प्रणामी सम्प्रदाय के प्रवर्तक, स्थापना, मंदिर और इतिहास Naeem Ahmad, November 13, 2023 जिस प्रकार दादू पंथ राजस्थान का प्रमुख सम्प्रदाय रहा है उसी प्रकार गुजरात में संत सम्प्रदाय के रूप में प्रमुख स्थान प्रणामी सम्प्रदाय को दिया जा सकता है। प्रणामी पंथ के मूल संस्थापक देवचन्द्रजी अथवा निजानन्द जी थे परन्तु इसका व्यापक प्रचार उनके शिष्य स्वामी प्राणनाथ जी ने किया है। इसलिये प्रणामी सम्प्रदाय का मुख्य प्रवर्तक इन्हीं को माना जाता है। प्रणामी सम्प्रदाय का प्रचार सौराष्ट्र, गुजरात के अतिरिक्त पन्ना बुन्देलखण्ड में भी हुआ है। निजानन्द, स्वामी प्राणनाथ के गुरु थे। मूलतः वे मथुरा के निवासी थे परन्तु उनका देहोत्संर्ग जामनगर में हुआ था। जब कि स्वामी प्राणनाथ का जन्म जामनगर में हुआ था। उनके पिता खेमजी यहां के धर्मी जमींदार थे। Contents1 प्रणामी सम्प्रदाय के प्रवर्तक1.1 प्रणामी सम्प्रदाय की शाखाएं2 हमारे यह लेख भी जरुर पढ़े:– प्रणामी सम्प्रदाय के प्रवर्तक प्रणामी सम्प्रदाय को धामी -सम्प्रदाय तथा सौराष्ट्र में खीजड़ा सम्प्रदाय भी कहते हैं। डा० रामकुमार वर्मा के मतानुसार जो शिष्य स्वयं प्राणनाथ जी से दीक्षित हुए और जो जाति-पाँति के भेदभाव को नहीं मानते, वे प्रणामी कहलाते है और प्राणनाथ जी के अनुसार अनुयायी जो जाति-पाँति के भेदभाव मानते हैं वे धामी कहलाते है। खीजड़ा सम्प्रदाय नाम खीजड़ा नामक वृक्ष पर से पड़ा होना चाहिये, इस नाम का वृक्ष जामनगर में स्वामी निजानन्द जी की समाधि के पास है जो प्राणनाथ जी के नाम महाराज ठाकुर पर से पड़ा है। मेराज महाराज का ही अपभ्रंश ज्ञात होता है। प्रणामी सम्प्रदाय विभिन्न जातियों में भेद भाव मिटाकर एकता स्थापित करने का प्रयास तो प्राणनाथ से पूर्व संत कबीरदास तथा उनके समकालीन संतो ने भी किया था, परंतु विभिन्न धर्मो का गहरा अध्ययन कर उनमें से सैद्धान्तिक एकता को दृढ़कर प्रमाणित करने का कार्य स्वामी प्राणनाथ ने किया। ईसाई, यहूदी, पारसी, हिन्दू इत्यादि विभिन्न धर्मो के ग्रन्थों का अध्ययन व अवलोकन कर उन्होंने अपने ज्ञान का बहुत विकास किया था। प्राणनाथ ने बचपन से ही अपने घर का त्याग कर दिया था और साधु महात्माओं के साथ भारत के विभिन्न प्रदेशों में भ्रमण करते रहे। अपने भ्रमण-काल में उन्होंने हिन्दी, संस्कृत, फारसी, अरबी आदि भाषाओं का अध्ययन भी किया तथा भारत में बसे हुए भिन्न-भिन्न धर्मावलम्बीयों के धर्म ग्रंथों का मनन भी किया। भारत के विभिन्न धर्मों के बीच समन्वय स्थापित करने का उनका प्रयत्न प्रसंशनीय है। प्राणनाथ के गुरु और प्रणामी सम्प्रदाय के आदि संस्थापक निजानन्द जी ने भी विभिन्न धर्मो का अध्ययन करने के उद्देश्य से देश में यात्रा की थी। वे भ्रमण वस्तुत: प्रेम-पंथ ही था। प्रेम को उन्होंने परमात्मा का पूरा स्वरूप माना है। मूर्ति पूजा पर वे विश्वास नहीं करते परन्तु इनके अनुयायी माला और तिलक आवश्यक लगाते हैं। इस पंथ के अनुयायियों के लिए मांस मदिरा तथा जातिवाद का निषेध किया गया है। इनके अनुयायी सत्यनामी कहलाते है। ध्यान और नाम स्मरण के द्वारा जो अलौकिक आनन्द की अनुभूति होती है उसी को ये ईश्वर का परम पद अथवा परमधाम मानते हैं। इसी के आधार पर इनके सम्प्रदाय का माम धामी पंथ भी पड़ा। अर्थात् प्रेम भक्ति के द्वारा इस सम्प्रदाय में ईश्वर के परमधाम की प्राप्ति की जाती है। इस सम्प्रदाय में जाति भेद अथवा धर्म भेद को कोई स्थान नहीं है। हिन्दू, मुसलमान तथा ऊंच नीच सभी वर्ग के लोग एक साथ बैठ कर भोजन कर सकते हैं। पन्ना बुन्देलखण्ड में, तथा गुजरात में, जामनगर में प्रतिवर्ष एक