बादशाह अकबर का चित्तौड़ पर आक्रमण पर आक्रमण सन् 1567 ईसवीं में हुआ था। चित्तौड़ पर अकबर का आक्रमण चित्तौड़ के पास स्थित पंडोली गांव के मैदान में हुआ था। इसलिए इस युद्ध को पंडोली का संग्राम या पंडोली का युद्ध के नाम से जाना जाता है। अपने इस लेख में पंडोली के युद्ध संबंध में निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर विस्तार से जानेंगे। अकबर के विरुद्ध चित्तौड़गढ़ आक्रमण के समय कौन से लोक देवता युद्ध करते हुए मारे गए? चित्तौड़ के इतिहास में 25 फरवरी 1568 का दिन क्यों महत्वपूर्ण है? अकबर के 1567 में चित्तौड़ आक्रमण के समय वहां का शासक कौन था? दुर्ग की मरम्मत करते समय अकबर द्वारा जयमल जी को जिस बंदूक से निशाना बनाया गया उस बंदूक का नाम था? सन् 1576 के युद्ध के बाद अकबर ने उदयपुर का प्रशासन किसे सौंपा?1568 में चित्तौड़ का शासक कौन था। इससे पहले हम युद्ध से पहले की परिस्थितियों के बारे में विस्तार से जान लेते हैं।
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पंडोली के युद्ध से पहले की परिस्थितियां – अनधिकारी को अधिकार
सन् 1533 ईसवी में गुजरात के बादशाह बहादुर शाह ने राणा
विक्रमाजीत को परास्त करकेचित्तौड़ का विध्वंस किया था और वहां पर पन्द्रह दिनों तक मुकाम करके जब अनेक प्रकार की कल्पनायें कर रहा था, उन्हीं दिनों में उसके राज्य पर आक्रमण करने के लिए मुग़ल सेना लेकर हुमायूं रवाना हुआ था। बहादुर शाह के साथ उसकी शत्रुता थी, जिसका उल्लेख पहले के लेखों में किया जा चुका है। बहादुर शाह चित्तौड़ छोड़कर गुजरात की तरफ चला गया और पराजित विक्रमाजीत फिर चित्तौड़ की गद्दी पर बैठा। उसकी अयोग्यता, अव्यावहारिकता और कठोरता से चित्तौड़ के सरदार बहुत ऊब गये थे, उसके इन्हीं दुर्गुणों के कारण बहादुर शाह के द्वारा चित्तौड़ का विध्वंस हुआ था। पराजय के कठोर अपमान का विक्रमाजीत पर कोई प्रभाव न पड़ा और उसका दुर्व्यवहार ज्यों का त्यों फिर जारी हो गया। इसका परिणाम यह हुआ कि राज्य के समस्त सरदार उसके शत्रु हो गये। वह राजगद्दी से उतारा गया और वनबीर को उसके स्थान पर बिठाया गया।
शीतलसनी नामक एक दासी के साथ राजकुमार पृथ्वीराज का सम्बन्ध था और उसी के गर्भ से बनवीर का जन्म हुआ था। वास्तव में वह राज्य का अधिकारी न था। लेकिन सरदारों को आवश्यकता से विवश होकर कुछ समय के लिए ऐसा करता पड़ा था। राणा सांगा का पुत्र उदयसिंह अभी केवल पांच वर्ष का था और उसकी यह अवस्था राजसिंहासन पर बैठने के योग्य न थी। इसलिए जब तक उदयसिंह समर्थ नहीं होता, सरदारों ने बनवीर को सिंहासन पर बिठाकर राज्य का काम चलाया था।
उदयसिंह की अयोग्यता
सन् 1542 ईसवी में उदयसिंह चित्तौड़ के सिंहासन पर बैठा।
चित्तौड़ और मेवाड़ के राजपूतों तथा सरदारों ने जिस उत्साह और
