पानीपत का प्रथम युद्ध भारत के युद्धों में बहुत प्रसिद्ध माना जाता है। उन दिनों में इब्राहीम लोदीदिल्ली का शासक था। उसे पराजित करके बाबर ने पानीपत के युद्ध में जो गौरव प्राप्त किया, उसने भारत में मुग़ल शासन की नींव डाली थी, जो कई शताब्दियों तक किसी के उखाड़े उखड़ न सकी। पानीपत का पहला युद्ध इसलिए और भी प्रसिद्ध हुआ कि उसके बाद से भारतीय राजनीति में एक महान परिवर्तन हुआ। इसके पहले जिन विदेशी जातियों के आक्रमण हुए थे, वे केवल इस देश को लूटने के उद्देश्य से यहाँ तक पहुँचे। उनके आक्रमण हुए, लूट-मार के भयानक दृश्य उपस्थित हुए, नर-संहार हुआ, मन्दिर और तीर्थ स्थान नष्ट किये गये और उसके बाद वे आक्रमणकारी लूट-मार कर और यहाँ की सम्पत्ति को अपने साथ लेकर वापस चले गये। इसी उदेश्य को लेकर भारत में बाहरी आक्रमण ईसा से कई सौ वर्ष पहले आरम्भ हुए थे और पानीपत का प्रथम युद्ध तक उनका सिलसिला बराबर जारी रहा। इसके पश्चात उनका अन्त हुआ और एक महान परिवर्तन के साथ भारत का शासन आरम्भ हुआ। इसलिए पानीपत का प्रथम युद्ध को एक बड़ी श्रेष्ठता दी गई है। पानीपत का प्रथम युद्ध जीत कर बाबर ने दिल्ली में अपना अधिकार किया था। इसलिए यहाँ पर साफ-साफ यह जान लेने की आवश्यकता है कि बाबर के आक्रमण के पहले दिल्ली के राज्य की कया अवस्था थी और उसकी पराजय के कारण क्या हुए।
दिल्ली राज्य की बढ़ती हुई कमजोरी
तैमूर लंग ने सन् 1398 ईसवी में दिल्ली पर आक्रमण किया था।
सुलतान सिकन्दर ने कश्मीर में सन् 1394 से लेकर 1416 ईस्वी तक राज्य किया। उसने तैमूर लंग को भारत में बुलाने के लिए अपना एक दूत समरकंद भेजा था।तैमूर लंग के हमले का उल्लेख हम अपने पिछले लेख मेवाड़ का युद्ध में कर चुके है। उसके आने के पहले ही दिल्ली का राज्य कमजोर पड़ गया था। तुग़लक वंश के अन्तिम सुलतान शासन में निकम्मे और अयोग्य हो चुके थे। उनकी विलासिता ने उनको इस योग्य नहीं रखा था कि वे आक्रमणकारी के साथ युद्ध करके अपने राज्य की रक्षा कर सकते। तैमूरलंग के दिल्ली में पहुँचते ही उसका शासक सुलतान महमूद द्वितीय अपनी सेना को लेकर दिल्ली से भाग गया था और दिल्ली में प्रवेश करने के लिए उसने तैमूर के सामने द्वार खोल दिया था।
तैमूर लंग भारत में राज्य करने नहीं आया था। दिल्ली में लूट-मार
करके वह वापस चला गया और जब महमूद को उसके चले जाने की खबर मिली तो वह लौट कर फिर दिल्ली आ गया और सिंहासन पर बैठ कर फिर राज्य करने लगा।महमूद के शासन काल में दिल्ली का राज्य बहुत निर्बल हो गया था। राज्य के बहुत से हिस्से अलग होकर स्वतंत्र हो गये थे। महमूद उनको अपनी अधीनता में रख न सका। उसका जितना राज्य बाकी रह था, उसमें भी उसका प्रभाव नष्ट हो गया था, शासन की निर्बलता में प्रजा की अशिष्टता स्वाभाविक होती है। दिल्ली की लूट का धन तैमूर लंग के साथ समरकंद पहुँच गया था। उसके श्रत्याचारों से प्रजा बर्बाद हो गयी थी। खेतों की फसल खराब हो जाने के कारण राज्य में दुर्भिक्ष फेल रहा था।
तैमूरलंग के आक्रमण का प्रभाव
तैमूर लंग दिल्ली और उसके आस-पास लुटमार करके समरकंद
वापस चला गया था, फिर भी उसके आक्रमण के कई एक प्रभाव दिल्ली के राज्य पर पड़े। लौटने के पहले तैमूरलंग ने पंजाब में सैयद खिज्र खाँ नामक एक सूबेदार को मुलतान का राज्य देकर पंजाब में छोड़ दिया था। उसने दिल्ली राज्य की अव्यवस्था’ देखकर आक्रमण किया और वहाँ पर अधिकार कर लिया। उसके बाद वहाँ पर सैयद वंश वालों का शासन आरम्भ हुआ। तैमूर लंग के आक्रमण का सब से बड़ा प्रभाव यही था।
सैयद वंशजों ने सन् 1414 ईसवी से लेकर 1451 ईसवी तक
दिल्लीं में शासन किया | खिज्र खाँ को मिलाकर उस वंश में पाँच सुलतान हुए। खिज्र खाँ का स्वभाव सींधा, नम्र और दयालु था।अपने इन्हीं गुणों के कारण राज्य के कई स्थानों में विद्रोहों को दमन करने में उसे सफलता मिलीं थी। सन् 1421 ईसवी में सैय्यद खिज्र खां मृत्यु हो गयी थी।
