प्लासी का युद्ध 23 जून सन् 1757 ईस्वी को हुआ था। प्लासी की यह लड़ाई अंग्रेजों सेनापति रॉबर्ट क्लाइव और नवाब सिराजुद्दौला के बीच लड़ी गई थी। प्लासी के युद्ध में नवाब सिराजुद्दौला की पराजय के साथ ही भारत में प्रथम बार अंग्रेजी साम्राज्य की नींव रखी गई थी। भारत में अंग्रेजी साम्राज्य की शुरुआत वाले इस प्रसिद्ध युद्ध को भारतीय इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। अपने इस लेख में हम प्लासी के इसी प्रसिद्ध युद्ध के बारे में निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर विस्तार से जानेंगे:—-
प्लासी का युद्ध कब हुआ था? प्लासी का युद्ध कब से कब तक हुआ? प्लासी के युद्ध का कारण क्या था? प्लासी में कितने युद्ध हुए? सिराजुद्दौला के बाद बंगाल का नवाब कौन बना? प्लासी का युद्ध कहां हुआ था? प्लासी के युद्ध में सिराजुद्दौला की हार के कारण क्या थे? मीरजाफर कौन था? प्लासी का युद्ध क्षेत्र कहा स्थित है? प्लासी का युद्ध किस नदी के किनारे हुआ था? प्लासी का युद्ध किसके बीच हुआ था? प्लासी के युद्ध का परिणाम? प्लासी के युद्ध में किसकी जीत हुई थी? प्लासी के युद्ध में दोनों ओर से कितनी सेना थी? प्लासी के युद्ध में सिराजुद्दौला के पास कितनी तोप थी? प्लासी की लड़ाई में अंग्रेजों के पास कितने सैनिक वह तोपें थी। प्लासी की लड़ाई में अंग्रेजी सेना का सेनापति कौन था?
Contents
प्लासी के युद्ध से पहले बंगाल की स्थिति व राजनितिक हलचल
पिछले लेखदिवेर का युद्ध औरकरनाल का युद्ध में लिखा जा चुका है कि औरंगजेब की मृत्यु के बाद, मुग़ल-साम्राज्य का जो पतन आरम्भ हो गया था, वह पतन फिर रोका नहीं जा सका। जो राज्य साम्राज्य की अधीनता में थे, वे एक-एक करके स्वतन्त्र हो रहे थे और जो सूबेदार अथवा नवाब, अलग-अलग सूबों में शासन कर रहे थे, साम्राज्य के साथ उनके राजनीतिक बन्धन बहुत निर्बल और ढीले पड़ गये थे। नवाब अली वर्दी खाँ बंगाल, बिहार और उड़ीसा तीनों प्रान्तों का सूबेदार था। लेकिन उसकी अवस्था भी साम्राज्य के साथ वही थी, जो अन्य नवाबों और सूबेदारों की थी। दक्षिण में मराठों ने उनदिनों में अपनी शक्तियां मजबूत बना ली थीं। उन्होंने बंगाल पर आक्रमण आरम्भ कर दिये। उस समय अलीवर्दी खाँ को मुगल सम्राट से सहायता माँगनी पड़ी। लेकिन उसे दिल्ली से कोई सहायता मिल न सकी। इस अवस्था में उसने मालगुजारी का दिल्ली भेजना बन्द कर शंंंदिया। भारत में इंग्लैड से जो अंग्रेज आये थे, वे सब से पहले यहां के पश्चिमी किनारे पर उतरे थे। परन्तु इस देश में उन्होंने राजनीतिक अधिकार पहले पहल बंगाल में प्राप्त किये। इसका कारण यह था कि भारत में उनके आने के समय पश्चिमी किनारे पर मराठों की एक शक्तिशाली जल सेना मौजुद थी और उन दिनों में उनकी जल-सेना बहुत श्रेष्ठ समझी जाती थी। मुग़लों के पास जल-सेना की कोई शक्ति न थी, जिसके कारण समुद्र के रास्ते पर आने वालों के लिए बंगाल का मार्ग खुला हुआ था।
बंगाल में पहुँच कर अंग्रेजों ने हिन्दुओं और मुसलमानों को
