गोल दरवाजे और अकबरी दरवाजे के लगभग मध्य में फिरंगी महल की मशहूर इमारतें थीं। इनका इतिहास तकरीबन चार सौ बरस पुराना है। मुगल हुकूमत के वक्तलखनऊ प्रमुख व्यापारिक केन्द्र था। अनेक व्यापारी लखनऊ आये। व्यापार चमकता देख यहीं बस गये।
इनमें एकफ्रांसीसी व्यापारी फ्रैड्रिक भी था। उसने लखनऊ में व्यापार करने के लिए दिल्ली से शाही स्वीकृति माँगी। स्वीकृति मिल गयी। लखनऊ में जनाब का व्यापार चल निकला। घोड़ों के व्यापार के साथ-साथ फ्रैड्रिक ने लखनऊ में अपना मुख्यालय बना लिया और चौक क्षेत्र में चार आलीशान महल बनवाये।
इधर स्वीकृति में दी गयी अवधि खत्म हो गयी। शाही हुक्म आया कि वह लखनऊ ही नहीं अब हिन्दुस्तान ही छोड़ दें। फ्रैड्रिक साहब ने इस हुक्म को रुकवाने के लिए आगरे से दिल्ली और दिल्ली से आगरे बड़ी दौड़ लगाई। काम न हुआ। वह इस भाग-दौड़ से इतना पस्त हो गये कि शाही हुक्म को किनारे कर दिया। लखनऊ में ही जमे रहे। शाही कोतवाल को कार्यवाही करनी पड़ी। चारों मकानों पर कब्जा कर लिया गया । फ्रैड्रिक साहब हिरासत में ले लिये गये। आगरा पहुँचाये गये वहां से उन्हें देश के बाहर भेज दिया गया।
बादशाह औरंगजेब के जमाने में मुल्ला निजामुद्दीन सहालवी को यह चारों मकान मिल गये। यह मकान उन्हें शाही हुक्म से दिये गये थे। सन् 1601 ई० को फ्रैड्रिक महोदय ने नए साल पर बड़ी धूम धाम से जश्न मनाया था। यूरोपीय यात्री लैकेट ने लिखा है–
फिरंगी महल
“लखनऊ एक विशाल व्यापारिक केन्द्र है। मैं फ्रैड्रिक महल को देखकर दंग रह गया। कहते हैं–कि उसने नये-साल की खुशी में ऐसा जश्न मनाया कि लोग हैरान रह गए। 1200 हाथियों के होदों में मशाल जलाई गयी थीं। हाथी दूल्हों की तरह सजे थे। सौ घोड़ों पर स्थानीय लोग बैठे थे। उनके कपड़े पाश्चात्य ढंग के थे। वह हाथ में झंडियाँ और बेनर लिए हुए थे। जिन पर लिखा था—
“जहाँपनाह, जिल्ले सुबहानी आलमगीर शहंशाह जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर को पैंतालीसवाँ सने जुलूस और सने-ईसवी” का नया-साल मुबारक हो। उस दिन रात को लोगों ने दावत उड़ाई। फ्रैड्रिक महल (फिरंगी महल), बाहर मैदान में 1200 फूट लम्बे 60 फुट चौड़े, 60 फूट ऊँचे दो तम्बू लगाए गए थे जहाँ कि दावत दी जानी थी। भोज शुरू होने के पहले जुलूस सारे शहर भर में घूमा। जब जुलूस लौटकर फ्रैड्रिक महल आया तो उसके पीछे अपार भीड़ को देखकर ऐसा लग रहा था। मानों सारा लखनऊ उसके महल के इर्द-गिर्द जमा हो गया हो।
इस जश्न पर पाँच लाख रुपये खचे हुए थे। सम्राट अकबर का सन् 1605 ई० में इन्तकाल हुआ था और लैकेट महोदय सन् 1631 में शाहजहाँ की हुकूमत के वक्त हिन्दुस्तान तशरीफ लाये थे।
फिरंगी महल कान्तिकारियों का गढ़ था। अब्दुल बरी यहां आने वाले लोगों के दिलों में कम्पनी सरकार के खिलाफ आग सुलगाने का काम करते थे। रात में तमाम क्रान्तिकारियों और उनके नेताओं का यहां जमघट होता था। लेकिन आज यहां एक इस्लामिक स्कूल और इस्लामिक सेंटर ऑफ इंडिया का मर्ज चल रहा है। फिर भी फिरंगी महल की वास्तुकला पर्यटकों को खुब आकर्षित करती है।