सैयद वंश का अन्तिम सुलतान आलमशाह अत्यन्त अयोग्य और
कायर साबित हुआ। शान्ति भौर विलासिता उसे बहुत प्रिय थी और जीवन की इन्हीं दोनों बातों ने शासन में उसे अयोग्य बना दिया था। उसका परिणाम यह हुआ कि पंजाब के सूबेदार बहलोल लोदी ने उससे दिल्ली का राज्य छीन लिया और वह स्वयं वहां का शासक बन गया। यहीं से दिल्ली लोदी वंश के शासन का आरम्भ हुआ। बहलोल लोदी ने सन् 1451 से लेकर 1488 ईसवी तक बड़ी बुद्धिमानी के साथ दिल्ली में शासन किया। प्रारम्भ में ही जौनपुर के शर्की सुलतान महमूद ने दिल्ली पर हमला किया, लेकिन युद्ध में उसकी भयानक पराजय हुई और उसका फल यह हुआ कि दूसरे राज्य जो दिल्ली पर आक्रमण की बात सोच रहे थे, वे भयभीत होकर चुप ही रहे। बाद में बहलोल लोदी ने एक बड़ी फौज लेकर जौनपूर के राज्य पर हमला किया उसके सुलतान ने घबराकर अधीनता स्वीकार कर ली। लेकिन
बहलोल लोदी ने उसकी प्रार्थना को स्वीकार नहीं किया परंतु जौनपूर के राज्य पर अपना कब्जा कर लिया। उसने अपने शासन-काल में बड़ी उन्नति की।
लोदी वंश का अन्तिम सुलतान इब्राहीम लोदी सन् 1518 ईसवी में दिल्ली की गद्दी पर बैठा। यह स्वभाव का अभिमानी और क्रूर था। उसके उदंड स्वभाव से राज्य के मन्त्री और सरदार बहुत असंतुष्ट रहने लगे, थोड़े ही दिनों में चारों तरफ असंतोष फैलने लगा। उसके व्यवहार की कठोरता से कोई प्रसन्न न रहा। एक तरफ से लेकर राज्य में सर्वत्र लोग उसको बुराई करने लगे और सब के सब उसके अशुभचितक बन गये। इब्राहीम लोदी के अस॒ह्य व्यवहारों से ऊब कर राज्य के बड़े-बड़े अधिकारी चाहने लगे कि जैसे भी हो, इसका राज्य समाप्त हो और कोई भी दूसरा आकर यहाँ पर शासन करे। इब्राहीम के कठोर शासन के कारण यह दुरवस्था यहाँ तक बढ़ी कि उसके चाचा अलाउद्दीन और पंजाब के सुबेदार दौलत खां ने काबुल के बादशाह बाबर को बुलाने के लिए उसके पास अपने दूत भेजे।
मुग़ल राज्य का संस्थापक बाबर कौन था
तैमूर लंग ने काशगर से लेकर ईजियन सागर तक अपने राज्य का विस्तार कर लिया था। जितने देशों को जीत कर उसने अपना राज्य कायम किया था, वे सब उसकी जिन्दगी तक ही ठहर सके। सन् 1405 ईसवीं में तैमूर लंग की मृत्यु हुई। उसी समय से उसके राज्य का पतन होना आरंभ हो गया और कुछ ही दिनों में उसके वंशजों में केवल खुरासान अर्थातउत्तरी ईरान आमूसीर प्रदेश, काबुल और गज़नी के राज्य रह गये। हरात खुरासान की राजधानी थी। आमूसीर प्रदेश में तीन छोटे-छोटे राज्य शामिल थे। इन तीनों राज्यों में एक था समरकन्द, दूसरा था हरात बदरुशाँ और तीसरा फ़रगना का राज्य था। फ़रगना की राजधानी अन्दिज़ान में थी ।
फ़रगना-राज्य में उमर शेख का शासन था। सन् 1483 ईसवी में
उसके एक लडका पैदा हुआ, उसका नाम बाबर रखा गया, जो दुनिया के इतिहास में प्रसिद्ध हुआ। फ़रगना उसी मध्य एशिया का एक छोटा-सा राज्य था, जिसकी अनेक जातियों ने आकर भारत में आक्रमण किये थे और बहुत समय तक भारतीय राज्यों का विध्वंस किया था।
बाबर का प्रारम्भिक जीवन
अपनी छोटी अवस्था में बाबर ने शिक्षा पायी थी और उसने तुर्की
और परशियन दोनों भाषाओं में अच्छी योग्यता प्राप्त कर ली थी। उसके जीवन की तैयारी का बहुत-कुछ काम उसके वंश की एक सुयोग्य स्त्री ने किया था। बाबर ने स्वयं इस बात को स्वीकार किया है कि मेरी शिक्षा और योग्यता का बहुत कुछ श्रेय मेरे परिवार की एक स्त्री को है और वह मेरी दादी थी उसकी दादी अत्यन्त समझदार थी। जीवन के अनेक सुन्दर गुणों ने उसे श्रेष्ठता प्रदान की थी, वह स्त्री परिश्रम करना और कठिनाइयों का सामना करना जानती थी। उसके स्वभाव में अद्भुत नेत्र था। वह सदा बड़ी दूरदर्शिता से काम लेती थी। बाबर ने अपनी दादी के इन गुणों को स्वीकार किया है और अपनी अनेक अच्छाइयों का जिक्र करके उसने मनजूर किया है कि अगर दादी से मुझे जीवन के ये गुण न मिले होते तो पता नहीं, में क्या होता।
