ब्लैक एण्ड व्हाइट फोटोग्राफी का आविष्कार फ्रांस के लुई दाग्युर और रंगीन फोटोग्राफी का आविष्कार भी फ्रांस के ही एक अन्य युवक गव्रिएल लिपसन ने किया था। अठारहवी शताब्दी में वैज्ञानिकों ने कुछ ऐसे रसायनिक पदार्थों को पता लगाया जो धूप के प्रभाव से चित्र उभार सकते थे। सन 1760 में एक फ्रांसीसी युवक ताइफ दि लाराश ने अपनी एक पुस्तक में एक ऐसे ही पदार्थ सिल्वर नाइट्रेट से प्रकाश के माध्यम में चित्र उभारने का उल्लेस किया था। हाइड्रोजन गुब्बारे के आविष्कारक प्रोफेसर चार्ल्स ने सिल्वर क्षारा की मदद से अनेक छाया चित्र बनाकर दिखाएं।
फोटोग्राफी का आविष्कार
सन् 1811 मेंफ्रांस के एक भूतपूर्व सैनिक अधिकारी निसेफोर नाइस ने प्रकाश सवर्दी रसायनों पर अनेक प्रयोग किए परंतु वह फोटोग्राफी विकसित करने में सफल न हो सका। फिर भी उसने दो महत्त्वपूर्ण काम किए। पहला उसने फोटोग्राफी शब्द का जन्म दिया। दूसरा उसने चित्र उतारने के लिए सबसे पहले कैमरा आब्ख्योरा’ अर्थात् ‘अध-कक्षा’ के प्रयोग की महत्त्वपूर्ण बात सझायी।
सन् 1869 में गाम्बातिस्ता देला पोर्ता नाम के एक इटालियन भौतिकविद ने एक बडा आब्ख्योरा कैमरा बनाया। इसके अध-कक्षा के ऊपरी भाग मे एक छेंद था और इस छेद के पीछे एक कॉनवेक्स (उत्तल) लेंस लगाया गया था। इसके ऊपर क्षैतिज रेखा मे 45 अंश के कोण पर एक दर्पण लगाया गया था। इस व्यवस्था से प्रकाश की किरणें नीचे की ओर लम्बवत परावर्तित हो जाती थीं। यह कैमरा आज भी एडिनबरा के संग्रहालय मे रखा है।
निसेफोर नाइस को इस विषय पर काम करते लगभग बीस वर्ष हो चुके थे। तभी उसके सम्पर्क मे लुई जैक मादे दाग्युरे नामक एक व्यक्ति आया। वह भी इसी विषय पर कार्य कर रहा था। अब दोनों ने मिलकर इस विषय पर काम करना आरम्भ किया। दाग्युरे ने कुछ प्रयोग से यह निष्कर्ष निकाला कि चित्र उतारने की विधि में इस्तेमाल किए जाने वाले पदार्थ सिल्वर नाइट्रेट से सिल्वर आयोडीन अधिक उपयोगी है। उधर नाइस ने फोटोग्राफी के काम में आने वाला कैमरा ओर भी निर्दोष बना लिया था, परंतु दुर्भाग्यवश इसी बीच नाइस की मृत्यु हो गयी। दाग्युरे अपने प्रयोगों में लगा रहा। नाइस के अनुभव से उसने बहुत कुछ सीख लिया था।

एक दिन दाग्युरे ने एक आश्चर्यजनक नजारा देखा। उसने कुछ दिन पहले कुछ तैयार प्लेट एक जगह रख दी थी। बहुत दिन तक प्रयाग मे न लाने के कारण वह यह मान बैठा था कि ये प्लटें खराब हो गयी होगी। उसने उन्हे धोकर दुबारा काम में लाने के उद्देश्य से उठाया तो वह यह देखकर चकित रह गया कि इन प्लेटों पर कुछ स्पष्ट चित्र उभरे हुए थे। आखिर यह सब कुछ कैसे हुआ? उसने वहा रखा सब सामान उलट-पलट कर देखा तो पाया कि प्लेटों के नीचे एक दरार-सी थी, जिसमे से पारे की कुछ छोटी-छोटी बूंदे चमक रही थी। उसके मस्तिष्क में एक विचार कौंधा। उसने एक प्लेट को कुछ देर धूप मे रखने के बाद जब अंधेरे कमरे में एक गर्म बर्तन में पारा रखकर उसके ऊपर रखा तो चित्र जादू की तरह उभर आया। उसने उसे सोडियम सल्फेट में धोकर पक्का कर दिया। अपनी इस आकस्मिक खोज का प्रदर्शन उसने अकादमी ऑफ सांइस के सचिव प्रसिद्ध भौतिकविद फ्राकाइ आर्गो के सामने किया। चित्र उतारने की पद्धति का आविष्कार करने के लिए उसे अकादमी द्वारा सम्मानित किया गया।
