राष्ट्रीय सम्मान की रक्षा और शोषण से मुक्ति के लिए सन् 1871 मे पेरिस वासियों ने दुनिया के पहले के “सर्वहारा राज्य” की स्थापना की। “पेरिस कम्यून” के नाम से मशहूर इस क्रांति की मात्र 72 दिन की अल्पायु में ही मत्यु हो गयी। पूंजीपतियों की नरभक्षी फौज ने इसे पनपने से पहले ही कुचल दिया। 26 हजार पेरिस वासियों ने क्रांति के इस महायज्ञ में अपने प्राणों का बलिदान दिया। असफलता के बावजूद भी पेरिस कम्यून ने मजदूरों को सिखाया कि व्यावहारिक रूप से क्रांति कैसे की जाती है। कम्यून की असफलता के सागर का मंथन करके ही विश्व कम्युनिज्म के संस्थापक कार्ल मार्क्स ने सर्वहारा की तानाशाही का स्वर्णिम सिद्धांत निकाला, जिस पर चलकर भविष्य की अनेक क्रांतियो को नाकामी के अंधे कुएं मे फिसलने से बचाया जा सका। अपने इस लेख में हम इसी पेरिस कम्यून क्रांति का उल्लेख करेंगे और निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर विस्तार से जानेंगे:—-
- पेरिस कम्यून क्रांति कब हुई थी?
- पेरिस कम्यून किसे कहते हैं?
- पेरिस कम्यून का दूसरा नाम क्या है?
- पेरिस कम्यून के क्या कारण थे?
- कम्यून व्यवस्था किसे कहते हैं?
- पेरिस कम्यून के बारे में जानकारी हिंदी में?
- पेरिस कम्यून इन हिन्दी?
- पेरिस कम्यून की स्थापना कब हुई थी?
- पेरिस कम्यून का गठन कब हुआ पेरिस कम्यून का उद्देश्य क्या था?
- भोजन की कमी और व्यापक बेरोजगारी ने पेरिस की आबादी को सड़कों पर ला खड़ा किया क्यों कम्यून पद्धति का संबंध किससे है?
- पेरिस कम्यून की खोज किसने की?
- पेरिस कम्यून क्रांति के योद्धा कौन थे?
पेरिस कम्यून के कारण
सन् 1850 के बाद सारे यूरोप में औद्योगिक क्रांति अपने लंबें-लंबें डग भरती हुई तेजगति से आगे बढ़ रही थी। इसी के साथ-साथ कारखानों में काम करने वाले असंख्य मजदूर स्पष्टत एक अदम्य शक्ति के रूप में उभरते हुए दृष्टिगोचर हाने लगे थे। दार्शनिक ओर सिद्धांतवेत्ता इसी सर्वहारा वर्ग का समाज की धुरी में स्थित परिवर्तनकारी शक्ति मानकर अध्ययन मनन में लगे हुए थे। पूंजीवादी शोषण के खिलाफ ब्रिटेन, फ्रांस औरजर्मनी मे मजदूरों के आदोलन पूरे उफान पर थे। कार्ल मार्क्स ओर फ्रेड्रिक्स एंगल्स ने “कम्युनिस्ट घोषणा पत्र” की रचना करके लंदन में सन् 1864 में पहला अंतर्राष्ट्रीय मजदूर संघ गठित कर लिया था। इस इटरनेशनल की पहली कांग्रेसग सन् 1866 में जिनेवा में हुई। इस सब के बावजूद सैद्धांतिक रूप से पुष्ट कम्युनिस्ट विचारों ओर लक्ष्यों का अभी व्यावहारिक कसौटी पर कसा जाना बाकी था। सन् 1871 में पेरिस में स्थापित हुए पहले समाजवादी राज्य ने मार्क्स तथा एगल्स को अपने सिद्धांतों की सफलता-असफलता काविश्लेषण करने के लिए समुचित निष्कर्ष प्रदान किया। मार्क्स ने पेरिस कम्यून की नाकामयाबी से सर्वहारा का अधिनायकत्व जैसे सिद्धांत को खोज निकाला। दरअसल, पेरिस कम्यून के नाम से मशहूर सन् 1871 की जनक्रांति ने युरोपीय मजदूर वर्ग को न केवल क्रांति करना सिखाया बल्कि क्रांति की रक्षा करने की दिशा मे भी निर्णायक मार्ग दर्शन प्रदान किया।