बाबर ने अपने प्रारम्भिक जीवन में भीषण कठिनाइयों का सामना
किया था। उसकी कठिनाइयों में ही उसके जीवन की रचना हुई थी। उसके जीवन-चरित्र में उपन्यासों की भाँति भयानक घटनायें भरी हुई हैं। उसके सम्बन्ध में यह कहना अनुचित नहीं है कि उसका समस्त जीवन कठिनाइयों में रहा। विपदाओं ने उसके जीवन में अपूर्व साहस उत्पन्न किया था। वह कभी घबराना न जानता था। बादशाह बाबर में अनेक अदभुत गुण थे। वह अच्छी पुस्तकों के पढ़ने का शौकीन था। भयानक कठिनाइयों के समय भी साहस से काम लेने में वह सदा प्रसन्न होता था। किसी भी समस्या के निर्णय करने में उसको देर न लगती थी। आदमी को पहचानना वह खूब जानता था। इन सम्पूर्ण बातों के साथ-साथ उसमें एक गुणा और था। अपने विचारों को शुद्ध और स्पष्ट भाषा में प्रकट करने का उसे बहुत अच्छा अभ्यास था।
लड़कपन से ही बाबर शासन करना जानता था। उसके विचार
ऊँचे थे और विजय की अभिलाषाओं ने उसे अदभुत शक्तियाँ प्रदान की थीं। वह एक अच्छा विजेता था, शासक था, लेकिन दयावान था। उसे न्याय बहुत प्रिय था। प्राकृतिक दृश्यों के देखने का वह बड़ा शौकीन था। लड़कपन से ही वह तलवार चलाने में निपुण था। घोड़े का वह अच्छा सवार था।
जीवन के संघर्षों का सामना
जिस समय बाबर की अवस्था ग्यारह वर्ष की थी, उसके पिता
उमरशेख को मृत्यु हो गयी। पिता के मरने के बाद, उस अबोध बालक पर उत्तरदायित्व का जो बोझ आया, उसके योग्य वह न था फिर भी उसे अपने राज्य की देख-रेख का कार्य आरम्भ कर देना पडा।इस छोटी सी आयु में उसका कोई संरक्षक न था। उसे अपने बल के भरोसे पर खड़ा होना पड़ा। उसके चाचा और परिवार के दूसरे लोगों ने बाबर की इस विवशता का लाभ उठाना चाहा वे लोग समझते थे कि बाबर अभी कुछ समझने के योग्य नहीं है।इसलिए वे उसके राज्य का लाभ उठाना चाहते थे। लेकिन बाबर ने उनको ऐसा करने का मौका नहीं दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि परिवार के लोगों के साथ उसकी शत्रुता पैदा हो गयी।
बाबर ने इन संकटों की कुछ भी परवाह न की इससे शत्रुता में
वृद्धि होने लगी और भयानक संघर्षों का जन्म हुआ। वंश के लोगों ने लड़कर उसकी रियासत छीन लेने की कोशिश की परन्तु बाबर को इससे कुछ भी घबराहट न हुई। अपनी रियासत की रक्षा करने के लिए उसे कई बार लड़ने के लिए मैदानों में जाना पड़ा। उन मौकों पर उसकी दादी अहसान दौलत बेगम ने उसका साथ दिया, जिससे बाबर की जीत हुई। अपने साहस के बल पर बाबर ने समरकंद और फ़रगना के राज्यों पर अधिकार करने की कोशिश की। अपनी छोटी सी सेना को लेकर उसने जरफ़्शाँ नदी के किनारे उजव्क सरदार मोहम्मद शैबानी के साथ युद्ध किया। इस लड़ाई में बाबर की बुरी तरह पराजय हुई। युद्ध के मैदान से अपने आदमियों के साथ बाबर हार कर भागा। मुहम्मद शैबानी के अत्याचारों से बाबर अत्यन्त भयभीत हो गया था। अपने राज्य को छोड़ कर वह काबुल की तरफ रवाना हुआ। एक बड़ा रास्ता-पार कर जिस समय बाबर बदख्शां पहुँचा था, उसी समय उसे खबर मिली कि मोहम्मद शेबानी अपती फौज के साथ इसी तरफ आ रहा है। इस समाचार से बदंख्शाँ में बड़ी घबराहट पैदा हो आयी। शैबानी के डर से बंदखशां के बहुत से आदमी अपना घर द्वार
छोड़कर बाबर के साथ वहाँ से भागे। उसकी सेना में पहाड़ों के रहने वाले जंगली सैनिक थे। बाबर ने बदख्शां से निकल कर सींधा काबुल का रास्ता पकड़ लिया।
हमारे इस लेख में हम निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर जानेंगे—
पानीपत का प्रथम युद्ध पानीपत में ही क्यों हुआ? पानीपत का प्रथम युद्ध के परिणाम? पानीपत के प्रथम युद्ध के कारण? पानीपत का प्रथम युद्ध कब हुआ? पानीपत के प्रथम युद्ध में कौन विजयी हुआ?
