जालौन जिले के कालपी नगर में यमुना नदी के दक्षिणी किनारे पर कालपी किले के पश्चिमी भाग पर यह पातालेश्वर मन्दिर स्थित है । इस पातालेश्वर नाम के शिवलिंग की अत्याधिक मान्यता है। यह शिवाला किलागिर्द मुहाल में किले के समीप बना हुआ है जिसमें शिवजी की मूर्ति कुछ निचाई में स्थित है जहाँ बहुत ठंडक रहती है।
पातालेश्वर मंदिर का इतिहास
यह अत्यन्त प्राचीन शिवाला है। इस पातालेश्वर मंदिर के नजदीक
अग्रेजों का कब्रिस्तान है तथा यह मंदिर बहुत पुराना है। यह मंदिर 5000 वर्ष से भी ज्यादा प्राचीन है। द्वापर में यही मूर्ति मणिकेश्वर महादेव के नाम से विख्यात थी। कालपी में जब किले का निर्माण हुआ तब गहराई में होने के कारण यही पातालेश्वर के नाम से पुकारा जाने लगा।
किवंदन्ती के अनुसार कौरवों तथा पाण्डवों के गुरू द्रोणाचार्य जी ने पुत्र प्राप्ति हेतु इसी शिवलिंग का पूजन किया था जिससे भगवान शंकर ने प्रसन्न होकर उन्हें अश्वत्थामा नामक अमरत्व को प्राप्त पुत्र दिया।
इस मंदिर का निर्माण मराठा काल में हुआ था। इसके पकरोटे में श्री मणिकेश्वर जी का मंदिर है तथा पीछे बायीं ओर नाग मंदिर भी हैं जहाँ पर एक शिलालेख भी हैं जो पढ़ने में नहीं आता तथा सामने सीताराम जी की मठिया है।
मंदिर में लगे एक पट्ट के अनुसार यह मणिकेश्वर के नाम से जाना जाता है। यह मूर्ति 5000 वर्ष से अधिक प्राचीन है। इसका पूजन पाँडव गुरू द्रोणाचार्य ने पुत्र प्राप्ति हेतु किया था। इस मंदिर में शिवलिंग की स्थापना है। जनश्रुति के अनुसार यह शिवलिंग स्वंयभू शिवलिंग हैं एवं इसका कोई पता नहीं है कि यह कितना गहरा है। शिवपुराण के सहस्त्रों नामों में मणिकेश्वर नाम भी मिलता है। मंदिर निर्माण शैली से ऐसा प्रतीत होता है कि मंदिर का जीर्णोद्वार मरहठा काल में हुआ होगा। परन्तु यह मंदिर मरहठा काल से भी प्राचीन है। इस मंदिर की भौगोलिक स्थिति का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि यह मंदिर चन्देल कालीन कालपी किले के शेष बचे एक मात्र विध्वसावशेष के बिल्कुल नजदीक है एव किले से इसकी अधिकतम दूरी 200 मीटर होगी। कालपी का किला अत्यन्त विशाल था और उसकी विशालता की परिधि में इस मंदिर का आना स्वभवतः इंगित करता है कि यह मंदिर उस काल में भी रहा होगा। इस पातालेश्वर शिवलिंग के गर्भगृह के बाहर वृक्ष के नीचे भी एक शिवलिंग हैं।

पातालेश्वर शिवलिंग वर्णन
लाल बलुआ पत्थर से निर्मित 25 इंच ऊँचा एवं 12 इंच चौड़ा यह विशाल भव्य शिवलिंग पश्च गुप्तकाल का परिचय देता हैं। चित्रकूट में गुप्त गोदावरी के द्वार पर भी इसी शिवलिंग से मिलता जुलता एक शिवलिंग स्थापित है। यह शिवलिंग एक लिंग के ऊपर बना है। जिसमें चारों दशाओं की ओर एक एक मुख अंकित हैं। चारों मुखों के ऊपर लिंग के अग्रभाग की भाँति शिश्व की आकृति एवं उसके ऊपर बाहय झिल्ली को एक चौतरफा गोल बेल के रूप में वर्गकृत करके अंकित किया गया है। इस शिवलिंग का प्रत्येक मुख चार वर्णों के प्रत्येक वर्ण का घोतक है। प्रत्येक मुख के ऊपर जटा मुकुट धारण है एवं ललाट के मध्य काम को नए करने वाला तृतीय नेत्र अंकित है चारों मुखों का भाव शान्त है। इस क्षेत्र का यह अत्यन्त पुरातात्विक महत्व का शिवलिंग है।