पेरिस कम्यून क्रांतिफ्रांस और प्रशियाके बीच चल रहे युद्ध के अंत ने पूरे फ्रांस के देशभक्तों की आत्माओं पर बुरी तरह चोट की थी। यह लडाई प्रशा के शासक बिस्मार्क की जर्मनी का एकीकरण करने की महत्त्वाकांक्षा की देन थी, फांस की पराजय के बाद हुई संधि के कारण जर्मन फौजों को पेरिस से होकर विजय मार्च करना था। पेरिस की जनता भला इसे कैसे बर्दाश्त करती? सन् 1789 से जिन पेरिस वासियों ने लगातार कई क्रांतियों में भाग लेकर खुद को युरोप भर के क्रान्तिकारियों का अगुआ बना लिया था, उनके सामने अब राष्टीय सम्मान की रक्षा करने की महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारी आ गयी थी।
युद्ध की पूरी अवधि के दौरान फ्रांसीसी हमेशा दो भागो में बटे रहे। एक हिस्सा प्रशा के साथ शांति चाहता था, भले ही वह कैसी भी अपमानजनक शर्तो पर क्यों न हो। दूसरा हिस्सा युद्ध चाहता था और गणराज्य की स्थापना की माग करता था। फरवरी 1871 में युद्ध खत्म होने के बाद हुए पहले चुनाव में 600 प्रतिनिधि चुने गये। इनमें 400 ऐसे थे, जो शांति चाहते थे और 200 ऐसे जो गणराज्य के समर्थक थे, और मरते दम तक लडना चाहते थे। इन प्रतिनिधियों की राष्ट्रीय असेंबली ने अपनी पहली बैठक में एडाल्फ धिएर (Adolf Thiers) को सरकार का अध्यक्ष चुना।
बौने कद का थिएर गिरगिट की तरह रंग बदलने में माहिर, अत्यंत वाक्पटु ओर फ्रांस के पूंजीपति वर्ग का पक्का प्रतिनिधि था। 26 फरवरी को असेंबली ने प्रशा के साथ शांति-संधि कर ली, जिसकी शर्तें काफी कडी ओर सीधे-सीधे राष्ट्रीय सम्मान को आहत करने वाली थी, प्रशा के सामने हथियार डालने के बावजूद पेरिस के नेशनल गार्डो ने अपनी तोप अपने पास ही रखी थी। जर्मन सैनिकों की हिम्मत नही हुई कि वे पेरिस में घुस सके। उन्होने पेरिस के एक छोटे से कोने मे अपने कदम जमाये। खास बात यह थी कि जिस फौज ने फ्रांसीसी साम्राज्य को डरा दिया था वह पेरिस के मजदूरों से बने नेशनल गार्डो से उलझने की हिम्मत नही दिखा पा रही थी।
पेरिस कम्यून क्रांति के बारे में
मजदूर की यह ताकत और धाक देखकर सरकार के अध्यक्ष थिएर को लगा कि उन्हे जैसे भी हो निहत्था कर देना चाहिए वरना वे कभी भी मौका लगने पर पूंजीपति वर्ग पर भी हमला बोल सकत है। 18 मार्च को थिएर ने राष्टीय गार्डो से उसका तोपखाना छीनने के लिए नियमित सेना की दो टुकडियां भेजी। इस पर पेरिस ने प्रतिरोध किया। थिएर के दो जनरल मारे गये। वह अपनी सरकार के साथ वर्साई (Versailles) भाग गया और उसने वही राष्ट्रीय असेंबली की बैठक बुलायी। 18 मार्च को हुई इस कारवाई के वक्त थिएर का अंदाज यह था कि प्रशा की फौजें उसका साथ देगी पर बिस्मार्क के इशारे पर ऐसा नही हुआ वर्साई आकर थिएर ने परिस के साथ संधि का बहाना किया और हमला करने के लिए अपनी सेना जमा करनी शुरू कर दी।
26 मार्च को पेरिस में मजदृरों का कम्यून यानी उनकी सरकार निर्वाचित हुई और 28 मार्च को नगर के टाउन हॉल में उसकी विधिवत घोषणा हुई। अभी तक सरकार चलाने वाली राष्ट्रीय गार्ड की केन्द्रीय समिति ने पेरिस की बदनाम पूलिस को भंग कर दिया
और कम्यून को इस्तीफा सौंप दिया। कम्यून ने राष्ट्रीय गार्ड को एकमात्र सशस्त्र सेना घोषित किया। 30 मार्च को कम्यून ने “अनिवार्य भर्ती” जैसे अलोकप्रिय कानून को उन्मूलन कर दिया।
