निऑन गैस के बढ़ते हुए उपयोग ने इसकी महत्ता को बढा दिया है। विज्ञापन हेतु भिन्न रंग के जो चमकदार ट्यूब उपयोग में आते है, वे प्राय: इसी गैस से भरे रहते हैं। यह गैस वायुमंडल में पाई जाती है, पर इसकी मात्रा इतनी कम है कि उसको सरलता से विलग नहीं किया जा सकता। यह वायु के लगभग 65,000 आयतन में केबल एक भाग उपस्थित रहती है। फिर भी इसकी अपनी विशेषता है, जो दूसरे तत्वों में नही है। विज्ञान की उन्नति के साथ-साथ हमने अन्धकार पर विजय पाने के साधनों के बारे में भी उन्नति की है। प्रतिदीप्त ट्यूब के आविष्कार ने तो कमाल
ही दिखा दिया है। निऑन गैस की महत्ता का कारण भी इसी प्रकार के ज्योर्तिमय टयूब हैं।
Contents
निऑन गैस की खोज
निऑन गैस की खोज का श्रेय रैमजे तथाट्रेवर्स को है, जिन्होंने सन् 1898 में वायु में वायु से ऑक्सीजन और नाइट्रोजन को अलग करके विरल गैसों का मिश्रण प्राप्त किया। इस गैस के मिश्रण को द्रवीभूत करके पुन: आसवन करने पर एक ऐसा अंश
प्राप्त हुआ,जिसका नाम निऑन (अर्थात् नवीन) रखा गया।
निऑन गैस अपनी उच्च विद्युत संवाहकता तथा उच्च उत्सर्जन शक्ति के कारण बहुत महत्वपूर्ण है। इस गैस में से जब विद्युतधारा प्रवाहित की जाती है, तब यह उपरोक्त गुण प्रदर्शित करती है और 5 मिलीमीटर दाब के आसपास विद्युत विसर्जन के प्रति अत्यधिक सुग्राही है। इस गैस का दूसरा विशेष गुण यह है कि अधिक विभव वाली विद्युत ऊर्जा द्वारा इसका आयनीकरण हो जाता है। यदि टयूब मुहरबंद हो और उसमें अल्पमात्रा में पारा भी हो, तो ट्यूब उद्दीप्त हो जाती है। इसी कारण निऑन गैस का उपयोग गैसीय संवाहक लैम्पों में, जो विज्ञापन तथा प्रतिदीष्ति के लिए काम में आते है, में किया जाता है। इस प्रकार के लैम्पो में कभी-कभी अन्य गैसें अथवा गैसों का मिश्रण भी उपयोग में आता है, परंतु साधारण रूप में इन्हें निऑन ट्यूब के ही नाम से पुकारा जाता है।
ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाए, तो गैसीय संवाहक लैम्पों में विरल गैसों का उपयोग सर्वप्रथम नहीं किया गया। सन् 1904 से सन 1910 तक ऐसे ट्यूब में नाइट्रोजन अथवा कार्बन डाई ऑक्साइड का उपयोग किया जाता था और ये ट्यूब प्रदीष्ति के मूर ट्यूब के नाम से विख्यात थे। सन् 1910 में क्लाड नामक एक फ्रांसीसी वैज्ञानिक ने नियोन गैस युक्त इस प्रकार के टयूब का उपयोग विज्ञापन हेतु किया था। निऑन से भरे ट्यूबों ने अपनी उच्च विद्युत संवाहकता और अपने स्थायित्व के कारण सभी प्रकार के लैम्पों का स्थान ले लिया। 1930 के अंत तक ही अमेरिका में तो 50 प्रतिशत बल्ब चिह्न निऑन टयूब द्वारा विस्थापित हो गए थे। निऑन ट्यूब उद्योगों ने शीघ्रता से उन्नति की।
नियोन ट्यूब अथवा गैसीय संवाहक लैम्प प्राय: कांच के बने हुए होते हैं, जिनमें कम दाब पर निऑन गैस अथवा इसके साथ अन्य गैस का मिश्रण रहता है। इलेक्ट्रोड का उपयोग किया जाता है, जिनके बीच में विद्युत धारा प्रवाहित होने से गैस ज्योर्तिमय हो जाती है। गैसीय संवाहक लैम्प प्राय: दो प्रकार के होते हैं।
