लखनऊका कैसरबाग अपनी तमाम खूबियों और बेमिसाल खूबसूरती के लिए बड़ा मशहूर रहा है। अब न तो वह खूबियां रहीं हैं और न ही खूबसूरती। आज जिस इमारत में भातखण्डे संगीत महाविद्यालय स्थित है वही इमारत कभी परीखाना पैलेस के नाम से मशहूर थी।
नवाब वाजिद अली शाहनृत्य, संगीत के बड़े शौकीन थे। वह अपने इसी परीखाने में जाकर नाच-गाने में इतना अधिक खो जाते कि उन्हें अपना भी ख्याल नहीं रहता। ‘परीखाना-पैलेस’ वह इमारत थी जिसमें नर्तकियां रहा करती थीं। इन्हीं नर्तकियों या अभिनेत्रियों को ‘परी’ कहकर सम्बोधित किया जाता था। चूँकि इस इमारत में केवल परियां ही रहती थीं लिहाजा इनका नाम ही परीखाना मशहूर हो गया।
नवाब की ओर से इन परियों के ऐशो-आराम का पूरा ख्याल रखा जाता था। नवाब वाजिद अली शाह ने हर परी की देख-रेख के लिए चार-चार नौकरानियां रखी थीं। यही नहीं इन परियों को बड़ी इज्जत बख्शी जाती थी। इस परीखाने की दारोगा नजमुलनिसाँ थीं। इसके अलावा 8 अफसर परियां थीं। अस्मान और अभामन नाम की निहायत ही चालाक दो कुटनियाँ भी थीं। इनका काम होता खूबसूरत स्त्रियों की तलाश करना और उन्हें इस परीखाने तक पहुँचाना।
परीखाना
नवाब वाजिद अली शाह ने नौ परियों को नवाब का खिताब दिया था। इसी परीखाने की सबसे मशहूर परी ‘माहे-नौ’ यानी कि बेगम हजरत महल थीं। बेगम हजरत महल पहली बार जब वली अह॒द की नज़रों के सामने आयीं तो वह उसकी खूबसूरती देखकर इस कदर दीवाने हो गये कि तुरन्त उन्होंने उनकी उंगली में अपनी वेशकीमती अँगुठी पहना दी।
वली-अहद ने उन्हें महक परी का खिताब दिया था
“पसीना था खुशबू में गुलाब परी थी महक उसने पाया खिताब” इस परीखाने की इमारत के चारों तरफ चौबीसों घण्टे कड़ा पहरा लगा रहता था। यहां पहरेदार औरतें ही होती थीं। मगर किसकी इतनी हिम्मत जो उनको औरतें समझकर परीखाने में घुसने की जुर्रत कर सके। परीखाने में केवल बादशाह और साजिन्दे ही जा सकते थे या फिर उस्ताद जो संगीत व नाचने की तालीम देने यहां आते थे।
मोती खानम नाम की परी भी बादशाह की बड़ी चहेती थी। इसके अतिरिक्त अन्य परियों में इशरत परी, पासमन परी, महरूफ परी, दिलरुबा परी, सुल्तान परी मुख्य थीं। परीखाने में लगभग 150 औरतें रहती थीं।
हर साल कैसरबाग में एक बड़ा मशहूर मेला लगा करता था। जिसे ‘जोगियाना मेला’ कहते थे। नवाब वाजिद अली शाह बड़ी ही मस्त तबियत के इंसान थे। इस मेले में परीखाने की सुन्दरियां गेरूए कपड़े पहनकर जोगिने बनतीं तो नवाब वाजिद अली शाह भी कुछ कम न थे। वह भी सारे बदन में मोतियों की भस्म पोतकर जोगी बनते थे। इन जोगिनों में ‘सिकन्दर-महल’ उनकी खास जोगन होती थीं। फिर तो ऐसा समाँ बँधता था किकृष्ण की रासलीला भी फीकी पड़ जाये। मेले के दिन इतनी जबरदस्त भीड़ होती थी कि साँस लेना दूभर हो जाता था। हो भी क्यों न आखिरकार इसी मेले के ही अवसर पर आम जनता को कैसरबाग में आने का मौका जो मिलता था।