मिलाना आरम्भ कर दिया था। किसी को भी तोड़ने और मिलाने के कार्य में वे बड़े अभ्यासी और चतुर थे। आरम्म से ही लोगों को मिला कर वे आसानी के साथ अपना काम चलाने लगे थे। उन्होंने हिन्दुओं को मिला कर मुसलमानों के विरुद्ध और मुसलमानों को मिला कर हिन्दुओं के विरुद्ध वातावरण उत्पन्न करने का काम खूब किया। वे जिससे अपना काम निकालना चाहते थे, उसकी वे खूब खुशामद करते थे। खुशामद और अच्छे व्यवहारों के बहाने अंग्रेज़ों के षड़यन्त्र अठारवीं शताब्दी के मध्यकालीन दिनों तक खुब चलने लगे थे और नवाब के कितने ही अधिकारियों को मिला कर उन्होंने अपने हाथों में कर लिया था। इन षड़यन्त्रों में उनके झूठे वादों का एक जाल फैला हुआ था। अपने इस जाल के बल पर उन्होंने चन्द्रनगर में किलेबन्दी आरम्भ कर दी। उनके इन कामों के समाचार जब नवाब को मालुम हुए तो उसने दरबार में बुला कर किलेबन्दी करने से उनको रोक दिया। नवाब अलीवर्दी खाँ की अवस्था बुढ़ापे की थी। 10 अप्नेल सन् 1756 ईस्वी को नवाब अली वर्दी खाँ उसकी मृत्यु हो गयी। उसके बाद उसका नाती सिराजुद्दौला नवाब हुआ। मुगल साम्राज्य की जड़े जितनी निर्बल होती जाती थीं, अंग्रेजों के षड़यन्त्रों का जाल उतना ही फैलता जाता था। नवाब अलीवर्दी खाँ के समय अंग्रेजों ने जो साजिशें शुरू की थीं, वे सिराजुद्दौला के समय अटूट षड़यन्त्रों के रूप में बदलने लगीं।
अंग्रेजों के विरोधी आचरण
बंगाल में अंग्रेजों के सभी व्यवहार नवाब और सम्राट के विरुद्ध
चलने लगे। किले बन्दी को रोके जाने के बाद भी अंग्रेजों ने कुछ परवा न की और अपना काम उन्होंने बरावर जारी रखा। कलकत्ता में किले बन्दी करने के बाद उन्होंने उसके चारों तरफ गहरी खाई खोदकर तैयार कर ली। मुगल सम्राट ने बंगाल में अंग्रेजी माल पर चुंगी माफ कर दी थी। उसका अंग्रेजों ने बहुत अनुचित लाभ उठाना आरम्भ कर दिया था। मुग़ल शासन की अनेक बातों में अंग्रेजों ने बड़ी धाँधली मचा रखी थी, जिसमें भारतीय जनता को, भारतीय व्यापारियों को और मुगल साम्राज्य को लम्बी क्षति उठानी पड़ रहो थी। बहुत-सी बातों में उन्होंने नवाब तथा साम्राज्य के विरुद्ध खुले तौर पर अराजकता फैला रखी थी। उनका एक षड़यन्त्र यह भी चल रहा था कि पूनिया के नवाब शौकत जंग को सिराजुद्दौला के साथ लड़ा कर शौकत जंग को मुर्शिदाबाद का नवाब बनाना चाहते थे। सिराजुद्दौला के बहुत से अधीन अधिकारियों को मिला कर अंग्रेजों ने सिराजुद्दौला का विरोधी बना दिया था।
अंग्रेजों के इस प्रकार के आचरणों से नवाब सिराजुद्दौला
अपरिचित न था। फिर भी वह अंग्रेजों पर अपना नियन्त्रण रख सका। इसका कारण या तो यह था कि वह शासन नहीं जानता था
