पराशर ऋषि का आश्रम व मंदिर – पराशर ऋषि का जीवन परिचय Naeem Ahmad, August 26, 2022February 25, 2024 जालौन जिले की कालपी तहसील के अन्तर्गत जीवन दायिनी विन्ध्यगिरि पुत्री वेत्रवती (वेत॒वा) के तट पर बसे एक छोटे से ग्राम का नाम है परासन या परसन। परासन एवं इसके आसपास का क्षेत्र तपोनिष्ठ एवं पावन क्षेत्र है। इस पंचकोसीय क्षेत्र में परिक्रमा करके लोग पुण्य के भागीदार बनते हैं क्योंकि यह क्षेत्र मार्कण्डेय ऋषि, बाल्मीकि ऋषि, च्यवन ऋषि, कर्दम ऋषि, वशिष्ठ ऋषि व पराशर ऋषि आदि का कर्म क्षेत्र था जो कि आज भी उनके कर्मों की पवित्र पुण्य सुगन्धि से सुवासित है। इस क्षेत्र में उपर्युक्त सभी ऋषियों के आश्रम थे।कुम्भज ऋषि कौन थे – कुम्भज ऋषि आश्रम जालौनपराशर ऋषि यहां पर धार्मिक अनुष्ठान किया करते थे अतः बाद क में उन्ही के नाम पर इस स्थान का नाम परासन पड़ा।परासन गाँव जहाँ स्थापित है वहाँ पराशर ऋषि का स्थान था। इसी कारण इस स्थान का नाम परासन पडा। कालपी के समीप ही परासन नामक ग्राम में ऋषि पराशर की तपस्थली रही है। कालपी क्षेत्र के अन्तर्गत रोपड़ गुरू आश्रम के दक्षिण की ओर परासन नामक स्थान में व्यास जी के पिता पराशर ऋषि का आश्रम है। यह स्थल हरपालपुर से राठ होते हुए उरई रोड के पास पड़ता है। परासन ग्राम पराशर ऋषि की तपस्या स्थली है जो चनौट (च्यवन ऋषि) के सामने बेतवा नदी के बायें किनारे पर स्थित है।महर्षि महेश योगी का जीवन परिचय और भावातीत ध्यानबबीना से 10 मील दक्षिण वेत्रवती नदी के उत्तरी तट पर यह स्थान है। यह पाराशर ऋषि की तपोभूमि है। अस्तु परासन वह स्थान है जहाँ पराशर ऋषि का आश्रम था एवं वहाँ पर वे अपने धार्मिक अनुष्ठान आध्यात्मिक कर्म आदि सम्पन्न करते थे।पराशर ऋषि का जीवन परिचयपाराशर ऋषि एक गोत्रकार ऋषि थे जो कि पुराणानुसार वशिष्ठ और शक्ति के पुत्र थे। यही वेद व्यास कृष्ण द्वैपायन के पिता थे। महाज्ञानी गोत्रकार महर्षि पराशर 4 कैवर्तराज की पुण्य पुत्री महाभागा सत्यवती के गर्भ से यमुना जी के द्वीप में पराशर नन्दन ने जन्म लिया था जो क पाराशर्य और द्वैपायन नाम से प्रसिद्ध हुए।संत तुलसीदास का जीवन परिचय, वाणी और कहानीवशिष्ठ जी राजा निमि के पुरोहित थे। उनके चारों ओर सदा यज्ञ होते रहते थे। एक बार यज्ञ कार्य सम्पादित कराने के पश्चात् महा तेजस्वी वशिष्ठ जी विश्राम कर रहे थे उसी समय राजा निमि ने उनसे पुनः यज्ञ कार्य करवाने हेतु कहा। श्री वशिष्ठ जी ने थोड़ा विश्राम करने के पश्चात् पुनः यज्ञ कार्य सम्पादित कराने को कहा। इससे वशिष्ठ जी ने राजा निमि को विदेह होने का शाप दे दिया। राजा निमि चूंकि धार्मिक कार्य हेतु उद्यत थे और वशिष्ठ जी ने उसमें विध्न डाला अतः राजा निमि ने भी वशिष्ठ जी को विदेह होने का शाप दे दिया। ब्राह्मण व राजा