मध्य एशिया में बाबर की पराजय
काबुल में बाबर के चाचा का राज्य था। सन् 1501 ईस्वी में
उसके चाचा की काबुल में मृत्यु हो गयी थी। कन्धार में उन दिनों
चंगेज़ खाँ के वंशजों का शासन चल रहा था। बाबर के चाचा के मर जाने पर मंगोल जाति के लोगों ने काबुल पर कब्जा कर लिया था और उसके बाद अब तक वहाँ पर उन्हीं का राज्य चल रहा था। अपनी सेना के साथ बाबर बदख्शाँ से रवाना हो चुका था और उसके साथ अब वहाँ के बहुत-से आदमी शामिल हो चुके थे। उन सब की सेना बनाकर बाबर हिन्दू कुश पार करने के बाद काबुल में पहुँचा और वहाँ के अधिकारी मंगोलों पर उसने हमला कर दिया। बिना किसी तरह की तैयारी के मंगोल कुछ समय तक बाबर के साथ लड़ते रहे और अन्त में उनकी पराजय हुई | सन् 1504 ईसवी में बाबर ने काबुल पर अपना अधिकार कर लिया।
काबुल के सिंहासन पर बैठकर भी बाबर को शान्ति न मिली।
उसका ध्यान फ़रगना की तरफ लगा था। पूर्वजों के राज्य पर उज़्बेक लोगों का शासन बाबर को अधीर बना रहा था। उसने मोहम्मद शैबानी के साथ युद्ध करके फ़रगना जीत लेने को बात कई बार सोची, लेकिन उसका साहस काम न कर सका। इधर उज्बग सरदार मोहम्मद शैबानी का प्रभुत्व बराबर बढ़ रहा था। उसने आमू के नीचे कॉठे ख्वारीज्म को जीतकर अपने अधिकार में कर लिया था। उसके बाद अराल और बदखशाँ के मध्य में सीर और आमू के समस्त राज्यों को जीतने के बाद उसने सन् 1507 ईसवीं तक खुरासान पर भी अपना कब्जा कर लिया था।
उज्बग लोगों के इस राज्य विस्तार से तैमूर के वंशजों का मध्य
एशिया से अस्तित्व समाप्त हो रहा था। केवल एक काबुल में बाबर राज्य करता हुआ दिखायी दे रहा था। खुरासान पर अधिकार कर लेने के बाद मोहम्मद शैबानी कन्धार की तरफ रवाना हुआ। उसके आने की खबर काबुल में बाबर को मिली। वह भयभीत हो उठा और काबुल से भागकर बाबर जलालाबाद पहुँच गया। लेकिन जब बाबर को मालूम हुआ कि मोहम्मद शैबानी काबुल नहीं गया तो जलालाबाद से लौटकर वह फिर काबुल पहुँच गया और बदख्शाँ में उसने सन् 1509 ईसवी में अपना राज्य कायम कर लिया।
इन्हीं दिनों में ईरान के शाह इस्माइल के साथ उज्बग सरदार
मोहम्मद शैबानी का युद्ध आरम्भ हुआ उसमें मोहम्मद शैबानी की
पराजय हुई और हार कर भागते हुए सन् 1510 ईसवी में मोहम्मद शैबानी की मृत्यु हो गयी। इसी अवसर पर बाबर ईरान के शाह इस्माइल से मिला और उसकी ओर से उसने समरकन्द में अधिकार कर लिया। समरकन्द का राज्याधिकार बाबर को मिले हुए अभी दो वर्ष भी नहीं बीते थे कि उज्बग लोगों ने संगठित होकर आक्रमण किया। उसमें बाबर की फिर हार हुईं और आक्रमराकारियों ने बदख्शाँ की पश्चिमी सीमा तक सम्पूर्ण राज्य अपने अधिकार में कर लिया। इसके बाद समरकन्द में पराजित होकर सन् 1513 ईसवी में बाबर काबुल चला आया और उसके बाद उसने मध्य एशिया की तरफ से अपना मुंह मोड़ लिया।
पानीपत का प्रथम युद्धपंजाब में बाबर के आक्रमण
मध्य एशिया से बाबर निराश हो चुका था। अरब तक उसे कहीं
पर भी सफलता न मिली थी। इसलिए काबुल में लौटकर उसने अपनी शक्तियों को विस्तार देता आरम्भ किया। सब से पहले उसने अपना काबुल का राज्य मजबूत किया। फौज में सैनिकों की संख्या की वृद्धि की। रणकौशल के नये-नये तरीकों का अभ्यास किया। युद्ध के नवीन अस्त्र-शत्र निर्माण कराये और अपनी सेना के सैनिकों को युद्ध-कला की नयी-नयी बातों के अभ्यास कराये। इसमें बाबर ने पूरे पाँच वर्ष व्यतीत किये ।
काबुल के राज्य को शक्तिशाली बनाकर और एक अच्छी सेना
को अपने अधिकार में लेकर बाबर सन् 1519 ईसवी में भारत की
ओर रवाना हुआ। रास्ते में बाजौर पर उसने हमला किया। यहाँ