अथवा अंग्रेज इतने अधिक राजनीतिज्ञ थे कि उन्होंने नवाब को भुलावे में डाल रखा था। किसी भी अवस्था में नवाब की यह दया और सहानुभूति, उसकी अयोग्यता का सबूत दे रही थी। जो लोग नवाब सिराजुद्दौला के साथ अपराध करते थे, वे भागकर कलकत्ता में अंग्रेजों के पास चले जाते थे। नवाब के अपराधियों को शरण देना अंग्रेजों का खुलकर विद्रोह करना था। नवाब कलकत्ता के अंग्रेजों से अनुरोध करता था कि अमुक अपराधियों को अपने यहाँ से निकाल दो, लेकिन अंग्रेज नवाब के इस प्रकार के अनुरोधों की भी परवा न करते थे। इसी प्रकार के उत्पातों में सिराजुद्दौला ने एक बार कलकत्ता में अंग्रेजों के विरुद्ध आक्रमण किया। अंग्रेजों ने उस मौके पर नवाब का विरोध किया। कुछ इसी प्रकार की परिस्थितियों में हुगली के निकट तान्नाह के किले पर अंग्रेजों के साथ नवाब का सामना हुआ। उस लड़ाई में अंग्रेजों की हार हो गयी। इसके बाद भी नवाब ने अपराधी अंग्रेजों को दंड न दिया। वह सुलह॒नामे के द्वारा शान्ति बनाये रखने की चेष्टा करता रहा। यद्यपि अंग्रेजों की ओर से इस प्रकार की चेष्ठा कभी न हुई। कलकत्ता के अंग्रेज, नवाब को छिपे तौर पर निर्बल बनाने में लगे हुए थे। उनका सब से बड़ा अस्त्र था रिश्वतें देकर, प्रलोभनों में लाकर झूठे बादे करके नवाब के प्रमुख अधिकारियों को तोड़ना ओर अपने साथ मिला लेना।

नवाब सिराजुद्दौला की दूसरी निर्बलता
नवाब सिराजुद्दौला के सम्बन्ध में ऊपर जो बातें लिखी गयी हैं,
उनको जानकर कोई भी विचारशील व्यक्ति इस बात को स्वीकार करेगा कि नवाब में शासन-शक्ति का अभाव था। उसके साथ इतनी ही कमजोरी न थी। एक भयानक निर्बलता उसके साथ यह थी कि उसकी सेना और तोपखाने में बहुत से अंग्रेज काम करते थे। कलकत्ता के मातहत अंग्रेजो के विद्रोही होने पर भी नवाब ने न तो अंग्रेजों को परास्त करके उनको सभी प्रकार अयोग्य बनाया और न अपनी सेना तथा तोपखाने से अंग्रेजों को ही अलग किया। नवाब की सेना में जो अंग्रेज काम करते थे, वे तो कलकत्ता के अंग्रेजों से मिले हुए थे साथ ही उसकी सेना और दरबार के जाने कितने अधिकारी हिन्दू और मुसलमान अंग्रेजों की रिश्वतों के जाल में फंसे हुए थे। इन कमजोरियों ने नवाब की शक्ति को निर्बल और छिन्न-भिन्न कर दिया था। उसकी भीतरी अवस्था से अंग्रेज पूरी तौर पर परिचित थे, इसलिए नवाब की शक्ति का उनको कुछ भी भय न था। एक बात और भी दुर्भाग्य की नवाब के साथ चल रही थी। उसका कोई साथी न था। मुग़ल-साम्राज्य के खम्भे अपने आप हिल रहे थे। इसलिए अंग्रेजों को उस तरफ का भी कोई भय न था। इस अनुकूल परिस्थिति में अंग्रेज नवाब सिराजुद्दौला को मिटा कर बंगाल में अपनी सत्ता स्थापित करना चाहते थे।
अंग्रेजों के साथ संघर्ष
अंग्रेजों के उत्पातों और विद्रोहों से उबकर नवाब ने उनको परास्त
करने का विचार किया और अपनी सेना लेकर वह 16 जून सन् 1756 ईसवी को कलकत्ता पहुँच गया। अंग्रेजों ने अपनी सेना लेकर नवाब की सेना का सामना किया। दो दिनों तक दोनों और से संघर्ष रहा और अन्त में अंग्रेजों की पराजय हुई। नवाब की सेना ने उसके बाद कलकत्ता में अंग्रेजों की कोठों पर 20 जून को धावा मारा और वहां पर जो अंग्रेज मिले वे कैद कर लिये गये। लेकिन अन्त में नवाब ने उनको छोड़ दिया। 24 जून को नवाब कलकत्ता से अपनी राजधानी के लिए रवाना हुआ और 11 जुलाई सन् 1756 ईसवी को वह मुर्शिदाबाद पहुँच गया।
राजमहल की लड़ाई
कलकत्ता से लौटे हुए नवाब सिराजुद्दौला को अभी तीन महीने ही
