पृथ्वीराज चौहान, चौहान वंश के सूर्य जिन्होंने अपनी वीरता व पौरुष के बल पर अजमेर सेदिल्ली तक विजय-पताका को फहराया। कहा जाता है कि चौहान अग्निवंशीय क्षत्रिय है, जिनकी उत्पत्ति राक्षसों को नष्ट करने के लिये वशिष्ठ॒ जी के अग्निकुण्ड से हुई थी।
महाराजा पृथ्वीराज चौहान के पिता का नाम सोमेश्वर था। महाराजा सोमेश्वर अपने समय के बड़े प्रतापी राजाओं में से थे। उनकी राजधानी अजमेर थी। उनकी वीरता से प्रसन्न होकर दिल्ली के राजा अनंगपाल ने अपनी कन्या कमलावती का विवाह उनके साथ किया। इन्हीं महारानी कमलावती के गर्भ से वीर केशरी महाराज पृथ्वीराज चौहान का जन्म हुआ।
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पृथ्वीराज चौहान के वीरता और साहस की कहानी
पृथ्वीराज चौहान को बचपन में कोई पुस्तकीय शिक्षा नहीं दी गई । यह वीरता का युग था। अतः शारीरिक शिक्षा पर विशेष बल दिया गया। उन्हें घुड़सवारी, धनुष विद्या, शस्त्र संचालन और युद्ध विद्या में निपुण किया गया। वे चतुर और वीर थे। फलस्वरूप 13 वर्ष की अल्प अवस्था में ही यद्ध-विद्या के पंडित बन गये। शब्द भेदी वार मारने में तो वे अद्वितीय थे, भाला चलाने में भी उनका कोई सानी न था।
कहावत प्रसिद्ध है कि “होनहार विरवान के होत चीकने पात।
बाल्यावस्था में ही उनकी वीरता चमक रही थी। उन्होंने पिता के राज्य कार्यो में भाग लेना प्रारम्भ कर दिया। उन्होंने 16-17 वर्ष की अवस्था में ही युद्ध में कई बहादुरों के दांत खट्टे कर दिये थे। सभी राजा लोग उनकी वीरता से प्रभावित थे। उनका आकर्षक व्यक्तित्व था। पृथ्वीराज चौहान राजगद्दी पर बैठे। गद्दी पर बैठते ही उन्होंने गजनी के बादशाह मोहम्मद गोरी के घमंड को चूर कर किया। गोरी किसी बहाने से भारत का धन लूटना चाहता था तथा इस्लाम का प्रचार करना भी।
मुहम्मद गौरी अपनी विशाल सेना के साथ अपने स्वप्न को साकार
करने के लिये रवाना हुआ। इधर पृथ्वीराज को खबर मिलते ही
अपने वीर सामन्तों को एकत्रित किया तथा युद्ध सम्बन्धी विषयों पर परामर्श किया। इसमें निश्चय किया गया कि गोरी को यहां तक आने का अवसर न दिया जाये वरन् सीमा पर ही रोक लिया जाये। उधर यह खबर कि पृथ्वीराज चौहान अपनी वीर सेना के साथ सीमा पर ही रोक के लिये आ रहा है तो उसने जल्दी जल्दी चलना प्रारम्भ किया। सारूण्डा नामक स्थान पर दोनों सेनाओं का भीषण मुकाबला हुआ। गोरी का सेनापति तातर खां था। इधर पृथ्वीराज चौहान के वीर सेनापति चामुण्डराय थे। यवन सेना को भारी क्षति पहुंची। उनके वीर सेनापति भी युद्ध में मारे गये। स्थिति इतनी विकट और निर्बल हो गई कि सेना के पैर उखड़ गये और वह भाग खड़ी हुई। गोरी ने सैनिकों को जोश दिलाया और युद्ध के लिए रोका-प्रयत्न निष्फल रहा। पृथ्वीराज भयंकर मारकाट मचाते हुये अपने शिकार के पास पहुंच गये। गोरी ने युद्ध किया लेकिन पकड़ लिया गया।