के निवासी सीधे-सादे आदमी थे और उनके लड़ने के हथियार पुराने तरीके के थे। बाजौर में बाबर को अधिक युद्ध नहीं करना पड़ा। नये हथियारों के अभाव में बाजौर वालों की पराजय हुई और बाबर ने वहाँ पर अधिकार कर लिया। उसी रास्ते पर आगे बढ़कर बाबर ने स्वात पार करने के बाद बुनैर पर हमला किया और सहज ही वहाँ पर भी उसने अपना कब्जा कर लिया। वहाँ से चलकर वह सिंधु नदी को पार करते हुए नमक की पहाड़ियों की तरफ बढ़ा और झेलम नदी के दाहिने किनारे पर जाकर भीरा नामक स्थान पर भी कब्जा कर लिया।
अपनी विजय के साथ बाबर आगे बढ़ता गया। रास्ते में गक्कर
सरदारों के साथ उसे कई स्थानों पर लड़ाइयाँ करनी पड़ीं। गक्कर
लोग युद्ध में बड़े बहादुर थे और भयानक रूप से तीरों की वर्षा
करते थे। लेकिन बाबर की सेना के सामने उनको पराजित होना
पड़ा। गक्कर सरदारों को जीतकर जैसे ही बाबर आगे बढ़ा, गक्करों ने मुस्लिम-राज्य के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। वे किसी प्रकार मुसलमानों का राज्य अपने यहाँ स्वीकार करने के लिए तैयार न थे। उनके विद्रोह को दबाने के लिए बाबर को फिर पीछे की तरफ अपनी सेना के साथ लौटना पड़ा और दूसरी बार आकर पंजाब में स्यालकोट तक पहुँच गया। बाबर तैमूर लंग का वंशज था। वह पंजाब के कई एक स्थानों पर कब्जा कर चुका था और तैमूर का वंशज होने के कारण वह उसके जीते हुए स्थानों पर भी अधिकार करता चाहता था। स्यालकोट से लौटकर बाबर काबुल चला गया। उसके जाते ही भारतीयों ने उसके जीते हुए स्थानों पर फिर से अपना अधिकार कर लिया और भारत में बाबर की विजय का कुछ भी अस्तित्व बाकी नहीं रखा।
भारत में बाबर के आगे बढ़ने के कारण
काबुल से चलकर बाबर ने पंजाब के कई स्थानों पर आक्रमण
किया और उनको जीतकर वह जैसे ही काबुल वापस गया, हिन्दुस्तानियों ने उन स्थानों पर फिर कब्जा कर लिया और बाबर के अधिकारों को मिटा दिया। अब इसके बाद देखना है कि इस दशा में, भारत में बाबर के आगे बढ़ने के कारण क्या हुए? अभी तक उसने पंजाब के जिन स्थानों पर अधिकार किया था, उनको वह सुरक्षित न रख सका था। इसलिए उसकी यह जीत कोई बड़ा महत्व नहीं रखती थी। मध्य एशिया से वह निराश हो चुका था। कई बार कोशिश करने के बाद भी अपने पूर्वजों के मुख्य राज्यों पर वह अधिकार न कर सका था। अपने जन्म स्थान फ़रगना के साथ-साथ वह तैमूर की राजधानी समरकन्द को भी खो चुका था। काबल को छोड़कर कहीं पर रह सकने का उसे अवसर नहीं मिला था।
बाबर के जीवन का सुरक्षित काल सन् 1518 ईसवी के साथ आरम्भ हुआ। इसी वर्ष दिल्ली के सिंहासन पर इब्राहीम लोदी बैठा था। उसकी कठोरता और अप्रियता के कुछ विवरण इसी लेख में पहले लिखे जा चुके हैं। उनकी पुनरावृत्ति की आवश्यकता नहीं है। लेकिन इतना जरूर देख लेना है कि बाबर को भारत में और विशेषकर दिल्ली तक बुलाने में दिल्ली के शासन की अयोग्यता का कहाँ तक अपराध था। इब्राहीम लोदी, सिकन्दर लोदी का लड़का था। सिकन्दर के समय तक दिल्ली का शासन किसी प्रकार चलता रहा। यद्यपि उसमें कमजोरियाँ पैदा हो चुकी थीं। सन् 1518 ईसवीं में इब्राहीम लोदी दिल्ली के सिंहासन पर बैठा। वहाँ के शासन में अयोग्यता और निर्बलता तो चल ही रही थी, कटुता और अप्रियता की वृद्धि ने उस राज्य को मरणासन्न बना दिया।
इब्राहीम लोदी के शासन के कुछ ही वर्ष बीते थे। उसके राज्य के