बीते थे, वहां के अंग्रेजों ने फिर एक नया उत्पात खड़ा कर दिया।
पूनिया का नवाब शौकत जंग उनके हाथों में था और उन्होंने उसको बड़े बड़े लालच दे रखे थे। उनके उभारने से नवाब शौकत जंग ने सिराजुदौला के साथ युद्ध छेड़ दिया। 16 अक्टूबर सन् 1756 ईसवी को राजमहल नामक स्थान पर दोनों नवाबों की सेनाओं का सामना हुआ।नवाब शौकत जंग की अपनी कोई शक्ति न थी। जिनके उभारने से उसने यह लड़ाई आरम्भ की थी, वे समय पर काम न आये। सिराजुद्दौला के मुकाबले में शौकत जंग की। सेना कमजोर पड़ने लगी और अन्त में उसकी पराजय हुई। शौकत जंग स्वयं उस लड़ाई में मारा गया और उसके स्थान पर युगल सिंह पूर्निया का नवाब बनाया गया।
कलकत्ता से भागे हुए अंग्रेज
20 जून को नवाब की सेना ने जिन अंग्रेजो को कैद किया था,
नवाब ने उनको छोड़ दिया था। वे सभी अंग्रेज कलकत्ता छोड़ कर
भागे और जहाज में बैठ कर बंगाल की खाड़ी के पास फल्ता नामक स्थान पर चले गये। यह स्थान कलकत्ता से 20 मील की दूरी पर हुगली नदी पर बसा हुआ था। वहां पर वे अंग्रेज छः महीने तक ठहरे रहें। फल्ता से इन अंग्रेजों ने मद्रास के अंग्रेजों को लिखा और अपनी सहायता के लिए उन लोगों ने वहां से एक सेना मंगाई। इसके साथ-साथ इन लोगों ने नवाब सिराजुद्दौला के सेनापतियों, दरबारियों और सामन्तों को तोड़ना और अपने साथ मिलाना आरम्भ किया। एक ओर वे नवाब के साथ अनेक प्रकार के षड़यन्त्रों की रचना करते थे और दुसरो और उन्होंने प्रार्थना-पत्र भेज कर नवाब से कलकत्ता जाने की आज्ञा माँगी। नवाब ने उनकी माँग को स्वीकार कर लिया और उनको कलकत्ता चले जाने का आदेश दे दिया।
20 जुन सन् 1756 ईसवी कोकलकत्ता से अंग्रेज निकाले गये
थे। यह समाचार मद्रास के अंग्रेजों को 16 अगस्त को मिला। उनकी सहायता के लिए मद्रास से आठ सौ अंग्रेज और तेरह सौ भारतीय सिपाही सेनापति क्लाइब की अधीनता में भेजे गये। फल्ता पहुँच कर अंग्रेज अधिकारियों ने नवाब के पास पत्र भेजे और उनमें उन्होंने नवाब सिराजुद्दौला को अनेक प्रकार की धमकियां दीं।
नवाब के किलों पर अंग्रेजों अधिकार
कलकत्ता से बाहर कुछ दूरी पर बजबज का एक पुराना और मजबूत किला था और उसके चारों और गहरी खाई थी। राजा मानिकचन्द उस किले का नवाब सिराजुद्दौला की तरफ से अधिकारी था, जिसे अंग्रेजों ने पहले ही मिला लिया था। अंग्रेजी सेना के दो सौ साठ सैनिकों ने उस किले पर आक्रमणा किया। मानिकचन्द के साथ के दो हजार सैनिकों ने उनका मुकाबला किया। थोड़ी सी लडाई के बाद मानिकचन्द अपनी सेना के साथ पीछे हट गया और अंग्रेज सैनिकों ने 26 दिसम्बर को उसमें प्रवेश कर करके अपना अधिकार कर लियाउसके बाद अंग्रेजों ने तान्नाह और कलकत्ता के किलों को भी अपने हाथों में लेकर 3 जनवरी सन् 1757 ईसवी को उन पर उन्होंने अपने झंडे फहराये।
नवाब के किलों के अधिकारियों को तोड़ कर मिला लेने में अंग्रेजों