दोनों ही विदेह होकर ब्रह्मा जी के पास गये। ब्रह्मा जी ने राजा निमि को प्राणियों की पलकों में निवास करने हेतु स्थान दिया तथा वशिष्ठ जी से कहा कि तुम मित्र वरूण के पुत्र होगे। वहां भी तुम्हारा नाम वशिष्ठ ही होगा। इसी समय मित्र और वरूण बद्रिकाश्रम में तपस्या में लीन थे। वसन्त ऋतु के समय उर्वशी वहां पुष्प चुनने आयी। उसे देखकर दोनों तपस्वियों का वीर्य स्खलित होकर मृगासन पर गिर गया। तब शाप के डर से उर्वशी ने उस वीर्य को जलपूर्ण मनोरम कलश में स्थापित कर दिया। उस कलश से वशिष्ठ और अगस्त्य नामक दो श्रेष्ठ ऋषिजन उत्पन्न हुए। तदन्तर वशिष्ठ ने देवर्षि नारद की बहन सुन्दरी अरून्धती से विवाह किया और उसके गर्भ से शक्ति नामक पुत्र को उत्पन्न किया। शक्ति के पुत्र पराशर ऋषि हुए। स्वयं भगवान विष्णु पराशर ऋषि के पुत्र रूप में द्वैपायन नाम से उत्पन्न हुए जिन्होंने इस लोक में भारत रूपी चन्द्रमा को प्रकाशित किया।पराशर ऋषि आश्रम कालपीपराशर ऋषि की श्रेष्ठ वंश परम्परा में छः प्रकार के पराशरों का उल्लेख मिलता है:– 1- गौर पराशर – काण्डशय, वाहनप, जैहमप, भौमतापन एवं गोपालि येपाँचों गौर पराशर नाम से जाने जाते हैं। 2- नील पराशर – प्रपोहय, वाहयमय, ख्यातेय कौतुजाति एवं हयीश्व ये पांचों नील पराशर नाम से विख्यात हैं। 3- कृष्ण पराशर – काण्णयन, कपिमुख, काकेयस्थ जपाति और पुष्कर ये पाँचों पराशर कृष्ण पाराशर के रूप में जाने जाते हैं 4- श्वेत पराशर – श्राविष्यायन, बालेय, स्वायथ्ट उपय और इषीकहस्त ये पाँचों श्वेत पाराशर हैं 5- श्याम पराशर – बाटिक, बादरि, स्तम्ब, क्रोधनायन और क्षैमि ये पाचों श्याम पराशर के रूप में प्रसिद्ध हैं। 6- धूम्र पराशर – खत्यायन, वाष्णयिन, तैलेय यूथय और तन्ति इन पांचों पराशरों को धूम्र पाराशर जानना चाहिये। इन सभी पराशरों के तीन प्रबर ऋषि माने गये हैं जो पाराशर, शक्ति और महातपस्वी वशिष्ट के नाम से जाने जाते हैं। इन सभी पराशरों में आपसी विवाह निषिद्ध है। इनके नामों के परिकीर्तन से मनुष्य सभी पापों से मुक्त हो जाता है। ऐसा वर्णन मृत्य पुराण में मिलता है। पराशर ऋषि वेद व्यास के पिता थे। एक बार तीर्थ यात्रा के उद्देश्य से विचरने वाले पराशर ऋषि ने यमुना के तट पर लव खेती एक सुन्दर कन्या को देखा तो वे उसके रूप पर मोहित हो गये और उस कन्या के साथ समागम करने की इच्छा से वातावरण में कुहरे की सृष्टि करके उसके साथ समागम किया जिससे पराशर नन्दन वेद व्यास का जन्म हुआ। वह कन्या मत्स्यगन्धा थी जो पाराशर ऋषि के आशीर्वाद से योजनगन्धा हो गयी।