विरोधी पैदा हो गये। उनकी यह आवश्यकता यहाँ तक बढी कि जैसे भी हो, दिल्ली में इब्राहीम लोदी का शासन खतम होना चाहिए। आवश्यकता स्वयं अपनी पूर्ति के साधन पैदा करती है। इब्राहीम लोदी के विरोधियों को काबुल में बैठा हुआ बाबर दिखाई पड़ने लगा। उनकी समझ में वह एक शक्तिशाली मुस्लिम बादशाह था, जिसने पंजाब में प्रवेश करके आसानी के साथ कई स्थानों पर अधिकार कर लिया था। उन सब की समझ में बाबर उस मध्य एशिया का निवासी और लड़ाकु था, जिसके रहने वालों के हमलों से भारत देश का बहुत पहले सर्वनाश हो चुका था। बाबर को शक्तिशाली समझ कर भारत में बुलाने की कोशिशें होने लगीं। पंजाब से लौटने के बाद, बाबर काबुल में चुपचाप बैठा न था। मध्य एशिया में परास्त और निराश होने के बाद भी वह बार-बार फ़रगना और समरकंद की और देखता था। संसार के दूसरे राज्यों की अपेक्षा पूर्वजों के राज्य उसे अधिक आकर्षित कर रहे थे।
इन्हीं दिनो में सुलतान इब्राहीम लोदी के चाचा आलम खाँ अलाउद्दीन के काबुल में पहुँच कर बाबर के साथ दिल्ली-राज्य की सभी प्रकार की बातें बतायी। बाबर के साहसी होने में किसी को सन्देह नहीं हो सकता। वह आदमी को पहचानना जानता था। दिल्ली की तरफ आगे बढ़ने में उसे समय अनुकूल मालुम हुआ। सुलतान इब्राहीम लोदी को निरंकुशता के कारण लगभग सभी सुविधायें बाबर को प्रत्यक्ष दिखाई देने लगीं। इब्राहीम को पराजित करके दिल्ली का राज्य प्राप्त करना उसे सुगम मालूम होने लगा। उसने अलाउद्दीन की बातों को स्वीकार कर लिया।
पानीपत का प्रथम युद्ध से पहले लाहौर का विनाश और विध्वंस
बाबर अपनी सेना लेकर भारत की सीमा की तरफ रवाना हुआ
और भीरा को पार कर वह लाहौर के निकट पहुँच गया। दौलत खाँ दिल्ली-राज्य की ओर से लाहौर का सूबेदार था। लेकिन वह कुछ पहले सुबेदारी से निकाल दिया गया था। उसके बाद वह सुलतान इब्राहीम लोदी का शत्रु बन गया था और बाबर से उसने मेल कर लिया था। दिल्ली-राज्य की तरफ से दौलत खाँ के साथ जो व्यवहार किया गया था, उसका बदला देने के लिए वह बाबर की फौज में एक अफसर हो गया और जब काबुल की फौज ने लाहौर में प्रवेश किया तो दौलत खाँ ने भीषण नर-संहार शुरू कर दिया।
काबुल की फौज ने लाहौर में एक तरफ से लूट-मार आरम्भ कर
दी और वहाँ के सम्पूर्ण बाजारों को लुट कर उनमें आग लगा दी।
बाबर ने कई दिनों तक लाहौर में मुकाम किया और उसकी फौज ने उस नगर को लुट कर उजाड़ दिया। भयानक रूप से वहाँ के निवासियों का सर्वंनाश किया गया और सम्पूर्ण शहर आग लगा कर जला दिया गया। लाहौर का विनाश और विध्वंस करने के बाद, बाबर की फौज के सिपाहियों ने लाहौर शहर के आस-पास ग्रामों को लूटा और लोगों का कत्ल किया। इसके बाद काबुल की फौज आगे बढ़ कर और तेजी के साथ चल कर दीपालपुर पहुँच गयी। वहाँ पर भी बाबर की सेना ने उन्हीं अत्याचारों से काम लिया, जो लाहौर में किये जा चुके थे, काबुल की फौज के सिपाहियों ने भयावक निर्दयता का व्यवहार किया। दीपालपुर पहुँच कर वह नगर में आँधी की तरह टूट पड़ी और बहुत समय तक उसने नगर का विध्वंस किया। वहाँ के निवासियों को बिना
किसी अपराध और विरोध के उनको एक तरफ से काट-काट कर फेंक दिया गया। उसके बाद उस नगर की लूट शुरू हुई उस लूट में काबुल की सेना को कई दिन लग गये। दीपालपुर का किला बहुत मजबूत था और उसकी रक्षा के लिए दिल्ली की एक सेना वहाँ पर रहा करती थी। किले के सैनिको का संहार करके बाबर की फौज ने उस किले पर कब्जा कर लिया। बाबर ने दीपालपुर के किले में अपनी एक सेना रखी और उस प्रान्त की रक्षा के लिए उसने विश्वासी अफसरों को वहाँ पर नियुक्त किया। इसके पश्चात् उसने अलाउद्दीन को वहाँ का सुलतान बनाया और वहाँ का शासन उसके सुपुर्द किया। फिर वह दीपालपुर से लौट कर काबुल चला गया।
बाबर के आक्रमण की नयी तैयारी – पानीपत का प्रथम युद्ध की तैयारी