आनन्द के साथ उदयसिंह का राज्य तिलक किया था, वह उत्साह और आनन्द राजपूतों के सामने अधिक समय तक ठहर न सका। राज्य के सिंहासन पर बिठाकर उदयसिह से जो आशायें की गई थीं, वे थोड़े समय में ही सब-की-सब बविलीन हो गयीं। विवाह के बाद ही उसका समस्त जीवन विलासिता में व्यतीत होने लगा। उस विलासिता के उन्माद में उसने राज्य की परवाह न की। चारों ओर बढ़ते हुए भयानक शत्रुओं की ओर आँख उठाकर देखना उसने आवश्यक नहीं समझा। प्रजा के सुख ओर दुख की आवहिलता करके केवल महलों में पड़े रहना और मनोरंजन करना ही उसके जीवन का एक मात्र घ्येय रह गया। इसका परिणाम यह हुआ कि राणा सांगा की मृत्यु के पश्चात मेवाड़ का जो गौरव क्षत विक्षत हो गया था, वह राजपूतों के दुर्भाग्य के अन्धकार में विलीन होता हुआ दिखायी देने लगा।
जिस वर्ष उदयसिंह चित्तौड़ के सिंहासन पर बैठा था उसी साल हुमायूँ के पुत्र अकबर ने जन्म लिया था। उदय सिंह ओर अकबर की अवस्थाओं में बहुत थोड़े वर्षों का अन्तर था। लेकिन उदयसिह और अकबर की योग्यताओं में भूमि आकाश का अन्तर पाया गया। कोई भी मनुष्य योग्यता और अयोग्यता को लेकर जन्म नहीं लेता। जिस प्रकार की परिस्थितियों में मनुष्य के जीवन का विकास होता है, वही परिस्थितियाँ उसकी योग्यता और अयोग्यता की कारण बन जाती हैं। उदयसिंह ने मेवाड़ राज्य के राज-महलों में जन्म लिया था और अकबर ने अपने पिता के जीवन की उन भयानक परिस्थितियों में जन्म लिया था जब उसके रहने के लिए टूटा फूटा अपना घर भी न था। उदय सिंह को जीवन के प्रारम्भ से राज-महलों के समस्त वैभव प्राप्त थे, लेकिन अकबर को विकराल विपदाओं का सामना करना पड़ा था। संक्षेप में यहाँ पर इतना ही जान लेने की आवश्यकता है कि दोनों राजकुमारों के जीवन में प्रारम्भ से ही इस प्रकार के विशाल अन्तर रहे थे। एक ओर सुविधाओं की सीमा थी और दूसरी ओर विपदाओं की पराकाष्ठा थी। विपदायें जीवन का निर्माण करती हैं और सुविधायें मनुष्य को विनाश की ओर ले जाती हैं। पंडोली युद्ध का वर्णन जारी है…

मुगल राज्य का विस्तार
पानीपत के युद्धमें हेमु को और उसके बाद शेर शाह के वंशजों को परास्त करके अकबर ने अपने यौवन काल के आरम्भ में एक बड़ी सफलता प्राप्त की थी। इस समय उसके शत्रुओं में उसका भाई मोहम्मद हकीम बाकी था। भारत के दूसरे राजाओं और बादशाहों से अब उसे कोई भय न था लेकिन मोहम्मद हकीम का विद्रोह उसके लिए कभी भी भयानक हो सकता था,अकबर इस बात को खूब समझता था। लेकिन इस समय वह उसके विद्रोह के प्रति उपेक्षा करना चाहता था और उसके ऐसा करने का कारण भी था। इन दिनों में अकबर की घरेलू परिस्थितियाँ विद्रोहात्मक हो रही थीं।जीवन के आरम्भ से बेरम खाँ अकबर का शिक्षक और संरक्षक रहा था। हुमायू ने स्वयं अकबर को बहुत कुछ बेराम खाँ के अधिकार में छोड़ रखा था। वह उसका विश्वास करता था। बैराम खाँ ने हुमायूं के साथ भीषण विपदाओं का सामना किया था और अनेक अवसरों पर अपने प्राणों को संकट में डालकर उसने हुमायूं और उसके परिवार की मूल्यवान सेवायें की थीं। हुमायूं की मृत्यु के पश्चात यदि बैराम खाँ का संरक्षण न होता तो अकबर को उसके प्रारम्भिक जीवन में जो सफलतायें मिलीं, वे कदाचित न भी मिल सकती थीं। बैराम खाँ के इन उपकारों का बोझ अकबर अपने सिर पर कम न समझता था। इसलिए हुमायू की मृत्यु के बाद, राज्य के अनेक अधिकार बैराम खाँ के हाथों में आ गये।