संत तुकाराम का जीवन परिचय और जन्ममहर्षि पराशर की कृपा से ही सत्यवती के गर्भ से विष्णु अंश से युक्त परमज्ञानी वेदव्यास जी का यमुना तट पर जन्म हुआ। भगवान व्यास – पाराशर ऋषि व महाभागा सत्यवती के गर्भ से यमुनाजी के द्वीप पर जन्मे थे। भगवान वेदव्यास सत्रहवें अवतार में सत्यवती के गर्भ से पराशर जी के द्वारा व्यास के रूप में अवतीर्ण हुए। इस प्रकार से ज्ञात होता है कि पराशर ऋषि वेदव्यास जी के पिता थे और एक गोत्रकार ऋषि भी थे। परासन ग्राम इन्हीं ऋषिवर की तपस्थली था। इस गांव में पराशर ऋषि का आश्रम और मंदिर है इसके अलावा दो अन्य शंकर जी के मंदिर हैं।पराशर ऋषि आश्रम व मंदिरपराशर ऋषि नाम से विख्यात पराशर ऋषि आश्रम में पराशर ऋषि की मूर्ति प्रतिष्ठित है। जो कि वेत्रवती के उत्तरी तट पर पीली मिट्टी की एक ऊँची पहाड़ी पर स्थित है। यह मंदिर वेत्रवती के तट से 50 फुट ऊपर स्थित है। जिस टीले पर यह मंदिर स्थित है वह शंकु आकार का है। शंकु का ऊपरी भाग समतल है व 25×60 फुट का एक आयत का निर्माण करता है। यह अब पक्का बना हुआ है। इसी आयताकार क्षेत्र में एक मठियानुमा मंदिर है। इस मठिया की छत गोल व विमान गुम्बदकार है। आश्रम की दीवारें 4 फुट चौड़ी है व आश्रम का दरवाजा 5 फुट ऊँचा मेहराबदार है। आश्रम जोकि मंदिर का गर्भग्रह भी है, अन्दर से वर्गाकार है। मठियानुमा मंदिर एक चबूतरे पर स्थित है जो कि मंदिर शिल्प के अनुसार पवित्र होता है। यह मंदिर पूर्वाभिमुख हैं। मंदिर तक पहुँचने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुयी है।संत सदना जी का परिचयइसी मंदिर में पद्मासन मुद्रा में ऋषि पराशर की श्वेत संगमरमर से निर्मित धवल मूर्ति स्थापित है। यह मूर्त्ति भी पूर्वाभिमुख है। यह मूर्त्ति ढाई फुट चौड़ी व तीन फुट ऊँची है तथा इसके बायें हाथ की ओर एक कमण्डल अंकित है व दाहिना हाथ जाप मुद्रा में सुमिरनी सहित है। मूर्ति तपस्वी सन्यासी की है परन्तु उस पर किरीट माला का अंगार है। यह मठियानुमा मंदिर व मंदिर में स्थापित ऋषि मूर्त्ति को देखने से ऐसा आभास होता है कि यह मंदिर सोलहवीं शताब्दी का होगा। इस बात की पुष्टि ग्राम के ही एक वयोवृद्ध सज्जन द्वारा की गई।शंकर जी के मंदिरवेतवा नदी के तट पर महार्षि पराशर जी के मंदिर में जाने के लिए जिस स्थान से सीढ़ियां प्रारंभ होती हैं उससे पूर्व की ओर लगभग 50 फुट पर ये दोनों शिव मंदिर स्थापित हैं। ये दोनों ही मंदिर अलग अलग दो चबूतरों पर निर्मित हैं तथा ईट गारे से बने हैं व इनकी दीवारों पर चूने का उत्तम कोटि का प्लास्टर हुआ है। ये दोनों ही मंदिर पूर्वाभिमुख हैं। दोनों मंदिरों के दरवाजे मेहराबदार हैं व उच्च कोटि के बेल बूटों से चूने के प्लास्टर पर अंकन है।मंदिर के दरवाजों पर बालूआ पत्थर के खट जगी हुई है। मंदिर एक कक्षय है यह कक्ष अथवा गर्भग्रह वर्गकार है व वर्ग की चारों भुजाओं के ऊपर अष्टभुजी आकृति पर मंदिर का विमान खरबूजाकार स्थिति में स्थित है जिसके ऊपर कलश स्थापित है।