पानी के जहाज का आविष्कार नाव को देखकर हुआ, बल्कि यह नाव का ही एक विशाल रूप है। नाव का आविष्कार कैसे हुआ इस सम्बन्ध में देखें तो यह निश्चित है कि पहिए के आविष्कार से बहुत पहले जब मनुष्य ने खेती करना और पशुओं को पालना आरम्भ किया होगा, उससे भी बहुत पहले ही उसने नाव बनाना आरम्भ किया होगा। पहिए की तरह नाव का आविष्कार भी सर्वप्रथम किसी आदिम पुरुष ने ही किया होगा। संभव है कोई आदिम मनुष्य पानी मे अचानक गिर गया होगा। पानी की सतह से किनारे पर आने के लिए उसने हाथ-पैर मारे होगे। इसके लिए उसने पानी में बहती किसी पेंड की डाल कासहारा लिया होगा। तब उसने सबसे पहले अनुभव किया होगा कि लकडी के सहारे पानी की सतह पर एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाया जा सकता है।
विश्व की पहली नाव के रूप में संभवतः लकडी के लट्ठे का अथवा
लकडी के सपाट पट्टे का उपयोग किया गया होगा। धीरे-धीरे लकडी के लट्ठे को खोखला कर उसमे बैठने का स्थान बनाने की कल्पना उसके दिमाग में आयी होगी ओर इस प्रकार विश्व की पहली नोका का आविष्कार मनुष्य ने किया होगा। अफ्रीका तथा अमेरिका के दक्षिणी क्षेत्रो में आज भी डोगी किस्म की प्राचीन नौकाएं देखी जा सकती है।
ऐसा माना जाता है कि लगभग 40000 वर्ष ईसा पूर्व नौका निर्माण का कार्य आरम्भ हुआ। 7600 ईसा पूर्व से नाव मे मस्तूल और पालो तथा पतवारो का भी उपयोग होने लगा था। आज से लगभग 4000-3500 ईसा पूर्व रचित माने जाने वाले ग्रंथ ‘रामायण’ मे कई जगह नाव का उल्लेख है जो मस्तूल, पाल और पतवार से युक्त थी। अतः यह कहा जा सकता है कि ‘रामायण’ काल में सैकड़ों वर्ष पूर्व एक पाल वाली आधुनिक नौका भारत में नाव का प्रचलन रहा होगा। ऐसा माना जाता है कि खुले समुंद्र मे नौकायन का आरम्भ मिस्र वासियो ने किया। शुरुआत मे नौकायन नील, दजला, फरात या अन्य नदियों तक ही सीमित रहा होगा। भारत, मिस्र, यूनान तथा रोम के प्राचीन ग्रंथो मे (आज से लगभग 5000 वर्ष पूर्व) समुद्री यात्राओं का वर्णन भी मिलता है। लकडी की बडी -बडी नावों और पानी के जहाज में बैठकर लोगो ने दूसरे देशो की यात्राएं कर व्यापारिक, धार्मिक और राजनीतिक सम्बंध स्थापित किए।
समुद्र-यात्रा के दौरान होने वाले नित नये अनुभवों से मनुष्य नावों और जहाज़ों में आवश्यक सुधार करता रहा। इसके साथ ही लम्बी यात्राओ के लिए बडे-बडे ओर भारी जहाजों का निर्माण होने लगा। नावों को छोटी-मोटी यात्राओं और मछली पकड़ने कै लिए प्रयुक्त किया जाने लगा क्योंकि नावें समुद्र की विशाल लहरों के थपेडों को सहन न कर पाती थी। फिर भी नदियों के लिए नावों का महत्त्व उतना ही था।

सबसे पहले फ्रांस के एक होनहार व्यक्ति डेनिस पपिन ने भाप की शक्ति से एक पानी के जहाज को चलाने का प्रयास किया। वह इसमें सफल रहा, परंतु मल्लाहा ने अपनी रोजी-रोटी छूट जाने के भय से भाप चालित इस पानी के जहाज का विरोध किया तब तक नाव और जहाज चप्पुओ से ही चलाए जाते थे। मल्लाओ ने डेनिस पेपिन को मारा-पीटा भी यहां तक कि उसे वहां से चले जाना पडा। कुछ समय बाद ही उसका निधन हो गया। इसके कुछ साला बाद अमेरिका, फ्रांस, स्कॉटलैंड और इंग्लैंड आदि देशों के वेज्ञानिकों ने भाप से चलने वाले कुछ पानी के जहाजों का निर्माण किया। सबसे पहले हेनरी बेल नामक वैज्ञानिक ने एक भाप चालित पानी का जहाज तैयार किया जो यात्रियों के लिए था। उसक द्वारा बनाया गया पहला स्टीमबोट ‘कॉमेट’ ब्रिटिश द्वीपसमूहों के मध्य चलने वाला पहला स्टीम बोट था।