आरम्भ में चित्र उतरवाने के लिए कमरे के सामने, धूप में आधे घटे के लगभग बैठे रहना पडता था। कुछ दिना बाद बिल्टशायर के एक युवक लेकाक ऐबी ने कागज पर चित्र उतारने और निगेटिव तथा पॉजिटिव बनाने की प्रक्रिया का सूत्रपात किया। दाग्युरे के कैमरे सेसीधा पॉजिटिव चित्र बनता था जिससे और प्रतियां बनाना संभव न था। दाग्युरे के साथी नाइस के भतीजे ने निगेटिव के लिए कागज के इस्तेमाल के स्थान पर शीशे की प्लेट का इस्तेमाल किया। इससे फोटोग्राफी की कला का और भी तेजी से विकास हुआ।
सन् 1871 में दो अंग्रेजों डा आर एल मैडाक्स और सर जोसेफ विल्सन स्वान ने फोटो खींचने के लिए जिलेटिन इमल्सन और सवेदी सिल्वर ब्रोमाइड के मिश्रण से सूखी प्लेटें तेयार करने की विधि निकाली ताकि बाहरीफोटोग्राफी के लिए इन्हे सुरक्षित रूप से ले जाया जा सके। सन् 1891 मे ईस्टमैन और उसके साथी हैनिबाल गुडविन (अमेरीका) ने फोटोग्राफी के लिए सेलुलाइड का उपयोग कर सवेदी फिल्म बनाने का आविष्कार किया। इस रोल फिल्म को कैमरे में लगाया जा सकता था और कई फोटो खींचे जा सकते थे। ईस्टमैन ने एक छोटे आकार का ‘कोडक’ कैमरा शौकिया लोगो के लिए निर्मित किया। इससे एक सेकण्ड के छोटे से अंश में ही शटर दबाकर तस्वीर खींची जा सकती थी। फ्लैश सिस्टम ने धूप की रोशनी का झंझट भी दूर कर दिया। आज के आधुनिक कैमरों मे शूटिंग संम्बधी ढेरो सुविधाएं रहती है।
स्टीरियोस्कोप अथवा त्रिविमितिदर्शी फोटोग्राफी का आविष्कार 1855 में एक अंग्रेज वैज्ञानिक सर चार्ल्स ब्हीटस्टन ने किया था। स्टीरियोस्कोप फोटोग्राफी की विधि में दो लेंस अलग-अलग चित्र खींचते है। जब इन प्रिंटेड चित्रो को देखा जाता है, तो ये स्वाभाविक गहराई से युक्त दिखते हैं। आजकल त्रिविमितीय फोटोग्राफी की आधुनिक विधि का नाम ‘होलोग्राफी’ है। इसके लिए लेंसर किरणों का प्रयोग किया जाता है।
फोटोग्राफी का उपयोग आजकल मुद्रण नक्शों के निर्माण आदि मे भी हो रहा है। एक अन्य क्रातिकारी आविष्कार है- एक्सरोग्राफी। एक अमेरीकी वैज्ञानिक चेस्टर कार्लसन ने इसका आविष्कार 1940-50 के मध्य किया था। फोटोग्राफी की इस प्रणाली में निगेटिव प्लेटो का इस्तेमाल बार-बार किया जा सकता है और फोटो को किसी भी प्रकार के कागज पर प्रिंट किया जा सकता है। प्रिंटिंग प्रोसेस मे किसी भी प्रकार के तरल द्रव का इस्तेमाल नही किया जाता। इस विधि में धातु की एक चादर पर एक प्रकाश-सवाही (Light Convection) लेप का इस्तेमाल किया जाता है। प्रकाश सवाहकता एक विशेष प्रकार का प्रकाश विद्युत प्रभाव है। इसमें सेलेनियम जैसे कुछ खास पदार्थों की विद्युत सवाहकता इन पर पडने वाले प्रकाश से तेजी के साथ बढ जाती है। प्लेट पर लगा लेप अंधकार मे विद्युत आवेषित हो जाता है। इसे किसी बिम्ब पर एक्सपोज करने के बाद पाउडर बुरका जाता है। पाउडर से निर्मित स्थिर प्रतिबिम्ब किसी भी कागज पर उतार लिया जाता है।
रंगीन फोटोग्राफी