कार्ल मार्क्स ने पेरिस कम्यून की स्थापना के बाद उठाये गये कदमों का वर्णन इस प्रकार किया है कम्यून ने अक्तुबर 1870 से अप्रैल, 1871 तक का सभी मकानों का किराया माफ कर दिया। इस अवधि का जो किराया दिया जा चुका था उसे आगे के लिए पेशगी मान लिया गया तथा नगर पालिका ऋण-कार्यालय में गिरवी रखी वस्तुओं की ब्रिक्री बंद कर दी गयी। उसी दिन कम्यून में निर्वाचित विदशिया के पदों की पुष्टि की गयी क्योंकि कम्यून का परचम विश्व-जनतंत्र का परचम है, एक अप्रैल को तय किया गया कि कम्यून के किसी भी कर्मचारी का और कम्यून के सदस्यों को भी वतन 6000 फ्रैंक से अधिक नही होगा। अगले दिन कम्यून ने चर्च को राज्य से पृथक करने की आज्ञाप्ति जारी की। धार्मिक कार्यो के लिए सभी राजकीय भुगतान बंद कर दिये गये। चर्च की सारी संपत्ति राष्ट्रीय संपत्ति घोषित कर दी गयी। परिणामस्वरूप 8 अप्रैल को विद्यालयों से सभी प्रकार के धार्मिक प्रतीकों, चित्रों और उपदेशों तथा प्रार्थनाओं संक्षेप में, उन सभी चीजों को हटा देने का आदेश जारी किया गया, और क्रमश उस पर अमल किया गया जो व्यक्ति के अतः करण का क्षेत्र है। 6 तारीख को राष्ट्रीय गार्ड की 137वीं बटालियन ने मृत्यु दंड में प्रयोग आने वाले यंत्र गलाटिन को बाहर निकालकर उसे सार्वजनिक हर्षोल्लास के साथ बड़े धूमधाम से जला दिया।
12 तारीख को कम्यून ने निर्णय किया कि प्लास वादाम के विजय स्तंभ को जो 1809 के युद्ध के बाद नेपोलियन बोनापार्ट द्वारा लडाई में जीती गयी तोपों को गलाकर बनाया गया था, गिरा दिया जाये क्योंकि वह अंध राष्ट्रीयता और दूसरे देशों के प्रति बेर तथा द्वेश भावना को भड़काने का प्रतीक था। 16 मई को यह कार्य संपन्न किया गया। 16 अप्रैल को ही कम्यून ने कारखानों के मालिकों द्वारा बंद किया गया कारखानों के सांख्यिकीय सारणीयन के लिए और उन्ही मजदूरों द्वारा, जो पहले उनमें काम करते थे उन्हें फिर से चालू करने की योजना बनाने के लिए, उन्हें सहकारी संघ में संगठित करने और इन सहकारी-संघो को एक बहुत बडी यूनियन में संयुक्त करने की योजना बनाने के लिए हुक्म जारी किये। 20 अप्रैल को उसने नॉनबाइया के लिए रात के काम की मनाही कर दी। रोजगार कार्यालयों को भी बंद कर दिया गया। ये कार्यालय द्वितीय साम्राज्य के समय में पुलिस द्वारा नियुक्त श्रम के प्रथम कोटि के शाषक दलालों की इजारेदारी के रूप में चलाये जा रह थे। इन्हें अब पेरिस के 20 जिलों की नगरपालिका व्यवस्था में सम्मिलित कर दिया गया। 30 अप्रैल को कम्यून ने गिरवी गांठ की दुकानों को इस कारण बंद करने के आदेश दिये क्योंकि वे निजी लाभ के लिए मजदूर का शोषण करती थी और श्रमिकों के ऋण प्राप्त करने के अधिकार के प्रतिकूल थी। 5 मई को कम्यून ने प्रायश्चित-गिरजे को गिरा देने का आदेश दिया, जो लूईस 16वें का सिर काटने के लिए प्रायश्चित करने के स्मारक के रूप में बनवाया गया था।
