हमारा देश पुनर्जन्म मे विश्वास करता है, इसीलिए हम प्रार्थना करते है कि इस जन्म मे जो माता-पिता हमे प्राप्त हुए है वे अगले जन्म मे भी प्राप्त हो। इसी को पितृ पूजा कहते हैं। कितने सात्विक और उदार विचार है ये कि चाहे जैसे भी माता-पिता रहे हो, हम उन्ही को अगले जन्म मे भी पाने अथवा उन्हे मोक्ष दिलाने की कामना करते है।आदिवासियों मे गोदना की परंपरा है जिसका तात्पर्य है कि उन्हे अगले जन्म में भी वही पति प्राप्त हो। इसी कारण भारतीय धर्म मे मृतक की पूजा भी शुभ मानी जाती है और इसके लिए वर्ष मे क्वार माह का प्रथम पक्ष पितृ-पूजा के लिए निर्धारित है। जिस तिथि को किसी प्राणी की मृत्यु हो जाती है, उसी तिथि को प्रति वर्ष पितृ पक्ष मे पिण्डदान की प्राचीन परंपरा है।
पितृ पूजा का महत्व
पितृ पूजा में पुत्र अपने पितरों के लिए जौ, तिल, चावल, जल का दान करता है। उस तिथि अथवा पूरे पक्ष तक दाढी-बाल नहीं बनवाता। पितृ-विसर्जन के दिन ब्राह्मण को भोजन कराता है किन्तु जब वह अपने पितरों को निकाली करके गया पहुचा देता है तो ये क्रियाएं प्राय नही करता। माना जाता है कि उसके पितृगण देवलोक पहुंच कर मोक्ष प्राप्त कर चुके है। पितृ-पक्ष पर गया में भारी भीड एकत्र होती है। पितृ-भक्तगण वहा पहुंच कर पितरों के नाम पर पिण्डदान करते, दान-दक्षिणा करते और बाल मुडवा कर शुद्ध होते है। पितृ पूजा अपने पितरों को याद करने का एक त्यौहार है।

भोजपुरी भाषी जनपदों मे काशी, मिर्जापुर (शिवपुर) मे यह परंपरा अधिक मान्य है। ऐसा माना जाता है कि श्री रामचन्द्र जी ने पिता दशरथ की मृत्यु का समाचार सुनकर काशी और प्रयाग के बीच विंध्याचल के समीप रामगया घाट पर (गंगा जी के किनारे) पिण्डदान किया था। तभी से आज तक पितृपक्ष में यहां भारी भीड एकत्र होती है। लोगो का विश्वास है कि बिनारामगया में पिण्डदान किये, सीधे गया मे पितृगण पिण्डदान स्वीकार नहीं करते।
पितृ पूजा की परंपरा बहुत पुरानी है। यह इसी से स्पष्ट है कि राजा दशरथ की मृत्यु होने पर भगवान शाम ने रामगया अथवा गया मे पारंपरिक रूप से पिण्डदान किया था। एक उल्लेख के अनुसार भारत भर मे ऐसे इक्यावन तीर्थ हैं जहा पिण्डदान किया जाता है। ये तीर्थ भारत, बंगला देश तथा पाकिस्तान के नगरों, ग्रामो, नदियों के तटों, समुद्र के किनारों तथा पर्वत के शिखरों पर बने हुए है तथा आज भी गया, प्रयाग, काशी, कुरुक्षेत्र, नर्मदा, श्रीपर्वत, प्रभास, शालिग्राम तीर्थ (गण्डकी) एव बद्रीनाथ मे कोटि-कोटि भारतीय श्रद्धापूर्वक पितरों का श्राद्ध, पूजन तथा उनके निमित्त दान करते है। इस पितृ पूजा का व्यक्तिगत, धार्मिक, सामाजिक विशेष महत्व तो है ही, इससे राष्ट्रीय सदाचार की नीव भी सुदृढ होती है।
पितृ पूजा वैदिकी है। उपनिषदों, पुराणों तथा प्राचीन धर्मग्रथों, काव्यों मे भी इसका महत्व बताया गया है। ऐसी मान्यता है कि धर्मयुक्त सदाचरण में रहने तथा कार्य करने वालों को यमराज सुख के देश मे ले जाते है, इसके विपरीत आचरण करने वालों को पुन. कर्मफल भोगना पडता है और उनका पुनर्जन्म होता है। मृत पितरों को सम्बोधित करके कहा गया है-
“सगच्छत्वापितृमि सयमेनेष्टापूर्ते न परमेव्योमन ।
हित्वापावय पुनरस्तमेष्ठि सगच्छत्वतन्वा सुवर्चा ।।
प्रत्येक मनुष्य पर देव, ऋषि पितृ ऋण होते है। प्रत्येक मानव का उनसे मुक्त होना अनिवार्य है। एतदर्थ हमारे यहां अनुष्ठानों का विधान है तथा माना जाता है कि यज्ञों द्वारा देवऋण, अध्यापन से ऋषिऋण तथा श्राद्ध तर्पण से पितृऋण से मुक्ति मिलती है। इसीलिए सन्ध्या वन्दन के साथ ही पितृ तर्पण भी नित्य करना चाहिए। शुभ कार्यों मे भी इनका श्राद्ध एव तर्पण किया जाता है। माता-पिता के मृत होने पर ‘गरुण पुराण’ सुनने का विधान है। “गरूणपुराण” में लिखा है कि पुत्रो द्वारा श्राद्ध में विधिपूर्वक प्रदत्त नाना प्रकार के भक्ष्य या भोज्य व्यजन पितरों को प्राप्त है:-
“व्यजनानि विचित्राणि भक्ष्य भोज्यानियानिच।
विविधा ददते पुत्रै पित्रे तदुपतिष्ठति।।