को बहुत सफलता मिली। अनेक प्रकार के वादों झूठे प्रलोभनों और लालच देकर अंग्रेज अधिकारी किलों के अधिकारियों को मिला लेते थे और जब अंग्रेजों का आक्रमण होता था तो वे एक साधारण लडाई के बाद युद्ध से हट जाते थे। हुगली के किले की दशा तो अन्य किलों से भी आश्चर्यजनक साबित हुई। वहां के किले के अधिकारी ने किले को असुरक्षित छोड दिया और अंग्रेजों ने 11 जनवरी को उस पर अधिकार कर लिया। 12 जनवरी से 18 जनवरी तक पुरे एक सप्ताह अंग्रेजी सैनिकों ने हुगली नगर में लूटमार की।
प्लासी की लड़ाई से पहले अंग्रेजों का सन्धि का षड़यन्त्र
नवाब सिराजुद्दौला की यह निर्बलता और अयोग्यता थी कि उन
विदेशी अंग्रेजों ने जिनकी कोई सत्ता न थी, मदारी बनकर उसे बन्दर की तरह नाचने के लिए विवश कर रखा था। कई एक किलों पर अंग्रेजों के अधिकार हो जाने के समाचार नवाब को मिलें। उसे यह भी मालूम हुआ कि मेरे किलें के अधिकारियों ने मेरे साथ विश्वासघात किया है और अंग्रेजों ने रिश्वतें देकर उनसे यह विश्वासघात कराया है। इन सब बातों के मालुम होने पर भी नवाब ने बिना किसी संघर्ष के अंग्रेजों से निपटारा करने की कोशिश की। राजनीतिज्ञ अंग्रेजों ने इसका लाभ उठाया और अपनी मांगों को पेश करते हुए उन्होंने कुछ शर्तों के साथ सन्धि कर लेना स्वीकार किया। साथ ही सन्धि की बातों का निर्णय करने के लिए उन्होंने सिराजुद्दौला को कलकत्ता बुलाया।
4 फरवरी सन् 1757 ईस्वी को सिराजुद्दौला कलकत्ता पहुँच गया। अंग्रेजों ने आवश्यकता से अधिक आदर देकर नवाब को अमीचन्द के बाग में ठहराया और उस पर आक्रमण करने के लिए वे एक षड़यन्त्र की रचना करने लगे। अंग्रेजों की अनेक शर्तों पर भरी हुईं सन्धि को नवाब ने स्वीकार कर लिया और उसे यह भी स्वीकार करना पड़ा कि मुर्शिदाबाद में अंग्रेजों का एक एलची रहा करेगा। नवाब के विरुद्ध खुले तोर पर विद्रोह करने के लिए अंग्रेज कोशिश कर रहे थे। मुर्शिदाबाद में एलची रखे जाने को शर्ते स्वीकार करवा कर अंग्रेजों ने अपने उद्देश्य की पूर्ति का सीधा रास्ता खोल लिया।
प्लासी के युद्ध से पहले मीरजाफर के साथ निर्णय
सिराजुद्दौला की अयोग्यता और निर्बलता का अंग्रेजों ने बहुत लाभ उठाया। उनका उद्देश्य कुछ और था। वे चाहते थे कि सिराजुद्दौला की नवाबी को मिटाकर उसके स्थान पर ऐसे आदमी को बिठाया जाय जिसमें अंग्रेजों को अपने उद्देश्य के लिए आगे बढ़ने में अधिक सुवीधा मिले। वे असल में उसे नवाब बनाना चाहते थे, जो स्वयं अंग्रेजों की अधीनता में रहकर अपना शासन करे। मीरज़ाफर नवाब की सेनाओं मे प्रधान सेनापति था। उसके साथ अंग्रेजों की साजिश पहले से चल रही थी। उन्होंने मीरजाफ़र को नवाब बनाने का निश्चय किया। ऐसा करने में अंग्रेजों के दो लाभ थे एक तो यह कि मीरजाफर स्वयं नवाब बनने के लिए तैयार था और इसके लिए वह अंग्रेजों की शर्तों को मन्जूर करता था। दूसरी बात यह भी थी कि नवाब सिराजुद्दौला की तरफ से वही सेना लेकर युद्ध के लिए आएगा।
मीरजाफ़र सिराजुद्दौला के नाना अलीवर्दी खाँ का बहनोई था।
अंग्रेजों ने उसके साथ एक गुप्त सन्धि की। उस सन्धि में अंग्रेजों की सभी शर्तों को उसने स्वीकार किया। दोनों ओर से निश्चय हुआ