गोरी पृथ्वीराज की राजधानी में पांच दिन तक रहा। इस अवधि में सुल्तान का बहुत मान-सम्मान किया और अपने पास रखा। छठे दिन जब गोरी ने प्रतिज्ञा की कि अब वह कभी आक्रमण करने का इरादा भी न करेगा तो उसे मुक्त कर दिया गया। यह थी पृथ्वीराज चौहान की विशालता और महान पराक्रम का परिचय।
मोहम्मद गौरी के मन में पृथ्वीराज चौहान से बदला लेने की भावना प्रबल थी। वह इसी अवसर की तलाश में था कि कोई बहाना मात्र मिल जाय तो पराजय और अपमान का बदला लिया जा सके। वह हमेशा बेचैन व अप्रसन्न रहता था। पृथ्वीराज ने गौरी को कई बार युद्ध में पराजित किया। परन्तु गौरी अपनी प्रतिज्ञा पर कभी भी दृढ़ न रहा। इधर राजा जयचन्द की पुत्री संयोगिता पृथ्वीराज से बहुत प्रेम करती थी जब कि जयचन्द दुश्मनी। समय पड़ने पर पृथ्वीराज ने अपनी प्रेमिका संयोगिता का स्वयंवर से अपहरण किया, वह बहुत प्रसन्न थी, उसकी हार्दिक अभिलाषा पूर्ण हुई। परन्तु जयचन्द क्रोध से भरा था, वह पृथ्वीराज से बदला लेना चाहता था।
जयचन्द कन्नौज का राजा था। उसके पास भी काफी सैन्य संगठन व शक्ति संचित थी। वह जैसे तैसे पृथ्वीराज चौहान से बदला लेना चाहता था। उसका क्रोध चरम सीमा पर था। इस प्रकार पृथ्वीराज चौहान के शत्रु देश के अन्दर और बाहर दोनों ओर ही हो गये। जयचन्द के पास इतनी शक्ति नहीं थी कि वह अकेला पृथ्वीराज का मुकाबला कर सके तथा युद्ध में हरा सके। अतः उसने कुटनीति से कार्य लिया। और पृथ्वीराज के शत्रु गौरी से सांठ-गांठ की। वह जानता था कि उससे मिलकर लड़ने में सफलता मिल सकती है। आवेश में व बदले की भावना से उसने गोरी को भारतवर्ष पर आक्रमण करने के लिए आमन्त्रित किया। और लिखित रूप में वचन दिया कि “मैं आपकी पूरी सहायता करूगां।” जब गोरी को यह पत्र मिला उसकी खुशी का कोई ठिकाना न रहा। उसका स्वप्न आज साकार हो उठा, पत्र को बार बार पढ़ा। उसे पूरा विश्वास हो गया कि शक्तिशाली जयचन्द की मदद से उसकी सफलता निश्चित है। युद्ध की तैयारियां वह पहले ही कर रहा था। इस पत्र के मिलते ही तैयारियों के कार्य अधिक वेग और उत्साह के साथ होने लगे।
मुहम्मद गौरी ने एक विशाल सेना का संगठन किया और भारत को कूच किया। गौरी के मित्र जयचन्द ने स्वागत किया और अपनी सशक्त सेना को भी साथ कर दिया। भीषण युद्ध की तैयारियां थीं। इधर पृथ्वीराज अपनी नव-पत्नि संयोगिता के प्रेम-पाश में पड़े हुए महलों में आनन्द ले रहे थे। परन्तु आंखें खुलते ही यद्ध की भयंकर तैयारी प्रारम्भ की और शीघ्र ही गौरी का मुकाबला करने के लिए चल पड़े। उधर गौरी की सेना भी प्रबल वेग से आ रही थी। दोनों सेनायें तराइन के मैदान में आ डटीं । दोनों सेनाओं में भीषण मुठभेड़ हुई। पृथ्वीराज चौहान की सैनिक तैयारी कम थी। उधर गौरी और जयचन्द ने संयुक्त मोर्चा तैयार किया था। इतना होने पर भी पृथ्वीराज अपनी सेना के साथ भूखे बाघ की भांति दुश्मन की सेना पर टूट पड़े। शत्रु की प्रबल सेना के वेग को कब तक रोका जाता। बार बार हारने पर भी गौरी ने सैनिक तैयारी की, जयचन्द से मित्रता का हाथ बढ़ाया और विशाल सैनिक संगठन तैयार किया था।