सन् 1561 ईसवी में अकबर ने मालवा राज्य पर आक्रमण किया
था। उन दिनों में उसका अधिकारी बाज़ बहादुर था। उसकी विलास प्रियता के कारण मालवा राज्य निर्बल हो गया था। अकबर की सेना ने मालवा को जीतकर अपने राज्य में मिला लिया था। सन् 1564 ईसवी में आसफ़ खाँ के नेतृत्व में अकबर की एक सेना गोडवाना राज्य की ओर रवाना हुई। उस राज्य के अन्तर्गत अनेक छोटे-छोटे राजा राज्य करते थे। गोडवाना में महारानी दुर्गावती का शासन था। वीरांंगना दुर्गावती अपनी राजपूत सेना को लेकर रवाना हुई और जबलपुर के पास एक मैदान में उसने मुगल-सेना के साथ भयानक युद्ध किया। उस लड़ाई में रानी दुर्गावती और उसका लड़का दोनों मारे गये और गोडवाना का राज्य मुग़ल राज्य मे मिला लिया गया। अकबर के शत्रुओं में उसका भाई मोहम्मद हकीम अभी तक बाकी था और अकबर स्वयं उसको परास्त करना आवश्यक समझता था।
लेकिन कुछ कारणों से उसने उसको छोड़ रखा था। जिन दिनों में
अकबर ने हिन्दू राज्यों पर आक्रमण आरम्भ किये थे, उसे समाचार मिला कि मोहम्मद हकीम ने विद्रोह कर दिया और दिल्ली राज्य के कई प्रदेशों पर उसने अधिकार कर लिया है। यह समाचार मिलते ही सन् 1566 ईसवी में अपने भाई मोहम्मद हकीम को परास्त करने के लिए अकबर अपनी सेना के साथ पश्चिम-उत्तर की और रवाना हुआ और उसके पहुँचने के पहले ही मोहम्मद हकीम घबराकर सिंधु नदी की ओर भागा और काबुल चला गया। अकबर रास्ते से ही लौट आया। उसने राजपूत राजाओं को पराजित करने का इरादा किया। आक्रमण होते ही सब से पहले अम्बेर के राजा बिहारीमल कछवाहा और उसके पोते मानसिह ने श्रकबर की अधीनता स्वीकार कर ली और 1562 ईसवी में राजा बिहारीमल ने अपनी लड़की जोधाबाई का विवाह अकबर के साथ कर दिया।
चित्तौड़ के साथ अकबर का संघर्ष
अपनी अवस्था के अठारह वर्ष व्यतीत करके अकबर ने उत्नीसवें
वर्ष में पदार्पण किया था और जब वह तेरह वर्ष का था, उस समय
वह सिंहासन पर बैठा था। इन थोड़े से वर्षों में अकबर ने अपनी सैनिक शक्ति की बहुत वृद्धि कर ली थी और अपने साम्राज्य का विस्तार बढ़ाकर उसे पर्वत के समान दृढ़ बना लिया था। कालपी, चन्देरी, कालींजर के अतिरिक्त समस्त बुन्देलखण्ड और मालवा के राज्य उसके अधिकार में था गये थे। फिर भी राजस्थान के अनेक राजा मुस्लिम बादशाह की आधीनता स्वीकार करने के लिए तैयार न थे। इस प्रकार के राजाओं में चित्तौड़ का राणा उदय सिंह प्रमुख था। अकबर को यह साफ-साफ प्रकट था कि चित्तौड़ के परास्त होते ही समस्त विरोधी हिन्दू नरेश अधिकार में आ जायेंगे। अकबर ने चित्तौड़ पर आक्रमण करने का निश्चय कर लिया। उन दिनों में राणा उदयसिंह का वहाँ पर शासन था और अपनी विलास प्रियता के लिए बहुत प्रसिद्ध था। एक आलसी और विलासी राजा को विजय करने में शत्रुओं को कितनी देर लगती है। चित्तौड़ को यह निर्बलता अकबर जैसे दूरदर्शी बादशाह को आक्रमण के लिए निमंत्रण दे रही थी।