संत भीखा दास का जीवन परिचय हिंदी मेंइस अष्टभुजी आधार पर बाहर की ओर कमल दल कंगूरे अंकित हैं तथा इस विमान के चारों कोनों पर एक एक कलश युक्त मठ स्थापित है। दोनों मंदिर एक दूसरे के बगल में स्थापित हैं। परन्तु उत्तरी ओर स्थित मंदिर कुछ विशिष्ट हैं। उत्तरी ओर स्थित मंदिर की बाहरी दीवारों पर सुन्दर अंकन है। उत्तरी दीवार पर बाहरी ओर चूने द्वारा द्विभुजी सिंह वाहिनी अंकित हैं जिनके दोनों हाथों में त्रिशूल है। गले में सिताराहार भी अंकित हैं मंदिर के तोड़ों पर मयूराकृति अंकित है। इसी मंदिर की छत अन्दर से गोल गुम्बदाकार है व फूल पत्तियों से अलंकृत है।संत दूलनदास का जीवन परिचय हिंदी मेंगुम्बद की आधार आठों भुजाओं पर अन्दर की ओर से बहुत सुन्दर रंगीन चित्रकारी की गईं है परन्तु दो कोनों पर अब भी सुन्दर चित्र देखे जा सकते हैं। एक कोने के एक पटल में दो मनुष्य आदतियाँ हाथ में हाथ लिए चित्रित हैं व दूसरे पटल पर घोड़े, पण्डित व स्त्री आकृति चित्रित है। इनके नीचे एक सेवक भी चित्रित है। यह सब अनूठी चित्रकला है। बुन्देली चित्रकला की दृष्टि से यह उत्तम स्थान है।संत सुंदरदास का जीवन परिचय, रचनाएं, वाणीइस उत्तरी शिव मंदिर के गर्भग्रह में काले पत्थर द्वारा निर्मित एक पंचमुखी शिवलिंग स्थापित है। इस शिवलिंग का घरूआ काले पत्र द्वारा निर्मित है। इस पंचमुखी शिवलिंग की यह विशेषता है कि शिवलिंग में अंकित चार मुख जटामुकुट धारण किये हैं व चार शीर्षो के ऊपर एक शीर्ष स्थापित है जिस पर कोई किरीट अंकित नही है वरन केशों परएक नाग अंकित है जोकि किरीट की भांति शोभायमान है। अंकित नाग पंचमुखी है। सभी पांचो मुखो के ललाट पर शिव का अग्रिमण्डित तृतीय नेत्र भी अंकित है। इस पंचमुखी शिवलिंग पीठिका (घरूआ) पर भी सूर्य अंकित है।पंचमुखी शिवलिंगों का प्रचलन राजपूत काल में ही प्रारंभ हुआ था जो कि 8वीं से 13शताब्दी के मध्य रहा।संत चरणदास जी का जीवन परिचय, समाधि, चमत्कारमंदिर का चबूतरे पर स्थित होना यह भास कराता है कि मंदिर पर चंदेल कालीन (9वी शताब्दी से 13 वीं शताब्दी ) प्रभाव रहा है। परन्तु मंदिर में ईंट और चूने का प्रयोग तथा पत्थर की चौखट निश्चित रूप से इस मंदिर की प्राचीनता के साक्ष्य हैं। मंदिर पर कोई बीजक उपलब्ध नहीं है। गाँव के ही एके वृद्ध सज्जन ने बतलाया कि इन मंदिरों का निर्माण बड़े बड़े सेठों द्वारा किया गया है।संत बूटा सिंह जी और निरंकारी मिशन, गुरु और शिक्षाअश्विन कृष्ण पक्ष में पित्र आवाहन के समय पितर मछली का शरीर धारण करके पिंड लेने के लिए यहां आते हैं ऐसी यहां की मान्यता है। वेत्रवती (वेतवा ) के तट पर बसे परासन ग्राम के साथ यह विशेषता जुड़ी है कि महर्षि पराशर के मंदिर के निकट ही इस वेतवा नदी में पितृपक्ष में बड़ी बड़ी मछलियाँ आतीं हैं। कार्तिक पूर्णिमा तक रहती हैं। फिर कहाँ चली जाती हैं कुछ भी ज्ञात नहीं।