ऋणात्मक उद्दीप्त लैम्प, जिनमें इलेक्ट्रोड एक दूसरे के समीप रहते हैं। इनमें ऋणात्मक इलेक्ट्रोड द्वारा जो गैस घिरी रहती है, उससे तुरन्त प्रकाश उत्सर्जन होता है। दूसरे प्रकार के धनाग्र उद्दीप्त लैम्प होते हैं, जिनमे इलेक्ट्रोड एक दूसरे से काफी दूरी पर रहते हैं, जैसा कि चिह्न ट्यूब में दिखाया गया है। इस प्रकार के उद्दीप्त ट्यूबों में प्रकाश एक विशेष बिंदु से धनाग्र के पास से ऋणाग्र तक उत्सर्जित होता है। इसके अतिरिक्त कैथोड (ऋणाग्र) को उच्च ताप अथवा कम ताप तक गर्म करने के आधार पर उन दोनो प्रकार के उद्दीप्त लैम्पीं का पुनः वर्गीकरण क्रमशः गरम ऋणाग्र अथवा शीत ऋणाग्र में किया जाता है। चूँकि गर्म इलेक्ट्रोड शीत इलेक्ट्रोड की अपेक्षा इलेक्ट्रॉवन अधिक शीघ्रता से उत्सर्जित करता है। अतः गरम ऋणाग्र लैंप शीत ऋणाग्र लैम्पों की अपेक्षा कम विद्युत दाब पर कार्यान्वित होते हैं।
व्यापारिक चिह्न ट्यूब प्रायः एक कांच की नली, जो आवश्यकतानुसार आकार की बनी होती है, के दोनों सिरों पर इलेक्ट्रोड मुहरबंद कर दिए जाते हैं और इसमें विरल गैस को भी भर दिया जाता है। प्रायः उपयोग में आने वाली गैसों में निऑन
प्रमुख है पर इसके अतिरिक्त ऑर्गन, हीलियम आदि विरल गैसे उपयोग में लाई जाती हैं। ऐसे टूयूबों में अल्पमात्रा में आवश्यकतानुसार पारे (मरकरी) का भी उपयोग किया जाता है। इस गैस अथवा वाष्प से विद्युत धारा प्रवाहित होती है, जो प्रकाश की उद्दीप्ति का कारण होती है। प्रकाश की प्रकृति भरी हुई गैस पर निर्भर करती है।
इस चिह्न ट्यूब अथवा उद्दीप्त ट्यूबों में भी समय के अनुसार उन्नति हुई है। सर्वप्रथम सरल प्रकार के निऑन ट्यूब का आविष्कार हुआ, जिसमे लाल रंग का प्रकाश होता था। इसके उपरान्त विभिन्न रंग प्राप्त करने हेतु मरकरी की अल्प मात्रा का उपयोग निऑन ट्यूब में किया जाने लगा। मरकरी वाष्प निऑन के रंग को ढक कर नीले रंग का प्रकाश उत्पन्न करता है। लेकिन पारे का इस प्रकार उपयोग शीतकाल में संतोषजनक न था, क्योंकि मरकरी वाष्प के संघनित होने का भय रहता था, जिसके कारण नीला रंग भी हल्का पड जाता था। इस रंग के हल्के
पड़ने को रोकने के लिए निऑन तथा ऑर्गन गैस के मिश्रण के साथ मरकरी का उपयोग किया जाने लगा तथा अत्यधिक शीत के लिए इस मिश्रण मे हीलियम गैस भी मिलायी जाने लगी। हीलियम गैस के मिश्रण से विद्युत प्रतिरोध बढ़ जाता है और ट्यूब अधिक ताप पर कार्यान्वित हो सकता है।
हरा प्रकाश पाने के लिए ट्यूब में विरल गैसों के मिश्रण के साथ पारे का उपयोग ऐसी कांच की नली में किया जाना आवश्यक था, जो यूरेनियम कांच अथवा ऐम्बर रंग की हो। इस प्रकार के ट्यूब नीले रंग को शोषित करके हरे रंग का प्रकाश देते हैं। निम्न सारिणी से यह स्पष्ट हो जाएगा कि किस प्रकार का प्रकाश किस गैंस तथा कैसे कांच से किस दाब पर प्राप्त किया जा सकता है।