इस तरह 18 मार्च के बाद पेरिस अदालत का वर्ग-स्वरूप, जो पहले विपक्षी हमलावरों के खिलाफ युद्ध की वजह से पृष्ठभूमि में दबा हुआ था, खुलकर और उग्र रूप में प्रकट हो गया। चूंकि कम्यून में लगभग केवल मजदूर अथवा मजदूरों के प्रतिष्ठित प्रतिनिधि बैठते थे इसलिए उनके फैसलों का स्वरूप निश्चित रूप से सवहारा हितों के अनुकूल था। इन फैसलों ने या तो ऐसे सुधारों की घोषणा की जिन्हें जनतंत्रवादी पूंजीपतियो ने मात्र कार्यरता की वजह से पास नही किया था। दरअसल ये सुधार मजदूर वर्ग के स्वतंत्र क्रिया कलापों के लिए आवश्यक सुधार प्रस्तुत करत थे। उदाहरणार्थ इन सिद्धांतों के अमल का जहां तक राज्य का सबंध है, धर्म पूर्णत एक व्यक्तिगत प्रश्न है। इसके अतिरिक्त कम्यून ने ऐसी आज्ञापप्तियां जारी की जो सीधे मजदूर वर्ग के हित में थी। और जो कुछ सीमा तक पुरानी सामाजिक व्यवस्था की जड़ों पर गहरी चोट पहुंचाती थी। उस समय पूरा नगर शत्रु से घिरा हुआ था, ऐसे समय में अधिक से अधिक इन चीज़ों को अमल में लाने की शुरआत ही की जा सकी। मई के प्रारंभ से ही कम्यून की सारी शक्ति वर्साई सरकार की सेना से जिसकी संख्या नित्य बढ़ती जा रही थी युद्ध करने में लग गयी।
अब कम्यून गार्डो के सामने दुनिया के पहले क्रांतिकारी ‘राज्य की रचना की चुनौती थी। थिएर की सेना ने पेरिस पर आक्रमण कर दिया था। कम्यून गार्डो ने भाडे के सैनिकों और तरह तरह के प्रतिक्रियावादी तत्त्वों द्वारा बनायी गयी वर्साई की इस सना के साय अत्यंत वीरतापूर्वक युद्ध किया। 7 अप्रैल को सेनाओं ने पेरिस के पश्चिमी मोर्चे पर नदी के पास सोन नदी के दोनो तरफ वाले रास्तों पर कब्जा कर लिया। लेकिन कम्यून गार्डो ने उसे पीछे धकेल दिया। फिर पेरिस पर वर्साई की तोप गोले बरसाने लगी। प्रशा ने कुछ यद्ध बंदी रिहा कर दिये ताकि वे थिएर की फौजों को ताकत दे सके। 8 मई को दक्षिणी मोर्चे पर मूल-साके के दुर्ग पर थिएर का कब्जा हो गया। 9 मई को फोर्ट इस्सी उसके हाथ आ गया। अब थिएर की फौजा की पदचाप पेरिस की सफीलों तक सुनायी देन लगी। 21 मई को सैनिकों ने पेरिस में प्रवेश किया। प्रशा की फौजों ने जो नगर के एक हिस्से पर काबिज थी, वर्साई की फौजों को अपने बीच में से चुपचाप मार्च कर जाने दिया। यह सहयोग उस मौन सहमति का प्रतीक था जो युरोप के पूंजीपति और सामंत वर्ग के बीच विश्व के पहु मजदूर राज्य को कुचलने के लिए हो गयी थी।
पर जैसे-जैसे फौज पेरिस के मजदूर वाले इनाके में पहुंची उनका प्रतिरोध और कडा होता गया। एक एक इंच आगे बढ़ने के लिए फौजों को मजदूरों की चट्टानी दीवारो से जूझना पडा। कम्यूनाई पूरे आठ दिन तक बेमिसाल बहादुरी के साथ लडे। खूनी हफ्ते के नाम से मशहूर यह अवधि जब खत्म हुई तो 26 हजार पेरिसवासी मजदुरों के प्रथम गणराज्य की बलिवेदी पर अपनी बलि चढ़ा चूके थे। वर्साई की फौजों ने प्रतिरोध टूटने केबाद मजदूरों पर अत्याचार किये। सारी दुनिया के पूंजीपतियों ने खुशी के दीपक जलाये आखिर क्यो न जलाते? उन्हानें क्रांति की पहली कोशिश को कुचल जो दिया था, पर उनकी यह प्रसन्नता ज्यादा दिनों तक टिकने वाली नहीं थी क्योंकि सन् 1871 में पेरिस कम्यून में सुलगी चिंगारी सन् 1917 में एक आग के शोलों में बदल जाने वाली थी और आग की इन लपटों से सोवियत अक्तूबर-क्रांति का जन्म होने वाला था
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