काबुल में लौट कर बादशाह बाबर ने भारत में आक्रमण करने की
तैयारी शुरू कर दी। लाहौर में हमला करके और उसे लूट-मार करके बाबर का उत्साह बढ़ गया था। उसके जीवन का यह पहला हमला था, जिसमें उसको पूर्ण रूप से सफलता मिली थी। उसे मालूम था कि भारत में बहुत-से राज्य हैं और उनमें दिल्ली का राज्य सबसे बड़ा और शक्तिशाली है। लेकिन लाहौर में दिल्ली की शक्ति का उसे बहुत-कुछ अनुमान हो गया था। उसे न मालूम था कि लाहौर को इतनी आसानी के साथ जीता जा सकता है। इस आक्रमण ने उसके साहस और उत्साह को कई गुना बढ़ा कर अधिक कर दिया।
दिल्ली के सुलतान इब्राहीम लोदी की कमजोरियाँ अब बाबर से
छिपी न रह सकी। भीतर से लेकर बाहर तक उसके फैले हुए शत्रुओं ने उसे निर्बल और अयोग्य बना दिया है, इस रहस्य को बाबर भली भाँति समझ सका। दिल्ली की शक्तियों को समझने के लिए ही उसने पिछली बार के आक्रमण को लाहौर तक सीमित कर रखा था। किसी भी अवस्था में दिल्ली पर आक्रमण करने के लिए बाबर को एक बड़ी शक्तिशाली सेना की जरूरत थी। दिल्ली का आक्रमण भारत का आखिरी आक्रमण है, बाबर इस बात को जानता था। इसलिए उसने बड़ी सावधानी के साथ दिल्ली के आक्रमण की तैयारी शुरू की और उसका श्री गणेश उसने नवम्बर सन् 1525 ईसवी में किया।
हुमायूं बाबर का बड़ा लड़का था। लड़ाकू सैनिकों और सेनापतियों
के लिए उसने मुस्लिम देशों की यात्रा की और उन देशों से लाकर काबुल में उसने सैनिक और सेनापति एकत्रित किये। लाहौर और दीपालपुर की लूट के बाद, बाबर के पास सम्पत्ति की कमी न रह गयी थी। लाहौर के हमले में लुटकर वह इतना धन अपने साथ ले गया था कि उसके द्वारा वह जितनी बड़ी फौज चाहता, काबुल में एकत्रित कर सकता था। उसने यही किया भी और शुरवीर सैनिकों तथा सेनापतियों को वह काबुल में जमा करने लगा। कुछ दिनों में उसके पास लड़ने वालों की एक बहुत बड़ी सेना जमा हो गयी। सेना के साथ-साथ बाबर ने युद्ध के नवीन और उत्तम से उत्तम हथियारों को भी एकत्रित किया। इस समय बाबर के पास सात सौ मजबूत योरोपियन तोपें थीं और उनको अलग-अलग गाड़ियों पर रखा गया था। युद्ध की सामग्री और नये तरीके के बहुत अस्त्रों को अधिकार में लेकर बाबर अपनी विशाल सेना के साथ फिर भारत की ओर रवाना हुआ।
पानीपत का प्रथम युद्ध
बाबर की सेना दिल्ली की तरफ चली जा रही थी । दिल्ली के
उत्तर लगभग पचास मील की दूरी पर पानीपत के मैदान में 21 अप्रेल सन् 1526 ईसवी को बाबर की सेना के साथ, दिल्ली की सेना का सामना पानीपत का प्रथम युद्ध के रूप में हुआ। इब्राहीम लोदी अपने साथ एक लाख सैनिकों की सेना और एक सौ हाथी लेकर युद्ध-स्थल पर पहुँचा था। दोनों और से पानीपत का प्रथम युद्ध का मैदान से गया। और फिर बादशाहों के आदेश पर भारतीय इतिहास का सबसे प्रसिद्ध युद्ध पानीपत का प्रथम युद्ध आरंभ हो गया। जिसे आप पानीपत का पहला युद्ध भी कह सकते है।
बाबर ने युद्ध के मैदान में अपनी सेना के आगे भयानक मार करने
वाली सात सौ तोपों की गाड़ियों को एक लम्बी पंक्ति में लगवा दिया था और उन गाड़ियों के बीच में कहीं-कहीं पर इतना फासला रखा था, जिनके रास्ते से निकल कर काबुल के सैनिक दिल्ली की सेना पर आक्रमण कर सकें। तोपों के निरीक्षण और संचालन का कार्य उस्ताद अली और मुस्तफा के हाथों में था। दोनों ही इस कार्य में अत्यन्त होशियार थे। तोपों के पीछे तेरह हजार शुरबीर सैनिकों और सवारों की सेना लगी हुईं थी।
युद्धक्षेत्र में बाबर ने अपनी सेना को इस तरीके से खड़ा किया था,