रंगीन फोटोग्राफी का आविष्कार किसी एक व्यक्ति का नही बल्कि कई व्यक्तियों के मिल जुले प्रयास का परिणाम है। इनमे मुख्य रूप से गेटे, लिपमेन, ईस्टमैन, टॉमस यंग आदि का नाम लिया जा सकता है। गेटे ने सबसे पहले 1812 मे अपने शोध लेख ‘प्रकाश का सिंद्धात’ मे सिल्वर क्लोराइड पर रंगीन प्रकाश के प्रभाव का उल्लेख किया था। एक अंग्रेज़ टॉमस यग ने एक सिद्धांत के आधार पर यह सिद्ध कर दिया कि तीन मूल या बुनियादी रंगो का यदि अलग-अलग अनुपात में लेकर मिश्रित किया जाए तो सभी प्रकार के रंग बनाए जा सकते हैं।
चार्ल्स क्रास नाम के एक फ्रांसीसी ने पहली बार यग-हैल्महोलज के सिद्धांत पर रंगीन फोटो लिए। चार्ल्स क्रास के एक अन्य साथी ड्यूको दुआरो ने एक दूसरे ही तरीके को अपनाया। इसमे वैसे तो मूल रंगो के तीन फिल्टरो का इस्तेमाल किया गया लेकिन नेगेटिवो
को पूरक रंगो में रंगा गया, जैसे-हरा लाल का पूरक और बैंगनी नीले का आदि। इन नेगेटिवो को चित्र प्रिंट करने के काम में लाया जाता है आर फिर सुपर इम्पोजिशन द्वारा रंगो को पलट दिया जाता है, लेकिन अमरीका, जर्मनी, इटली, ब्रिटेन आदि देशों में एक नयी तकनीक से रंगीन फोटो खींचे जाने लगे। इन फिल्मो मे इमल्सन की तीन परते होती है। इनमे एक नीले रंग के प्रति संवेदनशील होती है, दूसरी केवल हरे और तीसरी केवल लाल के प्रति संवेदनशील होती है। नेगेटिव फिल्म के तीन इमल्सनों की तरह पोजिटिव बनाने वाले कागज पर भी तीन ही इमल्सन होते है।
सिनेमा उद्योग के तेजी से विकास के कारण सिने फोटोग्राफी के लिए उपयुक्त रंग प्रणाली का भी विकास हुआ। अनेक वर्षो तक परीक्षण करने के बाद सन 1926 मे तीन वैज्ञानिकों डी एफ काम्सटाक, डब्ल्यू बी वेस्टकॉट ओर एच टी केल्मस ने अपनी नयी रंग प्रणाली से तेयार की गयी पहली फिल्म बोस्टन में प्रदर्शितत की। प्रदर्शन सफल रहा और इन तीनो वैज्ञानिकों ने अगल सात-आठ वर्षा में इसे और विकसित कर निर्दोष बनाया। प्रसिद्ध चित्रकार और कार्टूनिस्ट वाल्ट डिजनी ने 1933 में पहली टेक्नीकलर काटन-फिल्म ‘फ्लावस एंड टीज’ का प्रदर्शन किया। टेक्नीकलर प्रणाली को बहुत जल्द अमेरीका और ब्रिटेन के फिल्म निर्माताओ ने अपना लिया।
टेक्नीकलर प्रणाली में चित्र खींचने के लिए एक विशेष कैमरे का उपयोग किया जाता है। इसमें लेंस में प्रवेश करने वाली प्रकाश किरण इस प्रकार अलग-अलग बट जाती हैं कि एक समान समय में तीन फिल्म एक्सपोज होती है। एक प्रकाश के हरे तत्त्व का चित्रित करती है दूसरी लाल को तथा तीसरी नीले को। इन तीनों सपुटका अर्थात मैट्रिक्स (Metrix) से एक चौथा मुख्य चित्र काले और सफेद रंग में बनता है, फिर इन चारों फिल्मों को एक पर प्रिंट कर लिया जाता है।
इसके बाद एक ही फिल्म की तीन वण-सवेदी (Colour sensitive ) पर्तो का प्रयोग में लाने वाली एक ओर प्रणाली मोनीपेक प्रणाली ने जन्म लिया, जिसे कोडाक्राम कहा जाता है। इसे 1923 में अमरीका के लियो ग्रोडाब्स्की ओर ल्योपाल्ड नामक युवकों ने विकसित किया और 1935 में यह फिल्म बाजार में आयी। फिर जर्मन अगफा-कलर प्रणाली आयी जो 1936 में प्रचलित हुई। उसके बाद से अनेक मानोपेक प्रणालियां काम में आती रही है।