चित्तौड़ पर आक्रमण करने के लिए अकबर को बहाना खोजने को
आवश्यकता न थी। सन् 1561 ईसवी में अकबर की सेना ने मालवा पर आक्रमण किया था, उस समय वहाँ का विलासी और आलसी राजा बाज बहादुर ने अपने राज्य से भाग कर चित्तौड़ में शरण ली थी। शत्रु को शरण देने के कारण चित्तौड़ के साथ उसी दिन अकबर की शत्रुताउत्पन्न हो गयी थी। इन सब बातों के साथ साथ चित्तौड़ पर अकबर के आक्रमण का मूल कारण यह था कि वह समस्त राजपूत राजाओं को अपनी अधीनता में रखना चाहता था और चित्तौड़ के कारण अनेक राजपूत नरेश इसके लिए किसी प्रकार तैयार न थे। यद्यपि उन दिनों का चित्तौड़ राणा साँगा के शासन-काल का चित्तौड़ न रहा था, फिर भी राजपूताना में उसकी पुरानी धाक चली जा रही थी। चित्तौड़ को पराजित करने के लिए अकबर अपनी शक्तिशाली और विशाल सेना को लेकर रवाना हुआ। राणा साँगा के पुत्र उदयसिंह ने पाँच वर्ष की अवस्था से ही जिस प्रकार का जीवन पाया था और जिन परिस्थितियों में उसे चित्तौड़ के सिंहासन पर बिठाया गया था, उदयसिंह की वह अवस्था संसार के संघर्ष से दूर हटकर व्यतीत हुई थी। उसे संकटों का संधर्षो का और जीवन के उत्पातों का कुछ ज्ञान न था। उसने कुछ देखा न था, सुना न था जाना न था। इस अबोध और अज्ञान की अवस्था में ही उसे राज सिंहासन पर बिठा दिया गया था।परिणाम स्वरूप वह एक आलसीविलासी और अकर्मण्य के सिवा कुछ न था। उसकी अयोग्यता से मेवाड़ राज्य का एक-एक व्यक्ति परिचित था। जिन सरदारों ने बनवीर को हटा करके चित्तौड़ के राज सिहासन पर उदयसिंह को बिठाया था, वे सभी उसकी अयोग्यता और अकर्मण्यता देख कर दुखी थे। इस दुर्भाग्य के समय पर चित्तौड़ में सम्राट अकबर का आक्रमण हुआ।
अपनी विशाल सेना के साथ दिल्ली से रवाना होकर अकबर मेवाड़ राज्य की तरफ चला। उसने रास्ते में शिवगढ़, कोटा और मंगलगढ़ के किलों को जीतकर अपने अधिकार में किया और चित्तौड़ के समीप पहुँच कर पंडोली नामक ग्राम के बाहर उसने अपनी सेना का मुकाम किया और पंडोली की विस्तृत भूमि पर छावनी बना कर उसने डेरा डाल दिया। और पंडोली का युद्ध का मैदान सजा दिया। अकबर के आक्रमण का समाचार सुनते ही राणा उदयसिंह घबरा गया। अपने मन्त्रियों और सरदारों के सामने चाचा जयमल और पत्ता को बुलाकर चित्तौड़ की रक्षा का भार सौंपा और वह अपने परिवार के लोगों को साथ लेकर चित्तौड़ के बाहर पहाड़ियों की तरफ चला गया। चित्तौड़ के सरदारों और सामन्तों ने जयमल और पत्ता के साथ चित्तौड़ की रक्षा पर परामर्श किया। युद्ध की परिस्थिति पर बहुत समय तक बाते करने के बाद चित्तौड़ में युद्ध की घोषणा की गई और राजपुत सेना की तैयारी आरम्भ हो गयी। इसी समय उदयसिंह ने जिस कायरता से काम लिया उससे चित्तौड़ के वीर सरदारों को कोई आश्चर्य न हुआ। इसके सिवा उससे और कोई आशा पहले से भी न की गयी थी। उदय सिंह की अयोग्यता और कायरता से कोई अपरिचित