जिससे लड़ाई में उसके सैनिक कम-से-कम मारे जाये। वह पहले से ही जानता था कि इब्राहीम लोदी के साथ बहुत बड़ी सेना युद्ध के लिए आवेगी, जिनके संहार के लिए उसने अपनी सेना के आगे तोपें लगवा दी थीं। पानीपत का प्रथम युद्ध आरम्भ हुआ और दोनों शोर से भयानक मार शुरू हो गयी। बाबर की तोपें आरम्भ से ही गोले फेंकने लगीं, जिनके कारण दिल्ली की सेना का बढ़ना रुक गया। कुछ घन्टों के भीतर दिल्ली के बहुत से सैनिक मारे गये। उन तोपों की मार का जवाब देने के लिए इब्राहीम लोदी के पास कोई साधन न था। जिन एक सौ हाथियों को लेकर वह युद्ध से मैदान में गया था, वे तोपों के गोलों से जख्मी होकर गिरने लगे। दोनों ओर की भीषण मार में सारा दिन बीत गया। युद्ध की हालत ज्यों की त्यों चल रही थी। बाबर दिल्ली की सेना पर अचानक अपने कुछ सैनिकों का हमला करना चाहता था और उसके लिए वह अवसर की ताक में था। दिल्ली के सैनिक शत्रुओं के साथ मार करने में लगेहुए थे। अवसर पाकर बाबर ने अपनी सेना के कुछ सैनिकों को लेकर दो दल तैयार किये और उन दोनों दलों को किसी प्रकार दाहिने और और बायें से निकाल कर उसने दिल्ली की सेना के पीछे भेज दियाउन दोनों दलों ने पीछे पहुँच कर दिल्ली के सैनिकों पर भयानक मार शुरू करदी। सामने से उस्ताद अली श्रौर मुस्तफा की तोपें आग के गोलों की वर्षा कर रही थीं ओर पीछे से बाबर के सैनिको ने आक्रमण किया था।
दिल्ली की सेना में घबराहट पैदा हो गयी। थोड़े-ही समय में उसके बहुत से सैनिक मारे गये। युद्ध की भीषणता को देख कर बड़े साहस के साथ इब्राहीम लोदी ने अपनी सेना को सम्हालने की कोशिश की। लेकिन कोई फल न निकला। उसकी सेना इधर उधर भागने लगी। सुलतान इब्राहीम लोदी अपने पन्द्रह हजार सैनिकों के साथ पानीपत के मैदान में मारा गया। दिल्ली की बची हुई सेना युद्ध-क्षेत्र से भाग गयी। उसी समय बाबर की सेना में विजय का झंडा फहराया गया।
युद्ध के बाद काबुल की विजयी सेना अपने झंडे के साथ दिल्ली की तरफ रवाना हुई और उसने नगर में जाकर कब्जा कर लिया। दूसरे दिन 27 अप्रेल सन् 1526 ईसवीं को शुक्रवार के दिन दिल्ली की मस्जिद में नये बादशाह के नाम पर सार्वजनिक प्रार्थना की गयी। बाबर की इस विजय की खुशियाँ दिल्ली से लेकर काबुल तक मनायी गयी। दिल्ली के विजयोत्सव में सबसे अधिक महत्व राज्य के खजाने के बंटवारे को दिया गया। वहाँ के खजाने में जो धन मौजूद था, उसे लूट का धन माना गया और उस खजाने की रकम को सबसे पहले विजयी सेना में बाँटा गया। बाबर के बड़े लड़के हुमायूँ ने इस युद्ध में अद्भुत वीरता का प्रदर्शन किया था, इसलिए सब से पहले उस खजाने में से सत्रह लाख पास हजार रुपये उसे इनाम में दिये गये। फौज के सरदारों और सेनापतियों में प्रत्येक को एक लाख पचास हजार से लेकर दो लाख पचास हजार रुपये तक दिये गये। इसके बाद सेना के सिपाहियों में उनके पद के अनुसार रुपये बाँटे गये और उन सभी लोगों को इस खजाने में से इनाम दिये, जिन्होंने मुगल सेना की किसी प्रकार
भी सहायता को थी, अथवा उसका कोई काम किया था। यहाँ तक कि जिन लोगों ने कैम्पों की देख भाल का काम किया था, उन सब को भी उनके कामों के अनुसार, इस बंटवारे का हिस्सा दिया गया। काबुल के प्रत्येक स्त्री-पुरुष, स्वतन्त्र, परतन्त्र, बूढ़े, युवक और बालक को चाँदी के सिक्के विजय की प्रसन्नता के इनाम में बाँटे गये। इस बंटवारे के पहले खजाने के धन को गिना नहीं गया और न उसके गिने जाने की जरूरत ही समझी गयी। पानीपत का प्रथम युद्ध को जीतकर बाबर दिल्ली का बदशाह हुआ और उसने भारत में उस मुग़ल साम्राज्य की नींव डाली जिसे उसके पौत्र बादशाह अकबर ने पूरा किया।
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