प्रतिदीप्त नली
आधुनिक समय में जो गैसीय ट्यूबों मे विशेष उन्नति हुई है, वह ट्यूब की भीतरी दीवार में एक प्रतिदीप्त पदार्थ का लेप कर देने के कारण प्रतिदीप्त नलियों की है। प्रतिदीप्त पदार्थ वे होते हैं, जो प्रकाश उत्सर्जित करते हैं। उदाहरणार्थ पराबैंगनी प्रकाश जो अदृश्य प्रकाश होता है, जब प्रतिदीप्त पदार्थों पर पड़ता है तो ऐसा प्रकाश उत्सर्जित होकर दिखाई देने लगता है। इन प्रतिदीप्त पदार्थों का चिह्न ट्यूब में भीतर दीवार पर लेप कर दिया जाता है, जिससे नेत्रों को आकर्षित करने वाला तथा अधिक तीव्रता वाला उद्दीप्त प्रकाश प्राप्त होता है। प्रतिदीप्त पदार्थों” को, जिन्हें फोस्फॉर कहा जाता है और जिनका उपयोग इन चिह्न ट्रयूबों में किया जाता है तथा जो रंग उत्पन्न होता है, उनके नाम नीचे दिए हुए हैं।
फोस्फॉर। रंग
कैल्शियम टंगस्टेट नीला
मैगनीशियम टंगस्टेट नीला-श्वेत
पिंक सिलिकेट हरा
जिक बेरीलियम सिलिकेट पीला-श्वेत
कैडमियम सिलिकेट पीला गुलाबी
कैडमियम बोरेट गुलाबी
इस प्रकार विभिन्न विरल गैसीय मिश्रण लेकर और विभिन्न प्रकार के कांच तथा उन पर अनेक प्रकार के फोस्फॉर पदार्थों का लेप करके अनेक प्रकार के रंगों का प्रकाश प्राप्त किया जा सकता है। विशेष प्रकार के मिश्रण से ऐसे भी प्रतिदीप्त
ट्यूब निर्मित किए जाते हैं, जिनका प्रकाश दिन के प्रकाश के समान होता है। इन ट्यूबों का विशेष लाभ यह है कि इनसे देदीप्यमान रंग के साथ तीव्र ज्योति प्राप्त होती है और इन ट्यूबों को किसी भी आकार तथा विस्तार में ढाला जा सकता है।
इन ट्यूबों में अधिक विद्युत ऊर्जा प्रकाश में परिणत होती है, जिससे कम लागत पर का तीव्र प्रकाश मिल जाता है और इनका उपयोग दीर्घकाल तक किया जा सकता है।
आज कल इन निऑन ट्यूबों का विज्ञापन के लिए अधिकता से उपयोग किया जाने लगा है। इसके अतिरिक्त निऑन ट्यूब का उपयोग विद्युतीय क्षेत्र तथा इंजीनियरी में भी किया जाता है। उच्च वोल्टता परीक्षक, परिचायक तड़ित चालक निरोधक आदि में भी अनेक प्रकार के ज्योतिर्मय ट्यूबों का, जिसमें निऑन गैस होती है उपयोग किया जाता है। इसका उपयोग सुरक्षा साधनों में भी किया जाता है। चिंगारी प्लग परीक्षक के रूप में निऑन ट्यूब का उपयोग आटोमोबॉइल इंजन में खराबी की जानकारी के लिए किया जाता है। जब ट्यूब तीव्रता से उद्दीप्त रहते हैं, तब स्पार्क प्लग टेस्टर उचित अवस्था में कार्य करता है और जब वह अन्धकारमय रहता है तो किसी खराबी का कारण होता है। टेलीविजन के क्षेत्र में भी निऑन ट्यूब उपयोगी सिद्ध हुए हैं।
निऑन लैम्प का उपयोग कृषि क्षेत्र में भी बड़ा आश्चर्यजनक है। प्रकाश की तरंग-लंबाई का प्रभाव विशेष रूप से क्लोरोफिल के निर्माण पर पड़ता है, अतः इन लैम्पों का उपयोग पौधों की वृद्धि के लिए उद्दीपक के रूप में भी किया जाता है। इन सभी उपयोगों से हमें विदित होता है कि वायुमण्डल मे अल्प मात्रा में पायी जाने
वाली यह निऑन गैस कितनी चमत्कारी है।