पानी के जहाज का विकास
ईसा से लगभग 3500 वर्ष पूर्व से जब मस्तूला, पातो और चप्पुओं का इस्तेमाल शुरू हुआ तो नाव की जगह बड़े-बड़े जहाज बनाने की और मनुष्य का ध्यान गया। परंतु जहाजों का आकार तथा यात्रा की दूरी के हिसाब से उनकी क्षमता सीमित थी। जहाज को चलाने के लिए गुलामों को लगाया जाता था। हीरोडोटस के लेखों से पता चलता है कि फिनीशियन लोगो ने बडे जहाजो का निर्माण कर पूरे अफ्रीका महाद्वीप का चक्कर अनेक बार लगाया। फिनीशियनो ने 600 ईसा पूर्व भारत के लिए भी समुंद्री-मार्ग तय किए थे। फिनीशियनो द्वारा निर्मित पानी के जहाजो के ढांचे काफी मजबूत लकडी के बने होते थे ओर आपस मे उनके भाग मजबूती से जुडे होते थे। इन जहाजो मे पालो को छोटा-बडा करने की अच्छी व्यवस्था रहती थी।
रोम और कार्थेज में आपस में शत्रुता के कारण युद्ध में उपयोग आने वाले पानी के जहाजो का निर्माण कार्य तेजी से हुआ। एक युद्धपोत में लगभग 200-250 तक आदमी रहते थे। इसके अलावा रोमनों ने भारी मालवाही पानी के जहाजों का भी निर्माण किया। मध्य युग में जलयान निर्माण कला की धीमी गति के बावजूद नार्वे के वाईकिंग लोगों ने मजबूत किस्म के छोटे जहाजों का बडी संख्या में निर्माण किया। ऐसे ही जहाजों पर वे दुनिया की खाज में निकले थे ओर उन्होंने बडी लम्बी-लम्बी यात्राएं की।
मिस्र वासियो ने भी बडे पालदार पानी के जहाजों का निर्माण
किया। वे जहाजों में देवदार की लकडी का इस्तेमाल करते थे। इनके जहाजों में पाल स्थिर रहते थे। सत्रहवीं और अठारहवी शताब्दियों में पालदार जहाजों का आकार और गति काफी बढ गयी थी। भाप से चालित जहाज के प्रयास सेकडो वर्षो पहले आरम्भ हुए थे। सन् 1583 में वार्सीलोना में एक व्यक्ति ब्लास्को द गार ने एक ऐसा ही जहाज बनाने का प्रयास किया था।पेंसिलवेनिया के विलियम हेनरी नाक नामक अमेरिकी युवक ने जेम्स वाट का इंजन देखा था। उसके आधार पर उसने सन् 1770 में भाप से चलने वाले छोटे पानी के जहाज का मांडल बनाया पर वह अपने प्रयास मे सफल न हो सका।
एक स्कॉटिश मैकेनिक विलियम साइमिग्टन ने सबसे पहले एक छोटे पानी के जहाज को भाप-शक्ति से चलाया था। 1788 में विलियम साइमिग्टन ने अपने दो साथियों पेटिक मिलर और टेलर के साथ मिलकर एक बडी स्टीम-बोट का निर्माण आरम्भ किया। चौदह साल की कडी मेहनत के बाद 1802 में साइमिग्टन अपना पहला सफल व्यापारिक पानी का जहाज प्रदर्शित कर सका जिसका नाम था- चार्लोटी डुडास।
अमेरिका के जॉन फिच ने 1787 में स्टीम से चलने वाला पहला सफल छोटा पानी का जहाज निर्मित किया। एक अन्य अमेरिकी इंजीनियर रॉबट फुल्टन ने ‘बलेरमोट’ नामक पैडल स्टीम-जहाज का निर्माण किया जो 5 मील प्रति घंटे की रफ्तार से चल सकता था, लेकिन चेन और पेडल सिस्टम से चलने वाले इन जहाजों में कई समस्याए थी। गहरे समुद्र की विशाल लहरों के थपेडों के आगे पेडल और चेन सिस्टम गडबडा जाता था।