बार प्रणामी सम्प्रदाय के मन्दिरों में बड़ा भारी उत्सव मनाया जाता है। उस अवसर पर पंथ के सभी अनुयायी बहुत बड़ी संख्या में एकत्रित होते हैं। इस अवसर पर भजन, कीर्तन, महात्माओं के उपदेश तथा समूह भोजन के कार्यक्रम होते हैं , इस सम्प्रदाय के अनुयाथी नेपाल में भी है। प्राणनाथ एकेश्वरवादी थे। उनके सम्प्रदाय के मुख्य अंग सन्नीति, चरित्र शुद्धि, परोपकार, मानव सेवा, दया इत्यादि हैं। प्रणामी सम्प्रदाय की शाखाएं जैसा कि इसके पूर्व उल्लेख किया जा चुका है गुजरात में इनके दो मुख्य केन्द्र हैं। जामनगर और सूरत। जामनगर के आस-पास के गाँवों में तथा गुजरात भर में प्रणामी पंथ के अनुयायी बहुत बड़ी संख्या में हैं। गुजरात की पाटीदार, कायस्थ, बनिया, राजपूत, भाट, घुनार, दरजी, गोलाराज तथा कोली जातियों में प्रणामी सम्प्रदाय का प्रचार बहुत अधिक हैं। स्वामी प्राणनाथ ने लगभग 24 ग्रन्थों की रचना की है, आकार में अधिकांश ग्रन्थ छोटे-छोटे हैं। इन ग्रन्थों के नाम इस प्रकार हैं:– कलज में शरीफ, प्रकाश ग्रन्थ, कयामता नामा, पट ऋतु, कलस, सम्वन्ध, राम ग्रन्थ, किरतन, खुलास, ब्रह्म दानी, खैलवात, बीस गिरोहों का बाब, प्रकरण इलाही दुल्हन, बीस गिरोहों की हकीकत, सतार सिंगार, प्रेम पहेली, बड़े सिंगार, तारतम्य, सिंधि भाषा, राज विनोद, मारफत सागर, विराट चरितामृत, प्रकट बानी, पदावली। इन ग्रन्थों में से कलज में शरीफ इस पंथ का धर्म ग्रन्थ है, प्रणामी सम्प्रदाय के केन्द्र स्थानों में प्रस्तुत ग्रन्थ की पूजा की जाती है। इसमें विभिन्न धर्म ग्रंथों के साथ तत्व को प्रस्तुत करते हुए एक समनन्वयात्मक मार्ग का निर्देश किया गया है। इन्पीरियल गजेटियर आफ इन्डिया में इसकी एक महातरियाल नामक रचना का उल्लेख है। डा० पीताम्बर दत्त वड़थ्य्वाल ने इसे कलजमें शरीफ़ का ही दुसरा नाम कहा है। कलजमें शरीफ का अर्थ है मोक्ष की धारा। हिन्दी में यह नाम कुलजम स्वरूप हो गया है। इस ग्रन्थ में 14 भाग है, जिनमें से 4 गुजराती है, 10 हिन्दी भाषा में है। कलस की रचना प्राणनाथ जी ने सूरत में अपनी यात्रा के समय की थी। इस रचना की भाषा गुजराती है। कयामतनामा में कुरान, इंजिल तथा तोरैत की तरह संसार के अंतिम दिन का वर्णन किया गया है। और यह सिद्ध करने का प्रयास भी किया गया है कि संसार का अंतिम महापुरुष अथवा उद्धारक हिन्दू होगा। प्राणनाथ जी के ग्रंथों की भाषा मिश्रित भाषा है। उसमें हिन्दी, अरबी, गुजराती, फारसी, सिन्धी आदि विविध भाषी शब्दों का प्रयोग किया गया है। सम्भवतः उन्होंने अपने विभिन्न भाषा भाषी अनुयायियों को अपना मत समझाने के लिए एक सामान्य भाषा के प्रयोग के उद्देश्य से ऐसा किया हो। प्राणनाथ प्रारंभ से कवि नहीं थे, पद्य रचना का अभ्यास उन्हें जीवन की उत्तरावस्था में ही हुआ था। इसलिए काव्य कला की दृष्टि से उनकी रचना उत्कृष्ट कोटि की न हो तो आश्चर्य नहीं, किंतु वे निसंदेह एक उच्च कोटि के विद्वान तथा संत पुरुष थे। विविध धर्म-ग्रंथों के अध्ययन की रुचि तथा उनके लिये तत-तत् भाषा का ज्ञान प्राप्त करना ही उनकी पिपासा एवं विद्वता के प्रमाण है। वे एक कुशल वक्ता भी थे। उनके व्याख्यानों का सभाजनों पर बहुत प्रभाव पड़ता था। इनके प्रसिद्ध शिष्यों मे महाराज छत्रसाल के अतिरिक्त उनके भतीजे पंचम सिंह तथा जीवन मस्ताना भी थे। प्राणनाथ जी का देहावसान सं० 1751 में हुआ था। हमारे यह लेख भी जरुर पढ़े:– तानसेन का जीवन परिचय, गुरु, पिता, पुत्र, दूसरा नाम और शिक्षा संगीत सम्राट तानसेन का नाम सवत्र प्रसिद्ध है। आज से लगभग पांच सौ वर्ष पूर्व भारतीय 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