्होंने उन्हें मार भगाया, और उनके सरदार मोहम्मद को कैद कर लिया। आपके बाद क्रम से मत्तट, भर्तृभट्ट, सिंह, खुमाण (दूसरा) सहायक, खुमाण (तीसरा) भर्तृभट्ट (दूसरा) आदि राजा सिंहासनारूढ़ हुए। इनके समय का विशेष इतिहास उपलब्ध नहीं है। भर्तृभट्ट (दूसरे) के बाद अल्लट राज्य- सिंहासन पर बेठे। इनके समय का इ० सन्‌ 971,का एक
शिलालेख मिला है। इनकी रानी हरियादेवी हूण राजा की पुत्री थी । अल्लट के पश्चात्‌ नरवाहन राज्य-सिंहासन पर बैठे।

इनके समय का वि० सं० 1010 का एक शिलालेख मिला है। इनका विवाह चौहान राजा जेजय की पुत्री से हुआ था। इनके बाद शालिवाहन, शक्तिकुमार, अंबाप्रसाद, शुचिवर्मा, कीर्तिवर्मा, योगराज, वैरट, हंसपाल और वेरिसिह हुए। दुःख है कि इनका इतिहास अभी तक उपलब्ध नहीं हुआ। वेरिसिंह के बाद विजय सिंह हुए। इनका विवाह मालवा के प्रसिद्ध परमार राजा उदय दित्य की पुत्री श्यामलदेवी से हुआ था। इनको आल्हणदेवी नामक कन्या उत्पन्न हुई थी, जिसका विवाह चेदी देश के हैहयवंशी राजा गयकर्णदेव से हुआ था। राजा विजय सिंह के समय का वि० सं० 1164 का एक ताम्रपत्र मिला है। विजय सिंह के बाद क्रम से अरिसिंह, चौड़सिंह, विक्रमसिंह आदि नृपतिगण हुए। इनके समय में कोई विशेष उल्लेखनीय घटना नहीं हुई। विक्रमसिंह के बाद रणसिंह हुए। इनसे दो शाखाएँ निकलीं। एक रावल शाखा और दूसरी राणा शाखा। इनके बाद क्षेमसिंह, सामन्तसिंह, कुमारसिंह, मंथनसिंह, पदमसिंह आदि नृपति हुए। इनके समय का इतिहास अभी उपलब्ध नहीं है। पदमसिंह के बाद चित्तौड़ के राज्य- सिंहासन पर एक महान पराक्रमी नृपति बिराजे। उनका शुभ नाम जैत्रसिंह था। टॉड साहब ने इनका उल्लेख तक नहीं किया है। भारत के सर्वमान्य इतिहास-लेखक राय बहादुर पं० गौरीशंकरजी ओमझा की ऐतिहासिक खोजों ने इस महान नृपति के पराक्रमों पर अदभुत प्रकाश डाला है।

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Naeem Ahmad

CEO & founder alvi travels agency tour organiser planners and consultant and Indian Hindi blogger

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