न था। राणा उदय सिंह कायर और डरपोक था। लेकिन चित्तौड़ के राजपुत और सरदार डरपोक न थे। यह वही चित्तौड़ था, जिसके बहादुर राजपूतों ने किसी समय दूसरे राजाओं और बादशाहों के छक्के छूटा दिये थें। चित्तौड़ वही था, उसके शुरवीर राजपूत और सरदार वही थे, लेकिन राणा संग्रामसिंह की तरह इन दिनों में वहाँ कोई शक्तिशाली राजा न था। जिस दिल्ली की सेनाओं को चित्तौड़ के राजपूतों ने अनेक बार पराजित किया था और दिल्ली के अनेक प्रदेशों पर हँसते हुए अधिकार कर लिया था, आज उसी दिल्ली की सेना चित्तौड़ को निगल जाने के लिए नगर के बाहर कुछ दूरी पर पंडोली में पड़ी हुई थी।
युद्ध के लिए तैयारी करने के समय चित्तौड़ के राजपूतों और सर दारों का खून खौल रहा था। उनके नेत्रों के सामने हारने और जीतने का कोई प्रश्न न था। जिन शत्रुओं ने आक्रमण करके चित्तौड़ के विध्वंस और विनाश करने का निश्चय किया है, उनके साथ युद्ध करने के लिए राजपूत उतावले हो रहे थे। युद्ध की घोषणा होने के बाद, मेवाड़-राज्य के सरदार और सामंत अपनी अपनी सेनायें लेकर उत्साह और उमंग के साथ चित्तौड़ की तरफ रवाना हुए। राजस्थान के अनेक राजा अपनी सेनाओं के साथ चित्तौड़ की ओर दिखायी देने लगे। जयमल बिदनौर का राजा था और मारवाड़ के सामन्तों में उसका नाम बहुत प्रसिद्ध था। पत्ता कैलवाड़े का शासक था। उसका वास्तविक नाम प्रताप था, किन्तु छोटी अवस्था से ही वह पत्ता के नाम से विख्यात था। दोनों ही शूरबीर राजपूत थे और उन दिनों में वे राजस्थान में बहादुर माने जाते थे। चित्तौड़ में एकत्रित सेनायें जयमल के नेतृत्व में युद्ध के लिए रवाना हुई और नगर के बाहर जाकर पंडोली में पड़ी हुई मुग़ल सेना को ओर वे बढ़ीं। सन् 1567 ईसवी में दोनों ओर की सेनाओं का पंडोली का संग्राम भूमि में सामना हुआ और राजपूत सेनाओं ने आगे बढ़कर मुगल सेना पर आक्रमण किया। दोनों सेनाओं में पंडोली का युद्ध आरम्भ हो गया।
पंडोली का युद्ध और उसकी भयंनकता
समर-भूमि में राजपूत सेना को देखकर अकबर ने बड़ी सावधानी
से काम लिया। दिल्ली से रवाना होने के पहले उसने सोचा था कि
आक्रमण होते ही कायर उदयसिंह राज्य को छोड़कर भागेगा और बिना किसी युद्ध के मुग़ल सेना चित्तौड़ पर अधिकार कर लेगी। अकबर की यह धारणा उदयसिंह के सम्बन्ध में ठीक निकली, किन्तु राजपूत सरदारों और सामन्तों की शक्तियों का अनुमान लगाने में उसने भूल की थी। राजस्थान के वीर राजपूत किसी अवस्था में अधीनता स्वीकार करने के लिए तैयार न थे और वे पराधीन होने से पहले ही युद्ध-क्षेत्र में लड़कर मर जाना श्रेष्ठ समझते थे। यवन-सेना भीषण सिंहनाद करती हुई युद्ध में आगे बढ़ने की चेष्टा करने लगी। अपने हाथों में बन्दू्कें लेकर मुग़ल सैनिक गोलियों की वर्षा करने लगे। यह देखकर रणोन्मत्त राजपूतों ने धनुष लेकर भीषण वाणों की वर्षा आरम्भ कर दी। मुग़लों की गोलियों और राजपूतों के वाणों से घायल होकर सैनिक युद्ध-क्षेत्र में गिरने लगे। उनके रक्त से पंडोली की भूमि रक्त-वर्ण हो उठी। मुग़ल॒ सैनिकों की ओर से गोलियों को वर्षा लगातार भयंकर होती जाती थी। कुछ घंटों के युद्ध में ही राजपूत बड़ी संख्या में मारे गये, लेकिन चित्तौड़ की सेना ने अकबर के सैनिकों को आगे बढ़ने नहीं दिया।