“घर का भेदी लंका ढहावे” वाली उक्ति सत्य चरितार्थ हुई।
जयचन्द ने पृथ्वीराज चौहान का सारा रहस्य खोल दिया। युद्ध में पृथ्वीराज पराजित हुए तथा पकड़ लिये गये। कैदी के रूप में पृथ्वीराज को गजनी ले जाया गया। पृथ्वीराज रासो के रचयिता चंद वरदाई पृथ्वीराज को अपना स्वामी और मित्र समझते थे। उनको जब ये समाचार मालूम हुए तो बहुत दुःख हुआ और विपत्ति की ओर अवस्था में वे स्वयं भी गजनी पहुंचे। वहां अपने स्वामी की स्थिति देखकर अत्यन्त दुःखी हुए परन्तु सच है-वीर मनुष्य आपत्तियों से घबराते नहीं वरन् विवेक और शक्ति से काम लेकर उस पर विजय प्राप्त करते हैं।
पृथ्वीराज चौहान की मृत्यु कैसे हुई
पृथ्वीराज चौहान बचपन से ही शब्द भेदी बाण चलाने में चतुर थे।
चन्द बरदाई ने अन्तिम समय में इस कला से लाभ उठाने की तरकीब सूझी। उन्होंने अपने वाक-चातुर्य से गजनी के सम्राट गौरी को अपनी ओर आकर्षित कर लिया और दरबार में अच्छा स्थान भी प्राप्त कर लिया। एक दिन उन्होंने गौरी से कहा “जहांपनाह, पृथ्वीराज शब्द भेंदी बाण चलाने में बड़े चतुर है। यदि आज्ञा हो तो उनसे अपनी कला का प्रदर्शन करने के लिए निवेदन करू।” गौरी को भी इस कला को देखने की उत्सुकता पैदा हुई। उन्होंने इसके लिए आज्ञा भी दे दी। कवि चन्द बरदाई मन ही मन बहुत प्रसन्न हुआ क्योंकि गौरी से बदला लेने का सुअवसर आसानी से प्राप्त हो गया।
कवि चन्द बरदाई, पृथ्वीराज चौहान के पास आया और सारी बातें समझाई तथा अवसर को नहीं चूकने का आग्रह भी किया पृथ्वीराज इस योजना से सहमत हो गए। यथा समय राजदरबार में सब लोग प्रदर्शन देखने हेतु उपस्थित हुए। पृथ्वीराज चौहान को एक धनुष बाण दे दिया गया। जब सब तैयारियां हो गई तो चन्द बरदाई कवि ने निम्न कविता पढ़ी–
एही बाण चौहान ! राम रावण उत्थयो ।
एही बाण चौहान ! करण सिर अर्जुन कट्ठयो ॥
एही बाण चौहान ! शम्भु त्रिपुरासुर सध्यो ।
एही बाण चौहान ! अमर लछमन कर बंध्यो ।॥
सो ही बाण आज तो कर चढ़यो चन्द विरद सच्चो सवै ।
चौहान राज संगर धनी मत चूके मोटे तवै ।।
चार बांस चौबीस गज अंगुल भ्रष्ट प्रमाण।
एते पर सुलतान है मत चूके चौहान ॥।
इतना कहकर चन्द बरदाई कवि ने गौरी से कहा जहांपनाह, पृथ्वीराज आपके बन्दी है, अतः बाण चलाने की आज्ञा दीजिए।” आज्ञा के शब्द सुनते ही ऐसा बाण मारा कि बेचारे गोरी का सिर घड़ से अलग हो गया। दोनों ने (पृथ्वीराज और कविचन्द ) ने उसी समय आत्म हत्या कर ली। और इस प्रकार पृथ्वीराज चौहान की मृत्यु हो गई।
पृथ्वीराज भारतवर्ष के वीर, उत्साही एवं उदार हिन्दू सम्राट थे। जिन्होंने अपनी वीरता से सारे भारत में धाक जमा रखी थी। वे एक कुशल शासक, योग्य सेनापति थे। यदि उनमें विलासिता न
होती और हमारे देश में जयचंद जैसे कुल-कलंक न होते तो हिन्दू
साम्राज्य का अन्त न होता। विदेशियों के भारत में पैर न जम पाते,
बल्कि उनको उल्टे पांव अपने स्थान दौड़ना पड़ता, इतिहास का रूप बदल जाता।
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