पातालेश्वर मंदिर की वास्तुशिल्प
यह पातालेश्वर मंदिर दो कक्षों के समूह से निर्मित है तथा पूर्वा भिमुख है। पूर्वी कक्ष मण्डप की भाँति उपयोग में आता है एवं पश्चिमी कक्ष मंदिर का गर्भगृह चौकोर है।इसमें 5 सीढ़ियों से नीचे उतर कर जाना पड़ता है। इस कक्ष के ऊपर अष्टकोणीय विमान है । जिसके ऊपर केन्द्र में कमलदल के मध्य कलश स्थापित है।गुम्बद एवं अष्टभुजी आधार के सन्धि स्थल पर चारों ओर उठी हुई कमल की पंखुड़ियों अंकित है। इस गर्भगृह के ऊपर अष्टभुजी गुम्बद से अलग चारों कोनों पर एक एक ऊँचे आधार पर स्थित चतुर्भुजी , चतुर्द्धरीय मठिया अंकित हैं। इस गर्भगृह के बाहर पूर्व की ओर अर्चना मण्डप की गोल डाट की सादा छत हैं जिसके केन्द्र में कलश एवं पताका स्तम्भ लगा है। गर्भगृह की ऊपरी बाहय दीवार पर तोड़ों पर आधारित एक छज्जा भी बना हैं जिसके ऊपर चौतरफा मेहराब अंकित हैं।
पातालेश्वर मंदिर का महात्म्य
इस मंदिर का महात्म्य निम्न श्लोक से स्पष्ट है :- —
यत्रकापिमृतः कश्चित्तत्पाश्वान्तिक वाहिनीमू ।
कालिन्दी मनसाध्यायन बैकुण्ठे लभते स्थितम् ॥
ततः पूर्व दिशि आजन्माणिक्येश्वर इत्यसों ।
राजते श्री महादेव : सर्वभीष्ट प्रदायकः ॥
इस मन्दिर की महत्ता तथा इसमें स्थापित मणिकेश्वर शिवलिंग का
वर्णन हमें इस प्रकार मिलता है –
कि दानेः कि तपोभिश्च कि तीर्थवाहुश्रमैः ।
मणिकयेश्वर सत्ुण्य क्षेत्र यावत सेयते ।
अस्तु जब तक माणिकेश्वर ( पातालेश्वर ) पवित्र क्षेत्र का सेवन न किया जाय तब तक दान, तप, तथा तीर्थ आदि से जिनमे बहुत परिश्रम होता है , क्या लाभ ?
तत्र सचरता पुसां कांर्य्य सिद्धिरतोकिकी ।
इहामुभ खावाप्तिभवेदत्र॒ न संशयः ॥
अर्थात वहाँ पर भूमण करने वाले पुरुषो की औलाकिक कार्य सिद्धि होती है। और यहाँ तथा परलोक में भी सुख की प्राप्ति होती है। इसमें सन्देह नही। ऐसा प्रतीत होता है कि मन्दिर का जीर्णोद्वार मरहठा काल में हुआ होगा। परन्तु मन्दिर की भौगोलिक स्थित का अध्यन करने से ज्ञात होता है कि यह मन्दिर चन्देल कालीन कालपी किले के शेष बचे एक मात्र विध्वंसावशेष के बिल्कुल निकट है एवं किले से इसकी अधिकतम दूरी दो तीन फर्लांग होगी। कालपी का किला अत्यन्त विशाल था और उसकी विशालता की परिधि में इस मन्दिर का आना स्वाभावतः इंगित करता है कि यह मन्दिर चन्देल काल में भी रहा होगा।
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