पंडोली के इस युद्ध में जयमल और सतीदास ने वाणों की मार
करने में अपनी अद्भुत वीरता का प्रदर्शन किया। जयमल का नेतृत्व पाकर राजपूतों की शक्तियाँ दूनी हो गयी थी और यदि शत्रुओं की ओर से गोलियों की वर्षा न हुई होती तो राजपूत सैनिकों ने अब तक मुग़लों को पंडोली की युद्ध-भूमि से भगा दिया होता। राजपूतों की इस अदभुत वीरता को देखकर अकबर कुछ भयभीत हुआ और उसने अपनी मुग़ल-सेना को ललकार कर आगे बढ़ने की आज्ञा दी।श
अकबर की उत्तेजनापुर्ण बातों को सुनकर मुग़ल सेना ने भीषण मार शुरू कर दी ओर वह कुछ दूर तक आगे बढ़कर राजपूतों को पीछे की ओर दबा ले गयी। युद्ध की यह अवस्था देखकर वीरवर सतीदास ने अपने घोड़े को आगे बढ़ाया और उसने राजपुतों को आगे बढ़ने के लिए ललकारा। राजपूत अपने जीवन की आहुतियाँ देते हुए आगे बढ़े ओर उस समय राजपूत एक बड़ी संख्या में मारे गये। सतीदास को एक साथ ही कई एक गोलियाँ लगीं। वह भूमि पर गिर गया। सतीदास के गिरते ही जयमल और पत्ता ने राजपुत सेना को सम्हालने की पूरी कोशिश की और बहुत समय तक दोनों और से धुआँधार मार होती रही। इस समय पत्ता की अवस्था सत्रह वर्ष की थी और उसका पिता पिछले एक युद्ध में मारा गया था। पत्ता अपने वंश में अकेला था। लेकिन जन्म से ही वह युद्ध प्रिय था। वह अपने प्राणों की अपेक्षा चित्तौड़ की स्वाधीनता का मूल्य अधिक समझता था। उसकी माता ने अपने इकलौते बेटे को युद्ध में लड़ने के लिए भेजा था। युद्ध में बेटे के मारे जाने का उसे भय न था। उसे इस बात की प्रसन्नता थी कि उसका बेटा चित्तौड़ की स्वाधीनता को सुरक्षित रखने के लिए युद्ध में लड़ने के लिए जा रहा है। नव यौवन के उमड़ते हुए उत्साह में प्राणों का मोह छोड़कर पत्ता ने भयानक मार की।
राजपूत गोलियों की वर्षा में बहुत मारे गये थे। परन्तु युद्ध की
परिस्थिति उसी प्रकार भयानक बनी हुई थी, जिस प्रकार वह आरम्भ हुई थी। अकबर ने पहले से ही अपनी तोपों के प्रयोग का प्रबन्ध कर लिया था। उसने अंत में अपने तोपची को आज्ञा दी और कुछ ही देर में तोपों के मुंह से भीषण गोले निकल-निकल कर राजपूतों का संहार करने लगे। उन गोलों की मार से सैकड़ों राजपूत टुकडे-टुकड़े होकर आकाश की और उड़ते हुए दिखाई देने लगे। बन्दूकों और तोपों की भयंकर मार के कारण राजपूत सेनाओं के बहुत सैनिक मारे गये और जो बाकी बच रहे, वे छिन्न-भिन्न होते हुए दिखायी देने लगे। किसी भी अवस्था में उन्होंने आत्मसमर्पण करना स्वीकार नहीं किया और जीवन के अन्तिम क्षणों तक उन्होंने युद्ध करने का निश्चय बनाये रखा। युद्ध की इस भीषण अवस्था में वक्ष-स्थल में गोली लगने से जयमल घोड़े से नीचे गिरा और उसी समय पत्ता भी मारा गया। उसके बाद राजपूत सेना का साहस टूट गया और वह पीछे