बकरीद या ईद-उल-अजहा ( ईदुलजुहा) ईदुलफितर के दो महीने दस दिन बाद आती है। यह ईद चूंकि महीने की दस तारीख को मनायी जाती है, इसलिए इसका निर्णय दस दिन पूर्व ही चांद देख कर होता है। यह भी कभी गर्मी और कभी सर्दी के मौसम में आती है।
बकरीद क्यों मनाया जाता है
खुदा के संदेशवाहक हजरत इब्राहिम को अपने छोटे बेटे से बहुत प्रेम था। शेतान ने खुदा से हजरत इब्राहिम की परीक्षा लेने के लिए कहा। खुदा ने हजरत इब्राहिम से सपने में कहा कि अगर तुम मुझसे सच्ची श्रद्धा रखते हो तो मेरे नाम पर अपने बेटे को कुर्बान कर दो। हजरत इब्राहिम ने खुदा का हुक्म तुरंत मान लिया और हजरत इसमाईल को जिबह (कुर्बान) करने के लिए उसके गले पर छुरी रख दी। छुरी चलाना ही चाहते थे कि खुदा की आज्ञा से हजरत इसमाईल की जगह एक दुम्बा (बकरा) आ गया। इसी कुबानी को याद में बकरीद मनायी जाती है।
इस अवसर पर संपन्न मुसलमान हज का फर्ज अदा करने मक्का शरीफ जाते हैं। हाजी लोग मक्का में ही जानवर की कुर्बानी देते हैं। हज पर न जाने वाले घरों पर ही बकरे, भेंड, ऊंट या भैंस इत्यादि को खुदा की राह में कुर्बान करते हैं। इस दिन लोग सुबह उठकर ईदगाह या बड़ी मस्जिद में विशेष नमाज़ अदा करने जाते हैं। वापस आकर जानवरों को जबह (कुर्बान) करते हैं।

कुर्बानी केवल संपन्न मुसलमानों के लिए फर्ज है। कुर्बानी का एक तिहाई मांस गरीबों में बांट दिया जाता है। एक तिहाई संबंधियों और मित्रों को दिया जाता है। बाकी घर में रखा जाता है। हालांकि बकरीद को इदुलफितर की तरह बड़ा त्योहार नहीं समझा जाता है परंतु अधिकतर जगह यह ईद भी तीन दिन तक मनायी जाती है।
औरतें, बच्चे, मर्द नए कपड़े पहनते हैं। छोटों को ‘ईदी’ दी जाती है। मित्रों को फल, मिठाइयां खिलाई जाती हैं। कुर्बानी के जानवर खरीदना और उनकी देख भाल करना, उन्हें दाना-चारा खिलाना घर के सभी लोगों की जिम्मेवारी होती है। इसी अवसर पर शहरों में गांव से लाए जानवरों के बाजार लगते हैं जहां बड़ी भीड़-भाड़ और सौदेबाजी होती है।
धनवान लोग कई-कई जानवरों की कुबानी करा के गरीबों में मांस बांटते हैं और संबंधियों, मित्रों को निमंत्रण दिया जाता है। कबाब, कोरमा, बिरयानी, भूना गोश्त दिल खोलकर खाया जाता है। अरब देशों से कुर्बानी का मांस दूसरे देशों में बांटने के लिए भेजा जाता है।
हमारे यह लेख भी जरूर पढ़ें :—-