स्थानीय मान्यताओं के अनुसार पितरगण मत्स्यरूप में आकर पिंड ग्रहण करते हैं। वास्तविकता में भी वेतवा की ये मछलियाँ, मनुष्यों के सम्पर्क से डरती नहीं है वरन उनके साथ अठखेलियाँ करतीं हुयी उनके हाथों से अर्पित किया गया पिण्डरूप में आटा ग्रहण करती हैं। परासन ग्रामवासियों की यह भी अवधारणा है कि ये मछलियाँ शुद्धचित्त एवं आस्था के साथ अर्पित भोज्य पदार्थ ही ग्रहण करती है। विश्व में केवल डालफिन प्रजाति की मछली का ही मनुष्य के साथ क्रीड़ा करने का दृष्य प्रकाश में है परन्तु परासन की ये मछलियाँ सिलन्द प्रजाति की होने के बाद भी मनुष्य के हाथों से अर्पित आटे के पिण्ड को ग्रहण करती है एवं उनके साथ अठखेलियाँ करती है।संतान सप्तमी व्रत कथा पूजा विधि इन हिन्दी – संतान सप्तमी व्रत मे क्या खाया जाता हैसिलन्द प्रजाति की मछलियाँ अन्य स्थानों पर भी पाई जाती हैं विशेषत यमुना नदी के क्षेत्र में, परन्तु उन सभी स्थानों पर ये मछलियों मनुष्यों से डरकर दूर भागती हैं। एक निश्चित समय पर एक निश्चित स्थान पर इन मछलियों का आना और मनुष्यों के साथ जलक्रीड़ा करते हुए पिण्डों को ग्रहण करना आश्चर्य चकित करता है एवं जन मानष में व्याप्त आस्थाओं को सम्बल प्रदान करता है। परासन ग्राम में वेतवा तट पर मछलियों का आना इस बात का भी द्योतक हो सकता है कि महाभारत की चर्चित पात्रा सत्यवती जो कि मत्स्य पुत्री थी। आद्रिका नामक अपसरा जो कि शाप के कारण मत्स्य रूप में यमुना में विचरण करती थी तथा जिसके शरीर से मत्स्य की दुर्गध आती थी वह पराशर ऋषि के प्रताप से योजनगन्धा में परिणत हो गई और भगवान वेद व्यास की माता होने का सौभाग्य भी प्राप्त किया। अस्तु ये मछलियां पितृपक्ष में यहां पर इस लालसा के कारण आती हैं कि उन्हें भी महर्षि पराशर ऋषि के सम्पर्क में आने का शायद अवसर प्राप्त हो जाये जिससे उनके शरीर की भी दुर्गंध सुगंध में बदल जाये व वे भी ऐसे पुत्र की माँ बनने का सौभाग्य प्राप्त करें जिसका यश कीर्ति पताका से उनका भी नाम अमर हो जाये।हमारे यह लेख भी जरूर पढ़े —-[post_grid id=”8179″]Share this:ShareClick to share on Facebook (Opens in new window)Click to share on X (Opens in new window)Click to print (Opens in new window)Click to email a link to a friend (Opens in new window)Click to share on LinkedIn (Opens in new window)Click to share on Reddit (Opens in new window)Click to share on Tumblr (Opens in new window)Click to share on Pinterest (Opens in new window)Click to share on Pocket (Opens in new window)Click to share on Telegram (Opens in new window)Like this:Like Loading... भारत के प्रमुख धार्मिक स्थल उत्तर प्रदेश पर्यटन