की ओर हटने लगी। राजपूत चित्तौड़ की ओर लौटने लगे। मुग़ल सेना ने उनका पीछा किया। चित्तौड़ के भीतर पहुँच कर राजपूत सेना ने फिर एक बार मुग़लों का सामना किया। सूर्य-द्वार के बाहर विस्तृत भूमि पर दोनों ओर के सेनिकों का घमासान युद्ध हुआ। राजपूत॒ सैनिकों की संख्या अब बहुत थोड़ी रह गयी थी। फिर भी शेष राजपुतों ने तलवारों की भयानक मार की और मुगल सैनिकों को पीछे हटने के लिए उन्होंने मजबूर कर दिया। यह अवस्था बहुत थोड़ी देर रही और मुगल सैनिकों ने पीछे हट कर राजपुतों पर गोलियों की मार आरम्भ की। बात की बात में खडगधारी राजपूत बहुत से मारे गये और जो बाकी रहे, वे इधर उधर भाग कर निकल गये। मुगल सेना ने भागे बढ़कर चित्तौड़ के किले पर अधिकार कर लिया। और इस प्रकार चित्तौड़ पर अकबर का आक्रमण सफल हुआ।
चित्तौड़ की रक्षा करने के लिए पंडोली के इस युद्ध में तीस हजार
राजपुत मारे गये। युद्ध के बाद विजयी मुगल सेना ने चित्तौड़ में प्रवेश किया और बाहर से लेकर भीतर तक उसने सर्वत्र अपना अधिकार कर लिया। चित्तौड़ की पराजय के पश्चात् सभी राजपूत राजाओं के साहस टूट गये। अब ऐसा कोई हिन्दू नरेश न रह गया जो अपनी स्वाधीनता के लिए मुगल-सम्राट अकबर के साथ युद्ध करता। इसलिए जो राजा अब तक बाकी थे उनको पराजित कर लेना अकबर के लिए कुछ भी कठिन न रह गया। अनेक राजाओं ने स्वयं अकबर के पास आकर आत्म समर्पण किया और अनेक राजाओं को आसानी के साथ जीतकर मुग़लों के राज्य में मिला लिया गया। चित्तौड़ के इस विध्वंस के बाद अनेक शताब्दियाँ बीत चुकी हैं। उस राज्य का गौरव इस युद्ध के बाद क्षत-विक्षत हो गया था। शेष रह गया था, केवल बलिदान होने वालों का पुणय-प्रताप और कायरों का पाप मिश्रित अपराध। अपनी कायरता के कारण उदयसिंह ने जिस अपराध का प्रदर्शन किया था, उसका कलंकित चित्र भारत के इतिहास से कभी मिटाया नहीं जा सकता। और जयमल तथा पत्ता ने चित्तौड़ की स्वाधीनता के लिए जिस प्रकार अपने प्राणों के बलिदान किये थे, उनके द्वारा उन वीरात्माओं को मिलने वाला प्रमरत्व कभी भुलाया नहीं जा सकता। पंडोली का यह युद्ध 1567 ईसवी में हुआ था। इसके बहुत दिनों के बाद फ्राँसीसी यात्री वन्तियर ने भारत का पर्यटन किया था। उसने 1663 ईसवी में चित्तौड़ का भ्रमण किया था और लिखा था :— “चित्तौड़ में प्रवेश करने के बाद इस समय वहाँ पर देखने के योग्य कुछ नहीं है, सिवा इसके कि सिंहद्वार के दोनों ओर हाथियों की दो प्रस्तर मूतियाँ हैं और उनमें एक पर जयमल की मूर्ति है और दूसरे पर पत्ता की। स्वाधीनता और स्वाभिमान की रक्षा के लिए उन दोनों शूरवीरों ने जिस साहस और शोर्य से काम लिया था, उससे प्रभावित होकर बादशाह अकबर ने जो उन दोनों का शत्रु था उन दोनों की मूतियों की प्रतिष्ठा करायी थी, जिनको देखकर आज भी उनके बलिदानों की स्मृतियाँ ताजी हो जाती हैं।” जयमल ओर पत्ता ने घोड़ों पर चढ़कर युद्ध किया था, लेकिन अकबर के द्वारा उनकी मूर्तियों का निर्माण हाथियों पर किया गया था।