कि अंग्रेज सिराजुद्दौला के साथ युद्ध करेंगे और मीरजाफर उस युद्ध में अंग्रेजों की सहायता करेगा। सिराजुद्दौला के पराजित होने पर उसके स्थान पर मीरजाफ़र नवाब होगा ओर इसके बदले में वह अंग्रेजों को सभी प्रकार के व्यावस्ताथिक अधिकार प्रदान करेगा। इसके साथ-साथ सिराजुद्दौला से लड़ने में अंग्रेजों का जो व्यय होगा, मीरजाफ़र उसको अदा करेगा।
प्लासी का युद्ध – नवाब सिराजद्दोला के साथ युद्ध
मीरजाफ़र के साथ सन्धि करते के बाद अंग्रेजों ने सिराजुद्दौला
पर आक्रमण करने की तैयारी की। 13 जून सन् 1757 ईसवी को
क्राइव अपनी सेना लेकर कलकत्ता से रवाना हुआ। सिराजुद्दौला’ अपनी सेना के साथ प्लासी नामक स्थान में मौजूद था। यह स्थान मुर्शिदाबाद से 20 मील की दूरी पर था। 23 जून को दोनों ओर की सेनाओं का का सामना हुआ, और प्लासी का युद्ध आरंभ हो गया। नवाब सिराजुद्दौला की सेनाओं में मीरजाफ़र प्रधान सेनापति था। उसके सिवा तीन सेनापति और थे, पैंतालीस हजार सेना मीरजाफ़र, यार लुत्फ़ खाँ और राजा दुर्लभराय के अधिकार में थी। बारह हजार सेना मीरमदन के नेतृत्व में थीं। सिराजुद्दौला की इस विशाल सेना के साथ 43 तोपें भी थीं। अंग्रेजों के साथ कुल मिलाकर बत्तीस सौ सैनिक और 10 तोपें थीं।
प्लासी के मैदान में युद्ध आरम्भ हो गया और कुछ समय के बाद ही सिराजुद्दौला को कुछ दूसरें ही दृश्य दिखाई देने लगे, मीरजाफ़र के साथ-साथ राजा दुर्लभराय और यार लुत्फ खाँ भी अंग्रेजों के हाथ बिक चुके थे। कुछ समय तक युद्ध साधारण रूप से चलता रहा और उसके बाद एकाएक मीरजाफर, दुर्लभराय, तथा यार लुत्फ खाँ अपनी पैंतालीस हजार सेना के साथ अंग्रेजों में जाकर मिल गये। इस समय अंग्रेजी सेना ने जोर के साथ सिराजुद्दौला की बाकी सेना पर आक्रमण किया। सिराजुद्दौला का विस्वासी सेनापति मीरमदन लड़ाई में मारा गया। अब सिराजुद्दौला के साथ कोई सेनापति न रह गया था। मीरजाफर के भयानक विश्वासघात से उसका साहस भंग हो गया। वह अपने हाथी पर बैठा हुआ मुर्शिदाबाद की तरफ भाग गया। युद्ध-क्षेत्र से हटते ही उसकी बाकी सेना इधर-उधर भाग गयी। युद्ध में काइव की विजय हुई। नवाब सिराजुद्दौला को पराजित कर अंग्रेजी सेना मुर्शिदाबाद पहुँची और वहां के खजाने को लुटकर कलकत्ता को अंग्रेजी कमेटी के सामने जो चाँदी के रुपये जमा किये गये उनकी संख्या बहत्तर लाख एकहत्तर हजार छः सौ छायासठ थी। इतना बड़ा खजाना इसके पहले कभी अंग्रेजों को एक साथ लुट में न मिला था। 24 जून को आधी रात के समय सिराजुद्दौला मुर्शिदाबाद के महल से भागा और भगवान गोला के पास मीर कासिम के द्वारा गिरफ्तार कर मुर्शिदाबाद वापस लाया गया। 2 जुलाई सन् 1757 को क्लाइव की आज्ञा से मुहम्मद बेग नामक एक सरदार के द्वारा नवाब सिराजुद्दौला का कत्ल करवा दिया गया। प्लासी के युद्ध में नवाब सिराजुद्दौला की हार और इस परिस्थिति में ओर इन उपायों द्वारा प्लासी के सुप्रसिद्ध मैदान में हिन्दुस्तान के अन्दर पहली बार अंग्रेजी साम्राज्य की नींव रखी गई, और फिर भारत में कोई ऐसी संगठित शक्ति न रही जो अंग्रेजों की देश को बाहर निकालने के समर्थ होती।