जॉन एरिक्सन नामक एक स्वीडिश-अमेरिकी इंजीनियर ने एक स्क्रू प्रोपेलर पानी के जहाज का निर्माण कर इस समस्या को सुलझाने की दिशा में पहला कदम उठाया। 1839 में उसने स्क्रू प्रोपेलर सिस्टम वाला एक पानी का जहाज निर्मित किया जो शांत और उत्तेजित समुंद्र में एक समान कार्य कर सकता था। ब्रिटिश युवक इंजीनियर आइसेम्बार्ड ब्रुनेल ने 1845 में ग्रेट ब्रिटेन नामक स्क्रू प्रोपेलर पानी के जहाज का निर्माण किया, जिससे अटलांटिक महासागर को पार किया गया।
लोहे के पानी के जहाज का निर्माण
अठारहवीं शताब्दी में लोगो का ध्यान लोहे के जहाजों का निर्माण की ओर गया, क्योंकि लकडी से बने हुए पानी के जहाज कम टिकाऊ और महंगे होते थे। लकडी की मोटी-भारी दीवारों की अपेक्षा लोहे की पतली दोवारों से बने जहाज अपेक्षाकृत ज्यादा मजबूत, टिकाऊ हो सकते थे।
ब्रुनेल ने सात सौ फुट लम्बे और सत्ताइस हजार पांच सौ टन भारी ग्रेट इस्टन नामक एक बडे पानी के जहाज का निर्माण किया इसमें पांच चिमनियों वाले इजनों के दो सेट लगाए गए। आवश्यकता पडने पर छह मस्तूलो पर पालो का भी प्रबंध किया गया, परन्तु इस जहाज में यात्रा के दौरान विस्फोट हो गया। ब्रुनेल को इसका बहुत दुख हुआ और वह कुछ दिनो बाद चल बसा।
लोहे का स्थान शीघ्र ही इस्पात ने ले लिया जो लोहे से ज्यादा टिकाऊ और जंग न लगने वाली धातु थी। सन् 1863 में इस्पात का पहला पानी का जहाज निर्मित हुआ और दस वर्ष के भीतर ही इस्पात ने पूरी तरह लोहे की जगह ले ली क्योंकि वेसमर नामक एक अंग्रेंज ने इस्पात-निर्माण का एक बहुत ही सस्ता तरीका ढूंढ़ निकाला था। चार्ल्स पारसन्स नामक ब्रिटिश इंजीनियर ने भाप टरबाइन इंजन का प्रयोग पानी के जहाज में किया। उसने विक्टोरियान नामक जहाज में टरबाइन इंजन को लगाकर जहाज की गति में काफी सुधार किया। जर्मन आविष्कारक रूडाल्फ डीजल के डीजल इंजन को परिष्कृत और बड़ा रूप देकर जहाज में उपयोग के लिए तैयार किया गया और 1911 में पहले मरीन डीजल जहाज का आविष्कार हुआ। यह इंजन एक इंटरनल कम्यश्चन इंजन था और कच्चे तेल से चलता था।
वर्तमान में पानी के जहाजों को चलाने के लिए जो सबसे विकसित प्रणाली का विकास हुआ है, वह है परमाणु शक्ति परंतु इस विधि से चलने वाले जहाज बहुत ही कम बन पाए है अमेरिका और रूस आदि देशो में परमाणु-शक्ति चालित पानी के जहाज है। उन्नीसवीं शताब्दी में पानी के जहाज और युद्धपोत-निर्माण में जर्मनी और इंग्लैंड ने न बडी प्रगति की। इस समय तो अमेरिका रूस, फ्रांस, आदि देशों का जहाजी बेडा बहुत विशाल है। जहाजो पर सिनेमा हाल, बैठक, सोने, भोजनालय, रेस्तरा, खेल के मैदान, ड्रांइग रूम, बेडरूम, बाथरूम आदि सभी सुविधाए उपलब्ध होती है। जहाजों का आकार भी अब इतना विशाल हो गया है कि हजारों यात्री सभी आरामदेह सुविधाओ के साथ यात्रा कर सकते है।
सन् 1919 में भारत मे सिंधिया जहाज कंपनी की स्थापना हुई। सिंधिया जहाज कंपनी ने सन् 1941 में विशाखापटनम में पानी के जहाज निर्माण का विशाल कारखाना खोला। इस कारखाने में निर्मित पहला जहाज था-‘जल-उपा’। कुछ वर्ष बाद भारत सरकार ने इस कारखाने को अपने अधीन कर लिया। अब तक इस कारखाने में 60 से अधिक जहाज बनाए जा चुके है। दूसरा कारखाना बम्बई में मझगांव मे है, तीसरा कोचीन में। कलकत्ता के कारखाने में जंगी जहाज तैयार होते है।
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